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मांझी के साथ नीतीश (पीछे शाहिद अली, श्याम रजक, नीतीश मिश्रा) |
बिहार की राजनीति और नीतीश कुमार
को करीब से समझने वाले ये मान रहे हैं कि मांझी के इन विवादित बयानों को नीतीश का
आशीर्वाद मिला हुआ है। (वैसे नीतीश को लेकर सीधे तौर पर तो नहीं लेकिन अगले चुनाव
में नेतृत्व को लेकर उन पर भी हमला बोल चुके हैं ) मांझी जब से सीएम बने हैं तब से
ही वो रोज कोई न कोई ऐसा बयान दे देते हैं जिसका बचाव करना पार्टी के लिए संभव
नहीं हो पाता। बहुत दिनों से नीतीश और मांझी के बीच विवाद की खबर चल रही थी। लेकिन
पिछले हफ्ते मांझी नीतीश के घर गए और करीब दो घंटे तक दोनों के बीच बातचीत हुई।
अटकलें लग रही थी कि कथित तौर पर नाराज नीतीश ने मांझी को फटकार लगाई और ऐसे
विवादित बयान नहीं देने को कहा। सरकार के कामकाज को लेकर भी दोनों में चर्चा हुई।
लेकिन इस बैठक के बाद लोगों को जो दिख रहा है उसमें मांझी के न तो बयान पर लगाम
लगी है और ना ही सरकार के कामकाज के तरीकों में कोई सुधार दिख रहा है। उल्टे मांझी
और ज्यादा जितना उनसे हो सकता है उतना आक्रमक तरीके से जातीय राजनीति को उभार देने
में जुटे हैं।
कहा जा रहा है कि नीतीश ने मांझी
को मिशन दलित वोट बैंक पर लगा रखा है। और नीतीश के इशारे पर ही ऐसा बयान मांझी दे
रहे हैं। 12 नवंबर को वाल्मिकीनगर की सभा में सवर्ण विदेशी वाला जो बयान उन्होंने
दिया था उस पर नीतीश ने एक लाइन की सफाई नहीं दी। नीतीश ने पत्रकारों से कहा कि
उन्हें अपना काम करने दीजिए। मांझी के इस बयान को लेकर जेडीयू के सवर्ण विधायकों में
भारी नाराजगी देखी जा रही है। अनंत सिंह, सुनील पांडे, नीरज कुमार सिंह, संजय झा
जैसे नेता मांझी के खिलाफ खुलकर मीडिया में बोलने लगे हैं । लेकिन मांझी कैबिनेट
की शोभा बढ़ा रहे एक भी सवर्ण मंत्री ने एक शब्द कुछ नहीं कहा है। सोशल मीडिया पर
ललन सिंह, महाचंद्र सिंह, पीके शाही, नरेंद्र सिंह, रामधनी सिंह जैसे सवर्ण
मंत्रियों की चुप्पी के पीछे नीतीश का दिमाग बताया जा रहा है। सोशल मीडिया पर ये
लिखा जा रहा है कि नीतीश के कहने पर ही मंत्री मांझी के खिलाफ इस मसले पर बोल नहीं
रहे हैं। क्योंकि नीतीश बिहार की राजनीति को एक बार फिर से बैकवार्ड-फॉरवार्ड में
बांटना चाहते हैं।
अगर इसमें सच्चाई है तो फिर कहा
जा सकता है कि नीतीश बिहार की राजनीति को नब्बे के दशक में ले जाने की रणनीति पर
काम कर रहे हैं। तब लालू और नीतीश साथ हुआ करते थे। दलित चेहरे के तौर पर जनता दल
के पास रामविलास पासवान थे। मंडल की राजनीति को लालू और नीतीश ने तब खूब भुनाया
था। इसी राजनीति के तहत लालू पंद्रह साल तक बिहार की सत्ता में बने रहे। नीतीश और
लालू साथ आकर एक बार फिर उसी राजनीति की ओर लौटने की तैयारी कर रहे हैं। अब तक सवर्ण
वोट बीजेपी की वजह से नीतीश को मिलता रहा है। नीतीश को बखूबी मालूम है कि भूमिहार,
ब्राह्मण और कायस्थ वोट उसे थोक भाव में नहीं मिलने वाले। राजपूत वोट को लेकर शुरू
से बिहार में तस्वीर साफ नहीं रही है। राजपूत लालू को भी उतनी ही ताकत से वोट करते
हैं जितना की एनडीए को। वैश्य वोट बीजेपी के साथ है। कोइरी वोट भी नीतीश से दूर जा
चुका है। दलित राजनीति को जगाकर उन्हें अपने पक्ष में चट्टान की तरह जोड़ने की
नीति पर नीतीश आगे बढ़ रहे हैं। लोकसभा चुनाव में बिहार में हिंदू-मुस्लिम का
ध्रुवीकऱण होने से नीतीश को नुकसान हुआ था। इसलिए माना जा सकता है कि नीतीश अभी से
ही बिहार में जातीय राजनीति को उभारना चाहते हैं। ताकि मुस्लिम और बैकवार्ड-दलित
वोट के जरिए मोदी की राजनीति को मात दिया जा सके।
लोकसभा चुनाव में हार के बाद
लालू और नीतीश जब साथ आ रहे थे तब उन्होंने मंडल का नारा बुलंद किया था। लालू ने
कहा था कि एक बार फिर मंडल की राजनीति को कमंडल के खिलाफ आगे बढ़ाएंगे। लालू और
नीतीश मांझी के जरिए शायद उसी राजनीति को आगे बढ़ाने में जुटे हैं।
लेकिन बिहार की राजनीति को लेकर
एक हकीकत और भी है। नीतीश अब भी लोगों के जेहन में हैं। नीतीश के कामकाज और
प्रशासनिक क्षमता की हर वर्ग में तारीफ होती है। नीतीश अगर लालू से हाथ नहीं
मिलाते तो सवर्ण समुदाय का एक बड़ा हिस्सा उनके पक्ष में वोट कर सकता था। लेकिन
नीतीश को शायद इस राजनीति पर यकीन नहीं है। नीतीश को ये मालूम है कि मांझी के
खिलाफ बोलने वाले सवर्ण नेता अपने दम पर चुनाव जीतते हैं इसलिए उनके खिलाफ कुछ
बोलने की जरूरत नहीं है। नीतीश ये भी मान कर चल रहे हैं कि सवर्ण समाज में उनकी
स्थिति पहले वाली नहीं रह गई है। फॉरवार्ड वोटर चुनाव में एनडीए को वोट करेंगे।
हां जिन सीटों पर उनकी पार्टी सवर्ण उम्मीदवारों को उतारेगी वहां सवर्ण वोटर
दुविधा में रहेंगे। इसका फायदा उन सीटों पर जेडीयू को हो सकता है।
नीतीश को राजनीति का चाणक्य कहा
जाता है। जोड़ तोड़ और गुणा गणित में वो माहिर माने जाते हैं। लोकसभा चुनाव में
उनके बस का कुछ नहीं था ये वो जानते थे। मोदी से राजनीतिक विवाद को उन्होंने
व्यक्तिगत विवाद में बदल दिया। मांझी को सीएम बनाकर उन्होंने बड़ी ही बारीकी से
अपनी अगली चाल चली। कहा जा रहा है कि एक तरफ मांझी के बयानों के जरिये वो विवाद
खड़ा करवा रहे हैं तो दूसरी ओर ये कहलवा रहे हैं कि उनके और मांझी के रिश्ते ठीक
नहीं है। एक चाल से नीतीश दो जगह आगे बढ़ रहे हैं। अपनी पार्टी के सवर्ण नेताओं और
कार्यकर्ताओं को ये संदेश दे रहे हैं कि उनके बयानों से उनका कोई लेना देना नहीं
है तो दूसरी ओर बंद कमरे में दो घंटे तक मांझी को आगे की प्लानिंग समझा रहे हैं।
बयानों की वजह से विवाद अब इतना ज्यादा हो चुका है कि शरद यादव को सार्वजनिक तौर
पर कहना पड़ रहा है कि बयान देने से बचें। विधायक दल में विवाद बढ़ा तो बहुत
मुमकिन है कि मांझी को हटना पड़े। हालांकि इसका नुकसान नीतीश को होगा ये सबको पता
है ।
सरकार को मांझी के बयानों के
हवाले कर नीतीश अभी संपर्क यात्रा पर हैं। सभाओं में नरेंद्र मोदी ही नीतीश के
निशाने पर है। कैबिनेट विस्तार को लेकर भी नीतीश ने मोतिहारी में बीजेपी पर हमला
बोला। नीतीश ने कल ब्राह्मण और वैश्य समुदाय को उकसाने के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल
में इन दोनों जाति के नेताओं को प्रतिनिधित्व नहीं दिये जाने का मुद्दा उछाल दिया।
हालांकि अश्विनी चौबे का नाम वो भूल गये और बार बार दुबे जी दुबे जी कहते रहे।
अपनी ओर से नीतीश मजबूती के लिए हर तरह की कोशिश कर रहे हैं। इस रणनीति से एक ओर
जहां नीतीश दलित-पिछड़ों की गोलबंदी करना चाह रहे हैं वहीं अपनी छवि की बदौलत
सवर्ण वोटरों को भी अपना शुभचिंतक बनाये रखना चाहते हैं।
लेकिन इन बातों में अगर सच्चाई
नहीं है तो फिर सवाल ये है कि क्या मांझी नीतीश के गले ही हड्डी बन गये हैं। मांझी
सीएम के लिए नीतीश कुमार की ही पसंद थे। अगली बार के विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी
ने पहले ही तय कर ऱखा था कि नीतीश ही नेता होंगे। लेकिन मांझी कभी कभी नेतृत्व को
लेकर भी विवादित बयान देते रहे हैं। एक बार उन्होंने गया में कहा था कि अगला सीएम
भी गया का ही होगा। नीतीश पटना के हैं ऐसे में सीधी सी बात ये है कि नीतीश के
नेतृत्व को लेकर उन्होंने सवाल उठाये थे। दलितों की सभा में उन्होंने एक बार ये भी
कहा था कि आप एकजुट रहे तो अगला सीएम भी आपके समाज का ही होगा। हो सकता है कि इस
तरह के बयानों के जरिये वो दलित समुदाय को पार्टी के साथ जो़ड़ने का काम क रहे थे
लेकिन इन बयानों का दूसरा मतलब उनकी महत्वकांक्षा से भी जोड़ा जा सकता है। पार्टी
में मांझी को लेकर बड़ी नाराजगी है। नीतीश कब तक ये नाराजगी झेल पाएंगे कहा नहीं
जा सकता, क्योंकि बयानों की वजह से नीतीश को पार्टी टूटने का खतरा भी उठाना पड़
सकता है। शरद यादव खेमा मांझी से पहले से ही नाराज है। अब मांझी कब तक सीएम की
कुर्सी पर हैं देखिए।
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