Sunday, December 15, 2013

पहले जॉर्ज अब शरद की बारी.....

चर्चा तो बहुत दिनों से हो रही थी लेकिन हाल के दिनों में जिस तरीके से नीतीश कुमार ने पार्टी पर अपनी पकड़ स्थापित कर ली है उससे शरद यादव खुद को काफी कमजोर महसूस कर रहे है। बिहार में नीतीश ने जिस दिन लोकसभा चुनाव प्रचार का बिगुल फूंका उस दिन के कार्यक्रम में शरद यादव नहीं थे। ऐसा भी कोई ऐतिहासिक काम शरद जी के जिम्मे नहीं था कि वो मोतिहारी न जा सके। लेकिन कहा जा रहा है कि शरद यादव को नीतीश की ओर से पूछा ही नहीं गया।
        इतना ही नहीं 7 दिसंबर को संपन्न हुए इस कार्यक्रम के लिए जो बैनर, पोस्टर और होर्डिंग लगाये गये थे उनमें किसी में भी न तो शरद यादव का नाम था और ना ही उनकी छोटी-बड़ी कोई तस्वीर। शरद यादव के तथाकथित समर्थकों को भी कार्यक्रम से दूर रखा गया। अब ये तो कोई भी राजनीतिक प्राणी समझ ही सकता है कि लोकसभा की तैयारी हो और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष सीन से गायब हो तो भला स्थिति क्या हो सकती है।
          तल्खी इस बात से और पुख्ता होती है कि हाल ही में एक स्टिंग ऑपरेशन में पार्टी के तीन सांसदों के नाम आए हैं । भूदेव चौधरी जमुई से और महेश्वर हजारी समस्तीपुर से सांसद हैं। ये दोनों सीट सुरक्षित है। यानी ताजा स्थिति में नीतीश का कोर वोट बैंक। तीसरे विश्व मोहन कुमार हैं जो सुपौल से सांसद हैं । तीनों पहली बार 2009 में सांसद का चुनाव जीतकर दिल्ली गये थे। पटना में इस बात की चर्चा है कि नीतीश की मर्जी के खिलाफ शरद यादव ने इन सांसदों को कारण बताओ नोटिस दिया है। नीतीश नहीं चाहते हैं कि इस राजनीतिक माहौल में उनके अति पिछड़े वोट बैंक पर किसी तरह का कोई असर पड़े। लेकिन शरद यादव तो भाई पार्टी के अध्यक्ष हैं सो मौका देखकर चौका मार दिया। ये अलग बात है कि इससे सांसदों को कुछ होने जाने को नहीं है, लेकिन फिर भी नीतीश को शरद यादव ने आंख तो दिखा ही दिया है।
               
 अब इतना ही नहीं, नीतीश जिस फेडरल फ्रंट को लेकर उत्साहित हैं खबर है कि शरद यादव वो भी पसंद नहीं है। शरद यादव जब एनडीए के संयोजक थे तब पार्टी के मामले में ज्यादा दखल नहीं देते थे... लेकिन इस कुर्सी के जाने के बाद व्याकुल हैं।
यहां आपको बताते चलें कि बीजेपी से अलग होने को लेकर शरद यादव नीतीश से सहमत नहीं थे, प्रणब मुखर्जी को समर्थन के सवाल पर भी शरद यादव नीतीश के फैसले के सामने झुके थे। 
 कहा जा रहा है कि वो इस बार लोकसभा का चुनाव भी नहीं लड़ेंगे। लालू के जेल जाने की वजह से यादवों में शरद यादव को लेकर काफी गुस्सा है। इसिलिए शरद यादव बुढ़ापे में कोई रिस्क नहीं लेना चाहते ।
         शरद यादव कुछ करेंगे या नहीं ये तो बेहतर शरद यादव जानते हैं। लेकिन उनके जो समर्थक हैं वो छटपटा रहे हैं। कुछ जेडीयू सांसद लालू के संपर्क में भी हैं। नीतीश के लिए मुश्किल एक जगह नहीं है। लोकसभा चुनाव का एलान महीना-दो महीना में हो जाएगा। लेकिन परेशानी ये है कि नीतीश के पास लड़ने के लिए 40 सीटों पर मजबूत उम्मीदवार नहीं मिल रहा है। हाल ही में नीतीश की पार्टी में बाहुबली छवि के कई नेताओं को शामिल कराया गया है।शरद यादव इसको लेकर भी नाराज हैं। चर्चा है कि सीवान से चुनाव लड़ाने के लिए बाहुबली शहाबुद्दीन की पत्नी हिना को भी पार्टी में लाने की तैयारी हो रही है। हालांकि लालू के जेल से बाहर आने के बाद अब कुछ तस्वीर अलग भी हो सकती है।
           जहां तक उम्मीदवारों की बात है तो नीतीश के पास बिहार में पार्टी का मजबूत संगठन तो है लेकिन लड़ने के लिए मजबूत उम्मीदवारों की कमी है। अब अगर तालमेल नहीं हुआ किसी से तो भी 40 लोग तो लड़ ही लेंगे। लेकिन लड़ के जीतेंगे कितने इसको लेकर अभी पॉलिटिकल पंडित भी कुछ कहने की हालत में नहीं हैं। वैसे एक बात जो चर्चा में है वो ये कि बिहार में मोदी की काट के लिए नीतीश भी हिंदू-मुस्लिम फैक्टर के भरोसे ही चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं। इसलिए ज्यादा से ज्यादा मुस्लिमों को नीतीश उम्मीदवार बना दें तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हां एक बात और नीतीश और शऱद की जोड़ी ने आखिरी वक्त में जॉर्ज के साथ जो किया था उसका फल तो......


Monday, September 30, 2013

लालू के जेल जाने से ज्यादा नुकसान किसको?

क्या लालू के जेल जाने से सबसे ज्यादा नुकसान नीतीश कुमार को होने वाला है? आप कहेंगे कि हर कोई लालू के नुकसान की बात कर रहा है और हम यहां नीतीश के नुकसान का जिक्र कर रहे हैं । असल में बिहार का जो ताजा राजनीतिक समीकरण है उस हिसाब से ये सवाल अहम हो जाता है ।




बिहार में लालू शुरू से पिछड़ों की राजनीति कर रहे हैं । लालू और मुस्लिम समीकरण के दम पर ही लालू ने बिहार में रिकॉर्ड पंद्रह साल तक राज किया । अब इस समीकरण में नीतीश सेंध लगाने के लिए तैयार बैठे हैं । नीतीश की नजर मुस्लिम वोटरों पर है । इसी वोट के चलते नीतीश ने सत्रह साल का अपना पुराना गठबंधन बीजेपी से तोड़ लिया । अब अगर लालू के सेंटीमेंट में मुस्लिम और यादव आक्रमक रूप से एक साथ फिर एक हो गये तो नीतीश के लिए न माया मिली न राम वाली स्थिति हो सकती है ।



ढाई दशक से लालू के आसपास ही बिहार की राजनीति घूम रही है । लालू ने सत्ता में आते ही सबसे पहले कांग्रेस के आधार वोट में सेंध लगाई और मुस्लिमों में अपना वोट बैंक मजबूत किया । 1991 के विवादित ढांचा गिरने के बाद लालू मुसलमानों में और ज्यादा लोकप्रिय हो गए । इसके बाद बिहार में जो MY समीकरण बना वो पंद्रह साल तक अटूट रहा । 2005 में पासवान के मुस्लिम मुख्यमंत्री के दांव के बाद राजनीतिक समीकरण बदलने लगे । पासवान बाद में भले ही लालू के साथ हो गए लेकिन पिछड़े मुस्लिमों ने नीतीश का दामन थाम लिया । इसी का नतीजा रहा कि 2010 के चुनाव आते आते नीतीश बीजेपी के साथ गठबंधन करके दो सौ से ज्यादा सीट गए । अब सवाल यही है मुस्लिम वोटों का क्या होगा ?



लालू को मुस्लिम वोटरों को अपने साथ जोड़े रखने के लिए यादव सेंटीमेंट को उभारना होगा । लालू की ओर से हाल के दिनों में ये कोशिश हुई भी है । लेकिन जब तक लालू का कुनबा बिहार के करीब बीस फीसदी यादव वोटरों को अपने प्रति आक्रमक रूप से नहीं जोड़ेगा तब तक लालू के लौटने की गुंजाइश नहीं होगी । और अब बदली हुई परिस्थिति में यादव वोटरों के बीच ये संदेश बताने की कोशिश हो सकती है कि लालू को मिलकर हर कोई परेशान कर रहा हैं ।



जेल जाने का फायदा लालू पहले भी उठा चुके हैं । चारा घोटाले में गिरफ्तार होकर लालू पहली बार जब जेल गये थे उसके बाद 1998 में लोकसभा का चुनाव हुआ था । उस चुनाव में झारखंड के इलाके को छोड़ दे तो बिहार की चालीस लोकसभा सीटों में 21 सीटों पर लालू गठबंधन को जीत मिली थी । इनमें से अकेले लालू की पार्टी को 17, कांग्रेस को 3 और एक शिवहर की सीट लालू के समर्थन ने आनंद मोहन ने जीत ली थी । साल 2000 के विधानसभा चुनाव में भी पूरा विपक्ष एक होकर चुनाव लड़ रहा था तब भी लालू की पार्टी को 242 में से 115 सीटों पर जीत मिली थी । इस चुनाव में लालू को 33 फीसदी वोट मिले थे । लालू के रणनीतिकार भी इस हकीकत से वाकिफ हैं ।

ये अलग बात है कि अब उस जमाने की रणनीति नहीं रह गई है ।



अब इस सियासी खेल में बीजेपी के अपनी रणनीति है । बीजेपी ये बताने में जुटी है कि

लालू कमजोर नहीं हुए हैं । बीजेपी अपने इस बयान से अपने सवर्ण वोटरों में लालू के जंगल राज का खौफ तो दिखा ही रही है । ये कहकर मुस्लिम और यादव वोटरों को भी लालू के पास ही रहने देने का संदेश देने की कोशिश है । क्योंकि अगर बीजेपी के नेता ये कहते हैं कि लालू कमजोर हो गये हैं तो मुस्लिम वोटर नीतीश के पाले में जा सकते हैं और इसका नुकसान बीजेपी को होगा ।



यही वजह है कि नीतीश जैसे माहिर खिलाड़ी ने भी इतने बड़े फैसले के बाद मुंह बंद रखने में ही अपनी भलाई समझी । क्योंकि नीतीश की टिप्पणी यादवों को भावनात्मक रूप से लालू के नाम पर गोलबंद कर सकती है । नीतीश की पार्टी में भी यादव जाति के चार सांसद हैं और यादव सेंटीमेंट का नुकसान इनकी राजनीतिक दुकानदारी ठप कर सकता है ।



लालू की पार्टी में ऐसा कोई नेता दिखता नहीं है जो सिर्फ अपने दम पर सीट निकाल ले । इसलिए पार्टी में जिनको रहना है उनको लालू का फैसला मानना होगा । अब नेतृत्व को लेकर लालू कैसा फैसला लेते हैं इस पर बहस हो सकती है । यादवों में अपना संदेश देने के लिए लालू को अपने बेटे को ही आगे करना होगा । रघुवंश सिंह और प्रभुनाथ सिंह जैसे नेताओं की अपनी अहमियत जरूर है लेकिन ये नेता नेतृत्व नहीं दे सकते । वैसे लालू के लिए झारखंड की जेल में रहकर पार्टी चलाने में ज्यादा परेशानी नहीं होगी । क्योंकि हेमंत सोरेन सरकार में लालू की पार्टी भी अहम सहयोगी है ।

Friday, August 9, 2013

भागो-भागो टोपी आया.....

ईद के दिन पटना में नीतीश भी टोपी पहनकर निकले तो भोपाल में बीजेपी के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी। लालू से लेकर अखिलेश यादव तक । हर कोई टोपी पहनकर खुद को अल्पसंख्यकों का सबसे बड़ा रहनुमा बताने में लगा था । लेकिन इस मौके पर भी सुर्खियां बनी मोदी की दो साल पहले वाली वो टोपी जिसे उन्होंने मंच पर ही पहनने से इनकार कर दिया था । सद्भावना उपवास के दौरान 18 सितंबर 2011 को मंच पर जब एक इमाम ने टोपी पहनाने की कोशिश की तो मोदी ने इनकार कर दिया ।  दो साल हो गए लेकिन  टोपी का भूत नरेंद्र मोदी का पीछा नही छोड़ा रहा।

भोपाल का ईदगाह मैदान
        भोपाल में कांग्रेस से जुड़े अभिनेता रजा मुराद जब टोपी प्रकरण पर बोल रहे थे तब  बगल में शिवराज सिंह चौहान भी खडे थे । रजा मुराद ने टोपी को आधार बनाकर शिवराज को मोदी की तुलना में अल्पसंख्यकों का बड़ा हितैषी बताया । सधे शब्दों में खूब खरी खोटी भी सुना दी । ये भी कहा कि दूसरे मुख्यमंत्रियों को शिवराज से सीख लेने की जरूरत है । रजा मुराद ने यहां तक कहा कि देश की सबसे बड़ी कुर्सी पर बैठना है तो सबको साथ लेकर चलना होगा । भले ही रजा मुराद ने नाम किसी का नहीं लिया लेकिन सब जान गये कि कांग्रेस के जडे कलाकर के निशाने पर नरेंद्र मोदी ही हैं ।  
                         मोदी के विरोधी नीतीश कुमार भी समय समय पर टोपी का मुद्दा छेड़ते ही रहे हैं । नीतीश जब बीजेपी के साथ थे तब उन्होंने मोदी पर निशाना साधते हुए कहा था कि समय पड़ने पर टोपी भी पहननी पड़ती है और तिलक भी लगाना पड़ता है । हालांकि मोदी पर नीतीश की सलाह का कोई असर नहीं दिखा । 
18 सितंबर 2011
 देश में करीब 15 करोड़ आबादी मुसलमानों की है। मुसलमानों के बीच मोदी की जो छवि है वो किसी से छिपी नहीं है । राजनीति में आज भी खुद को सेक्यूलर बताने वाले नेता और पार्टियां मोदी से दस कदम दूर ही रहना चाहती है। 
 
            टोपी प्रकरण में इसी महीने एक नया विवाद भी जुडा जब twitter पर मोदी के नाम से उर्दू में ट्वीट होने लगा। इस twitter एकाउंट पर मोदी की जो तस्वीर लगी थी उसमें उन्हें टोपी पहने दिखाया गया था । हालांकि बाद में मोदी की ओर से साफ किया गया कि ये एकाउंट ही फर्जी है ।  
                  जब से दिल्ली की राजनीति में मोदी ने दस्तक दी है तब से वो टोपी विवाद से निकलने की कोशिश कर रहे हैं । हालांकि इसके लिए अभी उन्होंने टोपी नहीं पहनी है । लेकिन अपने दायरे में रहकर कोशिश कर रहे हैं । कल ईद के एलान होने का वक्त हो तब या फिर आज ईद के नमाज का वक्त । मोदी ने ट्वीट कर मुसलमान भाइयों को ईद की बधाई देने में देरी नहीं की । वैसे मोदी के टोपी नहीं पहनने के कई कारण हो सकते हैं । हर विश्लेषक अपने अपने तरह से टोपी विवाद का विश्लेषण कर सकता है । कुछ को हिंदूवादी छवि पर असर कारण लग सकता है तो कोई बीजेपी के लिए मजबूरी कह सकता है। इस्लाम के जानकार टोपी की राजनीति को अपमान मानते हैं । वैसे मोदी के समर्थक ये दावा जरूर करते रहे हैं कि टोपी नहीं पहनने से मोदी की लोकप्रियता में कमी नहीं आई है ।

नीतीश को भीम सिंह की जरूरत है !

1996 की बात है मैं राधवेंद्र सिंह के साथ भीम सिंह की जीप में बैठकर शिवहर से मुजफ्फरपुर तक आया था । तब भीम सिंह बिहार में युवा समता के अध्यक्ष थे और राघवेंद्र सिंह छात्र समता के। उस दिन भीम सिंह शिवहर में युवा समता के जिलाध्यक्ष के चुनाव में हिस्सा लेने गए थे। संजय पांडे (अब इस दुनिया में नहीं) और दिनेश सिंह दो दावेदार थे। संजय पांडे से मेरी नजदीकी थी इसलिए मैं जीप में लौटते वक्त संजय पांडे की पैरवी कर रहा था। बाद में संजय पांडे अध्यक्ष बने तो आनंद मोहन (तब यूथ के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे) ने पूरी बिहार यूनिट ही भंग कर दी थी।
                    कल सुबह जब प्रकाश कुमार की रिपोर्ट में भीम सिंह के घर के बाहर खड़ी महंगी करीब दर्जन भर गाड़ियां देखी तो दंग रह गया। एक वो वक्त था जब भीम सिंह विपक्ष की राजनीति करते थे। समता पार्टी की युवा इकाई के अध्यक्ष होने के बाद पुराने जमाने की एक जीप में बिहार भर में घूमा करते थे। एक ये वक्त है जब उनकी पार्किंग में दर्जन भर गाड़ियां खड़ी हैं।

                  गया के रहने वाले भीम सिंह कहार जाति के हैं। भीम सिंह ने राजनीति की शुरुआत लालू, पासवान और नीतीश के साथ पटना यूनिवर्सिटी से की थी । नीतीश के साथ शुरुआत से जुड़े रहे। नीतीश ने करीबी होने की वजह से ख्याल भी रखा। 1994 में जब नीतीश ने समता पार्टी बनाई तब भीम सिंह युवा के बिहार के अध्यक्ष बने। बिहार में भीम सिंह ने समता पार्टी की युवा इकाई को पार्टी के संगठन से ज्यादा मजबूत बनाया।
                  भीम सिंह नीतीश मंत्रिमंडल में पढ़े लिखे नेताओं में से एक हैं । मैट्रिक, इंटर, बीएससी फर्स्ट क्लास से पास हैं। दो विषयों में एम हैं। पीएचडी और लॉ भी कर चुके हैं। प्रोफेसर भी रह चुके हैं । लेकिन आज उन्होंने जिस तरीके से महुआ चैनल के रिपोर्टर से बात की उससे न सिर्फ उनकी साख को बट्टा लगा बल्कि पूरे देश में बिहार और बिहार सरकार की थू-थू होने लगी।
भीम सिंह परसों रात विभागीय बैठक करके सरकारी निवास पर लौटे थे। रात को 8 बजे ही सो गए। भीम सिंह ही नहीं। विजय चौधरी, विजेंद्र यादव, पी के शाही, गौतम सिंह सब के सब सोते रहे । कल सुबह चैनल पर जब खबर चली तो मानो हड़कंप मच गया । नीतीश दिल्ली में थे । मंत्रियों को शहीदों के घर जाने का आदेश सुनाया। श्याम रजक समय से आरा पहुंच गये। रेणु कुमारी बिहटा पहुंचीं। लेकिन छपरा जाने वाले नरेंद्र सिंह और अवधेश कुशवाहा टाइम से नहीं पहुंचे। डैमज कंट्रोल की नीतीश की कोशिश पर पानी फेरा भीम सिंह ने।
                     “सेना की नौकरी सैनिक शहीद होनो के लिए ही करते हैं ।“  पत्रकार को तो भीम सिंह इससे आगे जाकर बहुत कुछ सुना गए । पटना से लेकर दिल्ली तक हड़कंप मच गया। दिल्ली से फोन करके नीतीश ने भीम सिंह को हड़काया। तुरंत भीम सिंह ने माफी मांगी।
वैसे भीम सिंह को जो लोग जानते हैं वो इतना जानते हैं कि उनकी गिनती बिहार के चंद अच्छे नेताओं में से होती है। बोल चाल से लेकर बात व्यवहार तक। हालांकि छात्र राजनीति की उपज होने की वजह से तेवर तो उग्र हैं लेकिन किसी का कभी नुकसान नहीं किया।
     नीतीश कुमार से एक बार अनबन हो गई तो लालू के साथ चले गए। 2005 में जब नीतीश मुख्यमंत्री बने तो लालू ने भीम सिंह को बिहार विधान परिषद का सदस्य बनाया था। कार्यकाल खत्म होने के बाद नीतीश ने भीम सिंह को अपने पास बुला लिया और दोस्ती का तोहफा देते हुए मंत्री की कुर्सी दे दी । पार्टी की राजनीति में भीम सिंह को पिछड़ों में नीतीश के बाद नंबर दो माना जाता है। माना जा रहा है कि नीतीश अगर दिल्ली की राजनीति में सक्रिय होते हैं तो बिहार में भीम सिंह ही उनके उत्तराधिकारी होंगे। लेकिन जिस तरीके से भीम सिंह ने कल बयान दिया उससे नीतीश को सदमा जरूर लगा होगा। वैसे राजनीति में कुछ कह नहीं सकते।
                भीम सिंह ने बिहार के पंचायती राज व्यवस्था में कई बदलाव किए। भीम सिंह ने जब से इस विभाग का कार्यभार संभाला तब से बिहार के पंचायत दफ्तरों की तस्वीर बदल गई। भीम सिंह ने ही बिहार में महिला मुखिया और महिला पंचायत समिति सदस्यों की जगह उनके पतियों के सरकारी बैठक में शामिल होने पर रोक लगा दी । इस फैसले ने बिहार जैसे पिछड़े राज्य में क्रांति का काम किया । पहले जहां बिहार में सरकारी फोन कॉल्स मुखिया के पति रिसीव करते थे अब खुद मुखिया या पंचायत समिति की महिला सदस्य ही सरकारी फोन रिसीव करती हैं । हालत ये है कि इस फैसले के बाद महिला प्रतिनिधि अब पढ़ाई-लिखाई भी करने लगी हैं। बिहार में पचास फीसदी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित है। नीतीश और बिहार की मजबूती में भीम सिंह के ये योगदान तो मानना पड़ेगा।
           भीम सिंह का कद बढ़ाने के लिए नीतीश ने उपेंद्र कुशवाहा से लेकर भगवान सिंह कुशवाहा तक का कद कम कर दिया। 

Monday, August 5, 2013

ड्राइवर से डॉन बने सलेम को फांसी नहीं होगी

   देश की सबसे बड़ी अदालत ने साफ कर दिया है कि 1993 के मुंबई धमाकों के आरोपी अबु सलेम पर दोष साबित भी होता है तो उसे फांसी की सजा नहीं हो सकती । सलेम ने कोर्ट में अर्जी केस खत्म करने की दी थी। अदालत ने सलेम की बात तो नहीं सुनी लेकिन उसे एक तरह से जीवन दान जरूर दे दिया। सलेम को जब साल 2005 में पुर्तगाल से भारत लाया गया था तभी पुर्तगाल से ये करार हुआ था कि सलेम को 25 साल से ज्यादा या फिर फांसी की सजा नहीं मिलेगी। कोर्ट से इस करार को सही करार दिया है।
                         80 से दशक में सलेम ने अपराध की दुनिया में एंट्री ली थी । तब वह आजमगढ़ के अपने गांव सराय मीर से दिल्ली कमाने के लिए आया था। दिल्ली में कुछ दिन टैक्सी ड्राइवर का काम किया लेकिन किस्मत को उसे अपराध के दलदल में धकेलना था सो 1980 के बीच में वो मुंबई आ गया। मुंबई में सलेम ने रेडिमेड कपड़ों का कारोबार शुरू किया। मन नहीं लगा तो कुछ दिन टेलीफोन बूथ के धंधे से जुड़ा। इसी दौरान उसकी मुलाकात डॉन के खासमखास छोटा शकील से हुई।

            डी कंपनी में सलेम ने छोटा शकील के ड्राइवर के तौर पर एंट्री ली थी । शुरुआत में सलेम को शूटरों तक हथियार पहुंचाने का काम दिया गया। अंडरवर्ल्ड को करीब से जानने वाले बताते हैं कि सलेम को इस वजह से कंपनी में अबु सामान भी कहा जाने लगा था। सलेम ने ही 1993 में संजय दत्त तक एके-56 पहुंचाए थे।
             सलेम ने दाऊद गैंग में अपनी ऐसी जगह बनाई कि उसकी गिनती कंपनी में छोटा शकील के बाद होने लगी थी। इस दौर में डी कंपनी में सलेम छोटा शकील के बाद दाऊद का सबसे भरोसेमंद हो गया था। 1997 में निर्माता मुकेश दुग्गल की हत्या के बाद सलेम और मोनिका बेदी एक दूसरे के करीब आए। मुकेश दुग्गल की हत्या में सलेम का हाथ ही बताया जाता है। बताया जाता है कि सलेम से पहले मोनिका मुकेश दुग्गल की ही प्रेमिका थी। जून में दुग्गल की हत्या हुई इसके बाद 12 अगस्त 1997 को गुलशन कुमार की भी हत्या हो गई।
 कहा जाता है कि सलेम ने कैसेट किंग गुलशन कुमार की हत्या से पहले दाऊद की इजाजत नहीं ली थी। दाऊद इतना नाराज हुआ कि सबके सामने उसने सलेम को थप्पड़ जड़ दिया। इसी के बाद सलेम ने दाऊद गैंग से नाता तोड़ लिया।

                मोनिका बेदी से सलेम ने दूसरी शादी कर ली थी। सलेम की पहली पत्नी समीरा अमेरिका में रहती है। मुंबई धमाकों के बाद सलेम भारत से भागा भागा फिर रहा था।
 2 सितंबर को जब सलेम को पुर्तगाल के लिस्बन से गिरफ्तार किया गया तब मोनिका भी उसके साथ थी। करीब तीन साल की कोशिश के बाद पुर्तगाल ने सलेम को साल 2005 में भारत के हवाले किया।
              पुर्तगाल से हुए करार के मुताबिक सलेम को भारत में फांसी या फिर 25 साल की सजा नहीं दी जा सकती थी। सलेम पर भारत में 50 के आसपास मुकदमे हैं। मुंबई धमाकों के साथ ही गुलशन कुमार हत्याकांड, मुकेश दुग्गल हत्याकांड, अजीत देवानी हत्याकांड और कई बिल्डरों, फिल्म निर्माता-निर्देशकों को धमकाने का आरोप है। फर्जी पासपोर्ट के जरिये देश छोड़ने का आरोप भी सलेम पर है। नारको टेस्ट में सलेम कई आरोपों में अपना गुनाह कबूल भी चुका है।
            सलेम ने 2007 में यूपी से विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी भी की थी। आजमगढ़ और मुबारकपुर में पोस्टर भी लग गए थे लेकिन कोर्ट ने सलेम को सियासत के अखाड़े में उतरने की इजाजत नहीं दी। मुंबई की जेल में सलेम पर दो बार हमले भी हो चुके हैं ।

   27 जून को नवी मुंबई की तलोजा जेल में दाऊद के आदमी ने सलेम पर हमला किया था। इससे पहले जुलाई 2010 में भी आर्थर रोड जेल में सलेम पर हमला हुआ था। कहा जाता है कि सलेम को गिरफ्तार कराने में भी दाऊद का ही रोल था। अदालत के फैसले से सलेम को कम से कम इस बात का सकून होगा कि उसे फांसी की सजा तो नहीं मिलेगी। 

Monday, June 10, 2013

आडवाणी युग का अंत?

9 जून 2013 । बीजेपी की गोवा राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में नरेंद्र मोदी को चुनाव अभियान समिति की कमान सौंपी गई। कहा जाने लगा है कि बीजेपी में अब आडवाणी युग का अंत हो गया है।  आडवाणी ने अपनी हर कोशिश की लेकिन वो मोदी का रास्ता नहीं रोक सके। नरेंद्र मोदी को बीजेपी ने 2014 के लोकसभा चुनाव अभियान समिति की जिम्मेदारी दी है। आडवाणी नहीं चाहते थे इसलिए सवाल ये है कि आडवाणी क्या करेंगे? क्या पार्टी पर पकड़ बनाए रखने के लिए अब संसदीय बोर्ड से इस्तीफे का सहारा लेंगे?       
अब इसकी जरूरत नहीं?
       
  राजनीति में तथाकथित एक्सपायर हो चुके नेताओं को साइड करने का ये कोई पहला उदाहरण नहीं है। आडवाणी भले ही बीजेपी को बनाने वाले नेता रहे हों.. लेकिन आज आडवाणी सिर्फ सम्मान पाने के अलावा और किसी स्थिति में नहीं है। बहुत लोगों को याद नहीं होगा लेकिन 2005 में बिहार में जब नीतीश की सरकार बनी थी तब उसके बाद जॉर्ज फर्नांडिस को नीतीश ने साइड कर दिया था। जिन जॉर्ज ने नीतीश और पार्टी को इस स्थिति में लाया उसे नीतीश ने दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका। वाजपेयी की सरकार बनवाने में अहम रोल निभाने वाले जॉर्ज आज कहां हैं किसी को याद नहीं होगा...जॉर्ज के दिन जब खराब हुए थे तब आडवाणी ने भी नीतीश का साथ दिया था। इतिहास दोहरा रहा है। हो सकता है इस बुरे वक्त में नीतीश का साथ आडवाणी को मिल जाए। लेकिन ज्यादा दिन तक ये साथ रह पाएगा मुमकिन नहीं दिखता।
                    असल में बीजेपी में आडवाणी के बुरे वक्त की शुरुआत 2005 में ही हो गई थी। लेकिन किस्मत कहिए कि उन्हें 8 साल तक इसलिए पार्टी में पूजा गया क्योंकि कोई नेता उनके कद को चुनौती देने की हालत में नहीं था। जैसे ही चुनौती देने वाला दिखा पार्टी ने उनसे किनारा करने में पल भर की देरी नहीं लगाई।
                     2005 से पहले आडवाणी की छवि कट्टर हिंदूवादी नेता की थी। इसका नुकसान उन्हें 1996 में उठाना पड़ा जब वाजपेयी को सहयोगियों ने पसंद किया और कट्टर छवि की वजह से आडवाणी पीछे रह गये। आडवाणी के मन में कहीं न कहीं ये कसक जरूरी थी। 2004 में वाजपेयी के नेतृत्व में चुनाव हारने के बाद अगले साल आडवाणी पाकिस्तान दौरे पर गए थे।
काश! ये गलती न करता?
  कराची में जिन्ना की मजार पर जाकर न सिर्फ उन्होंने फूल-माला चढाई बल्कि उन्हें धर्मनिरपेक्ष नेता तक कह दिया । जिन्ना को भारत-पाकिस्तान बंटवारे का जिम्मेदार माना जाता है। कट्टर हिंदूवादी माने जाने वाले आडवाणी अपनी छवि सुधारने के लिए जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बता कर जब भारत लौटे तो हाहाकर मच गया था। आडवाणी तब पार्टी के अध्यक्ष थे और संघ ने उन्हें इस्तीफा देने को कह दिया। जिन्ना विवाद में आडवाणी की कुर्सी चली गई। अपने चक्रव्यूह में उलझकर संघ की चाल के आगे आडवाणी मात गए थे। 
                लेकिन आडवाणी आसानी से मानने वाले नहीं थे। तब पार्टी में उस कद का कोई नेता भी नहीं था। आडवाणी ने 2009 के चुनाव से पहले एनडीए के बाकी दलों के नेताओं को पुराने संबंधों का हवाला देकर तैयार कराया । नतीजा हुआ कि संघ को सरेंडर करना पड़ा और 2009 के चुनाव में आडवाणी की अगुवाई में पार्टी चुनाव में उतरी। आडवाणी एनडीए को जीता नहीं पाए। संघ का दबाव पड़ा और लोकसभा में विपक्ष के नेता की कुर्सी भी छोड़नी पड़ी। कहा गया कि नई पीढ़ी को आगे किया जा रहा है। लेकिन सच्चाई ये थी कि संघ ने आडवाणी को एक्सपाइरी मान लिया था। लोकसबा में आडवाणी की जगह सुषमा ने ली, जेटली राज्यसभा में नेता बने, गडकरी को पार्टी की कमान मिली। किसी में भी आडवाणी की नहीं चली।
जब जो जीता वही सिकंदर
    संघ और आडवाणी के बीच अहम की लड़ाई जारी थी। आडवाणी भी संघ की चाल को मात देने की फिराक में लगे रहे। मौका मिला और जनवरी महीने में उन्होंने ब्रह्मास्त्र चला। संघ के आशीर्वाद से गडकरी को दूसरी बार पार्टी की कमान मिल रही थी लेकिन आडवाणी मुंह बनाकर बैठ गए।  पूर्ति का कथित भ्रष्टाचार बहाना बना और बेचारे गडकरी अध्यक्ष बनते बनते रह गये। अब तो पूर्ति (गडकरी की कंपनी) की कहीं चर्चा भी नहीं होती।
               आडवाणी की चाल के आगे संघ इस बार मात खा गया। लेकिन संघ ने भी हार नहीं मानी। कई नाम आगे किए गए। बात जाकर रुकी राजनाथ के पर जाकर। गडकरी का रास्ता रोककर आडवाणी ने राजनाथ को अध्यक्ष तो बनवा दिया। लेकिन यही एक बार फिर संघ की चाल के आगे आडवाणी मात खा गए। संघ ने राजनाथ और नरेंद्र मोदी की जोड़ी तैयार की। और फिर ऐसे ऐसे फैसले लिए गए कि आडवाणी को बीमार होकर घर में रहने को मजबूर हो जाना पड़ा ।
              कहा गया कि आडवाणी बीमार थे इसलिए गोवा नहीं गए। लेकिन जैसे ही गोवा की बैठक खत्म हुई वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए जयपुर के एक कार्यक्रम में वो प्रकट हो गए। सवाल उठा कि क्या ऐसा गोवा में नहीं हो सकता था ? जवाब था कि कोई चाहता तब तो...? मतलब ये कि आडवाणी बीमार तो थे.. मोदी के नाम पर उन्हें एतराज भी था लेकिन संघ इस मूड में बिल्कुल ही नहीं था कि आडवाणी की वजह से कोई बाधा आए। नतीजा हुआ कि आडवाणी बीमार होकर पड़े रहे और गोवा में उनकी गैरमौजूदगी में पार्टी ने नरेंद्र मोदी को कमान सौंप दी।
                       सीधे तौर पर लड़ाई मोदी और आडवाणी के बीच नहीं है। असल में मोदी और राजनाथ तो सिर्फ मोहरा भर हैं। मोदी हैं तो राजनीतिक रूप से आडवाणी की उपज लेकिन अब संघ के करीब हैं । और आडवाणी के साथ संघ की बन नहीं रही। संघ के उकसावे पर मोदी की महत्वकांक्षा बढ़ती गई । नतीजा हुआ कि आडवाणी मोदी से नाराज रहने लगे । राजनीति में हर किसी को ऊंचाई तक पहुंचने की महत्वकांक्षा होती है। लेकिन आडवाणी ने तथाकथित शुभचिंतकों की बात मानकर मोदी के खिलाफ कई चालें चली। तो उधर मोदी पर दांव लगाकर संघ में बड़ी कुर्सियों पर बैठे 80-90 साल के बुजुर्ग स्वंयसेवक अपनी चाल चल रहे हैं। लड़ाई पार्टी पर कब्जे की है। आडवाणी अपना मोह नहीं छोड़ रहे और संघ अपना दावा छोड़ने को तैयार नहीं है। फिलहाल संघ की चाल सफल रही है। इंतजार करना होगा कि आडवाणी कोई अगली चाल चलते हैं या फिर सब कुछ छोड़कर अब तमाशा देखना पसंद करेंगे।
कुछ करो यार..वक्त ज्यादा नहीं है
   वैसे एक बात आपको बता दूं कि आडवाणी के पास अभी मोहरे खत्म नहीं हुए हैं। संघ की पकड़ सिर्फ बीजेपी पर है। आडवाणी इस दायरे से बाहर भी है। एनडीए नाम के ताले की चाबी आडवाणी के पास है। भले ही बीजेपी पर संघ ने सिक्का जमा रखा है लेकिन सत्ता के सिंहासन तक पहुंचने के लिए एनडीए नाम की छतरी की जरूरत होगी जिसमें आडवाणी का रोल अहम होगा। इसलिए फिलहाल ये कह पाना कि देश की राजनीति से आडवाणी युग का अंत हो गया है जल्दबाजी होगी।
 नोट- तस्वीरों के नीचे कैप्शन कल्पना मात्र है।        

Wednesday, May 22, 2013

लौट के ललन घर को आए...


                                ललन सिंह लौट के नीतीश के करीब आ गये हैं । 2010 के जनवरी महीने में उन्होंने जेडीयू के बिहार प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया था। इसके बाद से वो बहुत दिनों तक पार्टी के खिलाफ काम करते रहे । बिहार नवनिर्माण मंच बनाकर राज्य भर में नीतीश विरोधियों को एकजुट करने की कोशिश तो की ही 2010 में जब बिहार विधानसभा का चुनाव हो रहा था तब ललन सिंह कांग्रेस के लिए प्रचार कर रहे थे । जिस गाड़ी में ललन सिंह प्रचार के लिए बेगूसराय, मुंगेर के इलाके में निकलते थे उस गाड़ी में कांग्रेस का झंडा लगा रहता था। लेकिन अब वही ललन सिंह फिर से नीतीश के खेमे में लौट आए हैं।
ललन और नीतीश एक साथ-पुरानी तस्वीर
                          आज लखीसराय में सेवा यात्रा के लिए दोनों एक ही हेलिकॉप्टर में गए थे। मंच पर दोनों के बीच सिर्फ विजय चौधरी थे। कल ललन सिंह ने अपने इंटरव्यू में कहा था कि गलतफहमी की वजह से दूरी बनी थी । अब दूर हो गई है और सब ठीक हो गया है। इंटरव्यू में ललन सिंह अलगाव के लिए खुद को दोषी मान रहे थे। जबकि लखीसराय में मंच पर नीतीश ने खुद को इसके लिए जिम्मेदार बताया। अब कौन कितना कम या ज्यादा जिम्मेदार है ये तो नहीं पता लेकिन दोनों जिम्मेदार हैं इसमें कोई शक नहीं है।
                           ललन सिंह आज नीतीश के साथ आ गये हैं तो इसके पीछे जरूर राजनीतिक सोच है। ऐसे ही नीतीश ललन को अपने पाले में नहीं लाए होंगे। जिस तरीके से बीजेपी और नीतीश के बीच दूरी बढ़ने की खबरें लगातार चर्चा में है उससे नीतीश जरूर परेशान चल रहे होंगे। हो सकता है भूमिहार वोटरों को संदेश देने की कोशिश के मद्देनजर उन्होंने ललन सिंह से हाथ मिलाया हो। माना जाता है कि बिहार की आबादी में करीब तीन साढ़े तीन फीसदी जो भूमिहार वोट है वो बीजेपी का आधार वोट है । बीजेपी से अलग होने की स्थिति में भूमिहार वोटर नीतीश से दूर जा सकते हैं । बहुत मुमकिन है कि नीतीश ऐसी किसी आशंका को हकीकत में बदलने से रोकने के लिए ललन को मना लाएं हों।
                           ललन सिंह की छवि वैसे तो मास भूमिहार नेता की नहीं रही है लेकिन नीतीश ने उन्हें अपने शुरुआती शासनकाल में स्थापित करने की जरूर कोशिश की थी। ललन सिंह भी चकबंदी कानून के खिलाफ खुलकर नीतीश के विरोध में खड़े हो गये थे। रणवीर सेना के मुखिया ब्रह्मेश्वर सिंह की हत्या के बाद आरा जाकर उन्होंने पिछले साल नीतीश को काफी भला बुरा भी कहा था। कुछ खास इलाकों में वोटरों में भले न सही लेकिन भूमिहार वोट को प्रभावित करने वाले नेताओं में उनकी पकड़ जरूर हो गई थी। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए प्रचार करने के बाद भले ही किसी को जीता न पाएं हो लेकिन अपने पसंदीदा कांग्रेसी उम्मीदवारों को वोट जरूर दिलवा दिया था।
नीतीश-ललन सिंह
 वैसे नीतीश सवर्ण वोटरों को लेकर चिंतित जरूर हैं। लखीसराय की सभा में आज भी ललन सिंह, विजय चौधरी, नरेंद्र सिंह, वशिष्ठ नरायाण सिंह जैसे सवर्ण भूमिहार-राजपूत नेताओं को ही उन्होंने खासी तवज्जो दी। बिहार में सवर्ण वोटरों की संख्या करीब 15 फीसदी है। लेकिन करीब तीस से चालीस फीसदी वोटरों को प्रभावित करने की क्षमता इसके नेता करते हैं। वैसे भी ललन अगर नीतीश के पास गए हैं तो जरूर कुछ न कुछ समझौता तो हुआ ही होगा।
        ये बात रही नीतीश को ललन सिंह के अपने करीब लाने की लेकिन ललन सिंह के भी नीतीश के करीब जाने की अपनी मजबूरियां हैं। ललन सिंह की बिहार में पहचान ही नीतीश की बदौलत थी। नीतीश से दोस्ती की वजह से ही उन्हें पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी मिली। समता पार्टी जब बनी थी तब वो पार्टी के लिए फंड का इंतजाम किया करते थे। बाद में 2005 में इन्हीं के नेतृत्व में बिहार में पार्टी को जीत मिली। सरकार बनने के बाद ताकत इतनी हो गई कि सुपर सीएम कहे जाने लगे थे। 2010 में नीतीश से दूर होने तक पार्टी के बिहार के अध्यक्ष हुआ करते थे। पहली बार 2004 में बेगूसराय फिर 2009 में मुंगेर से सांसद बने। लेकिन अगले चुनाव में जीत के लिए उन्हें नीतीश के पास आने के अलावा कोई और चारा नहीं था। वो खुद मान रहे हैं कि कांग्रेस की हालत देश भर में खराब है। ऐसे में राजनीतिक हालत को भांपकर उन्होंने नीतीश से हाथ मिलाने में ही भलाई समझी। (ललन सिंह ने चारा घोटाले में लालू के खिलाफ केस किया था)
                   नीतीश खुद राजनीति के चणक्य कहे जाते हैं । लेकिन राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह को नीतीश का चाणक्य कहा जाता है। 1986 से ही ललन सिंह और नीतीश कुमार की दोस्ती है। इस दौरान नीतीश कई बार सांसद रहे, केंद्र में मंत्री रहे, दो बार बिहार के मुख्यमंत्री बने लेकिन नीतीश से खटपट नहीं हुई । नीतीश पटना में ललन सिंह के घर पर ही रहा करते थे।  2009 में जब राबड़ी देवी ने प्रचार के दौरान नीतीश-ललन पर विवादास्पद टिप्पणी की थी तब भी दोनों ने मजबूती से एक दूसरे का साथ देकर राबड़ी पर हल्ला बोला था। 
राबड़ी देवी
लेकिन 2009 में लोकसभा चुनाव के बाद जब नीतीश ने अपने पुराने राजनीतिक करीबी उपेंद्र कुशवाहा को पार्टी में वापस लिया तो ललन नाराज हो गये। 2005 से लकेर 2009 तक बिहार में नीतीश कहने के लिए मुख्यमंत्री थे लेकिन बिना ललन सिंह की सलाह के कुछ नहीं होता था। न तो किसी ट्रांसफर और ना ही किसी की पोस्टिंग। लेकिन ललन के अध्यक्ष रहते उपेंद्र कुशवाहा को नीतीश बिना उनकी सहमति के ही जेडीयू में ले आए। ललन ने इसे तानाशाही फैसला और पार्टी में लोकतंत्र की कमी तक कहके अपना विरोध जताया था। हालांकि अब उपेंद्र कुशवाहा नीतीश का साथ छोड़ चुके हैं और बिहार में नीतीश के खिलाफ नई पार्टी बनाकर काम कर रहे हैं।                                         
उपेंद्र कुशवाहा
 कहा जा रहा है कि पिछले साल पटना में एक होटल के उद्घाटन के वक्त ललन और नीतीश की मुलाकात हुई थी। दोनों ने साथ में खाना भी खाया था। इसके बाद सुलह के संकेत मिलने लगे थे। हालांकि सुलह का रास्ता शर्तों के पूरा होने के बाद खुला। कहा जाता है कि पीके शाही जो कि नीतीश सरकार में मंत्री हैं उन्हें महाराजगंज से लोकसभा का टिकट देकर नीतीश ने ललन के कहने पर ही मुख्य धारा से साइड किया है। ललन सिंह के समर्थकों का कहना है कि पीके शाही ने नीतीश और ललन की दूरी को बढ़ाने में अहम रोल निभाने का काम किया था।
          ललन सिंह चुनाव मैनेज करने के माहिर खिलाड़ी माने जाते हैं। सोनिया गांधी के दरबार तक ललन सिंह की पहुंच है। अब देखना होगा कि ललन और नीतीश का ये मिलन देश और खासकर बिहार की राजनीति में क्या गुल खिलाता है। ललन के नीतीश के करीब आने से कई बड़े नेताओं का पत्ता साफ होना तय है। देखिये कब क्या होता है और अब कौन पुराना नेता नीतीश खेमे में आता है...

Wednesday, April 17, 2013

नीतीश और बीजेपी की दोस्ती की कहानी


                    बिहार में नीतीश और बीजेपी का साथ 17 साल पुराना है। 1996 में जब लोकसभा का चुनाव हो रहा था चुनाव से ठीक पहले जॉर्ज और नीतीश ने बीजेपी से हाथ मिलाया था। जॉर्ज और नीतीश उस वक्त समता पार्टी में हुआ करते थे। तब शरद यादव इन लोगों के साथ नहीं थे। 1994 में जॉर्ज और नीतीश ने जनता दल का साथ छोड़कर समता पार्टी बनाई थी। 1996 के चुनाव में बीजेपी और जेडीयू ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा। 1996 के चुनाव में 54 सीटों में से बीजेपी को 18 और जेडीयू को 6 सीटें मिली थी। केंद्र में देवेगौड़ा के नेतृत्व में सरकार बनी। और फिर 1998 तक संयुक्त मोर्चे की सरकार रही। बीच में देवेगौड़ा के बाद गुजराल प्रधानमंत्री भी बने। इसी बीच 1997 में अध्यक्ष पद को लेकर विवाद में जनता दल टूट गया और लालू के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनता दल बना।            
 1998 में फिर से बिहार में चुनाव हुआ। 54 में से 
समता पार्टी को 10 और बीजेपी को 20 सीटें मिली।

1999 के चुनाव से पहले जनता दल टूटा और फिर शरद यादव के नेतृत्व वाले जनता दल यू, समता पार्टी का आपस में विलय हो गया। पार्टी का नाम जनता दल यू हुआ और जॉर्ज अध्यक्ष ।  1999 के चुनाव में फिर से बीजेपी के साथ मिलकर जेडीयू ने चुनाव लड़ा।  1999 के चुनाव में एनडीए को बिहार में 54 में से 41 सीटों पर जीत मिली थी। तब झारखंड साथ था। अकेले बिहार की 40 में से 30 सीटों पर दोनों दलों को जीत मिली थी। जेडीयू को 18 और बीजेपी को 12 सीटें ।
                                 लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद अध्यक्ष पद को लेकर हुए विवाद में जनता दल यू और समता पार्टी को फिर से अलग कर दिया। समता पार्टी के 12 और जेडीयू के पास 6 सांसद बचे। हालांकि 2000 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी, जेडीयू, समता पार्टी और बिहार पीपुल्स पार्टी ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा। नतीजों के बाद नीतीश सात दिनों के लिए मुख्यमंत्री बने। इसी साल झारखंड बिहार से अलग हुआ और जेडीयू-बीजेपी के बीच पहला विवाद हुआ बिहार में नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी को लेकर। तब तक सुशील मोदी बिहार में विपक्ष के नेता थे लेकिन झारखंड बंटने के बाद जब बीजेपी की सीटें घटी और फिर नंबर के हिसाब से समता पार्टी बड़ी पार्टी हो गई। और उपेंद्र कुशवाहा विपक्ष के नेता बने।
लेकिन इस चुनाव के बाद जनता दल यू में अध्यक्ष पद को लेकर विवाद हुआ और पासवान ने 2000 में 4 सांसदों के साथ अपनी नई पार्टी बना ली । (पासवान रामकृष्ण हेगड़े को अध्यक्ष बनाने के पक्ष में थे, बिहार चुनाव में नीतीश को सीएम प्रोजेक्ट करने से भी नाराज थे ) नई पार्टी का नाम रखा लोक जनशक्ति पार्टी। नई पार्टी के साथ करीब 1 साल तक पासवान वाजपेयी सरकार में संचार से कोयला मंत्री तक रहे। 27 अप्रैल 2002 को रामविलास पासवान ने वाजपेयी सरकार से इस्तीफा दे दिया। पासवान ने इस्तीफे का आधार गुजरात दंगे को बनाया लेकिन हकीकत ये है कि पासवान इस बात से नाराज थे कि बीजेपी यूपी में मायावती से हाथ मिलाने जा रही थी और पासवान का मंत्रालय भी बदल दिया गया था । दलित राजनीति में हाशिये पर जाने का डर की वजह से पासवान ने वाजपेयी सरकार का साथ छोड़ दिया।  लेकिन जनता में ये मैसेज गया कि गुजरात दंगों की वजह से उन्होंने सरकार का साथ छोड़ा है। हालांकि 2002 में गुजरात दंगों के वक्त वाजपेयी सरकार में नीतीश रेल मंत्री बने रहे
अक्टूबर 2003 में फिर से जनता दल यू और समता पार्टी का विलय हो गया। पार्टी का नाम जनता दल यू रहा। जॉर्ज अध्यक्ष, शरद यादव संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष बने। 2004 में जेडीयू और बीजेपी ने मिलकर चुनाव लड़ा। बीजेपी को बिहार में 6 और जेडीयू को 5 सीटें मिली।
(2004 में जेडीयू को 1 सीट लक्षद्वीप, 1 यूपी में आंवला भी मिली थी)
नीतीश दो सीटों से लड़ रहे थे जिसमें से बाढ़ की सीट से वो हार गए। जॉर्ज ने मुजफ्फरपुर से चुनाव लड़ा और वो जीते। इस चुनाव में एनडीए ने वाजपेयी को पीएम प्रोजेक्ट किया था।
          इसके बाद 2005 के फऱवरी में जो विधानसभा चुनाव हुआ उसमें किसी दल को बहुमत नहीं मिला। जेडीयू को 55, बीजेपी को 38, आरजेडी को 75, एलजेपी को 29 सीटें मिलीं। लेकिन रामविलास पासवान ने मुस्लिम मुख्यमंत्री बनाने का कार्ड खेला जो कामयाब नहीं हुआ और फिर बिहार एक साल में दूसरी बार चुनाव में गया। इसके बाद 2005 के नवंबर में फिर बिहार विधानसभा का चुनाव हुआ। नीतीश सीएम प्रोजेक्ट हुए। 
                        बीजेपी और जेडीयू को मिलाकर 143 सीटें मिलीं। 88 जेडीयू और 55 बीजेपी। इस चुनाव में पासवान को सिर्फ 10 सीटें ही मिली। बहुमत के साथ नीतीश मुख्यमंत्री बने और सुशील मोदी उप मुख्यमंत्री।

लेकिन इसी चुनाव के बाद शुरू हुआ नीतीश का जनाधार बढ़ाने का खेल। नीतीश ने अल्पसंख्यक वोटरों में अपनी पैठ बनाने के लिए जी तोड़ मेहनत शुरू की। मुस्लिमों को अगड़े-पिछड़े में बांट दिया। पसमांदा समाज (पिछड़ा मुसलमान) से अली अनवर को नेता बनाया। लालू को इस बात का डर सताने लगा कि कहीं मुस्लिम वोट उनसे अलग न हो जाए।
             2006 में पार्टी अध्यक्ष पद के चुनाव को लेकर हुए विवाद में जॉर्ज फर्नांडिस को नीतीश ने हाशिये पर डाल दिया। जॉर्ज को नीतीश के सहयोग से शरद यादव ने हरा दिया। अब जॉर्ज अपनी बनाई पार्टी के लिए बेगाने हो गये ।
                     
गुजरात दंगे का पोस्टप
  इसके बाद 2009 के चुनाव से ठीक पहले नीतीश के खिलाफ मुस्लिम वोट भड़काने के लिए लालू के कार्यकर्ताओं ने बिहार में जगह जगह गुजरात दंगों के भड़काऊ पोस्टर लगाए। लोकसभा चुनाव में गुजरात दंगा अगर मुद्दा बनता तो नीतीश को परेशानी होती। लिहाजा नीतीश ने मुस्लिम सहानुभूति के लिए मोदी के खिलाफ बयानबाजी शुरू की। अपनी ओर से संदेश देने की कोशिश की वो मोदी के साथ खड़े नहीं हैं। लेकिन 2009 में बिहार में वोटिंग खत्म होने के बाद लुधियाना में हुई एनडीए की रैली में मंच पर नीतीश और मोदी ने हाथ मिलाए। कहते हैं कि नीतीश की इच्छा नहीं थी लेकिन मोदी ने मजबूर कर दिया।
 (इस चुनाव में जॉर्ज को टिकट नहीं दिया, ज़ॉर्ज मुजफ्फरपुर से निर्दलीय लड़कर हार गए)
2009 में बिहार की 40 में से नीतीश की पार्टी को 20 और बीजेपी को 12 सीटें मिली। नीतीश की पार्टी 25 और बीजेपी 15 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। इस चुनाव में जेडीयू को 24.04 और बीजेपी को 13.93 फीसदी वोट मिले थे। यानी कुल वोटों का 37.97 फीसदी वोट। जबकि आरजेडी को 19.30 और कांग्रेस को 10.26 फीसदी वोट मिले।
                                         केंद्र में सरकार यूपीए की बनी। और उधर एनडीए में नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की दूरी बढ़ती गई।
     
लुधियाना रैली- 2009
 इसके बाद 2010 में बिहार में विधानसभा चुनाव के ठीक पहले बड़ा विवाद हुआ। 12-13 जून 2010 को बीजेपी की पटना में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक थी। नीतीश के घर रात को भोज का निमंत्रण था अगले दिन बीजेपी की साझा रैली को नीतीश संबोधित करने वाले थे। लेकिन 12 जून की सुबह बिहार के अखबारों में नीतीश और मोदी के हाथ मिलाने वाले बड़े बड़े पोस्टर छप गये। नाराज नीतीश ने न सिर्फ रात्रि भोज रद्द किया बल्कि रैली में शामिल होने का कार्यक्रम भी। जिस पीआर कंपनी ने पोस्टर छपवाये थे उसके यहां छापे मारे गए कानून कार्रवाई की बात तक कही गई। इस विवाद ने मोदी और नीतीश के रिश्तों में चल रही खटास की खाई चौड़ी कर दी।
   चुनाव प्रचार में नीतीश ने बिहार में मोदी को नहीं आने दिया। कोसी बाढ पीड़ितों के लिए मोदी ने बिहार सरकार को 5 करोड़ का चेक भेजा था उसे नीतीश ने वापस कर दिया। नीतीश का ये पैतरा काम आया और बिहार के चुनाव में पार्टी को बहुत बड़ी जीत मिली। कुल 243 में से 140 पर लड़कर 115 पर जेडीयू और 103 में से 91 पर बीजेपी को जीत मिली।
         इस चुनाव में एनडीए को 39.1 फीसदी वोट मिले। जो 2005 की तुलना में 2.9 फीसदी ज्यादा थे। आरजेडी-एलजेपी को 25.6 वोट मिले जो 2005 की तुलना में 13.5 फीसदी कम था।
मतलब संदेश साफ हो गया था बिहार में मोदी की जरूरत नहीं है। इस जीत ने नीतीश को ताकत दी और उनकी पार्टी के नेता पीएम की दावेदारी पर मोदी के दावे को खारिज करने में जुट गए। पिछले साल इकनॉमिक टाइम्स को दिये इंटरव्यू में नीतीश ने चुनाव से पहले पीएम पद का नाम घोषित करने की मांग की। उनकी पार्टी के नेता भी चुनाव से पहले जल्द नाम घोषित करने का दबाव बनाते रहे। लेकिन 13-14 अप्रैल 2013 को दिल्ली में हुई पार्टी कार्यकारिणी की बैठक में जेडीयू ने बीजेपी को दिसंबर तक की मोहलत तो दी लेकिन अपने भाषण में नीतीश ने मोदी पर जबरदस्त हमला किया। नतीजा हुआ कि रिश्ते सुधरने की जगह और बिगड़ते गये। 

Friday, April 12, 2013

..तो सवर्णों का वोट नहीं मिलेगा?


2009 के चुनाव में नीतीश और बीजेपी को मिलाकर करीब 38 फीसदी वोट मिले थे और 40 में से 32 सीटों पर दोनों को जीत मिली थी। इस चुनाव में लालू और पासवान तो साथ थे लेकिन 10 फीसदी वोट काटने वाली कांग्रेस अलग होकर चुनाव लड़ रही थी। 2004 के चुनाव के नतीजे इससे अलग थे। तब बीजेपी और जेडीयू को मिलाकर 11 सीटों पर जीत मिली थी और लालू-पासवान-कांग्रेस की झोली में 29 सीटें गई थी।
अब 2014 में क्या होगा ये तो कोई नहीं जानता। लेकिन जिस तरीके से नीतीश बीजेपी पर दबाव बना रहे हैं उससे बिहार में नुकसान बीजेपी-जेडीयू को ज्यादा होगा या फिर लालू गठबंधन को ज्यादा फायदा। इस पर जानकारों की अभी अलग- अलग राय हो सकती है।
बिहार की राजनीति को समझने वाले इस बात को जानते हैं कि 15-16 फीसदी जो सवर्णों का वोट है उसपर ज्यादा पकड़ बीजेपी की है। विधानसभा के चुनाव में सवर्णों का थोक वोट नीतीश को मिलता रहा है। 11 फीसदी कुर्मी-कोयरी के अलावा पिछड़े मुलसमान और दलितों का एक तबका विधानसभा चुनाव में नीतीश की पार्टी का शुद्ध वोटर है। वैश्य वोटबैंक बिहार में बंटा हुआ है। वो इसलिए क्योंकि बिहार में बैकवार्ड-फॉरवार्ड का विवाद सालों से चल रहा है। और वैश्यों का शहरी तबका जहां बीजेपी का वोटर है वहीं गांवों में वैश्य वोटरों का बड़ा तबका आरजेडी को परंपरागत तरीके से वोट करता है।  
लेकिन सवाल इस बार विधानसभा चुनाव का नहीं। सवाल लोकसभा चुनाव का है। बात नीतीश को मुख्यमंत्री बनाने की नहीं है। चुनाव दिल्ली में पीएम किसको बनाना है इसको लेकर है। अगर बिहार में जेडीयू-बीजेपी का गठबंधन टूटता है तो फिर नीतीश फायदे में रहेंगे, इस तरह की भविष्यवाणी कोई जानकार शायद नहीं कर सकता। लेकिन एक बात ये भी है कि बीजेपी को नुकसान ही होगा ये भी नहीं कहा जा सकता। बिहार में नरेंद्र मोदी को लेकर लोगों में खास क्रेज है। यही वजह है कि बिहार के गांवों में नरेंद्र मोदी के नाम को लेकर चर्चा हो रही है।
नीतीश को चिंता पिछड़े मुस्लिम वोटरों की है जो विधानसभा चुनाव में नीतीश का साथ देते रहे हैं। नीतीश को डर है कि मोदी के नाम पर पिछड़ा मुस्लिम वोट छिटक सकता है। लेकिन डर इस बात का भी है कि अगर बाजेपी का साथ छूटता है तो फिर सवर्ण और वैश्य वोट भी थोक के भाव में बीजेपी को मिल जाएगा। इस हालत में पिछड़ों और दलितों का थोक वोट लालू और पासवान की झोली में भी जा सकता है।
नीतीश के रणनीतिकार इसी से डर रहे हैं। और अभी से ही पीएम को लेकर पत्ते खोलने का दबाव बीजेपी पर बना रहे हैं। ताकि अगर मोदी के नाम पर बीजेपी नहीं मानती तो फिर क्षेत्र में एक साल का समय अपनी जमीन बनाने के लिए मिल जाए। लेकिन बीजेपी की रणनीति नीतीश को उलझा कर रखने की है।
बिहार में अगर नीतीश और बीजेपी अलग होकर चुनाव लड़ते हैं और लालू-पासवान के साथ कांग्रेस भी चुनाव लड़ती है। तो लड़ाई बड़ी दिलचस्प हो सकती है। बिहार में बैकवार्ड क्लास में बड़ा तबका इस बात से नाराज है कि नीतीश के राज में सवर्णों (कुछ खास लोगों) को ज्यादा तरजीह दी जा रही है। यादव वोटर इस बात से नाराज है कि उनका सबसे बड़ा नेता लालू 5 साल से दिल्ली और 10 साल से बिहार की सत्ता से दूर है। पासवान की हार को दलित वोटरों का एक बड़ा खेमा अब तक पचा नहीं पाया है क्योंकि पासवान के कद का कोई बड़ा नेता बिहार में है नहीं। और नीतीश दलित-महादलित के विवाद से बाहर निकले नहीं है। 
भूमिहार, ब्राह्ण और कायस्थ के थोक वोट बीजेपी के खाते में जाएंगे इसको लेकर जानकारों में एकमत है। राजपूत वोट को लेकर कहीं-कहीं दुविधा की स्थिति हो सकती है। क्योंकि राजपूत का थोक वोट तो बीजेपी को मिल सकता है लेकिन लालू की पार्टी को भी राजपूत वोट करते रहे हैं। लेकिन नीतीश के पास वैसा कोई चेहरा नहीं है जिससे वो इस वोट को लुभा सके। ऐसे में नीतीश को सवर्णों के बहुमत से हाथ धोना पड़ सकता है। फिर बचे कुर्मी-कोइरी वोटर। इनके 11 फीसदी वोट में ज्यादा वोट नीतीश को मिलेंगे। लेकिन मुसलमान का वोट सिर्फ इसलिए नीतीश को मिल जाएगा कि बीजेपी से अलग हो रहे हैं ये कहना गलत होगा। क्योंकि मुसलमानों का वोट कुछ हद तक लालू और कांग्रेस को भी मिलेगा ही।
नीतीश के लिए परेशानी इसी बात की है। बिहार की राजनीति के लिए नीतीश चाहे कितने भी बड़े नेता हो जाए लेकिन बीजेपी की बैसाखी उनके लिए जरूरी है। नीतीश का उदय ही बीजेपी के साथ हुआ है। 1995 में नीतीश कुर्मी-कोइरी के नाम पर वोट मांगने बिहार में उतरे थे तो 325 में 7 सीटों पर जीत मिली थी। इसके बाद 1996 से बीजेपी और उनका तालमेल हुआ। बीच में पासवान साथ जुड़े गए...आनंद मोहन आए गए...लेकिन बीजेपी और नीतीश का संबंध बना रहा। सिर्फ मुसलमान वोट के लिए नीतीश इतना बड़ा जुआ खेल लेंगे। ये कहा नहीं जा सकता।
एक बात और क्या बिहार को स्पेशल स्टेट की बात कह कहके नीतीश सवर्ण वोटरों का ध्यान भटकाने की कोशिश कर रहे है? कोई बड़ी बात नहीं है। क्योंकि मोदी को बैलेंस करने के लिए नीतीश स्पेशल स्टेट की बात कहके हवा बनाने में लग जाते हैं। कांग्रेस भी लॉलीपॉप दिखाने लगती है। कुछ खास अखबारों में खबरें छपने होने लगती है। ऐसा नहीं है कि बिहार में जो कुछ हो रहा है उसपर बिहार के अंदर या बाहर के लोगों की नजर नहीं है।
वैसे भी लोगों को पता है कि बिहार के वोट से नीतीश को पीएम तो बनना नहीं है। और चुनाव सीएम का है। लिहाजा नया सियासी समीकरण दिल्ली की सियासत को लेकर नीतीश पर भारी पड़ जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए।