कहते
हैं कि समाजवादी कभी एक साथ नहीं रह सकते लेकिन इन दिनों मोदी के खिलाफ जो मुहिम
चल रही है उसमें तमाम समाजवादी अस्तित्व बचाने के लिए एक झंडे के नीचे आने को
तैयार दिख रहे हैं। 1989 में जिस बीजेपी के सहयोग से जनता दल की सरकार बनी थी अब
टुकड़ों में बंट चुके वही जनता दल के नेता बीजेपी के खिलाफ एक होने की तैयारी कर
रहे हैं। असल में मोदी के लहर ने इन समाजवादियों को सड़क पर ला दिया है । अब इनको
लगने लगा है कि मोदी के बढ़ते प्रभाव को इस वक्त साथ आकर न रोका गया तो फिर सदा के
लिए सत्ता की दुकानदारी बंद हो जाएगी।
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मुलायम के घर बैठक |
बिहार
में अगले साल विधानसभा के चुनाव होने हैं इसलिए नीतीश कुमार की बेचैनी समझी जा
सकती है। लोकसभा में सिर्फ 2 सीटों से संतोष करने और ज्यादातर सीटों पर जमानत
गंवाने के बाद नीतीश विधानसभा के लिए कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। पार्टी के भीतर
अपनों से ही घिर चुके नीतीश नहीं चाहते कि किसी भी कारण से लालू उनसे छिटके।
क्योंकि बगैर लालू के नीतीश का बिहार में अब गुजारा नहीं होने वाला। जिस तरीके से
बिहार में सीट समझौते को लेकर आरजेडी और जेडीयू में अभी से विवाद चल रहा है उससे
आने वाले दिनों में दोनों दलों की परेशानी और बढ़ सकती है। शायद यही वजह है कि
नीतीश जनता परिवार को एकजुट करने की रणनीति पर आगे बढ़ रहे हैं। ताकि लालू पर साथ
रहने का दबाव बना रहे।
मुलायम
के घर जो भी नेता जुटे थे वो सब जनता दल के जमाने में साथ रह चुके हैं। सभी अपने
अपने इलाके के दिग्गज हैं। लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद सभी की हालत पतली हो चुकी
है। मुलायम जहां सिर्फ परिवार के पांच सदस्यों को संसद भेज सके वही नीतीश बिहार
में दो सीटों पर सिमट गए। लालू भी चार के आंकड़े पर अटके तो देवगौड़ा भी दो से ऊपर
नहीं उठ पाए। इन नेताओं का अपने अपने इलाके में प्रभाव अब भी है लेकिन दूसरे के
इलाके में कोई कुछ नहीं कह सकता । ऐसे में साथ आकर भी ये लोग कुछ बहुत बड़ा कर
लेंगे ऐसा लगता नहीं है । सवाल ये भी है कि इनकी ये एकता कब तक टिकी रहेगी ।
असल
में समाजवादी नेताओं में इगो इतना ज्यादा होता है कि कभी वो एक साथ ज्यादा वक्त तक
रह ही नहीं सकते। यहां तो हर कोई क्षत्रप ही है। इतिहास को देखे तो समाजवादियों के
साथ रहने का इतिहास ज्यादा लंबा नहीं रहा है।
1988
में जनता दल बना था और चंद्रशेखर, वीपी सिंह, देवीलाल साथ आए थे। अगले साल 1989
में बीजेपी के सहयोग से देश में सरकार भी बनी । लेकिन कुछ महीने बाद ही देवीलाल से
तत्कालीन अध्यक्ष एस आर बोम्मई का विवाद हुआ और देवीलाल –चंद्रशेखर
ने 54 सांसदों के साथ मिलकर जनता दल को तोड़ दिया ।
5
नवंबर 1990 को चंद्रशेखर ने देवीलाल के साथ मिलकर समाजवादी जनता पार्टी बना।
इसके बाद कांग्रेस के सहयोग से चंद्रशेखर पीएम भी बन गये। तब देवगौड़ा, मुलायम भी
चंद्रशेखर के साथ थे।
इसके
बाद फिर 4 अक्टूबर
1992 को चंद्रशेखर की
पार्टी में भी सेंध लग गई। मुलायम सिंह
यादव ने समाजवादी पार्टी के नाम से अपनी अलग पार्टी बना ली।
21 जून 1994 को फिर एक बार जनता दल में
विभाजन हुआ। पार्टी के 14 सांसद
जॉर्ज फर्नांडींस के नेतृत्व में जनता दल से अलग हो गये। नाम पड़ा जनता दल (ज),31 अक्टूबर 1994 को जनता दल (ज) का नाम समता
पार्टी रख दिया गया।
1996
में जब केंद्र में जनता दल के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चे की सरकार थी तब अध्यक्ष
के सवाल पर लालू और शरद आमने सामने आ गए। 5 जुलाई 1997 को
जनता दल में एक और विभाजन हुआ और लालू के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनता दल का गठन
हुआ ।
1997 में बीजेपी से तालमेल को
लेकर पार्टी ओडिशा में भी टूट गई। ओडिशा के नेता बीजेपी से तालमेल के पक्ष में थे, लेकिन शरद यादव खेमा राजी
नहीं था. नतीजा पार्टी टूटी और बीजू जनता दल बना।
1997 में ही कर्नाटक में भी
पार्टी को झटका लगा। पार्टी के बडे नेता रामकृष्ण हेगडे ने लोक शक्ति के नाम से नई
पार्टी बना ली।
1998
में समता पार्टी से अलग होकर ओम प्रकाश चौटाला ने अपनी नई पार्टी आईएनएलडी का गठन
कर लिया। 1991 से 1998 तक चौटाला जनता दल, समाजवादी पार्टी जनता पार्टी होते हुए
समता पार्टी के दरवाजे तक पहुंचे थे।
1999
के लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी से तालमेल को लेकर जनता दल फिर दो खेमों में बंटा ।
नतीजा हुआ कि बीजेपी के साथ नहीं जाने वाले नेताओं ने देवगौड़ा के साथ मिलकर जनता
दल सेक्यूलर नाम से नई पार्टी बना ली। पार्टी तोड़ने के बाद देवगौड़ा असली जनता दल
का दावा करते रहे। मामला चुनाव आयोग में गया और फिर
आयोग ने चुनाव चिन्ह चक्र को जब्त कर लिया। इसी विवाद के साथ जनता दल खत्म हो गया।
न नाम बचा और न पार्टी। शरद यादव की पार्टी का नाम जनता दल यूनाइटेड पड़ा और
देवगौड़ा की पार्टी का जनता दल सेक्यूलर।
1999 में जनता दल यू और समता
पार्टी का विलय हो गया। दोनों दल के नेताओं ने तीर चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ा।
लेकिन नतीजों के बाद एकता नहीं रही। अध्यक्ष के सवाल पर पार्टी फिर से जनता दल यू
और समता पार्टी में बंट गई।
साल
2000 में जनता दल यू में एक और विभाजन हो गया। राम विलास पासवान चार सांसदों के
साथ अलग हुए और लोक जनशक्ति पार्टी बनी।
2004 के चुनाव से पहले एक बार फिर जनता दल यू और समता पार्टी का विलय हो
गया। जॉर्ज अध्यक्ष बने। शरद संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष, पार्टी का झंडा समता पार्टी
के रंग का। लेकिन निशान जेडीयू का तीर। 2004 में लोकसभा चुनाव साथ लड़ा गया। नवंबर 2005 में पार्टी बिहार में सत्ता
में आ गई। इस बीच जॉर्ज को साइड लाइन किया जाने लगा। अध्यक्ष पद के चुनाव में शरद
यादव ने जॉर्ज को हरा दिया। जॉर्ज दरकिनार हो गये ।
लेकिन अब यही तमाम नेता एक होने को तैयार दिख
रहे हैं। लेकिन इतिहास गवाह है कि पद के लिए समाजवादी नेता साथ छोड़ने में मिनट भर
की देरी नहीं करते।
आज भी जब जनता
परिवार को एक करने की बात हो रही है तो रामविलास पासवान जैसे बड़े नेता बीजेपी के
साथ हैं और सरकार में मंत्री हैं। उपेंद्र कुशवाहा भी खुद को जॉर्ज का असली उत्तराधिकारी
मानते हुए बीजेपी के साथ हैं। ओडिशा में बीजू जनता दल सबसे मजबूत स्थिति में है
लिहाजा उसके साथ आने के संकेत नहीं दिख रहे। अब अगर
लालू-नीतीश-मुलायम-देवगौड़ा-चौटाला मिल जाते हैं तो इतने सारे सूरमा खुद को कैसे
एडजस्ट करेंगे देखने वाली बात होगी।
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