Wednesday, May 22, 2013

लौट के ललन घर को आए...


                                ललन सिंह लौट के नीतीश के करीब आ गये हैं । 2010 के जनवरी महीने में उन्होंने जेडीयू के बिहार प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया था। इसके बाद से वो बहुत दिनों तक पार्टी के खिलाफ काम करते रहे । बिहार नवनिर्माण मंच बनाकर राज्य भर में नीतीश विरोधियों को एकजुट करने की कोशिश तो की ही 2010 में जब बिहार विधानसभा का चुनाव हो रहा था तब ललन सिंह कांग्रेस के लिए प्रचार कर रहे थे । जिस गाड़ी में ललन सिंह प्रचार के लिए बेगूसराय, मुंगेर के इलाके में निकलते थे उस गाड़ी में कांग्रेस का झंडा लगा रहता था। लेकिन अब वही ललन सिंह फिर से नीतीश के खेमे में लौट आए हैं।
ललन और नीतीश एक साथ-पुरानी तस्वीर
                          आज लखीसराय में सेवा यात्रा के लिए दोनों एक ही हेलिकॉप्टर में गए थे। मंच पर दोनों के बीच सिर्फ विजय चौधरी थे। कल ललन सिंह ने अपने इंटरव्यू में कहा था कि गलतफहमी की वजह से दूरी बनी थी । अब दूर हो गई है और सब ठीक हो गया है। इंटरव्यू में ललन सिंह अलगाव के लिए खुद को दोषी मान रहे थे। जबकि लखीसराय में मंच पर नीतीश ने खुद को इसके लिए जिम्मेदार बताया। अब कौन कितना कम या ज्यादा जिम्मेदार है ये तो नहीं पता लेकिन दोनों जिम्मेदार हैं इसमें कोई शक नहीं है।
                           ललन सिंह आज नीतीश के साथ आ गये हैं तो इसके पीछे जरूर राजनीतिक सोच है। ऐसे ही नीतीश ललन को अपने पाले में नहीं लाए होंगे। जिस तरीके से बीजेपी और नीतीश के बीच दूरी बढ़ने की खबरें लगातार चर्चा में है उससे नीतीश जरूर परेशान चल रहे होंगे। हो सकता है भूमिहार वोटरों को संदेश देने की कोशिश के मद्देनजर उन्होंने ललन सिंह से हाथ मिलाया हो। माना जाता है कि बिहार की आबादी में करीब तीन साढ़े तीन फीसदी जो भूमिहार वोट है वो बीजेपी का आधार वोट है । बीजेपी से अलग होने की स्थिति में भूमिहार वोटर नीतीश से दूर जा सकते हैं । बहुत मुमकिन है कि नीतीश ऐसी किसी आशंका को हकीकत में बदलने से रोकने के लिए ललन को मना लाएं हों।
                           ललन सिंह की छवि वैसे तो मास भूमिहार नेता की नहीं रही है लेकिन नीतीश ने उन्हें अपने शुरुआती शासनकाल में स्थापित करने की जरूर कोशिश की थी। ललन सिंह भी चकबंदी कानून के खिलाफ खुलकर नीतीश के विरोध में खड़े हो गये थे। रणवीर सेना के मुखिया ब्रह्मेश्वर सिंह की हत्या के बाद आरा जाकर उन्होंने पिछले साल नीतीश को काफी भला बुरा भी कहा था। कुछ खास इलाकों में वोटरों में भले न सही लेकिन भूमिहार वोट को प्रभावित करने वाले नेताओं में उनकी पकड़ जरूर हो गई थी। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए प्रचार करने के बाद भले ही किसी को जीता न पाएं हो लेकिन अपने पसंदीदा कांग्रेसी उम्मीदवारों को वोट जरूर दिलवा दिया था।
नीतीश-ललन सिंह
 वैसे नीतीश सवर्ण वोटरों को लेकर चिंतित जरूर हैं। लखीसराय की सभा में आज भी ललन सिंह, विजय चौधरी, नरेंद्र सिंह, वशिष्ठ नरायाण सिंह जैसे सवर्ण भूमिहार-राजपूत नेताओं को ही उन्होंने खासी तवज्जो दी। बिहार में सवर्ण वोटरों की संख्या करीब 15 फीसदी है। लेकिन करीब तीस से चालीस फीसदी वोटरों को प्रभावित करने की क्षमता इसके नेता करते हैं। वैसे भी ललन अगर नीतीश के पास गए हैं तो जरूर कुछ न कुछ समझौता तो हुआ ही होगा।
        ये बात रही नीतीश को ललन सिंह के अपने करीब लाने की लेकिन ललन सिंह के भी नीतीश के करीब जाने की अपनी मजबूरियां हैं। ललन सिंह की बिहार में पहचान ही नीतीश की बदौलत थी। नीतीश से दोस्ती की वजह से ही उन्हें पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी मिली। समता पार्टी जब बनी थी तब वो पार्टी के लिए फंड का इंतजाम किया करते थे। बाद में 2005 में इन्हीं के नेतृत्व में बिहार में पार्टी को जीत मिली। सरकार बनने के बाद ताकत इतनी हो गई कि सुपर सीएम कहे जाने लगे थे। 2010 में नीतीश से दूर होने तक पार्टी के बिहार के अध्यक्ष हुआ करते थे। पहली बार 2004 में बेगूसराय फिर 2009 में मुंगेर से सांसद बने। लेकिन अगले चुनाव में जीत के लिए उन्हें नीतीश के पास आने के अलावा कोई और चारा नहीं था। वो खुद मान रहे हैं कि कांग्रेस की हालत देश भर में खराब है। ऐसे में राजनीतिक हालत को भांपकर उन्होंने नीतीश से हाथ मिलाने में ही भलाई समझी। (ललन सिंह ने चारा घोटाले में लालू के खिलाफ केस किया था)
                   नीतीश खुद राजनीति के चणक्य कहे जाते हैं । लेकिन राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह को नीतीश का चाणक्य कहा जाता है। 1986 से ही ललन सिंह और नीतीश कुमार की दोस्ती है। इस दौरान नीतीश कई बार सांसद रहे, केंद्र में मंत्री रहे, दो बार बिहार के मुख्यमंत्री बने लेकिन नीतीश से खटपट नहीं हुई । नीतीश पटना में ललन सिंह के घर पर ही रहा करते थे।  2009 में जब राबड़ी देवी ने प्रचार के दौरान नीतीश-ललन पर विवादास्पद टिप्पणी की थी तब भी दोनों ने मजबूती से एक दूसरे का साथ देकर राबड़ी पर हल्ला बोला था। 
राबड़ी देवी
लेकिन 2009 में लोकसभा चुनाव के बाद जब नीतीश ने अपने पुराने राजनीतिक करीबी उपेंद्र कुशवाहा को पार्टी में वापस लिया तो ललन नाराज हो गये। 2005 से लकेर 2009 तक बिहार में नीतीश कहने के लिए मुख्यमंत्री थे लेकिन बिना ललन सिंह की सलाह के कुछ नहीं होता था। न तो किसी ट्रांसफर और ना ही किसी की पोस्टिंग। लेकिन ललन के अध्यक्ष रहते उपेंद्र कुशवाहा को नीतीश बिना उनकी सहमति के ही जेडीयू में ले आए। ललन ने इसे तानाशाही फैसला और पार्टी में लोकतंत्र की कमी तक कहके अपना विरोध जताया था। हालांकि अब उपेंद्र कुशवाहा नीतीश का साथ छोड़ चुके हैं और बिहार में नीतीश के खिलाफ नई पार्टी बनाकर काम कर रहे हैं।                                         
उपेंद्र कुशवाहा
 कहा जा रहा है कि पिछले साल पटना में एक होटल के उद्घाटन के वक्त ललन और नीतीश की मुलाकात हुई थी। दोनों ने साथ में खाना भी खाया था। इसके बाद सुलह के संकेत मिलने लगे थे। हालांकि सुलह का रास्ता शर्तों के पूरा होने के बाद खुला। कहा जाता है कि पीके शाही जो कि नीतीश सरकार में मंत्री हैं उन्हें महाराजगंज से लोकसभा का टिकट देकर नीतीश ने ललन के कहने पर ही मुख्य धारा से साइड किया है। ललन सिंह के समर्थकों का कहना है कि पीके शाही ने नीतीश और ललन की दूरी को बढ़ाने में अहम रोल निभाने का काम किया था।
          ललन सिंह चुनाव मैनेज करने के माहिर खिलाड़ी माने जाते हैं। सोनिया गांधी के दरबार तक ललन सिंह की पहुंच है। अब देखना होगा कि ललन और नीतीश का ये मिलन देश और खासकर बिहार की राजनीति में क्या गुल खिलाता है। ललन के नीतीश के करीब आने से कई बड़े नेताओं का पत्ता साफ होना तय है। देखिये कब क्या होता है और अब कौन पुराना नेता नीतीश खेमे में आता है...

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