9 जून 2013 । बीजेपी की गोवा
राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में नरेंद्र मोदी को चुनाव अभियान समिति की कमान
सौंपी गई। कहा जाने लगा है कि बीजेपी में अब आडवाणी युग का अंत हो गया है। आडवाणी ने अपनी हर कोशिश की लेकिन वो मोदी का
रास्ता नहीं रोक सके। नरेंद्र मोदी को बीजेपी ने 2014 के लोकसभा चुनाव अभियान
समिति की जिम्मेदारी दी है। आडवाणी नहीं चाहते थे इसलिए सवाल ये है कि आडवाणी क्या
करेंगे? क्या पार्टी पर पकड़ बनाए रखने के लिए अब संसदीय बोर्ड से
इस्तीफे का सहारा लेंगे?
राजनीति
में तथाकथित ‘एक्सपायर’ हो चुके नेताओं को साइड करने का ये कोई
पहला उदाहरण नहीं है। आडवाणी भले ही बीजेपी को बनाने वाले नेता रहे हों.. लेकिन आज
आडवाणी सिर्फ सम्मान पाने के अलावा और किसी स्थिति में नहीं है। बहुत लोगों को याद
नहीं होगा लेकिन 2005 में बिहार में जब नीतीश की सरकार बनी थी तब उसके बाद जॉर्ज
फर्नांडिस को नीतीश ने साइड कर दिया था। जिन जॉर्ज ने नीतीश और पार्टी को इस
स्थिति में लाया उसे नीतीश ने दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका। वाजपेयी की
सरकार बनवाने में अहम रोल निभाने वाले जॉर्ज आज कहां हैं किसी को याद नहीं होगा...जॉर्ज
के दिन जब खराब हुए थे तब आडवाणी ने भी नीतीश का साथ दिया था। इतिहास दोहरा रहा
है। हो सकता है इस बुरे वक्त में नीतीश का साथ आडवाणी को मिल जाए। लेकिन ज्यादा
दिन तक ये साथ रह पाएगा मुमकिन नहीं दिखता।
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अब इसकी जरूरत नहीं? |
असल में बीजेपी में आडवाणी के बुरे वक्त
की शुरुआत 2005 में ही हो गई थी। लेकिन किस्मत कहिए कि उन्हें 8 साल तक इसलिए
पार्टी में पूजा गया क्योंकि कोई नेता उनके कद को चुनौती देने की हालत में नहीं
था। जैसे ही चुनौती देने वाला दिखा पार्टी ने उनसे किनारा करने में पल भर की देरी
नहीं लगाई।
2005 से पहले आडवाणी की छवि
कट्टर हिंदूवादी नेता की थी। इसका नुकसान उन्हें 1996 में उठाना पड़ा जब वाजपेयी
को सहयोगियों ने पसंद किया और कट्टर छवि की वजह से आडवाणी पीछे रह गये। आडवाणी के
मन में कहीं न कहीं ये कसक जरूरी थी। 2004 में वाजपेयी के नेतृत्व में चुनाव हारने
के बाद अगले साल आडवाणी पाकिस्तान दौरे पर गए थे।
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काश! ये गलती न करता? |
कराची में जिन्ना की मजार
पर जाकर न सिर्फ उन्होंने फूल-माला चढाई बल्कि उन्हें धर्मनिरपेक्ष नेता तक कह
दिया । जिन्ना को भारत-पाकिस्तान बंटवारे का जिम्मेदार माना जाता है। कट्टर
हिंदूवादी माने जाने वाले आडवाणी अपनी छवि सुधारने के लिए जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष
बता कर जब भारत लौटे तो हाहाकर मच गया था। आडवाणी तब पार्टी के अध्यक्ष थे और संघ
ने उन्हें इस्तीफा देने को कह दिया। जिन्ना विवाद में आडवाणी की कुर्सी चली गई।
अपने चक्रव्यूह में उलझकर संघ की चाल के आगे आडवाणी मात गए थे।
लेकिन आडवाणी आसानी से मानने
वाले नहीं थे। तब पार्टी में उस कद का कोई नेता भी नहीं था। आडवाणी ने 2009 के
चुनाव से पहले एनडीए के बाकी दलों के नेताओं को पुराने संबंधों का हवाला देकर
तैयार कराया । नतीजा हुआ कि संघ को सरेंडर करना पड़ा और 2009 के चुनाव में आडवाणी
की अगुवाई में पार्टी चुनाव में उतरी। आडवाणी एनडीए को जीता नहीं पाए। संघ का दबाव
पड़ा और लोकसभा में विपक्ष के नेता की कुर्सी भी छोड़नी पड़ी। कहा गया कि नई पीढ़ी
को आगे किया जा रहा है। लेकिन सच्चाई ये थी कि संघ ने आडवाणी को एक्सपाइरी मान
लिया था। लोकसबा में आडवाणी की जगह सुषमा ने ली, जेटली राज्यसभा में नेता बने,
गडकरी को पार्टी की कमान मिली। किसी में भी आडवाणी की नहीं चली।
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जब जो जीता वही सिकंदर |
संघ और आडवाणी के बीच अहम की लड़ाई
जारी थी। आडवाणी भी संघ की चाल को मात देने की फिराक में लगे रहे। मौका मिला और
जनवरी महीने में उन्होंने ब्रह्मास्त्र चला। संघ के आशीर्वाद से गडकरी को दूसरी
बार पार्टी की कमान मिल रही थी लेकिन आडवाणी मुंह बनाकर बैठ गए। पूर्ति का कथित भ्रष्टाचार बहाना बना और बेचारे
गडकरी अध्यक्ष बनते बनते रह गये। अब तो पूर्ति (गडकरी की कंपनी) की कहीं चर्चा भी
नहीं होती।
आडवाणी की चाल के आगे संघ इस बार
मात खा गया। लेकिन संघ ने भी हार नहीं मानी। कई नाम आगे किए गए। बात जाकर रुकी
राजनाथ के पर जाकर। गडकरी का रास्ता रोककर आडवाणी ने राजनाथ को अध्यक्ष तो बनवा
दिया। लेकिन यही एक बार फिर संघ की चाल के आगे आडवाणी मात खा गए। संघ ने राजनाथ और
नरेंद्र मोदी की जोड़ी तैयार की। और फिर ऐसे ऐसे फैसले लिए गए कि आडवाणी को बीमार
होकर घर में रहने को मजबूर हो जाना पड़ा ।
कहा गया कि आडवाणी बीमार थे
इसलिए गोवा नहीं गए। लेकिन जैसे ही गोवा की बैठक खत्म हुई वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के
जरिए जयपुर के एक कार्यक्रम में वो प्रकट हो गए। सवाल उठा कि क्या ऐसा गोवा में
नहीं हो सकता था ? जवाब था कि कोई चाहता तब तो...?
मतलब ये कि आडवाणी बीमार तो थे.. मोदी के नाम पर उन्हें एतराज भी था लेकिन संघ इस
मूड में बिल्कुल ही नहीं था कि आडवाणी की वजह से कोई बाधा आए। नतीजा हुआ कि आडवाणी बीमार होकर पड़े रहे और गोवा में उनकी गैरमौजूदगी में पार्टी ने
नरेंद्र मोदी को कमान सौंप दी।
सीधे
तौर पर लड़ाई मोदी और आडवाणी के बीच नहीं है। असल में मोदी और राजनाथ तो सिर्फ
मोहरा भर हैं। मोदी हैं तो राजनीतिक रूप से आडवाणी की उपज लेकिन अब संघ के करीब
हैं । और आडवाणी के साथ संघ की बन नहीं रही। संघ के उकसावे पर मोदी की
महत्वकांक्षा बढ़ती गई । नतीजा हुआ कि आडवाणी मोदी से नाराज रहने लगे । राजनीति
में हर किसी को ऊंचाई तक पहुंचने की महत्वकांक्षा होती है। लेकिन आडवाणी ने
तथाकथित शुभचिंतकों की बात मानकर मोदी के खिलाफ कई चालें चली। तो उधर मोदी पर दांव
लगाकर संघ में बड़ी कुर्सियों पर बैठे 80-90 साल के बुजुर्ग स्वंयसेवक अपनी चाल चल
रहे हैं। लड़ाई पार्टी पर कब्जे की है। आडवाणी अपना मोह नहीं छोड़ रहे और संघ अपना
दावा छोड़ने को तैयार नहीं है। फिलहाल संघ की चाल सफल रही है। इंतजार करना होगा कि
आडवाणी कोई अगली चाल चलते हैं या फिर सब कुछ छोड़कर अब तमाशा देखना पसंद करेंगे।
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कुछ करो यार..वक्त ज्यादा नहीं है |
वैसे एक बात आपको बता दूं कि आडवाणी के
पास अभी मोहरे खत्म नहीं हुए हैं। संघ की पकड़ सिर्फ बीजेपी पर है। आडवाणी इस दायरे
से बाहर भी है। एनडीए नाम के ताले की चाबी आडवाणी के पास है। भले ही बीजेपी
पर संघ ने सिक्का जमा रखा है लेकिन सत्ता के सिंहासन तक पहुंचने के लिए एनडीए
नाम की छतरी की जरूरत होगी जिसमें आडवाणी का रोल अहम होगा। इसलिए फिलहाल ये कह
पाना कि देश की राजनीति से आडवाणी युग का अंत हो गया है जल्दबाजी होगी।
नोट- तस्वीरों के नीचे कैप्शन कल्पना मात्र है।
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