जंगल राज पार्ट टू का नारा उछालकर बीजेपी ने बिहार में नीतीश और लालू के खिलाफ जो माहौल बनाने की
कोशिश की थी उसमें वो कामयाब नहीं हो सके । बिहार में बीजेपी के लिए उपचुनाव के ये नतीजे किसी करंट के झटके से कम नहीं है । नरेंद्र मोदी के नाम और काम के दम पर कम, लालू और नीतीश की दोस्ती के खिलाफ ज्यादा बोलकर बीजेपी के नेताओं ने जीत की उम्मीद पाल रखी थी । जंगल राज आने का जो भय बीजेपी ने दिखाने की कोशिश की वो कामयाब नहीं हो सका। क्योंकि महागठबंधन की 6 में से 4 सीटों पर सवर्ण उम्मीदवारों ने जीत हासिल की । लालू-नीतीश -कांग्रेस गठबंधन ने 10 में से 4 सवर्ण उम्मीदवार उतारे थे । और चारों के चारों चुनाव में जीत गए । सवर्ण समुदाय को बिहार में बीजेपी का आधार माना जाता रहा है । महागठबंधन के टिकट पर सवर्ण उम्मीदवारों की जीत का एक मतलब तो ये है कि इस समुदाय के लोगों ने बीजेपी के चुुनावी प्रबंधन के खिलाफ नीतीश पर भरोसा जताया है । बाजेपी के कई उम्मीदवारों के हराने में भी सवर्ण वोटरों का योगदान रहा है।
बीजेपी के लिए ये वक्त सिर्फ आत्मचिंतन का नहीं है। बल्कि बड़े बदलाव की जरूरत है।
इन दस सीटों में से 6 सीटें बीजेपी के पास थी । पार्टी अपनी पुरानी चार सीटें भागलपुर, छपरा, जाले और मोहिउद्दीन नगर हार गई है । जबकि दो सीटें बांका और मोहनिया छीनने में कामयाब रही है । भागलपुर सीट पर तो बीजेपी का 1990 से लगातार कूब्जा था । लोकसभा चुनाव में शाहनवाज हुसैन को इस सीट से करीब 50 हजार वोटों की बढत मिली थी यहां से विधायक चुने जाते रहे अश्विनी चौबे की चुनाव में सक्रिय भूमिका नहीं होना भी हार की एक वजह हो सकती है ।
छपरा सीट से तो लोकसभा चुनाव मे राजीव प्रताप रूडी को 40 हजार वोटों से राबड़ी देवी के खिलाफ बढत मिली थी । लेकिन तीन महीने में सारे समीकऱण फेल हो गये । ऐसा भी नहीं कि उम्मीदावर किसी और जाति का था । राजपूत बनाम राजपूत की लड़ाई में प्रभुनाथ सिंह के बेटे की जीत हुई । और बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा । जनार्दन सिंह सिग्रीवाल यहां से विधायक चुने जाते रहे हैं । चुनाव में परिवार के किसी सदस्य को टिकट नहीं मिलने की वजह से वो सक्रिय नहीं थे । चुनाव में संघ से जुड़े रहे सीएन गुप्ता ने शहरी वोट अपनी झोली में लेकर बीजेपी के उम्मीदवार को तीसरे नंबर पर धकेल दिया ।
मोहिउद्दीन नगर सीट पर पिछली बार राणा गंगेश्वर जीते थे । राणा चुनाव से पहले तक जेडीयू के किसान प्रकोष्ट के नेता थे । किसान समता के अध्यक्ष भी रह चुके हैं । लेकिन तालमेल में सीट बीजेपी के पास गई थी और फिर 2010 में बीजेपी के सिंबल पर गंगेश्वर सिंह जीत गये थे । इनके इस्तीफा देकर जेडीयू में जाने की वजह से ही यहां चुनाव हए । लोकसभा चुनाव में इस विधानसभा सीट से बीजेपी को 8 हजार वोटों से जीत मिली थी । लेकिन इस बार आरजेडी के अजय कुमार बुलगानिन 25 हजार से ज्यादा से जीत गए ।
नरकटियागंज और बांका में तो मामला अंतिम वक्त में हिंदू मुस्लिम का हो गया लिहाजा बीजेपी दोनों सीट निकालने में कामयाब रही । हाजीपुर में अवधेश पटेल की जीत में पार्टी से ज्यादा नीतीश विरोधियों का योगदान रहा ।
बीजेपी के हार की बड़ी वजह-
- सवर्ण नेताओं की नाराजगी
- टिकट बंटवारे में मनमानी
- बिहार बीजेपी की आपसी लड़ाई
- कैडर को दरकिनार करना
-बड़े नेताओं का चुनाव को हल्के में लेना
- जातिगत समीकरण को दुरुस्त नहीं करना
- केंद्रीय मंत्रिमंडल में जाति विशेष की उपेक्षा
- बिहार के लिए केंद्र की ओर से कोई विशेष एलान नहीॆ
बीजेपी के लिए हार की एक बड़ी वजह ये भी मानी जा रही है कि टिकट बंटवारे में पार्टी के स्थानीय बड़े नेताओं की नहीं सुनी गई । मसलन भागलपुर में अश्विनी चौबे, छपरा में जनार्दन सिंह सिग्रीवाल की पसंद को दरकिनार किया गया । जाले, राजनगर जैसी सीटों पर दूसरे दलों के लोगों को टिकट दे दिया गया । चुनाव में सुशील मोदी की खुलकर चली थी । बिहार की ये हार नीतीश और लालू के लिए जहां संजीवनी है वहीं बीजेपी के लिए आत्म मंथन का वक्त । चुनाव से पहले कई ऐसे कारण रहे जो इस हार की वजह बने । अंतिम वक्त में दूसरे दलों के नेताओं को टिकट देने का मामला हो या फिर लड़ाई को हल्के में लेना । लालू और नीतीश ने इस चुनाव को प्रतिष्ठा का विषय बना लिया था लेकिन बीजेपी वाले इसे लेकर गंभीर नहीं दिख रहे थे । चुनाव से पहले मुख्यमंत्री को लेकर जिस तरीके से बीजेपी में बयानबाजी हुई उसने भी वोटरों पर असर डालने का काम किय़ा ।
लालू और नीतीश गठबंधन के लिए हाजीपुुर में हार शुभ संकेत नहीं हो सकता। 1969 से लगातार इस सीट पर यादव जाति के विधायक चुने जाते रहे हैं। पहली बार बीजेपी के टिकट पर नीतीश के स्वजातिय उम्मीदवार की जीत हुई है। यादव बहुल हाजीपुर में यादव राज खत्म हुआ है। जाले में भूमिहार और ब्राह्मणों ने जेडीयू के ऋषि मिश्रा को वोट दिया। राजनगर में ब्राह्मणों ने आरजेडी को वोट दिया। परबत्ता में भूमिहारों ने जेडीयू उम्मीदवार को वोट दिया। इसलिए सुरक्षित भविष्य का सपना समझकर लालू और नीतीश को ज्यादा खुश होने की जररूत नहीं है।
ऐसा नहीं है कि बीजेपी उपचुनाव हार गई है तो सब कुछ खत्म हो गया है। लालू और नीतीश के लिए भी खुश होने का वक्त थोडी देर के लिए ही है। लालू की तीन सीटें थी तीन ही मिली। नीतीश अपनी मोहनिया सीट हार गये। जिन दो सीटों पर उनको जीत मिली है उसमें बीजेपी अपनी करनी से हारी है। इसलिए ये संकेत नहीं हो
सकता कि 2015 का परिणाम भी ऐसा ही होगा। हां सुशील मोदी को लेकर पार्टा का एक बड़ा तबका मुखर हो
सकता है। सुशील मोदी की मनमानी और बीजेपी नेताओं का उप चुनाव को हल्के में लेना हार की प्रारंभिक वजह लगती है।
No comments:
Post a Comment