
बिहार में कुर्मी और कोइरी को एक दूसरे का पूरक माना जाता है। नीतीश कुमार कुर्मी बिरादरी से हैं। 1994 में जब जनता दल का विभाजन हुआ था और समता पार्टी बनी तो बिहार में लोग इसे कुर्मी-कोइरी की पार्टी कहते थे। हालांकि बिहार में कोइरी वोटरों की संख्या कुर्मी से ज्यादा है। दोनों मिलाकर करीब 11 फीसदी के आसपास है। कुर्मी 5 और कोइरी 6 फीसदी। नीतीश कुमार के राजनीतिक उदय से पहले कोइरी जाति के नेता बिहार की राजनीति में ज्यादा प्रभावशाली थे। 90 के दशक में
बिहार में कुर्मी के सबसे बड़े नेता हुआ करते थे सतीश कुमार इनके बाद वृषण पटेल(तब सीवान के सांसद) थे। 94 में बिहार में कुर्मी चेतना महारैली में नीतीश कुमार का उदय हुआ और सतीश कुमार की दुकानदारी पर नीतीश ने कब्जा कर लिया। तब से लेकर अब तक बिहार में कुर्मी जाति के सर्वमान्य नेता नीतीश कुमार ही हैं। नीतीश जब मजबूत हुए तो लालू ने अपना नारा बदल दिया...भूराबाल साफ करो कहने वाले लालू ने तब नारा दिया... भूरा बाल माफ करो, कुर्मी-कोइरी साफ करो। लेकिन सच्चाई समझिए जैसे जैसे नीतीश मजबूत होते गये कुर्मी समुदाय से ज्यादा प्रभावशाली कोइरी समुदाय के नेता बैकफुट पर आने लगे। लेकिन सियासत के चाणक्य नीतीश को अपने 'बड़े भाई' की ताकत का अंदाजा था, लिहाजा कभी सीधे सीधे वार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। चेक एंड बैलेंस वाले फॉर्मूले पर चलते हुए कभी भगवान सिंह को आगे किया तो कभी उपेंद्र कुशवाहा को, मौका पड़ने पर नागमणि को भी साथ ले आए। भगवान सिंह कुशवाहा को युवा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया। विधानसभा में विधायक दल के उपनेता की भी जिम्मेदारी दी। भगवान सिंह से थोड़ा मोहभंग हुआ तो झारखंड बनने के बाद समता पार्टी के विधायकों की संख्या जब बीजेपी से ज्यादा हो गई तो जन्दाहा से पहली बार विधायक बने उपेंद्र कुशवाहा को विपक्ष का नेता बना दिया। बिहार में नीतीश के बाद तब पार्टी में नंबर दो के पोजीशन पर पहुंच गये थे उपेंद्र कुशवाहा, 2005 के विधानसभा चुनाव में उपेंद्र कुशवाहा दलसिंहसराय से हार गये। हारने के बाद पार्टी में पोजीशन घट गया। उपमुख्यमंत्री की चाहत पाले हुए थे। लेकिन नीतीश से संबंध बिगड़े और पार्टी से बाहर हो गये। जेडीयू से बाहर होने के बाद उपेंद्र कुशवाहा एनसीपी में गये, फिर अपनी पार्टी बना ली। लेकिन राजनीतिक हस्ती घटती चली गई। 2005 में ही विधानसभा चुनाव के वक्त पार्टी-पार्टी घूमते हुए नागमणि भी नीतीश के साथ आ गए। नागमणि की पत्नी सुचित्रा सिन्हा को कुर्था से टिकट मिला और वो जीत गई। नागमणि तब कोइरी के बड़े नेता के रूप में स्थापित हुए जगदेव प्रसाद के सुपुत्र हैं और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री सतीश प्रसाद सिन्हा के दामाद। लोकसभा चुनाव के वक्त नीतीश ने टिकट देने से मना कर दिया तो लालू की पार्टी में चले गए। नागमणि के पार्टी से जाने के बाद नीतीश की पार्टी में कोइरी का दमदार नेता नहीं रह गया था सो एक बार फिर उपेंद्र कुशवाहा से संपर्क साधा गय़ा.. और बिहार की राजनीति में हासिये पर चल रहे उपेंद्र कुशवाहा ने इस ऑफर को सहर्ष स्वीकार कर लिया। हालांकि उपेंद्र कुशवाहा की वापसी पार्टी के लिए भारी पड़ी और नीतीश के सबसे अजीज ललन सिंह नाराज हो गये। बाद में बिहार का अध्यक्ष पद भी छोड़ दिया। कहने का मतलब ये कि कोइरी वोट पाने के लिए नीतीश कुमार ने हर वो तिकड़म किये जो एक मंझे हुए नेता के लिए जरूरी होता है। नीतीश जिस इलाके से आते हैं वहां कुर्मी सबसे ज्यादा है तो कोइरी भी कम नहीं है। वैसे कोइरी की कई प्रजातियां भी हैं जो बिहार के हर इलाके में किसी न किसी जाति के रूप में अच्छी संख्या में हैं। नागमणि के जाने से जो जगह खाली थी उसको उपेंद्र कुशवाहा से भरने की कोशिश की गई। वैसे नीतीश ने भोजपुर इलाके के लिए भगवान सिंह कुशवाहा(जगदीशपुर विधायक, ग्रामीण विकास मंत्री) और तिरहुत के लिए दिनेश प्रसाद कुशवाहा(मीनापुर विधायक, लघु सिंचाई मंत्री) को भी मंत्री बनाकर अपना आधार मजबूत किया। नौतन वाले वैद्यनाथ महतो को सांसद बनावाय. उपेंद्र कुशवाहा को पार्टी में लाने के बाद उन्हें राज्यसभा भेजा गया। लेकिन उपेंद्र कुशवाहा को बैलेंस करने के लिए दलसिंहसराय से आरजेडी के विधायक रामलखन महतो (कोइरी) को जेडीयू में शामिल कराया। अब खबर ये है कि उपेंद्र कुशवाहा इससे नाराज हैं। खैर कहने का मतलब ये कि कोइरी वोट खिसके न इसके लिए नीतीश लगातार तिकड़म पर तिमड़म लगाने में जुटे हुए हैं। कारण भी है कोइरी के एक वर्ग का नेतृत्व आरजेडी के कोइरी नेताओं के हाथ में है। समस्तीपुर में कोइरी वोटरों की संख्या ज्यादा है। मंजय लाल पहले वहां से सांसद हुआ करते थे , बाद में आलोक मेहता सांसद बने। दोनों कोइरी। मंजय लाल की मामला निपट चुका है लेकिन आलोक मेहता कोइरी के नौजवानों की अगुवाई करते हैं। हालांकि बीते लोकसभा चुनाव में उनकी ही स्वजातीय अश्वमेघ देवी (जेडीयू)ने उन्हें हरा दिया। उपेंद्र वर्मा, शकुनी चौधरी भागलपुर, मुंगेर इलाके में लालू का मोर्चा संभाले हुए हैं। शकुनी चौधरी बहुत पहले कांग्रेस में थे। 94 में समता पार्टी बनी तो नीतीश के साथ हो लिए, बाद में मन नहीं माना और लालू के साथ हो गए। शकुनी चौधरी को खुश करने के लिए उनके बेटे सम्राट चौधरी को ही लालू ने मंत्री बना दिया था जिसको लेकर खूब बवाल हुआ और लालू की किरकिरी हुई क्योंकि सम्राट चौधरी की उम्र ही 25 साल की नहीं थी। हालांकि जब उम्र हुई तो फिर से मंत्री बनाकर कोइरी आधार को जोड़े ऱखने की लालू ने खूब कोशिश की। तुलसीदास मेहता वैशाली, समस्तीपुर के इलाके में लालू का मोर्चा संभालते थे, अब उनके बेटे आलोक मेहता संभाल रहे हैं। कहने का मतलब ये कि कोइरी वोट नीतीश के साथ आज भी पूरी तरह नहीं है। लिहाजा नीतीश को अपने इस आधार वोट को बनाए रखने के लिए जोड़ तोड़ का गणित करना पड़ रहा है। मतलब साफ है कि विकास भी बात इस समुदाय के सामने भी अहम नहीं है...अब नागमणि पत्नी के साथ कांग्रेसी हो गये हैं। बिहार में अभी कोइरी जाति के करीब बीस विधायक हैं, वहीं कुर्मी जाति से 15। अब सवाल ये कि कोइरी के करीब 6 फीसदी वोटर क्या करेंगे.... लालू, नीतीश और कांग्रेस तीनों को बांटेंगे या फिर लव-कुश का फॉर्मूला हिट कराकर अपने भाई नीतीश को मजबूती देंगे। वैसे इतिहास पलटकर देखिये तो पिछली बार भी कोइरी का वोट पूरी तरह नीतीश को नहीं मिल पाया था। उस वक्त उपेंद्र कुशवाहा और नागमणि दोनों इनके साथ थे। इस बार रामलखन महतो क्या नागमणि की भरपाई करेंगे, क्या दसलिंहसराय में उपेंद्र कुशवाहा रामलखन महतो के लिए वोट मांगेंगे...वक्त बताएगा कि कोइरी का ऊंट किस करवट बैठता है। लेकिन एक बात जो अभी साफ है वो ये कि यदि 'विकास पुरुष' को अपने विकास पर भरोसा होता तो इस आधार वोट को जोड़े रखने के लिए इतना जोड़ घटाव नहीं सोचना होता।
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