16 फरवरी 1961 को पटना के शहीद स्मारक पर भोजपुरी इंडस्ट्री की नींव रखी गई । फिल्म गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो के मुहुर्त के साथ। अगले दिन शूटिंग शुरू हुई और फिर साल भर बाद भोजपुरी कला के क्षेत्र में एक बड़ी क्रांति की शुरुआत हुई। 1962 में पहली भोजपुरी फिल्म गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो रिलीज हुई । सोच, संस्कृति और माटी की खुशबू के साथ बनी इस पहली भोजपुरी फिल्म के बनने की कहानी भी दिलचस्प है। नाजीर हुसैन की इच्छाशक्ति, विश्वनाथ शाहबादी (निर्माता) का साथ और कुंदन का निर्देशन। राजेंद्र बाबू की प्रेरणा से इतिहास की शुरुआत इन्हीं तीनों ने की थी। पहली भोजपुरी फिल्म में हीरो बनने का सौभाग्य असीम कुमार और हीरोइन बनने का मौका कुमकुम को मिला। गीत का भार शैलेंद्र के कंधों पर तो संगीत की जिम्मेदारी संभाली चित्रगुप्त ने। बनारस के सिनेमाघर में जब फिल्म लगी तो आसपास के गांव में कहा जाने लगा कि गंगा नहा, विश्वनाथ जी के दर्शन कर, गंगा मइया देख तब घर जा। 50 साल हो गए है । गंगा मइया... से शुरुआत और फिर गंगा किनारे मोरा गांव, नदिया के पार, सजनवां बैरी भइले हमार, माई, बलम परदेसिया, पिया के गांव, दूल्हा गंगा पार के, और न जाने क्या-क्या। कितनी आईं और गईं । धीरे-धीरे तो माहौल ऐसा बन गया कि हिंदी फिल्मों में भी भोजपुरी गाने और संवाद फिट होने लगे। मैंने प्यार किया और हम आपके हैं कौन में शारदा सिन्हा के गाए गीत शायद ही कभी भूलाए जाएंगे। लेकिन अब क्या ? लहरिया लूट ए राजा जी.. देवरा बड़ा सतावेला... निरहुआ सटल रहे....
चूंकि सोच सिर्फ व्यवसायिक है इसलिए कोई सोच को बदलना नहीं चाहता। और इन लोगों के लिए भोजपुरी इंडस्ट्री एक बाजार भर हैं और इस बाजार में सब के सब खुद को बेच रहे हैं। किसी को न तो भोजपुरी के अतीत, वर्तमान और भविष्य की कोई चिंता हैं और ना ही अपने पहचान की। कुएं से बाहर कोई निकलना नहीं चाहता और आरोप सामने वाले पर मढ़ता है।
सुन रह हैं कि पटना में तीन दिनों का कोई कार्यक्रम रखा गया है। भोजपुरी के नाम पर खुद की मार्केटिंग करने वाले उस कार्यक्रम में जरूर जाएंगे। बिना किसी सोच के, बिना किसी रूपरेखा के। इतिहास पर भाषण देंगे जो कि सबसे आसान है, चाय-नाश्ता, फोटे-शोटो खिंचवा के अपनी मार्केटिंग करेंगे। भाई मार्केटिंग करने में कोई बुराई नहीं मान रहा लेकिन मार्केटिंग भी ढंग की तो करो। क्या वजह है कि कमाल खान को देश जान जाता है और पवन सिंह....
बीते एक दशक में रही सही कसर आज के तथाकथित गायकों ने पूरी कर दी है। सुनिए "लगाइ दीही चोलिया के हुक राजा जी"... और "मोबाइल के जमाना बा चोलिये में गावत गाना बा"....इसी टाइप के गाने लिखे जा रहे हैं न... गाये भी जा रहे हैं...और सुने भी... लेकिन चौक चौराहे और जीप बस से ज्यादा इनकी उम्र नहीं है। इस बात को माननीय महोदय आपको समझना होगा, समझाना होगा। भोजपुरी सिनेमा और गाना सुनकर एक गैर भोजपुरी ही क्यों ? अब तो आपको भी एक मिनट के लिए लगता ही होगा कि इसके गाने कैसे हैं...? अश्लीलता से हटकर सार्थकता की बात अब कहीं नहीं होती। अब न तो "आरा हिले छपरा हिले" है... और ना ही "फुलौरी बिना चटनी कैसे बनी..." विवाह गीत, देवी गीत, छठ के गीत और शंकर भगवान के गीत के अलावा घर में बजाकर सुनने वाले कोई गीत शायद ही दस सालों में किसी ने गाया होगा...कहने का मतलब ये कि पचास साल पहले जिस मंजिल की तलाश में निकले थे मुझे नहीं पता कि कौन मंजिल तक पहुंचा। बेहतर होगा कि ये पता चले कि कोई तो मंजिल तक पहुंचा। रास्ता भटक चुके हो दोस्त, व्यवसायिक हितों के लिए विरासत से समझौता तो कर चुके हो लेकिन अभी और कितना गिरोगे...पचास साल बीत चुका है....
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पहली भोजपुरी फिल्म |
बुधवार यानी 16 तारीख को पचास साल का हो रहा है भोजपुरी फिल्मों का इतिहास। इन पचास सालों में भोजपुरी फिल्म कहां से शुरू होकर कहां तक पहुंचा है इसको लेकर बड़ी बहस हो सकती है। क्योंकि सवाल कई हैं। सवाल ये कि कल की भोजपुरी और आज की भोजपुरी के मिजाज में कितना फर्क आया है। जिस दिन भोजपुरी इंडस्ट्री की पटना में नींव रखी गई थी उस दिन भी उद्देश्य व्यवसायिक ही था और आज भी पचास साल बाद मतलब व्यवसायिक ही है। फर्क सिर्फ इतना है कि सिनेमा देखने और दिखाने वाले दोनों बदल गए हैं। उन दिनों लोग गांव-गांव से बैलगाड़ी, तांगा और साइकिल रिक्शा से सफर करके तीन घंटे का मनोरंजन करने ही सिर्फ लोग कोसों दूर नहीं जाते थे। ये तीन घंटे महीनों गांव के चौपाल और पनघट पर लोगों को जोड़ने का जरिया होता था। जिस सोच के साथ भोजपुरी इंडस्ट्री की शुरुआत हुई थी वो सोच क्या आज भी जिंदा है? क्या पचास साल बाद भी भोजपुरी सिनेमा की चर्चा गांव के चौपाल और पनघट पर उसी तरह होती है जैसे 60-70-80 के दशकों में होती थी। सवाल कई हैं। मैं ये नहीं कह रहा कि भोजपुरी फिल्मों का विकास नहीं हुआ है, लेकिन जिस दिशा में विकास होना चाहिए था क्या उस दिशा में उस रफ्तार से भोजपुरी का पहिया आगे बढ़ा है ? हिंदी फिल्मों के बाद सबसे बड़ा बाजार भोजपुरी इंडस्ट्री का कहा जाता है। सवाल ये कि क्यों इसे बड़ा बाजार माना जाए ? सिर्फ इसलिए की यहां हर हफ्ते फिल्में बनती हैं ?
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भोजपुरी सिनेमा के बड़े चेहरे |
क्या कारण है कि मनोज तिवारी और रवि किशन के अलावा किसी भी भोजपुरी हीरो-हीरोइनों की पहचान राष्ट्रीय स्तर पर नहीं है? क्यों आज भी हिंदी फिल्मों की तरह भोजपुरी फिल्मों के गाने घर के भीतर नहीं सुने और सुनाए जाते ? सवाल बहुत सारे हैं। सच्चाई भी यही है कि जवाब किसी के पास नहीं है। एक उदाहरण देता हूं आपको पिछले दिनों भोजपुरी अभिनेत्री रानी चटर्जी से जुड़ी एक खबर राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बनी थीं। लेकिन रानी चटर्जी को मेरे दफ्तर के 95 फीसदी लोग नहीं जानते थे। जानने का मतलब कहीं से ये नहीं कि वो कौन हैं, कहां की रहने वाली है... मतलब ये कि भोजपुरी इंडस्ट्री की आप किस बात की बड़ी हीरोइन हो कि आपकी राष्ट्रीय स्तर पर कोई पहचान नहीं है। मनोज तिवारी और रवि किशन को जानने वाले भी बहुत लोग नहीं जानते कि वो किस जिले के रहने वाले हैं लेकिन उनके बारे में 95 फीसदी लोगों को बताने की जरूरत नहीं है।
16 फरवरी 1961 को पटना के शहीद स्मारक पर भोजपुरी इंडस्ट्री की नींव रखी गई । फिल्म गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो के मुहुर्त के साथ। अगले दिन शूटिंग शुरू हुई और फिर साल भर बाद भोजपुरी कला के क्षेत्र में एक बड़ी क्रांति की शुरुआत हुई। 1962 में पहली भोजपुरी फिल्म गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो रिलीज हुई । सोच, संस्कृति और माटी की खुशबू के साथ बनी इस पहली भोजपुरी फिल्म के बनने की कहानी भी दिलचस्प है। नाजीर हुसैन की इच्छाशक्ति, विश्वनाथ शाहबादी (निर्माता) का साथ और कुंदन का निर्देशन। राजेंद्र बाबू की प्रेरणा से इतिहास की शुरुआत इन्हीं तीनों ने की थी। पहली भोजपुरी फिल्म में हीरो बनने का सौभाग्य असीम कुमार और हीरोइन बनने का मौका कुमकुम को मिला। गीत का भार शैलेंद्र के कंधों पर तो संगीत की जिम्मेदारी संभाली चित्रगुप्त ने। बनारस के सिनेमाघर में जब फिल्म लगी तो आसपास के गांव में कहा जाने लगा कि गंगा नहा, विश्वनाथ जी के दर्शन कर, गंगा मइया देख तब घर जा। 50 साल हो गए है । गंगा मइया... से शुरुआत और फिर गंगा किनारे मोरा गांव, नदिया के पार, सजनवां बैरी भइले हमार, माई, बलम परदेसिया, पिया के गांव, दूल्हा गंगा पार के, और न जाने क्या-क्या। कितनी आईं और गईं । धीरे-धीरे तो माहौल ऐसा बन गया कि हिंदी फिल्मों में भी भोजपुरी गाने और संवाद फिट होने लगे। मैंने प्यार किया और हम आपके हैं कौन में शारदा सिन्हा के गाए गीत शायद ही कभी भूलाए जाएंगे। लेकिन अब क्या ? लहरिया लूट ए राजा जी.. देवरा बड़ा सतावेला... निरहुआ सटल रहे....
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इन्हें क्यों नहीं जानते लोग... |
इन पचास सालों में कहां से शुरू हुए और कहां पहुंचे। ना तो कोई इस पर चिंतन करने वाला है और ना ही किसी को चिंता है। आखिर व्यवसायिक सोच के सामने विरासत का कोई मतलब भी नहीं रह जाता। और आज के जमाने में पचास साल पीछे मुड़कर कोई क्यों देखेगा ? लेकिन मेरा सवाल अब भी वही है कि.. आखिर ऐसा क्या नहीं हो पाया है जिसने भोजपुरी फिल्मों के समाज को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने से रोके रखा है। व्यवसायिक फायदे के लिए ही न जिनको भगवान ने आवाज दी है गाने के लिए वो गाना छोड़कर कमर लचका रहे हैं...। मनोज तिवारी के गीत को सुने उनके प्रशंसकों को जमाने बीत गये होंगे। पवन सिंह, गुड्डू रंगीला, निरहुआ और न जाने क्या.. क्या...जिनको गाना चाहिए वो बजा रहे हैं... और जिनको बजाना चाहिए वो गा रहे हैं... ये तो है आज की स्थिति।
रिंकू घोष, रानी चटर्जी, पाखी हेगड़े, दिव्या देसाई... सब के सब बौरो प्लेयर। दूसरे टीम के खिलाड़ी को अपने साथ कब तक खेलाते रहेंगे ? अमिताभ बच्चन, अजय देवगन, भाग्यश्री, नगमा ने काम किया तो जोर जोर से बोलते हैं कि बॉलीवुड के बड़े सितारे भोजपुरी की तरफ रुख कर रहे हैं...बे काहे का रुख कर रहे हैं...तुम्हारे पास है नहीं प्लेयर तो बाहरी को खेलने के लिए बुला रहे हो... चूंकि सोच सिर्फ व्यवसायिक है इसलिए कोई सोच को बदलना नहीं चाहता। और इन लोगों के लिए भोजपुरी इंडस्ट्री एक बाजार भर हैं और इस बाजार में सब के सब खुद को बेच रहे हैं। किसी को न तो भोजपुरी के अतीत, वर्तमान और भविष्य की कोई चिंता हैं और ना ही अपने पहचान की। कुएं से बाहर कोई निकलना नहीं चाहता और आरोप सामने वाले पर मढ़ता है।
सुन रह हैं कि पटना में तीन दिनों का कोई कार्यक्रम रखा गया है। भोजपुरी के नाम पर खुद की मार्केटिंग करने वाले उस कार्यक्रम में जरूर जाएंगे। बिना किसी सोच के, बिना किसी रूपरेखा के। इतिहास पर भाषण देंगे जो कि सबसे आसान है, चाय-नाश्ता, फोटे-शोटो खिंचवा के अपनी मार्केटिंग करेंगे। भाई मार्केटिंग करने में कोई बुराई नहीं मान रहा लेकिन मार्केटिंग भी ढंग की तो करो। क्या वजह है कि कमाल खान को देश जान जाता है और पवन सिंह....
बीते एक दशक में रही सही कसर आज के तथाकथित गायकों ने पूरी कर दी है। सुनिए "लगाइ दीही चोलिया के हुक राजा जी"... और "मोबाइल के जमाना बा चोलिये में गावत गाना बा"....इसी टाइप के गाने लिखे जा रहे हैं न... गाये भी जा रहे हैं...और सुने भी... लेकिन चौक चौराहे और जीप बस से ज्यादा इनकी उम्र नहीं है। इस बात को माननीय महोदय आपको समझना होगा, समझाना होगा। भोजपुरी सिनेमा और गाना सुनकर एक गैर भोजपुरी ही क्यों ? अब तो आपको भी एक मिनट के लिए लगता ही होगा कि इसके गाने कैसे हैं...? अश्लीलता से हटकर सार्थकता की बात अब कहीं नहीं होती। अब न तो "आरा हिले छपरा हिले" है... और ना ही "फुलौरी बिना चटनी कैसे बनी..." विवाह गीत, देवी गीत, छठ के गीत और शंकर भगवान के गीत के अलावा घर में बजाकर सुनने वाले कोई गीत शायद ही दस सालों में किसी ने गाया होगा...कहने का मतलब ये कि पचास साल पहले जिस मंजिल की तलाश में निकले थे मुझे नहीं पता कि कौन मंजिल तक पहुंचा। बेहतर होगा कि ये पता चले कि कोई तो मंजिल तक पहुंचा। रास्ता भटक चुके हो दोस्त, व्यवसायिक हितों के लिए विरासत से समझौता तो कर चुके हो लेकिन अभी और कितना गिरोगे...पचास साल बीत चुका है....
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