Friday, May 23, 2014

जंगल राज और सुशासन का कॉकटेल = ???????

File Photo
20 साल पहले 15 जुलाई 1994 को लालू यादव की वजह से जनता दल के 14 सांसद अलग हुए थे। जॉर्ज फर्नांडीस तब इनके नेता थे। पार्टी का नाम पड़ा जनता दल (ज) । इन नेताओं ने 31 अक्टूबर 1994 को पटना के गांधी मैदान में बिहार पुनर्निमाण रैली का आयोजन कर जनता दल (ज) का नाम समता पार्टी रखा। समता पार्टी का बिहार में गठन नीतीश के कुर्मी और मंजय लाल के कोइरी वोटबैंक को ध्यान में रखकर किया गया था। 5 फीसदी कुर्मी और 6 फीसदी कोइरी वोटबैंक के आधार पर नीतीश समता पार्टी के नेता प्रोजेक्ट हुए ।
1995 में बिहार में विधानसभा का चुनाव था और जनता दल पहली बार लालू को आगे कर चुनाव मैदान में थी। समता पार्टी यानी कुर्मी और कोइरी वोट के छिटकने के बाद माना जा रहा था कि लालू चुनाव में हार जाएंगे। नीतीश की पार्टी सभी 324 सीटों पर लड़ रही थी। खुद नीतीश दो जगह से मैदान में थे। नतीजे जब आए तो लालू के पक्ष में बैलेट बॉक्स से जिन्न निकल गया। लालू अपने दम पर चुनाव जीत गये। नीतीश की पार्टी 7 सीटों पर सिमट गई। इनमें से भी खुद नीतीश 2 सीटों पर चुनाव जीते थे। 1995 के चुनाव में विपक्ष बंटा हुआ था। कुर्मी-कोइरी वोट बैंक की अगुवाई नीतीश कर रहे थे तो राजपूत और सवर्ण के एक तबके का नेतृत्व उस वक्त आनंद मोहन के हाथ में था। वैश्य, शहरी और आदिवासी बहुल इलाकों में बीजेपी की पकड़ थी। ये तीनों लालू को चुनौती नहीं दे पाए थे।
                 जॉर्ज ने तब बिहार की राजनीति को समझते हुए बीजेपी से हाथ मिलाया। आनंद मोहन समता पार्टी में शामिल हो गए। 1996 के चुनाव में बीजेपी और समता पार्टी के गठबंधन ने चुनाव लड़ा। बिहार में पार्टी सीट तो ज्यादा नहीं जीत पाई लेकिन वोट बहुत मिले।
इसी दौर में लालू के खिलाफ चारा घोटाले का खुलासा हुआ था। तब 900 करोड़ का ये घोटाला देश का सबसे बड़ा घोटाला था। नीतीश और उनके लोग लालू के खिलाफ आंदोलन करते थे। नीतीश और लालू की सियासी दुश्मनी में नीतीश के सैकड़ों कार्यकर्ताओं की जान गई। पूर्णिया के पार्टी अध्यक्ष बूटन सिंह की हत्या, समस्तीपुर की सांसद रहीं अश्वमेघ देवी के पति प्रदीप महतो की हत्या, मुजफ्फरपुर के पार्टी अध्यक्ष अमलेंदू सिंह और प्रदेश सचिव शंभू सिंह की हत्या और न जाने नीतीश का झंडा ढोने वाले कितने लालू विरोधियों को मौत के घाट उतार दिया गया। मुजफ्फरपुर के साहेबगंज और देवरिया के इलाके में नीतीश समर्थक अपने घर में लालू के समर्थकों के डर से रहते नहीं थे । नक्सली और रणवीर सेना का खूनी खेल चलता था । बिहार में लालू का जंगल राज चल रहा था। पटना जैसे शहर में शाम होते होते सन्नाटा हो जाता था। इस दौर में लोग नीतीश में उम्मीद की किरण देख रहे थे।  
धीरे-धीरे बीजेपी और समता पार्टी का ये गठबंधन मजबूत होता गया। तब केंद्र में मंत्री रहे जॉर्ज वाजपेयी के संकट मोचन कहे जाते थे। साल 2000 में बिहार का बंटवारा हुआ और विधानसभा के जो चुनाव हुए उसमें बीजेपी और समता पार्टी ने बिहार में नीतीश को नेता प्रोजेक्ट किया। नीतीश की पार्टी बीजेपी की तुलना में छोटी पार्टी थी। फिर भी जॉर्ज ने नीतीश के नाम पर बीजेपी को राजी कर लिया। तब पासवान, नीतीश, बीजेपी और आनंद मोहन का गठजोड़ हुआ था।
                       जॉर्ज ने सपने में भी नहीं सोचा रहा होगा कि जिन नीतीश को वो आगे कर रहे हैं एक दिन वही नीतीश उनकी राजनीति को सड़क पर लाकर छोड़ेगे।
2000 के चुनाव में नीतीश को बहुमत तो नहीं मिला लेकिन राज्यपाल बीजेपी से रिश्ता रखने वाले थे सो नीतीश को सरकार बनाने का न्योता मिल गया। नीतीश पहली बार 7 दिन के लिए मुख्यमंत्री बने। हालांकि बहुमत साबित नहीं हुआ और राबड़ी फिर से मुख्यमंत्री बन गईं। नीतीश और जॉर्ज केंद्र में मंत्री थे। इस दौर में एक बार राबड़ी सरकार बर्खास्त भी की गई। लालू राबड़ी के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का केस भी चला। लालू और नीतीश की सियासी दुश्मनी चरम पर थी।
इस 6 साल में कई राजनीतिक घटनाएं हुई । जनता दल कई बार टूटा। अध्यक्ष के सवाल पर लालू अलग हो गये थे । लालू के अलग होने के वक्त शरद और रामविलास एक साथ थे लेकिन बाद में रामविलास भी अलग हो गये। जनता दल का चक्र चुनाव चिन्ह जब्त हो गया। देवेगौड़ा जनता दल एस के नेता हो गये। शरद यादव जनता दल यू के। शरद यादव और पासवान भी वाजपेयी सरकार में मंत्री बने। जनता दल यू का समता पार्टी में विलय हुआ। जॉर्ज अध्यक्ष बने और पार्टी रही जनता दल यू। लेकिन 2000 के विधानसभा चुनाव से पहले जनता दल यू और समता पार्टी फिर से अलग हो गई। 2004 के लोकसभा चुनाव में फिर से शरद यादव और जॉर्ज एक पार्टी में हो गए।
2005 के अक्टूबर महीने में हुए चुनाव में बीजेपी जेडीयू गठबंधन को बड़ी जीत मिली और नीतीश मुख्यमंत्री बने।
 5 साल में नीतीश सरकार ने बिहार की तस्वीर बदल दी। नीतीश की पहचान सुशासन बाबू के तौर पर होने लगी। बिहार में बदलाव दिख रहा था। लालू दिल्ली में सक्रिय थे। बिहार बिल्कुल बदलने लगा था। 2010 के चुनाव में तो नीतीश और बीजेपी गठबंधन को उम्मीद से ज्यादा सीटें मिली और लालू बिल्कुल खत्म हो गये। लालू के जेल जाने के बाद ये माना जा रहा था कि लालू की राजनीति खत्म हो गई है। लोकसभा चुनाव में मोदी की लहर चल रही थी। वोट मांगने पहुंच रहे नीतीश की पार्टी के नेताओं को लोग कह रहे थे कि मुख्यमंत्री का चुनाव नहीं हो रहा है जब पटना वाला चुनाव होगा तो आपकी पार्टी को वोट देंगे। इस बार मोदी की लहर है।
लेकिन नतीजों ने नीतीश को हिला कर रख दिया। सिर्फ 2 सीटों पर सिमटे नीतीश ने 17 मई को मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। दो दिनों तक ड्रामा चला और 19 मई को जीतन राम मांझी नये मुख्यमंत्री बने। नीतीश की पार्टी के पास बहुमत का टोटा नहीं था फिर भी लालू ने नीतीश की पार्टी की सरकार को समर्थन दे दिया। शरद यादव और केसी त्यागी जैसे नेता लालू के पक्ष में खुलेआम बयान दे रहे थे। 20 साल की दुश्मनी नरेंद्र मोदी की वजह से दोस्ती में बदल गई। जिस लालू की राजनीति का विरोध करके नीतीश यहां तक पहुंचे उसी राजनीति को नीतीश ने अपना अस्तित्व बचाने के लिए स्वीकार कर लिया।
कहते हैं राजनीति में कोई दोस्त या दुश्मन नहीं होता। लालू के साथ जितने लोग दस साल तक मंत्री थे उनलोगों ने नीतीश की सत्ता आने पर लालू को ठोकर मार दिया था। रमई राम, श्याम रजक या फिर आज के सीएम जीतन राम मांझी, स्पीकर उदय नारायण चौधरी जैसे लोग लालू-राबड़ी के राज में उनके लेफ्ट राइट हुआ करते थे। सिर्फ लालू की कमी रह गई थी सो अब नीतीश की पार्टी में वो कमी भी पूरी हो गई है। लेकिन उनका क्या जिन्होंने लालू-नीतीश की लड़ाई में अपना सबकुछ खोया... प्रदीप महतो की पत्नी अश्वमेघ देवी चुनाव हार चुकी हैं....लेसी सिंह मंत्री हैं जिनके पति बूटन सिंह की हत्या हुई थी....रामविचार राय के विरोध राजू सिंह देवरिया और साहेबगंज में राजपूतों को क्या कहेंगे... ऐसे सैकड़ों नेता और कार्यकर्ता हैं जिनके पैर के नीचे से नीतीश ने जमीन खींच ली है...देखिये आगे क्या होता है…..

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