Friday, November 14, 2014

मांझी के बयानों के पीछे नीतीश की चुनावी चाल ?

मांझी के साथ नीतीश
(पीछे शाहिद अली, श्याम रजक, नीतीश मिश्रा)
 साल भर बाद बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं। नीतीश कुमार तीसरी बार पार्टी को सत्ता दिलाने के लिए रात दिन एक किए हुए हैं। लोकसभा चुनाव में हार के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़कर नीतीश ने पार्टी को मजबूत करने का अभियान शुरू किया। लेकिन नीतीश ने अपनी जगह जिन जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया उनके बयानों की वजह से उनके अभियान को धक्का लगता दिख रहा है। पार्टी के अंदर मांझी के बयानों की वजह से भारी नाराजगी है। मांग मांझी को मुख्यमंत्री के पद से हटाने तक की हो रही है। लेकिन क्या मांझी जो बोल रहे हैं वो सब अपने मन से ही बोल रहे हैं?
बिहार की राजनीति और नीतीश कुमार को करीब से समझने वाले ये मान रहे हैं कि मांझी के इन विवादित बयानों को नीतीश का आशीर्वाद मिला हुआ है। (वैसे नीतीश को लेकर सीधे तौर पर तो नहीं लेकिन अगले चुनाव में नेतृत्व को लेकर उन पर भी हमला बोल चुके हैं ) मांझी जब से सीएम बने हैं तब से ही वो रोज कोई न कोई ऐसा बयान दे देते हैं जिसका बचाव करना पार्टी के लिए संभव नहीं हो पाता। बहुत दिनों से नीतीश और मांझी के बीच विवाद की खबर चल रही थी। लेकिन पिछले हफ्ते मांझी नीतीश के घर गए और करीब दो घंटे तक दोनों के बीच बातचीत हुई। अटकलें लग रही थी कि कथित तौर पर नाराज नीतीश ने मांझी को फटकार लगाई और ऐसे विवादित बयान नहीं देने को कहा। सरकार के कामकाज को लेकर भी दोनों में चर्चा हुई। लेकिन इस बैठक के बाद लोगों को जो दिख रहा है उसमें मांझी के न तो बयान पर लगाम लगी है और ना ही सरकार के कामकाज के तरीकों में कोई सुधार दिख रहा है। उल्टे मांझी और ज्यादा जितना उनसे हो सकता है उतना आक्रमक तरीके से जातीय राजनीति को उभार देने में जुटे हैं।
कहा जा रहा है कि नीतीश ने मांझी को मिशन दलित वोट बैंक पर लगा रखा है। और नीतीश के इशारे पर ही ऐसा बयान मांझी दे रहे हैं। 12 नवंबर को वाल्मिकीनगर की सभा में सवर्ण विदेशी वाला जो बयान उन्होंने दिया था उस पर नीतीश ने एक लाइन की सफाई नहीं दी। नीतीश ने पत्रकारों से कहा कि उन्हें अपना काम करने दीजिए। मांझी के इस बयान को लेकर जेडीयू के सवर्ण विधायकों में भारी नाराजगी देखी जा रही है। अनंत सिंह, सुनील पांडे, नीरज कुमार सिंह, संजय झा जैसे नेता मांझी के खिलाफ खुलकर मीडिया में बोलने लगे हैं । लेकिन मांझी कैबिनेट की शोभा बढ़ा रहे एक भी सवर्ण मंत्री ने एक शब्द कुछ नहीं कहा है। सोशल मीडिया पर ललन सिंह, महाचंद्र सिंह, पीके शाही, नरेंद्र सिंह, रामधनी सिंह जैसे सवर्ण मंत्रियों की चुप्पी के पीछे नीतीश का दिमाग बताया जा रहा है। सोशल मीडिया पर ये लिखा जा रहा है कि नीतीश के कहने पर ही मंत्री मांझी के खिलाफ इस मसले पर बोल नहीं रहे हैं। क्योंकि नीतीश बिहार की राजनीति को एक बार फिर से बैकवार्ड-फॉरवार्ड में बांटना चाहते हैं।
अगर इसमें सच्चाई है तो फिर कहा जा सकता है कि नीतीश बिहार की राजनीति को नब्बे के दशक में ले जाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। तब लालू और नीतीश साथ हुआ करते थे। दलित चेहरे के तौर पर जनता दल के पास रामविलास पासवान थे। मंडल की राजनीति को लालू और नीतीश ने तब खूब भुनाया था। इसी राजनीति के तहत लालू पंद्रह साल तक बिहार की सत्ता में बने रहे। नीतीश और लालू साथ आकर एक बार फिर उसी राजनीति की ओर लौटने की तैयारी कर रहे हैं। अब तक सवर्ण वोट बीजेपी की वजह से नीतीश को मिलता रहा है। नीतीश को बखूबी मालूम है कि भूमिहार, ब्राह्मण और कायस्थ वोट उसे थोक भाव में नहीं मिलने वाले। राजपूत वोट को लेकर शुरू से बिहार में तस्वीर साफ नहीं रही है। राजपूत लालू को भी उतनी ही ताकत से वोट करते हैं जितना की एनडीए को। वैश्य वोट बीजेपी के साथ है। कोइरी वोट भी नीतीश से दूर जा चुका है। दलित राजनीति को जगाकर उन्हें अपने पक्ष में चट्टान की तरह जोड़ने की नीति पर नीतीश आगे बढ़ रहे हैं। लोकसभा चुनाव में बिहार में हिंदू-मुस्लिम का ध्रुवीकऱण होने से नीतीश को नुकसान हुआ था। इसलिए माना जा सकता है कि नीतीश अभी से ही बिहार में जातीय राजनीति को उभारना चाहते हैं। ताकि मुस्लिम और बैकवार्ड-दलित वोट के जरिए मोदी की राजनीति को मात दिया जा सके।
लोकसभा चुनाव में हार के बाद लालू और नीतीश जब साथ आ रहे थे तब उन्होंने मंडल का नारा बुलंद किया था। लालू ने कहा था कि एक बार फिर मंडल की राजनीति को कमंडल के खिलाफ आगे बढ़ाएंगे। लालू और नीतीश मांझी के जरिए शायद उसी राजनीति को आगे बढ़ाने में जुटे हैं।
लेकिन बिहार की राजनीति को लेकर एक हकीकत और भी है। नीतीश अब भी लोगों के जेहन में हैं। नीतीश के कामकाज और प्रशासनिक क्षमता की हर वर्ग में तारीफ होती है। नीतीश अगर लालू से हाथ नहीं मिलाते तो सवर्ण समुदाय का एक बड़ा हिस्सा उनके पक्ष में वोट कर सकता था। लेकिन नीतीश को शायद इस राजनीति पर यकीन नहीं है। नीतीश को ये मालूम है कि मांझी के खिलाफ बोलने वाले सवर्ण नेता अपने दम पर चुनाव जीतते हैं इसलिए उनके खिलाफ कुछ बोलने की जरूरत नहीं है। नीतीश ये भी मान कर चल रहे हैं कि सवर्ण समाज में उनकी स्थिति पहले वाली नहीं रह गई है। फॉरवार्ड वोटर चुनाव में एनडीए को वोट करेंगे। हां जिन सीटों पर उनकी पार्टी सवर्ण उम्मीदवारों को उतारेगी वहां सवर्ण वोटर दुविधा में रहेंगे। इसका फायदा उन सीटों पर जेडीयू को हो सकता है।
नीतीश को राजनीति का चाणक्य कहा जाता है। जोड़ तोड़ और गुणा गणित में वो माहिर माने जाते हैं। लोकसभा चुनाव में उनके बस का कुछ नहीं था ये वो जानते थे। मोदी से राजनीतिक विवाद को उन्होंने व्यक्तिगत विवाद में बदल दिया। मांझी को सीएम बनाकर उन्होंने बड़ी ही बारीकी से अपनी अगली चाल चली। कहा जा रहा है कि एक तरफ मांझी के बयानों के जरिये वो विवाद खड़ा करवा रहे हैं तो दूसरी ओर ये कहलवा रहे हैं कि उनके और मांझी के रिश्ते ठीक नहीं है। एक चाल से नीतीश दो जगह आगे बढ़ रहे हैं। अपनी पार्टी के सवर्ण नेताओं और कार्यकर्ताओं को ये संदेश दे रहे हैं कि उनके बयानों से उनका कोई लेना देना नहीं है तो दूसरी ओर बंद कमरे में दो घंटे तक मांझी को आगे की प्लानिंग समझा रहे हैं। बयानों की वजह से विवाद अब इतना ज्यादा हो चुका है कि शरद यादव को सार्वजनिक तौर पर कहना पड़ रहा है कि बयान देने से बचें। विधायक दल में विवाद बढ़ा तो बहुत मुमकिन है कि मांझी को हटना पड़े। हालांकि इसका नुकसान नीतीश को होगा ये सबको पता है ।
सरकार को मांझी के बयानों के हवाले कर नीतीश अभी संपर्क यात्रा पर हैं। सभाओं में नरेंद्र मोदी ही नीतीश के निशाने पर है। कैबिनेट विस्तार को लेकर भी नीतीश ने मोतिहारी में बीजेपी पर हमला बोला। नीतीश ने कल ब्राह्मण और वैश्य समुदाय को उकसाने के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल में इन दोनों जाति के नेताओं को प्रतिनिधित्व नहीं दिये जाने का मुद्दा उछाल दिया। हालांकि अश्विनी चौबे का नाम वो भूल गये और बार बार दुबे जी दुबे जी कहते रहे। अपनी ओर से नीतीश मजबूती के लिए हर तरह की कोशिश कर रहे हैं। इस रणनीति से एक ओर जहां नीतीश दलित-पिछड़ों की गोलबंदी करना चाह रहे हैं वहीं अपनी छवि की बदौलत सवर्ण वोटरों को भी अपना शुभचिंतक बनाये रखना चाहते हैं।
लेकिन इन बातों में अगर सच्चाई नहीं है तो फिर सवाल ये है कि क्या मांझी नीतीश के गले ही हड्डी बन गये हैं। मांझी सीएम के लिए नीतीश कुमार की ही पसंद थे। अगली बार के विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी ने पहले ही तय कर ऱखा था कि नीतीश ही नेता होंगे। लेकिन मांझी कभी कभी नेतृत्व को लेकर भी विवादित बयान देते रहे हैं। एक बार उन्होंने गया में कहा था कि अगला सीएम भी गया का ही होगा। नीतीश पटना के हैं ऐसे में सीधी सी बात ये है कि नीतीश के नेतृत्व को लेकर उन्होंने सवाल उठाये थे। दलितों की सभा में उन्होंने एक बार ये भी कहा था कि आप एकजुट रहे तो अगला सीएम भी आपके समाज का ही होगा। हो सकता है कि इस तरह के बयानों के जरिये वो दलित समुदाय को पार्टी के साथ जो़ड़ने का काम क रहे थे लेकिन इन बयानों का दूसरा मतलब उनकी महत्वकांक्षा से भी जोड़ा जा सकता है। पार्टी में मांझी को लेकर बड़ी नाराजगी है। नीतीश कब तक ये नाराजगी झेल पाएंगे कहा नहीं जा सकता, क्योंकि बयानों की वजह से नीतीश को पार्टी टूटने का खतरा भी उठाना पड़ सकता है। शरद यादव खेमा मांझी से पहले से ही नाराज है। अब मांझी कब तक सीएम की कुर्सी पर हैं देखिए।  



Monday, November 10, 2014

लालू-नीतीश को चुनौती दे पाएंगे मोदी के महारथी?

बिहार चुनाव से ठीक साल भर पहले मोदी सरकार ने बिहार में अपने जातीय आधार वाले वोट बैंक को साधने की कोशिश तो की है लेकिन ये कोशिश कारगर हो पाएगी कह पाना मुश्किल है । पहले से चार मंत्री थे । इस बार तीन नए मंत्रियों को जगह देकर मोदी ने राजपूत, भूमिहार और यादव वोटरों को साधने की कोशिश की है । इन तीनों को मंत्री मूल रूप से चुनावी फायदे के लिए बनाया गया है । लेकिन तीनों को ऐसे विभाग नहीं दिये गये हैं जिसका फायदा चुनाव में वोट के तौर पर होने की उम्मीद हैं ।
गिरिराज, रूडी, रामकृपाल यादव

 राजपूत जाति के राजीव प्रताप रूडी वाजपेयी सरकार में स्वतंत्र प्रभार के राज्यमंत्री हुआ करते थे । दस साल बाद भी रूडी को राज्यमंत्री ही बनाया गया है । विभाग ऐसा दिया गया है जिसे कम अहमियत वाला कहा जा सकता है । स्किल डेवलपमेंट मंत्री बनाकर रूडी को मोदी ने अपने मेक इन इंडिया वाले मिशन से जोड़ा तो जरूर है लेकिन इसका वोट के तौर पर कैसे फायदा उठाया जाएगा इसको लेकर सवाल उठ सकते हैं । राजपूत जाति के राधामोहन सिंह पहले से कृषि मंत्री के तौर पर कैबिनेट में हैं । बिहार में राजपूत वोटरों की संख्या करीब 5 फीसदी हैं। लेकिन दबंग जाति होने की वजह से इस समुदाय के लोग करीब आठ से दस फीसदी वोट पर प्रभाव रखते हैं । बिहार की राजनीति को जानने वाले जानते हैं कि राजपूत वोट जितना एनडीए को मिलता है उससे कम लालू को भी नहीं मिलता । ऐसे में मोदी की कोशिश कतनी कारगर होगी देखने वाली बात होगी ।
 भूमिहार जाति के गिरिराज सिंह पहली बार नवादा से सांसद बने हैं । मोदी के पक्ष में खुलकर बोलने और मुखर होने का उन्हें फायदा तो जरूर मिला है । लेकिन लघु उद्योग जैसा मंत्रालय देकर मानो उन्हें सेट कर दिया गया है । गिरिराज सिंह से बड़े कद के भी भूमिहार नेता बिहार में हैं । लेकिन गिरिराज को आगे करके एक दबंग छवि पेश करने की कोशिश की गई है । बिहार में
करीब 4 फीसदी भूमिहार वोटर हैं । इस समुदाय के लोग एनडीए के परंपरागत वोटर रहे हैं । लेकिन पिछले दिनों हुए विधानसभा उपचुनाव में नीतीश ने इस जाति के उम्मीदवार को टिकट देकर बीजेपी के आधार वोट में सेंध लगा दिया था । माना जाता है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में पहली बार मोदी ने बिहार के किसी भूमिहार नेता को मंत्री नहीं बनाया जिसका नुकसान उपचुनाव में हुआ था । उस चुनाव में पार्टी ने गिरिराज सिंह या फिर बाकी भूमिहार नेताओं का ,सही इस्तेमाल भी नहीं किया था । अब गिरिराज को मंत्री बनाकर बिहार-झारखंड के भूमिहारों को खुश करने की कोशिश भले ही की गई हो लेकिन कम महत्व वाले मंत्रालय का अपना साइड इफेक्ट भी है । इससे पहले वाजपेयी सरकार में भूमिहार कोटे से सीपी ठाकुर मंत्री बनाये गये थे । उस वक्त भी पहली बार में किसी भूमिहार को मंत्री नहीं बनाने की गलती वाजपेयी ने की थी जिसका नुकसान उन्हें तब के उपचुनाव में उठाना पड़ा था . बाद में हुए विस्तार में सीपी ठाकुर को स्वास्थ्य मंत्री की जिम्मेदारी दी गई ।
 रामकृपाल यादव को स्वच्छता और पेयजल राज्यमंत्री बनाय़ा गया है । रामकृपाल वही नेता हैं जो कभी लालू के साथ साये की तरह रहते थे । चार बार सांसद बने लेकिन लालू ने कभी उन्हें मंत्री नहीं बनने दिया । इस बार बीजेपी ने उन्हें मंत्री बनाकर लालू के प्रभाव वाले यादव वोटरों को तोड़ने का जिम्मा दिया है । हालांकि इन्हें भी वैसा मंत्रालय नहीं दिया गया है जिसे वोटरों के बीच भुनाया जा सके । रामकृपाल यादव पटना, हाजीपुर और आसपास के यादवों पर अच्छा प्रभाव रखते हैं । बिहार के 13-14 फीसदी यादव वोटरों में रामकृपाल जितना सेंध लगा पाएंगे बीजेपी के लिए वो बोनस ही होगा । वाजपेयी सरकार में हुकुमदेव नारायण यादव राज्यमंत्री और शरद यादव जेडीयू कोटे से कैबिनेट मंत्री हुआ करते थे ।
 
पासवान- रविशंकर
इन तीन मंत्रियों के अलावा कायस्थ जाति के रविशंकर प्रसाद, राजपूत जाति के राधामोहन सिंह, दलित कोटे से सहयोगी लोकजनशक्ति पार्टी के रामविलास पासवान और पिछड़े कोटे से सहयोगी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के उपेंद्र कुशवाहा सरकार बनने के समय ही मंत्री बन गये थे । उपेंद्र कुशवाहा को बिहार में नीतीश का विकल्प बनाने के लिए बीजेपी उन्हें आगे कर रही है । कुशवाहा उस कोइरी जाति के नेता हैं जिस पर अब तक नीतीश की पकड़ मानी जाती रही है । कहने के लिए राज्यसभा सांसद धर्मेंद्र प्रधान भी बिहार से ही मंत्री है हालांकि वो हैं ओडिशा के रहने वाले ।
 नीतीश की पार्टी छोड़कर राजनीतिक और स्थानीय कारणों से जो नेता बीजेपी में नहीं जा सकते वो विधानसभा चुनाव से पहले उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी में जा सकते हैं । ऐसे करीब तीन दर्जन विधायक तो अभी ही तैयार बताये जाते हैं । चुनाव आते आते ये संख्या 50 से ज्यादा भी हो सकती है । कुशवाहा की पार्टी का जन्म उसी समता पार्टी और जनता दल यू से हुआ है जिसके  संस्थापक जॉर्ज फर्नांडिस रहे हैं ।
 वाजपेयी सरकार के वक्त बिहार (झारखंड नहीं) से सीपी ठाकुर (भूमिहार), शत्रुघन सिन्हा(कायस्थ) राजीव प्रताप रूडी (राजपूत), रविशंकर प्रसाद (कायस्थ ), शाहनवाज हुसैन, हुकुमदेव नारायण यादव, मुनिलाल (दलित )जेडीयू-समता कोटे से जॉर्ज फर्नांडीस, नीतीश कुमार(कुर्मी ), शरद यादव, रामविलास पासवान (बाद में अलग हुए ), दिग्विजय सिंह (राजपूत)मंत्री हुआ करते थे ।  2004 में जब सरकार चली गई तो ये तमाम नेता बिहार में जाकर टिक गये । नतीजा हुआ कि 2005 में पार्टी विधानसभा का चुनाव जीत गई और सरकार भी बनी । अब एक बार फिर बीजेपी ने जातीय दांव चला है ये दांव कितना कारगर हो पाता है वो तो आने वाला वक्त बताएगा ।

फिर एक होगा जनता परिवार

कहते हैं कि समाजवादी कभी एक साथ नहीं रह सकते लेकिन इन दिनों मोदी के खिलाफ जो मुहिम चल रही है उसमें तमाम समाजवादी अस्तित्व बचाने के लिए एक झंडे के नीचे आने को तैयार दिख रहे हैं। 1989 में जिस बीजेपी के सहयोग से जनता दल की सरकार बनी थी अब टुकड़ों में बंट चुके वही जनता दल के नेता बीजेपी के खिलाफ एक होने की तैयारी कर रहे हैं। असल में मोदी के लहर ने इन समाजवादियों को सड़क पर ला दिया है । अब इनको लगने लगा है कि मोदी के बढ़ते प्रभाव को इस वक्त साथ आकर न रोका गया तो फिर सदा के लिए सत्ता की दुकानदारी बंद हो जाएगी।
मुलायम के घर बैठक
बिहार में अगले साल विधानसभा के चुनाव होने हैं इसलिए नीतीश कुमार की बेचैनी समझी जा सकती है। लोकसभा में सिर्फ 2 सीटों से संतोष करने और ज्यादातर सीटों पर जमानत गंवाने के बाद नीतीश विधानसभा के लिए कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। पार्टी के भीतर अपनों से ही घिर चुके नीतीश नहीं चाहते कि किसी भी कारण से लालू उनसे छिटके। क्योंकि बगैर लालू के नीतीश का बिहार में अब गुजारा नहीं होने वाला। जिस तरीके से बिहार में सीट समझौते को लेकर आरजेडी और जेडीयू में अभी से विवाद चल रहा है उससे आने वाले दिनों में दोनों दलों की परेशानी और बढ़ सकती है। शायद यही वजह है कि नीतीश जनता परिवार को एकजुट करने की रणनीति पर आगे बढ़ रहे हैं। ताकि लालू पर साथ रहने का दबाव बना रहे।
मुलायम के घर जो भी नेता जुटे थे वो सब जनता दल के जमाने में साथ रह चुके हैं। सभी अपने अपने इलाके के दिग्गज हैं। लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद सभी की हालत पतली हो चुकी है। मुलायम जहां सिर्फ परिवार के पांच सदस्यों को संसद भेज सके वही नीतीश बिहार में दो सीटों पर सिमट गए। लालू भी चार के आंकड़े पर अटके तो देवगौड़ा भी दो से ऊपर नहीं उठ पाए। इन नेताओं का अपने अपने इलाके में प्रभाव अब भी है लेकिन दूसरे के इलाके में कोई कुछ नहीं कह सकता । ऐसे में साथ आकर भी ये लोग कुछ बहुत बड़ा कर लेंगे ऐसा लगता नहीं है । सवाल ये भी है कि इनकी ये एकता कब तक टिकी रहेगी ।
असल में समाजवादी नेताओं में इगो इतना ज्यादा होता है कि कभी वो एक साथ ज्यादा वक्त तक रह ही नहीं सकते। यहां तो हर कोई क्षत्रप ही है। इतिहास को देखे तो समाजवादियों के साथ रहने का इतिहास ज्यादा लंबा नहीं रहा है।
1988 में जनता दल बना था और चंद्रशेखर, वीपी सिंह, देवीलाल साथ आए थे। अगले साल 1989 में बीजेपी के सहयोग से देश में सरकार भी बनी । लेकिन कुछ महीने बाद ही देवीलाल से तत्कालीन अध्यक्ष एस आर बोम्मई का विवाद हुआ और देवीलाल चंद्रशेखर ने 54 सांसदों के साथ मिलकर जनता दल को तोड़ दिया
5 नवंबर 1990 को चंद्रशेखर ने देवीलाल के साथ मिलकर समाजवादी जनता पार्टी बना। इसके बाद कांग्रेस के सहयोग से चंद्रशेखर पीएम भी बन गये। तब देवगौड़ा, मुलायम भी चंद्रशेखर के साथ थे।
इसके बाद फिर 4 अक्टूबर 1992 को चंद्रशेखर की पार्टी में भी सेंध लग गई।  मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी के नाम से अपनी अलग पार्टी बना ली।
21 जून 1994 को फिर एक बार जनता दल में विभाजन हुआ। पार्टी के 14 सांसद जॉर्ज फर्नांडींस के नेतृत्व में जनता दल से अलग हो गये। नाम पड़ा जनता दल (ज),31 अक्टूबर 1994 को जनता दल (ज) का नाम समता पार्टी रख दिया गया।
1996 में जब केंद्र में जनता दल के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चे की सरकार थी तब अध्यक्ष के सवाल पर लालू और शरद आमने सामने आ गए। 5 जुलाई 1997 को जनता दल में एक और विभाजन हुआ और लालू के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनता दल का गठन हुआ
1997 में बीजेपी से तालमेल को लेकर पार्टी ओडिशा में भी टूट गई। ओडिशा के नेता बीजेपी से तालमेल के पक्ष में थे, लेकिन शरद यादव खेमा राजी नहीं था. नतीजा पार्टी टूटी और बीजू जनता दल बना।
1997 में ही कर्नाटक में भी पार्टी को झटका लगा। पार्टी के बडे नेता रामकृष्ण हेगडे ने लोक शक्ति के नाम से नई पार्टी बना ली।
1998 में समता पार्टी से अलग होकर ओम प्रकाश चौटाला ने अपनी नई पार्टी आईएनएलडी का गठन कर लिया। 1991 से 1998 तक चौटाला जनता दल, समाजवादी पार्टी जनता पार्टी होते हुए समता पार्टी के दरवाजे तक पहुंचे थे।
1999 के लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी से तालमेल को लेकर जनता दल फिर दो खेमों में बंटा । नतीजा हुआ कि बीजेपी के साथ नहीं जाने वाले नेताओं ने देवगौड़ा के साथ मिलकर जनता दल सेक्यूलर नाम से नई पार्टी बना ली। पार्टी तोड़ने के बाद देवगौड़ा असली जनता दल का दावा करते रहे। मामला  चुनाव आयोग में गया और फिर आयोग ने चुनाव चिन्ह चक्र को जब्त कर लिया। इसी विवाद के साथ जनता दल खत्म हो गया। न नाम बचा और न पार्टी। शरद यादव की पार्टी का नाम जनता दल यूनाइटेड पड़ा और देवगौड़ा की पार्टी का जनता दल सेक्यूलर।
1999 में जनता दल यू और समता पार्टी का विलय हो गया। दोनों दल के नेताओं ने तीर चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ा। लेकिन नतीजों के बाद एकता नहीं रही। अध्यक्ष के सवाल पर पार्टी फिर से जनता दल यू और समता पार्टी में बंट गई।
साल 2000 में जनता दल यू में एक और विभाजन हो गया। राम विलास पासवान चार सांसदों के साथ अलग हुए और लोक जनशक्ति पार्टी बनी।
2004 के चुनाव से पहले एक बार फिर जनता दल यू और समता पार्टी का विलय हो गया। जॉर्ज अध्यक्ष बने। शरद संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष, पार्टी का झंडा समता पार्टी के रंग का। लेकिन निशान जेडीयू का तीर। 2004 में लोकसभा चुनाव साथ लड़ा गया। नवंबर 2005 में पार्टी बिहार में सत्ता में आ गई। इस बीच जॉर्ज को साइड लाइन किया जाने लगा। अध्यक्ष पद के चुनाव में शरद यादव ने जॉर्ज को हरा दिया। जॉर्ज दरकिनार हो गये ।
 लेकिन अब यही तमाम नेता एक होने को तैयार दिख रहे हैं। लेकिन इतिहास गवाह है कि पद के लिए समाजवादी नेता साथ छोड़ने में मिनट भर की देरी नहीं करते।
आज भी जब जनता परिवार को एक करने की बात हो रही है तो रामविलास पासवान जैसे बड़े नेता बीजेपी के साथ हैं और सरकार में मंत्री हैं। उपेंद्र कुशवाहा भी खुद को जॉर्ज का असली उत्तराधिकारी मानते हुए बीजेपी के साथ हैं। ओडिशा में बीजू जनता दल सबसे मजबूत स्थिति में है लिहाजा उसके साथ आने के संकेत नहीं दिख रहे। अब अगर लालू-नीतीश-मुलायम-देवगौड़ा-चौटाला मिल जाते हैं तो इतने सारे सूरमा खुद को कैसे एडजस्ट करेंगे देखने वाली बात होगी।


Monday, August 25, 2014

अपनी करनी से बिहार में हारी बीजेपी

जंगल राज पार्ट टू का नारा उछालकर बीजेपी ने बिहार में नीतीश और लालू के खिलाफ जो माहौल बनाने की
कोशिश की थी उसमें वो कामयाब नहीं हो सके । बिहार में बीजेपी के लिए उपचुनाव के ये नतीजे किसी करंट के झटके से कम नहीं है । नरेंद्र मोदी के नाम और काम के दम पर कम, लालू और नीतीश की दोस्ती के खिलाफ ज्यादा बोलकर बीजेपी के नेताओं ने जीत की उम्मीद पाल रखी थी । जंगल राज आने का जो भय बीजेपी ने दिखाने की कोशिश की वो कामयाब नहीं हो सका। क्योंकि महागठबंधन की 6 में से 4 सीटों पर सवर्ण उम्मीदवारों ने जीत हासिल की । लालू-नीतीश -कांग्रेस गठबंधन ने 10 में से 4 सवर्ण उम्मीदवार उतारे थे । और चारों के चारों चुनाव में जीत गए । सवर्ण समुदाय को बिहार में बीजेपी का आधार माना जाता रहा है ।  महागठबंधन के टिकट पर सवर्ण उम्मीदवारों की जीत का एक मतलब तो ये है कि इस समुदाय के लोगों ने बीजेपी के चुुनावी प्रबंधन के खिलाफ नीतीश पर भरोसा जताया है ।  बाजेपी के कई उम्मीदवारों के हराने में भी सवर्ण वोटरों का योगदान रहा है।
                बीजेपी के लिए ये वक्त सिर्फ आत्मचिंतन का नहीं है। बल्कि बड़े बदलाव की जरूरत है। 
इन दस सीटों में से 6 सीटें बीजेपी के पास थी । पार्टी अपनी पुरानी चार सीटें भागलपुर, छपरा, जाले और मोहिउद्दीन नगर हार गई है । जबकि दो सीटें बांका और मोहनिया छीनने में कामयाब रही है । भागलपुर सीट पर तो बीजेपी का 1990 से लगातार कूब्जा था । लोकसभा चुनाव में शाहनवाज हुसैन को इस सीट से करीब 50 हजार वोटों की बढत मिली थी  यहां से विधायक चुने जाते रहे अश्विनी चौबे की चुनाव में सक्रिय भूमिका नहीं होना भी हार की एक वजह हो सकती है ।
छपरा सीट से तो लोकसभा चुनाव मे राजीव प्रताप रूडी को 40 हजार वोटों से राबड़ी देवी के खिलाफ बढत मिली थी । लेकिन तीन महीने में सारे समीकऱण फेल हो गये । ऐसा भी नहीं कि उम्मीदावर किसी और जाति का था । राजपूत बनाम राजपूत की लड़ाई में प्रभुनाथ सिंह के बेटे की जीत हुई । और बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा । जनार्दन सिंह सिग्रीवाल यहां से विधायक चुने जाते रहे हैं । चुनाव में परिवार के किसी सदस्य को टिकट नहीं मिलने की वजह से वो सक्रिय नहीं थे । चुनाव में संघ से जुड़े रहे सीएन गुप्ता ने शहरी वोट अपनी झोली में लेकर बीजेपी के उम्मीदवार को तीसरे नंबर पर धकेल दिया ।
मोहिउद्दीन नगर सीट पर पिछली बार राणा गंगेश्वर जीते थे । राणा चुनाव से पहले तक जेडीयू के किसान प्रकोष्ट के नेता थे । किसान समता के अध्यक्ष भी रह चुके हैं ।  लेकिन तालमेल में सीट बीजेपी के पास गई थी और फिर 2010 में बीजेपी के सिंबल पर गंगेश्वर सिंह जीत गये थे । इनके इस्तीफा देकर जेडीयू में जाने की वजह से ही यहां चुनाव हए । लोकसभा चुनाव में इस विधानसभा सीट से बीजेपी को 8 हजार वोटों से जीत मिली थी । लेकिन इस बार आरजेडी के अजय कुमार बुलगानिन 25 हजार से ज्यादा से जीत गए ।
नरकटियागंज और बांका में तो मामला अंतिम वक्त में हिंदू मुस्लिम का हो गया लिहाजा बीजेपी दोनों सीट निकालने में कामयाब रही । हाजीपुर में अवधेश पटेल की जीत में पार्टी से ज्यादा नीतीश विरोधियों का योगदान रहा ।
बीजेपी के हार की बड़ी वजह- 
- सवर्ण नेताओं की नाराजगी
- टिकट बंटवारे में मनमानी
- बिहार बीजेपी की आपसी लड़ाई
- कैडर को दरकिनार करना
-बड़े नेताओं का चुनाव को हल्के में लेना
- जातिगत समीकरण को दुरुस्त नहीं करना
- केंद्रीय मंत्रिमंडल में जाति विशेष की उपेक्षा
- बिहार के लिए केंद्र की ओर से कोई विशेष एलान नहीॆ
 बीजेपी के लिए हार की एक बड़ी वजह ये भी मानी जा रही है कि टिकट बंटवारे में पार्टी के स्थानीय बड़े नेताओं की नहीं सुनी गई । मसलन भागलपुर में अश्विनी चौबे, छपरा में जनार्दन सिंह सिग्रीवाल की पसंद को दरकिनार किया गया । जाले, राजनगर जैसी सीटों पर दूसरे दलों के लोगों को टिकट दे दिया गया । चुनाव में सुशील मोदी की खुलकर चली थी । बिहार की ये हार नीतीश और लालू के लिए जहां संजीवनी है वहीं बीजेपी के लिए आत्म मंथन का वक्त । चुनाव से पहले कई ऐसे कारण रहे जो इस हार की वजह बने । अंतिम वक्त में दूसरे दलों के नेताओं को टिकट देने का मामला हो या फिर लड़ाई को हल्के में लेना । लालू और नीतीश ने इस चुनाव को प्रतिष्ठा का विषय बना लिया था लेकिन बीजेपी वाले इसे लेकर गंभीर नहीं दिख रहे थे । चुनाव से पहले मुख्यमंत्री को लेकर जिस तरीके से बीजेपी में बयानबाजी हुई उसने भी वोटरों पर असर डालने का काम किय़ा । 
लालू और नीतीश गठबंधन के लिए हाजीपुुर में हार शुभ संकेत नहीं हो सकता। 1969 से लगातार इस सीट पर यादव जाति के विधायक चुने जाते रहे हैं। पहली बार बीजेपी के टिकट पर नीतीश के स्वजातिय उम्मीदवार की जीत हुई है। यादव बहुल हाजीपुर में यादव राज खत्म हुआ है। जाले में भूमिहार और ब्राह्मणों ने जेडीयू के ऋषि मिश्रा को वोट दिया। राजनगर में ब्राह्मणों ने आरजेडी को वोट दिया। परबत्ता में भूमिहारों ने जेडीयू उम्मीदवार को वोट दिया। इसलिए सुरक्षित भविष्य का सपना समझकर लालू और नीतीश को ज्यादा खुश होने की जररूत नहीं है। 
ऐसा नहीं है कि बीजेपी उपचुनाव हार गई है तो सब कुछ खत्म हो गया है। लालू और नीतीश के लिए भी खुश होने का वक्त थोडी देर के लिए ही है। लालू की तीन सीटें थी तीन ही मिली। नीतीश अपनी मोहनिया सीट हार गये। जिन दो सीटों पर उनको जीत मिली है उसमें बीजेपी अपनी करनी से हारी है। इसलिए ये संकेत नहीं हो
सकता कि 2015 का परिणाम भी ऐसा ही होगा। हां सुशील मोदी को लेकर पार्टा का एक बड़ा तबका मुखर हो
सकता है। सुशील मोदी की मनमानी और बीजेपी नेताओं का उप चुनाव को हल्के में लेना हार की  प्रारंभिक वजह लगती है। 

Friday, May 23, 2014

जंगल राज और सुशासन का कॉकटेल = ???????

File Photo
20 साल पहले 15 जुलाई 1994 को लालू यादव की वजह से जनता दल के 14 सांसद अलग हुए थे। जॉर्ज फर्नांडीस तब इनके नेता थे। पार्टी का नाम पड़ा जनता दल (ज) । इन नेताओं ने 31 अक्टूबर 1994 को पटना के गांधी मैदान में बिहार पुनर्निमाण रैली का आयोजन कर जनता दल (ज) का नाम समता पार्टी रखा। समता पार्टी का बिहार में गठन नीतीश के कुर्मी और मंजय लाल के कोइरी वोटबैंक को ध्यान में रखकर किया गया था। 5 फीसदी कुर्मी और 6 फीसदी कोइरी वोटबैंक के आधार पर नीतीश समता पार्टी के नेता प्रोजेक्ट हुए ।
1995 में बिहार में विधानसभा का चुनाव था और जनता दल पहली बार लालू को आगे कर चुनाव मैदान में थी। समता पार्टी यानी कुर्मी और कोइरी वोट के छिटकने के बाद माना जा रहा था कि लालू चुनाव में हार जाएंगे। नीतीश की पार्टी सभी 324 सीटों पर लड़ रही थी। खुद नीतीश दो जगह से मैदान में थे। नतीजे जब आए तो लालू के पक्ष में बैलेट बॉक्स से जिन्न निकल गया। लालू अपने दम पर चुनाव जीत गये। नीतीश की पार्टी 7 सीटों पर सिमट गई। इनमें से भी खुद नीतीश 2 सीटों पर चुनाव जीते थे। 1995 के चुनाव में विपक्ष बंटा हुआ था। कुर्मी-कोइरी वोट बैंक की अगुवाई नीतीश कर रहे थे तो राजपूत और सवर्ण के एक तबके का नेतृत्व उस वक्त आनंद मोहन के हाथ में था। वैश्य, शहरी और आदिवासी बहुल इलाकों में बीजेपी की पकड़ थी। ये तीनों लालू को चुनौती नहीं दे पाए थे।
                 जॉर्ज ने तब बिहार की राजनीति को समझते हुए बीजेपी से हाथ मिलाया। आनंद मोहन समता पार्टी में शामिल हो गए। 1996 के चुनाव में बीजेपी और समता पार्टी के गठबंधन ने चुनाव लड़ा। बिहार में पार्टी सीट तो ज्यादा नहीं जीत पाई लेकिन वोट बहुत मिले।
इसी दौर में लालू के खिलाफ चारा घोटाले का खुलासा हुआ था। तब 900 करोड़ का ये घोटाला देश का सबसे बड़ा घोटाला था। नीतीश और उनके लोग लालू के खिलाफ आंदोलन करते थे। नीतीश और लालू की सियासी दुश्मनी में नीतीश के सैकड़ों कार्यकर्ताओं की जान गई। पूर्णिया के पार्टी अध्यक्ष बूटन सिंह की हत्या, समस्तीपुर की सांसद रहीं अश्वमेघ देवी के पति प्रदीप महतो की हत्या, मुजफ्फरपुर के पार्टी अध्यक्ष अमलेंदू सिंह और प्रदेश सचिव शंभू सिंह की हत्या और न जाने नीतीश का झंडा ढोने वाले कितने लालू विरोधियों को मौत के घाट उतार दिया गया। मुजफ्फरपुर के साहेबगंज और देवरिया के इलाके में नीतीश समर्थक अपने घर में लालू के समर्थकों के डर से रहते नहीं थे । नक्सली और रणवीर सेना का खूनी खेल चलता था । बिहार में लालू का जंगल राज चल रहा था। पटना जैसे शहर में शाम होते होते सन्नाटा हो जाता था। इस दौर में लोग नीतीश में उम्मीद की किरण देख रहे थे।  
धीरे-धीरे बीजेपी और समता पार्टी का ये गठबंधन मजबूत होता गया। तब केंद्र में मंत्री रहे जॉर्ज वाजपेयी के संकट मोचन कहे जाते थे। साल 2000 में बिहार का बंटवारा हुआ और विधानसभा के जो चुनाव हुए उसमें बीजेपी और समता पार्टी ने बिहार में नीतीश को नेता प्रोजेक्ट किया। नीतीश की पार्टी बीजेपी की तुलना में छोटी पार्टी थी। फिर भी जॉर्ज ने नीतीश के नाम पर बीजेपी को राजी कर लिया। तब पासवान, नीतीश, बीजेपी और आनंद मोहन का गठजोड़ हुआ था।
                       जॉर्ज ने सपने में भी नहीं सोचा रहा होगा कि जिन नीतीश को वो आगे कर रहे हैं एक दिन वही नीतीश उनकी राजनीति को सड़क पर लाकर छोड़ेगे।
2000 के चुनाव में नीतीश को बहुमत तो नहीं मिला लेकिन राज्यपाल बीजेपी से रिश्ता रखने वाले थे सो नीतीश को सरकार बनाने का न्योता मिल गया। नीतीश पहली बार 7 दिन के लिए मुख्यमंत्री बने। हालांकि बहुमत साबित नहीं हुआ और राबड़ी फिर से मुख्यमंत्री बन गईं। नीतीश और जॉर्ज केंद्र में मंत्री थे। इस दौर में एक बार राबड़ी सरकार बर्खास्त भी की गई। लालू राबड़ी के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का केस भी चला। लालू और नीतीश की सियासी दुश्मनी चरम पर थी।
इस 6 साल में कई राजनीतिक घटनाएं हुई । जनता दल कई बार टूटा। अध्यक्ष के सवाल पर लालू अलग हो गये थे । लालू के अलग होने के वक्त शरद और रामविलास एक साथ थे लेकिन बाद में रामविलास भी अलग हो गये। जनता दल का चक्र चुनाव चिन्ह जब्त हो गया। देवेगौड़ा जनता दल एस के नेता हो गये। शरद यादव जनता दल यू के। शरद यादव और पासवान भी वाजपेयी सरकार में मंत्री बने। जनता दल यू का समता पार्टी में विलय हुआ। जॉर्ज अध्यक्ष बने और पार्टी रही जनता दल यू। लेकिन 2000 के विधानसभा चुनाव से पहले जनता दल यू और समता पार्टी फिर से अलग हो गई। 2004 के लोकसभा चुनाव में फिर से शरद यादव और जॉर्ज एक पार्टी में हो गए।
2005 के अक्टूबर महीने में हुए चुनाव में बीजेपी जेडीयू गठबंधन को बड़ी जीत मिली और नीतीश मुख्यमंत्री बने।
 5 साल में नीतीश सरकार ने बिहार की तस्वीर बदल दी। नीतीश की पहचान सुशासन बाबू के तौर पर होने लगी। बिहार में बदलाव दिख रहा था। लालू दिल्ली में सक्रिय थे। बिहार बिल्कुल बदलने लगा था। 2010 के चुनाव में तो नीतीश और बीजेपी गठबंधन को उम्मीद से ज्यादा सीटें मिली और लालू बिल्कुल खत्म हो गये। लालू के जेल जाने के बाद ये माना जा रहा था कि लालू की राजनीति खत्म हो गई है। लोकसभा चुनाव में मोदी की लहर चल रही थी। वोट मांगने पहुंच रहे नीतीश की पार्टी के नेताओं को लोग कह रहे थे कि मुख्यमंत्री का चुनाव नहीं हो रहा है जब पटना वाला चुनाव होगा तो आपकी पार्टी को वोट देंगे। इस बार मोदी की लहर है।
लेकिन नतीजों ने नीतीश को हिला कर रख दिया। सिर्फ 2 सीटों पर सिमटे नीतीश ने 17 मई को मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। दो दिनों तक ड्रामा चला और 19 मई को जीतन राम मांझी नये मुख्यमंत्री बने। नीतीश की पार्टी के पास बहुमत का टोटा नहीं था फिर भी लालू ने नीतीश की पार्टी की सरकार को समर्थन दे दिया। शरद यादव और केसी त्यागी जैसे नेता लालू के पक्ष में खुलेआम बयान दे रहे थे। 20 साल की दुश्मनी नरेंद्र मोदी की वजह से दोस्ती में बदल गई। जिस लालू की राजनीति का विरोध करके नीतीश यहां तक पहुंचे उसी राजनीति को नीतीश ने अपना अस्तित्व बचाने के लिए स्वीकार कर लिया।
कहते हैं राजनीति में कोई दोस्त या दुश्मन नहीं होता। लालू के साथ जितने लोग दस साल तक मंत्री थे उनलोगों ने नीतीश की सत्ता आने पर लालू को ठोकर मार दिया था। रमई राम, श्याम रजक या फिर आज के सीएम जीतन राम मांझी, स्पीकर उदय नारायण चौधरी जैसे लोग लालू-राबड़ी के राज में उनके लेफ्ट राइट हुआ करते थे। सिर्फ लालू की कमी रह गई थी सो अब नीतीश की पार्टी में वो कमी भी पूरी हो गई है। लेकिन उनका क्या जिन्होंने लालू-नीतीश की लड़ाई में अपना सबकुछ खोया... प्रदीप महतो की पत्नी अश्वमेघ देवी चुनाव हार चुकी हैं....लेसी सिंह मंत्री हैं जिनके पति बूटन सिंह की हत्या हुई थी....रामविचार राय के विरोध राजू सिंह देवरिया और साहेबगंज में राजपूतों को क्या कहेंगे... ऐसे सैकड़ों नेता और कार्यकर्ता हैं जिनके पैर के नीचे से नीतीश ने जमीन खींच ली है...देखिये आगे क्या होता है…..

Sunday, May 18, 2014

क्या कहता है नीतीश का नया दांव?

बिहार के नतीजों में नया कुछ नहीं था। नीतीश कुमार भी किसी मुगालते में नहीं थे। लेकिन उम्मीद कम नहीं हुई थी। 20 सीटों वाला जेडीयू 2 पर सिमट गया। तय था कि पार्टी में टूटफूट होती। नीतीश ने ही अपने मन से उम्मीदवार बांटे थे। शरद यादव के कहने पर सिर्फ सीतामढ़ी और खगड़िया में उम्मीदवार दिए गए। इसलिए यहां कोई सामूहिक जिम्मेदारी की बात भी नहीं थी। लिहाजा सवाल नीतीश की नेतृत्व क्षमता पर ही उठने थे ।
अभी तो सीएम की रेस में नंबर वन हैं वशिष्ठ ना. सिंह
नीतीश ने जो किया उसके पीछे उनका 2015 का पूरा प्लान दिख रहा है। नीतीश एक तीर से कई शिकार करने की तैयारी में हैं। इस्तीफा देकर सबसे पहले उन्होंने पार्टी में नेतृत्व को लेकर नेताओं पर मनोवैज्ञानिक दबाव बना दिया है। नीतीश अगर नया मुख्यमंत्री बनाते हैं तो फिर उनके पास डेढ़ साल का समय होगा बिहार में खुद को मजबूत करने का। नीतीश के करीबी सूत्रों से मेरी बात हुई तो उनका कहना है कि वशिष्ठ नारायण सिंह को नया सीएम बनाया जा सकता है और नीतीश पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनेंगे। वशिष्ठ नारायण सिंह राज्यसभा के सांसद हैं और अभी बिहार के अध्यक्ष। वशिष्ठ बाबू राजपूत जाति के हैं और नीतीश की कोर टीम के सदस्य हैं। इनके सीएम बनने से नीतीश राजपूत जाति के नरेंद्र सिंह जैसे मुखर विरोधी का मुंह बंद कर सकते हैं। और सरकार पर पूरा नियंत्रण भी कायम रहेगा। बाहर रहकर नीतीश अपने विरोधियों को आसानी से ठिकाने भी लगा सकते हैं। नई सरकार के जरिये नीतीश अपने विरोधियों को कैबिनेट से भी बाहर करेंगे और नए लोगों को मौका देंगे। अगर ऐसा नहीं होता है और नीतीश ही दोबारा सीएम बनते हैं तो वो और ज्यादा मजबूती से पार्टी में उभरेंगे । लिहाजा फैसले भी उसी हिसाब से लिये जाएंगे।
एक बात जो सबसे ज्यादा पुष्ट है वो ये कि नीतीश खेमा ने शरद यादव को साइड करने का फैसला कर लिया है । शरद यादव लालू के जरिये अपने लिए जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
 बिहार के आंकड़े को देखें तो 243 में से 2 सीटें अभी खाली हैं। 241 में से जेडीयू के पास स्पीकर सहित अपने 117 विधायक हैं। बीजेपी के पास 90 विधायक हैं। आरजेडी- 24, कांग्रेस-4, सीपीआई-1, निर्दलीय-5 । इनमें से जेडीयू के 2 विधायक पार्टी से अभी निलंबित हैं। फिर भी जेडीयू के पास अभी बहुमत की कमी नहीं दिख रही। अभी बहुमत के लिए जरूरी 121 विधायकों में से सरकार के पास 115+ cong 4+ निर्दलीय-5+ cpi 1 = 125 विधायक हैं। इनमें से निर्दलीय विधायकों के भागने की आशंका है। इसको सेट करने के लिए लालू को साथ लेने की बात हो रही है।
कहा जा रहा है कि लालू ने इसके लिए कुछ शर्तें रखी हैं। राबड़ी को राज्यसभा, मीसा को मंत्री, अब्दुल बारी सिद्दीकी को उपमुख्यमंत्री जैसी शर्तें रखी गई हैं। नीतीश को जरूरत है और लालू भी दिल्ली से लेकर पटना तक लुटे-पिटे हुए हैं। ऐसे में दोनों की जरूरतों के हिसाब से इनमें से ज्यादातर शर्तें मानी जा सकती हैं ।
लेकिन सवाल ये है कि इसका संदेश क्या जाएगा? तो एक बात जो सबसे साफ है वो ये कि नीतीश के पास अब गिने चुने वोट रह गये हैं। लालू और नीतीश के साथ आने से मुस्लिम साथ आएंगे, यादव, कुर्मी और अति पिछड़ों की एकजुटता होगी। सवर्णों में सेंधमारी के लिए वशिष्ठ सिंह के जरिये 5 फीसदी राजपूत वोटरों को जोड़ने की कोशिश होगी।
नीतीश, वशिष्ठ, विजय चौधरी
राज्यसभा सांसद वशिष्ठ नारायण सिंह बिहार के बक्सर के रहने वाले हैं। 1947 में बिहार के बक्सर में किसान परिवार में जन्मे वशिष्ठ नारायण सिंह ने जनता पार्टी से राजनीति की शुरुआत की। लालू की सरकार में मंत्री रह चुके हैं। जॉर्ज-नीतीश के साथ समता पार्टी में आए। 1994 में समता पार्टी बनने के बाद नीतीश बिहार में पहले अध्यक्ष थे । नीतीश जब 1996 में दिल्ली की राजनीति में सक्रिय हुए तो इन्हें बिहार का अध्यक्ष बनाया गया। पार्टी के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष भी रहे। 2010 के विधानसभा में जीत के बाद जब विजय चौधरी मंत्री बन गये तो नीतीश ने इन्हें बिहार का अध्यक्ष बनाया। तब से अध्यक्ष हैं।
सीएम की रेस में विजय चौधरी का नाम भी है जो भूमिहार जाति के हैं और नीतीश की कोर टीम के हैं। विजय सरायरंजन से विधायक भी हैं। लेकिन भूमिहार होने की वजह से इनकी उम्मीद न के बराबर है। नरेंद्र सिंह, विजेंद्र यादव जैसे नेता जनता दल बैकग्राउंड के हैं और शरद यादव के साथ पार्टी में आए थे लिहाजा इनका नंबर तो आने से रहा। ये लोग नीतीश की कोर टीम में नहीं हैं । 
जॉर्ज वाला हाल होगा शरद का?
नीतीश को लेकर पार्टी में सबसे ज्यादा नाराजगी आरसीपी सिंह की वजह से हैं। आरसीपी सिंह का कोई पॉलिटिकल बैकग्राउंड नहीं है फिर भी वो नीतीश की छाया बने हुए हैं। ललन सिंह के बाद आपरसीपी ही नीतीश के नंबर वन करीबी हैं। ट्रांसफर पोस्टिंग से लेकर टिकट बंटवारे में भी इन्हीं की सुनी जाती है। इन्हीं की वजह से आरोप लगते हैं कि नीतीश कुर्मी जाति के आरसीपी पर सबसे ज्यादा भरोसा करते हैं। ज्ञानेंद्र सिंह ज्ञानू, देवेश चंद ठाकुर जैसे पुराने सहयोगी इसी वजह से नीतीश से नाराज हैं। देवेश, शिवानंद तो पार्टी छोड़ चुके हैं। इस नए घटनाक्रम से कई नए समीकरण बनने वाले हैं। नीतीश-लालू से हाथ मिलाएंगे तो शरद यादव का हाल जॉर्ज वाला होने वाला है। बीजेपी अगर 50 से ज्यादा विधायकों को नहीं तोड़ेगी तब तक उसके लिए कुछ होने वाला नहीं है। नीतीश अपने दांव से बीजेपी को भी बेनकाब करना चाहते हैं। नी

Friday, May 16, 2014

लालू गए 'तेल' लेने, नीतीश का होगा 'खेल'

गूगल पर सर्च करके न्यूज चैनलों पर ज्ञान देने वाले तथाकथित ज्ञानियों के ज्ञान की सच्चाई सामने आ गई है। अब भी ऐसे बात कर रहे हैं जैसे जीतने वाला जीतकर कोई पाप कर रहा है। इन ज्ञानियों ने दो हफ्ते तक देश में कनफ्यूजन फैलाए रखा कि बिहार में लालू की हवा लौट आई है। नतीजों ने साफ कर दिया है कि लालू की हवा सिर्फ गूगल का ज्ञान लेकर बांटने वाले लोगों ने फैला रखा था। लालू का परफॉर्मेंस तो पिछला बार से भी बुरा रहा। गठबंधन के बाद भी लालू को सिर्फ 4 सीटें मिली हैं। कांग्रेस को 2 और एनसीपी 1 सीट पर जीती है। बीजेपी गठबंधन को 31 सीटें मिली है। दो सीटें जेडीयू के खाते में गया है। 

बीजेपी गठबंधन को करीब 39 फीसदी वोट मिले जबकि लालू गठबंधन को 29 फीसदी। नीतीश को 16 फीसदी वोट मिले हैं। नीतीश की हालत ऐसी है कि पार्टी 2 सीटें जीती और सिर्फ 4 जगहों पर दूसरे नंबर पर रही। बाकी जगहों पर आरजेडी और कांग्रेस के उम्मीदवार दूसरे नंबर पर रहे।
लालू की पार्टी को पिछली बार सारण, वैशाली, महाराजगंज और बक्सर की सीट मिली थी। इस बार चारों एनडीए को मिली हैं। लालू गठबंधन को सीटें सिर्फ सींमांचल और इसके आसपास के इलाकों से मिली है। आरजेडी के तस्लीमुद्दीन अररिया से, पप्पू यादव मधेपुरा से, भागलपुर से बुलो मंडल, बांका से जय प्रकाश यादव को जीते हैं। कांग्रेस की रंजीता रंजन सुपौल और असरारुल हक किशनगंज से जीते हैं। एनसीपी के तारिक अनवर कटिहार से जीते हैं। इसी सीमांचल के इलाके में से पूर्णिया की सीट जेडीयू को मिली है। सीमांचल को छोड़ दें तो पूरा बिहार एनडीए के रंग में रंगा है। सीमांचल के इलाके में ही मुस्लिम वोटरों की संख्या ज्यादा है। यादव भी अच्छी संख्या में हैं। यही वजह रही कि एनडीए के उम्मीदवार कम अंतर से ही सही यहां हार गए।
लालू ने नतीजों के बाद मोदी को बधाई देने से इनकार कर दिया। लालू का दर्द भी लाजिमी हैं। दर्द इसी से समझा जा सकता है कि बेटी मीसा भारती पाटलिपुत्र सीट से करीब 40 हजार और पत्नी राबड़ी देवी भी सारण से 40 हजार के आसपास वोटों से हारीं हैं। दिग्गज कहे जाने वाले आरजेडी के रघुवंश सिंह जो कि 1996 से लगातार जीत रहे थे उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा। प्रभुनाथ सिंह महाराजगंज से हार गए, जगदानंद की बक्सर में दुर्गती हो गई। मंत्री रहे रघुनाथ झा तीसरे नंबर पर चले गए।
जिस MY समीकरण के लहर की बात लालू के पक्ष में कही जा रही थी  उस यादव जाति के 4 उम्मीदवार बीजेपी से जीते हैं। राजपूत जाति के 6 उम्मीदवार बीजेपी से जीते हैं और एक एलजेपी से। 3 ब्राह्मण और 4 भूमिहार जाति के उम्मीदवार जीते हैं। कायस्थ जाति के 1 उम्मीदवार की जीत हुई है।  
लेकिन जिस तरीके के नतीजे लोकसभा के आए हैं उससे तो यही लगता है कि हो न हो जेडीयू के सांसद बीजेपी में विलय कर जाए। आरजेडी भी टूट जाए। क्योंकि इनके पास अब झक मारने के अलावा कोई काम नहीं रहने वाला। जेडीयू से जीते पूर्णिया के सांसद संतोष कुशवाहा बीजेपी के विधायक थे और चुनाव से पहले ही जेडीयू में गए थे। आरजेडी के जय प्रकाश यादव रामकृपाल के करीबी हैं।
बिहार में अगले साल विधानसभा के चुनाव होने हैं। फिलहाल बिहार की सरकार अल्पमत की सरकार है। हो न हो चुनाव से पहले ही बिहार में जेडीयू टूट जाए और टूटा धड़ा बीजेपी के साथ तालमेल कर विधानसभा का चुनाव लड़े। जेडीयू में दो दर्जन से ज्यादा असंतुष्ट विधायक पहले से थे। लोकसभा के नतीजों के बाद कुछ और होंगे जिनको अपना भविष्य दिख रहा होगा। शरद यादव जैसे दिग्गज नेता जो कि उनकी पार्टी के अध्यक्ष थे वही हार गए तो भला किसका क्या भविष्य होगा सोचने वाली बात है।
नीतीश मुस्लिम वोट के लिए छोड़कर गये थे लेकिन न तो मुस्लिमों का पूरा वोट ले पाए और ना ही अति पिछड़ों का। सवर्ण वोटर दूर जा चुके हैं। ऐसे में नीतीश के विधायक जरूर सोचने की स्थिति में होंगे। नरेंद्र सिंह, वृषण पटेल जैसे बड़े नेता तो टिकट बंटवारे को लेकर नीतीश के फैसले पर सवाल पहले ही उठा चुके हैं। दो चार दिन में बिहार की तस्वीर कुछ और साफ होगी तब तक इंतजार कीजिए। 

Friday, April 18, 2014

बिहार के बाहुबलियों का हाल जानिए

कई बाहुबली नेता तो मैदान में हैं ही कई बाहुबलियों की पत्नियां भी चुनावी अखाड़े में ताल ठोक रही हैं । जेल में बंद और उम्रकैद की सजा काट रहे शहाबुद्दीन की पत्नी हिना शहाब, पप्पू यादव की पत्नी रंजीता रंजन, आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद, सूरजभान की पत्नी वीणा देवी, मुन्ना शुक्ला की पत्नी अन्नू शुक्ला, रणवीर यादव की पत्नी कृष्णा यादव, बृज बिहारी की पत्नी रमा देवी चुनावी मैदान में उतरी हैं । इनके अलावा कई बाहुबली नेता भी मैदान में हैं ।
हीना शहाब, लवली आनंद, रंजीता रंजन
शिवहर की सांसद रमा देवी उन बृज बिहारी प्रसाद की पत्नी हैं जिनकी पटना के अस्पताल में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी । रमा देवी पहले लालू की पार्टी भी थी लेकिन पिछली  बार बीजेपी से जीती इस बार भी बीजेपी से मैदान में हैं । खुद रमा देवी पर 5 केस चल रहे हैं । शिवहर सीट से ही बाहुबली आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद समाजवादी पार्टी की उम्मीदवार हैं । आनंद मोहन अभी डीएम हत्याकांड में उम्रकैद की सजा काट रहे हैं । लवली एक बार  वैशाली से सांसद रह चुकी हैं। लवली पर अलग अलग जिलों में 5 केस दर्ज हैं । जिनमें लूट से लेकर हिंसा कराने तक के आरोप हैं ।
बाहुबली सूरजभान सिंह हत्या के केस में दोषी ठहराये जा चुके हैं । सूरजभान की पत्नी वीणा देवी मुंगेर से चुनाव लड़ रही हैं। वीणा पर कोई केस नहीं है। लेकिन पति सूरजभान सिंह की गिनती एक जमाने में बिहार के कुख्यात लोगों में होती थी। सूरजभान एक बार सांसद रह चुके हैं। बाहुबली मुन्ना शुक्ला जो कि डीएम और बृजबिहारी की हत्या के दोषी हैं उनकी पत्नी अन्नू शुक्ला वैशाली से निर्दलीय चुनाव मैदान में हैं। अन्नू पर भी एक केस चल रहा था । मुन्ना शुक्ला अभी जेल में हैं। अन्नू जेडीयू की विधायक है । 
 बाहुबली पप्पू यादव की पत्नी रंजीता रंजन कांग्रेस के टिकट पर सुपौल से लड़ रही हैं  । रंजीता पहले एलजेपी की सांसद रह चुकी हैं । 2009 तक रंजीता पर पांच केस चल रहे थे । रंजीता के  पति पप्पू यादव मधेपुरा से आरजेडी के उम्मीदवार हैं । पप्पू यादव एक केस में सजा पा चुके थे लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया । और इस बार वो शरद यादव के खिलाफ लड़ रहे हैं ।   पप्पू यादव पर दस साल पहले तक कुल 27 केस दर्ज थे । इनमें से हत्या के 3,  हत्या की कोशिश के 9 केस के अलावा फिरौती, अपहरण डकैती आर्म्स एक्ट के केस भी चल रहे थे ।
बाहुबली रामा सिंह वैशाली से लड़ रहे हैं । एलजेपी के उम्मीदवार हैं और पहले विधायक रह चुके हैं । रामा सिंह पर बिहार के अलावा छत्तीसगढ़ में भी केस दर्ज हो चुके हैं । हत्या. हत्या की कोशिश, अपहरण के मामलों में आरोपी हैं रामा सिंह । हाल ही में अवैध हथियार की खरीद में भी उनका नाम सामने आया था ।
बाहुबली मनोरंजन सिंह उर्फ धूमल सिंह अभी जेडीयू के विधायक हैं । धूमल महाराजगंज से जेडीयू के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं । विधायक बनने से पहले तक हत्या, हत्या की कोशिश सहित 18 केस इन पर दर्ज थे । धूमल महाराजगंज में प्रभुनाथ सिंह के खिलाफ लड़ रहे हैं । प्रभुनाथ सिंह पर दो केस चल रहे हैं । और प्रभुनाथ हत्या के केस में आरोपी हैं ।  पूर्वी चंपारण सीट से जेडीयू ने अवनीश कुमार को उतारा है । अवनीश बीजेपी के विधायक थे । चुनाव आयोग को 2010 में दिये हलफनामे के मुताबिक इन पर 5 केस दर्ज थे ।
शिवहर से आरजेडी ने पूर्व सांसद अनवारुल हक को टिकट दिया है । अनवारुल ने 2009 में चुनाव आयोग को जो हलफनामा दिया था उसके मुताबिक उनपर 8 केस चल रहे थे । हत्या की कोशिश से लेकर  ठगी, फिरौती और चोरी तक के आरोप हैं । तस्लीमुद्दीन को लालू ने अररिया से उतारा है । पूर्व मंत्री तस्लीमुद्दीन पर हत्या की कोशिश, फिरौती, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के साथ ही दंगा कराने के आरोप लग चुके हैं । 9 मुकदमे 80 के दशक से चल रहे हैं ।
नवादा से जेडीयू ने कौशल यादव को टिकट दिया है । विधायक कौशल यादव पर 8 केस चल रहे हैं । हत्या की कोशिश, ठगी, चोरी, आपराधिक साजिश रचने के आरोपी हैं । जहानाबाद से चुनाव लड़ रहे बिहार के पूर्व मंत्री सुरेंद्र यादव पर तो दो केस में आरोप तय हो चुके हैं ।

Monday, April 14, 2014

बिहार- पटना और मगध प्रमंडल के उम्मीदवारों को जानिए

पटना साहिब सीट से बीजेपी ने शत्रुघ्न सिन्हा को फिर से उतारा है । कायस्थ जाति के शत्रुघ्न 2009 में भी यहां से सांसद बने थे। कांग्रेस ने भोजपुरी अभिनेता कुणाल सिंह को उतारा है । कुणाल यादव जाति के हैं। जेडीयू ने  मशहूर डॉक्टर गोपाल सिन्हा को टिकट दिया है ।आम आदमी पार्टी की परवीन अमानुल्लाह यहां से उम्मीदवार हैं। कायस्थ, यादव, मुस्लिम, कुर्मी वोटर अच्छी संख्या में हैं ।
पाटलिपुत्र सीट से रंजन यादव फिर से जेडीयू के टिकट पर मैदान में हैं । रंजन 2009 में जीते थे। कभी लालू के नंबर दो रहे रंजन यादव लालू के सत्ता पतन के बाद नीतीश के साथ हो लिए । बीजेपी ने रामकृपाल यादव को उतारा है। रामकृपाल भी लालू के सबसे विश्वासपात्र हुआ करते थे। 30 साल तक लालू के साथ रहे । राज्यसभा के सांसद थे लेकिन लोकसभा लड़ने की चाहत  ने बीजेपी में पहुंचा दिया । आरजेडी से लालू की बेटी मीसा भारती मैदान में हैं । मीसा की वजह से ही रामकृपाल ने पार्टी छोड़ी है । तीनों यादव जाति के हैं । इस सीट पर यादव वोटर सबसे ज्यादा हैं । भूमिहार वोटर भी अच्छी संख्या में हैं ।
आरा से जेडीयू ने मीना सिंह को फिर से उतारा है । राजपूत जाति की मीना सिंह के पति पहले यहां से सांसद थे लेकिन सडक हादसे में उनकी मौत के बाद से मीना यहां से सांसद हैं । आरजेडी ने जेडीयू छोड़कर आए भगवान सिंह कुशवाहा को उतारा है । कोइरी जाति के भगवान सिंह समता पार्टी के जमाने से नीतीश के साथ थे। यूथ समता के अध्यक्ष रहे विधानसभा में विधायक दल के उपनेता भी रहे। लेकिन 2010 के नीतीश लहर में विधानसभा हार गये । नीतीश ने कहीं सेट नहीं किया तो अब लालू के साथ हो लिए । कम्युनिस्ट पार्टी से करियर की शुरुआत की थी । बीजेपी ने राजकुमार सिंह उर्फ आरके सिंह को उतारा है । आरके सिंह गृह सचिव रह चुके हैं और बिहार में आडवाणी  के रथ को रोकने का काम लालू के कार्यकाल में इन्होंने ही किया था ।
  नालंदा जो की नीतीश कुमार का गढ़ कहा जाता है । असल में नीतीश का नहीं बल्कि कुर्मी वोटरों का गढ़ है । नीतीश ने फिर से कौशलेंद्र कुमार को उतारा है ।जबकि कांग्रेस ने पूर्व डीजीपी आशीष रंजन सिन्हा को टिकट दिया है । दोनों कुर्मी जाति के हैं । बीजेपी एलजेपी गठबंधन से सत्यानंद शर्मा उम्मीदवार हैं । सत्यानंद शर्मा बढ़ई यानी ओबीसी हैं । इस सीट पर सबसे ज्यादा कुर्मी वोटर हैं ।
                                           बक्सर लोकसभा सीट से आरजेडी ने राजपूत जाति के अपने सांसद जगदानंद सिंह को फिर से उतारा है । जेडीयू ने श्याम लाल कुशवाहा को टिकट दिया है । श्यामलाल पहले बीजेपी में थे । कोइरी जाति के हैं। बीजेपी ने भागलपुर के रहने वाले अश्विनी चौबे को उतारा है । ब्राह्मण जाति के अश्विनी अभी विधायक हैं । बक्सर में ब्राह्मण, राजपूत वोटर अच्छी संख्या में हैं ।
                                        काराकट सीट से राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समता पार्टी के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा एनडीए से लड़ रहे हैं । उपेंद्र कुशवाहा पहले नीतीश के साथ थे । बिहार में विपक्ष के नेता रह चुके हैं । इस सीट से जेडीयू ने अपने सांसद महाबली सिंह को फिर से उतारा है। आरजेडी से पूर्व मंत्री कांति सिंह लड़ रही हैं ।  उपेंद्र और महाबली कोइरी हैं । कांति सिंह खुद यादव हैं लेकिन शादी कोइरी परिवार में हुई है । 
उपेंद्र कुशवाहा के साथ अरुण कुमार (बीच में दोनों)
               जहानाबाद से जेडीयू ने आम्रपाली ग्रुप के मालिक अनिल शर्मा को टिकट दिया है । एनडीए से अरुण कुमार है ।दोनों भूमिहार जाति के हैं । अरुण कुमार पहले समता पार्टी में नीतीश के साथ थे जहानाबाद से सांसद रह चुके हैं । अभी लोकतांत्रिक समता पार्टी के बिहार के अध्यक्ष हैं । आरजेडी ने बाहुबली नेता और पूर्व मंत्री सुरेंद्र यादव को उतारा है                                   
           नवादा सीट से बीजेपी ने गिरिराज सिंह को टिकट दिया है ।गिरिराज सिंह भूमिहार जाति के हैं । आरजेडी से राज बल्लभ यादव हैं। जेडीयू से विधायक कौशल यादव हैं।  ये दोनों यादव जाति के हैं । कौशल अभी विधायक हैं इनकी पत्नी भी विधायक हैं । दोनों पिछली बार निर्दलीय विधायक का चुनाव जीते थे । नवादा में भूमिहार, कोइरी और  यादव अच्छी संख्या में हैं ।
                                   गया से रामजी मांझी आरजेडी के बीजेपी से हरि मांझी और जेडीयू से जीतन राम मांझी उम्मीदवार हैं । सीट सुरक्षित हैं । तीनों एक ही जाति के हैं । जीतन राम बिहार में मंत्री हैं । हरि मांझी बीजेपी के सीटिंग एमपी हैं । रामजी मांझी भी सांसद रह चुके हैं । 
सूरजभान की पत्नी वीणा सिंह
 मिनी चितौड़गढ के नाम से मशहूर औरंगाबाद से कांग्रेस के टिकट पर निखिल कुमार सिंह मैदान में हैं। निखिल एक बार सांसद रहे हैं अभी केरल के राज्यपाल थे। पूर्व सीएम सत्येंद्र नारायण सिंह के बेटे है। पत्नी श्यामा सिंह भी सांसद रह चुकी हैं। निखिल दिल्ली के पुलिस कमिश्नर रह चुके हैं ।  बीजेपी ने जेडीयू से निकाले गये सुशील कुमार सिंह को टिकट दिया है । सुशील भी राजपूत जाति के हैं और यहां से सांसद हैं। बागी कुमार वर्मा कोइरी जाति के हैं। पहले बिहार में मंत्री रह चुके हैं । नीतीश ने जेडीयू से उतारा है 
                           मुंगेर से जेडीयू ने फिर से राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह को उतारा है। बीजेपी-एलजेपी गठबंधन से वीणा सिंह हैं। वीणा बाहुबली सूरजभान की पत्नी हैं। ये दोनों भूमिहार जाति के हैं। आरजेडी ने कोइरी जाति के प्रतीक मेहता को टिकट दिया है। प्रतीक पेशे से पत्रकार हैं । खगड़िया से जेडीयू ने दिनेश यादव को फिर से टिकट दिया है । आरजेडी ने बाहुबली नेता रणवीर यादव की पत्नी कृष्णा यादव को टिकट दिया है ।  कृष्णा यादव की बहन पूनम यादव जेडीयू की विधायक हैं । कृष्णा और पूनम दोनों बहनें ही रणवीर की पत्नियां हैं । एलजेपी ने कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे महबूब अली कैसर को टिकट दिया है ।

Saturday, April 5, 2014

बिहार - तिरहुत प्रमंडल के लोकसभा उम्मीदवारों को जानिए

पश्चिमी चंपारण जिले की वाल्मिकी नगर लोकसभा सीट से जेडीयू ने अपने वर्तमान सांसद वैद्यनाथ प्रसाद को फिर से टिकट दिया है । वैद्यनाथ प्रसाद कोइरी जाति के हैं। पहली बार नौतन से विधायक का चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे 2009 में पहली बार सांसद बने।
सतीश दुबे को बीजेपी से टिकट मिला है। ब्राह्मण जाति के सतीश नरकटियागंज से बीजेपी के विधायक हैं । फायर ब्रांड हिंदूवादी नेता की छवि है। 2005 में बीजेपी के टिकट पर विधायक बने । पहले शिवसेना में थे ।(चंद्रमोहन राय, आरएस पांडेय, दिलीप वर्मा जैसे दिग्गज नेताओं को पीछे छोड़ टिकट लेने में कामयाब रहे)                           
कांग्रेस के पूर्णमासी राम गोपालगंज से सांसद है । पहले बगहा से विधायक चुने जाते थे । लालू-राबडी सरकार में खाद्य आपूर्ति मंत्री हुआ करते थे । 2009 में गोपालगंज से जेडीयू ने टिकट दिया और गोपालगंज सुरक्षित सीट से जीत गए । जेडीयू से निकलने के बाद आरजेडी में जाना चाह रहे थे लेकिन कांग्रेस में चले गए और वाल्मीकि नगर से टिकट मिल गया .
रघुनाथ झा
पश्चिमी चंपारण यानी बेतिया सीट से बीजेपी ने पेशे से डॉक्टर संजय जायसवाल को फिर से टिकट दिया है। संजय जायसवाल के पिता प्रकाश जायसवाल भी यहां से सांसद हुआ करते थे। प्रकाश के निधन के बाद संजय इस सीट से सांसद बने।
 आरजेडी ने मैथिल ब्राह्मण जाति के रघुनाथ झा को टिकट दिया है । यहां से एक बार लालू की पार्टी से रघुनाथ झा सांसद रह चुके हैं । शिवहर के रहने वाले रघुनाथ झा 27 साल तक शिवहर से विधायक थे ।बिहार में सरकार किसी की भी हो रघुनाथ झा मंत्री जरूर रहते थे ।  दल बदल का इनका अपना रिकॉर्ड है । कांग्रेस से करियर की शुरुआत की. जनता दल, समाजवादी जनता पार्टी, आरजेडी, समता पार्टी, जेडीयू में रह चुके हैं । 1999 में गोपालगंज सीट से पहली बार लोकसभा चुनाव जीते थे । 2004 में बेतिया से एमपी बने और केंद्र में मंत्री बने । 2009 में वाल्मिकी नगर से हार गये थे ।
 जेडीयू ने फिल्मकार प्रकाश झा को टिकट दिया है । गंगाजल, अपहरण, राजनीति जैसी फिल्में बनाने वाले प्रकाश झा पिछली बार इसी सीट से एलजेपी के उम्मीदवार थे । 2009 में नहीं जीते इस बार नीतीश ने टिकट दिया है । प्रकाश झा भी मैथिल ब्राह्मण हैं ।
पूर्वी चंपारण यानी मोतिहारी लोकसभा सीट से बीजेपी ने राधा मोहन सिंह को फिर से टिकट दिया है । 1989 में पहली बार इस सीट से बीजेपी के टिकट पर चुने गए । बिहार में बीजेपी को स्थापित करने वाले नेताओं में से एक हैं । राजपूत जाति के राधामोहन छात्र राजनीति से ही संघ से जुड़े हैं । 4 बार के सांसद राधामोहन अभी बीजेपी अनुशासन समिति के अध्यक्ष हैं ।
आरेजेडी ने विनोद कुमार श्रीवास्तव को टिकट दिया है। विनोद लालू के पीए हैं। लालू की गैरमौजूदगी में दिल्ली में उनका काम विनोद ही देखते हैं। कायस्थ जाति के हैं। मोतिहारी में कायस्थ वोटरों की संख्या न के बराबर है लेकिन लालू ने रिस्क लिया है ।
 जेडीयू ने अवनीश कुमार सिंह को टिकट दिया है । भूमिहार जाति के अवनीश बीजेपी के विधायक थे । उस जमाने से बीजेपी में थे जब बिहार में बीजेपी की कोई पहचान नहीं थी । लेकिन राजनीतिक महत्वकांक्षा ने उन्हें बीजेपी से दूर कर दिया । पहले ढाका विधानसभा सीट से विधायक होते थे जहां उत्तर बिहार में मुस्लिमों की संख्या सबसे ज्यादा है । 2010 में इस सीट का नाम चिरैया हो गया था ।
शिवहर सीट से बीजेपी ने रमा देवी को फिर से टिकट दिया है । वैश्य जाति की रमा देवी 2009 में बीजेपी में शामिल हुई और लोकसभा का टिकट पाकर चुनाव जीत गईं । रमा देवी पहले आरजेडी में रह चुकी हैं और बाहुबली नेता रहे बृजबिहारी प्रसाद की पत्नी हैं जिनकी पीएमसीएच में हत्या कर दी गई थी ।
 आरजेडी ने अनवारुल हक को टिकट दिया है । अनवारुल हक एक बार शिवहर से ही सांसद रह चुके हैं । 2004 में बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़े और हार गये थे । 2009 में बीएसपी के टिकट पर लड़के दूसरे नंबर पर रहे । अनवारुल की छवि बाहुबली नेता की है । 2004 में स्टिंग ऑपरेशन को लेकर विवादों में रहे ।
आनंद मोहन के साथ लवली
 जेडीयू ने शाहिद अली खान को उम्मीदवार बनाया है । शाहिद अली खान बिहार में अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री हैं और पहले लालू के साथ भी रह चुके हैं । अभी सीतामढ़ी के सुरसंड से विधायक हैं । पिछले दिनों शाहिद अली खान पर आतंकियों से रिश्ता रखने के आरोप लगे थे जिसके बाद वो विवादों मे रहे । हालांकि नीतीश ने उन्हें क्लीन चिट दे दी थी ।
समाजवादी पार्टी से लवली आनंद मैदान में हैं । बाहुबली आनंद मोहन की पत्नी लवली 1994 में वैशाली से बिहार पीपुल्स पार्टी के टिकट पर सांसद रह चुकी हैं । राजपूत जाति के वोटरों पर लवली की अच्छी पकड़ है । पिछली बार कांग्रेस से लड़ी और हार गई । 
जगत जननी मां सीता की जन्म धरती सीतामढी से जेडीयू ने सांसद अर्जुन राय को फिर से उतारा है । औराई के रहने वाले यादव जाति के अर्जुन राय पहले बिहार में मंत्री थे । शरद यादव के करीबी रहे हैं । बिहार यूनिर्विसिटी में छात्र आरजेडी के अध्यक्ष हुआ करते थे । छात्र राजनीति करते हुए ही विधायक बने फिर सांसद ।
 आरेजेडी ने पूर्व सांसद सीताराम यादव को उतारा है । यादव जाति के वोटरों पर पकड़ मानी जाती है । लेकिन जीत का समीकरण इनके पक्ष में नहीं दिखता ।
एनडीए ने ये सीट उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समता पार्टी को दी है । अभी उम्मीदवार का एलान नहीं हुआ है । 
मुजफ्फऱपुर से आरजेडी ने पूर्व केंद्रीय मंत्री अखिलेश सिंह को टिकट दिया है । अखिलेश सिंह भूमिहार जाति के हैं । बिहार के अरवल के रहने वाले अखिलेश सिंह लालू के करीबी हुआ करते थे । 2004 में मोतिहारी से जीतकर सांसद बने और केंद्र में मंत्री भी । 2009 में कांग्रेस में गए और इस बार कांग्रेस के टिकट पर पड़ोस की मुजफ्फऱपुर सीट से लड़ रहे हैं ।
 बीजेपी ने अजय निषाद को टिकट दिया है । अजय पूर्व केंद्रीय मंत्री कैप्टन जयनाराय़ण निषाद के बेटे हैं । मल्लाह जाति के अजय की कोई अपनी राजनीतिक पहचान नहीं है । पिता के दम पर मैदान में हैं ।  हाजीपुर के रहने वाले कैप्टन निषाद 1996 में पहली बार सांसद बने थे । अभी जेडीयू में थे लेकिन पिछले महीने उन्हें पार्टी ने निकाल दिया था । बेटे को टिकट दिलाने की शर्त के साथ बीजेपी में गए ।
 जेडीयू ने विजेंद्र चौधरी को टिकट दिया है । जो पिछले महीने तक लोकजनशक्ति पार्टी में थे । एलजेपी का बीजेपी से समझौता हुआ और लोकसभा लड़ने की मंशा अधूरी रह गई । इसके बाद पार्टी बदलकर जेडीयू में चले गए।  वैश्य जाति के विजेंद्र चौधरी 1995 में पहली बार लालू की पार्टी से मुजफ्फऱपुर शहर से विधायक बने । 2010 तक इस सीट से विधायक का चुनाव जीतते रहे ।
 वैशाली सीट से आरजेडी ने पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह को उतारा है । रघुवंश सिंह राजपूत जाति के हैं । 1996 से जीतते आ रहे हैं । सीतामढ़ी के कॉलेज में गणित के प्रोफेसर थे । सांसद बनने से पहले बेलसंड से विधायक हुआ करते थे । मूल रूप से वैशाली के ही रहने वाले हैं ।
रामा सिंह
 एलजेपी ने रामा सिंह को टिकट दिया है । राजपूत जाति के रामा सिंह बाहुबली नेता हैं । वैशाली जिले के महनार से विधायक रह चुके हैं । 2010 में हार गये थे ।
 जेडीयू ने विजय सहनी को उतारा है । विजय सहनी मल्लाह जाति के हैं और कैप्टन जयनाराय़ण निषाद के रिश्तेदार हैं । जिले की लालगंज सीट से जेडीयू की विधायक अन्नू शुक्ला भी निर्दलीय मैदान में है । अन्नूमुन्ना शुक्ला की पत्नी हैं और भूमिहार जाति की हैं । इस सीट पर भूमिहार, राजपूत, मल्लाह, यादव वोटर सबसे ज्यादा हैं ।
 हाजीपुर सुरक्षित सीट से रामविलास पासवान एलजेपी के उम्मीदवार हैं । 2009 का चुनाव छोड़कर पासवान कभी नहीं हारे थे । 2009 में पूर्व मुख्यमंत्री रामसुंदर दास ने 88 साल की उम्र में जेडीयू से लड़कर पासवान को हरा दिया । 25 साल में सांसद बने पासवान दुसाध जाति के हैं और रेल मंत्री रह चुके हैं । 
 जेडीयू ने 93 साल के वयोवृद्ध नेता रामसुदंर दास को उतारा है । रामसुंदर दास बिहार के मुख्यमंत्री थे । लालू के उदय के बाद राजनीति के हाशिये पर चल रहे थे । लेकिन 2009 में नीतीश ने दास पर दांव लगाया और वो जीत गये । लोकसभा में पार्टी संसदीय दल के नेता हैं ।
 कांग्रेस ने पूर्व मंत्री संजीव प्रसाद टोनी को टिकट दिया है। बिहार कांग्रेस के उपाध्यक्ष हैं। 1980, 85, 90 में फुलवारीशरीफ से विधायक का चुनाव जीते । पिछला विधानसभा चुनाव हार गये थे ।