2009 के चुनाव में नीतीश और
बीजेपी को मिलाकर करीब 38 फीसदी वोट मिले थे और 40 में से 32 सीटों पर दोनों को
जीत मिली थी। इस चुनाव में लालू और पासवान तो साथ थे लेकिन 10 फीसदी वोट काटने
वाली कांग्रेस अलग होकर चुनाव लड़ रही थी। 2004 के चुनाव के नतीजे इससे अलग थे। तब
बीजेपी और जेडीयू को मिलाकर 11 सीटों पर जीत मिली थी और लालू-पासवान-कांग्रेस की
झोली में 29 सीटें गई थी।
अब 2014 में क्या होगा ये तो कोई
नहीं जानता। लेकिन जिस तरीके से नीतीश बीजेपी पर दबाव बना रहे हैं उससे बिहार में
नुकसान बीजेपी-जेडीयू को ज्यादा होगा या फिर लालू गठबंधन को ज्यादा फायदा। इस पर
जानकारों की अभी अलग- अलग राय हो सकती है।
बिहार की राजनीति को समझने वाले
इस बात को जानते हैं कि 15-16 फीसदी जो सवर्णों का वोट है उसपर ज्यादा पकड़ बीजेपी
की है। विधानसभा के चुनाव में सवर्णों का थोक वोट नीतीश को मिलता रहा है। 11 फीसदी
कुर्मी-कोयरी के अलावा पिछड़े मुलसमान और दलितों का एक तबका विधानसभा चुनाव में
नीतीश की पार्टी का शुद्ध वोटर है। वैश्य वोटबैंक बिहार में बंटा हुआ है। वो इसलिए
क्योंकि बिहार में बैकवार्ड-फॉरवार्ड का विवाद सालों से चल रहा है। और वैश्यों का
शहरी तबका जहां बीजेपी का वोटर है वहीं गांवों में वैश्य वोटरों का बड़ा तबका
आरजेडी को परंपरागत तरीके से वोट करता है।
लेकिन सवाल इस बार विधानसभा
चुनाव का नहीं। सवाल लोकसभा चुनाव का है। बात नीतीश को मुख्यमंत्री बनाने की नहीं
है। चुनाव दिल्ली में पीएम किसको बनाना है इसको लेकर है। अगर बिहार में
जेडीयू-बीजेपी का गठबंधन टूटता है तो फिर नीतीश फायदे में रहेंगे, इस तरह की
भविष्यवाणी कोई जानकार शायद नहीं कर सकता। लेकिन एक बात ये भी है कि बीजेपी को
नुकसान ही होगा ये भी नहीं कहा जा सकता। बिहार में नरेंद्र मोदी को लेकर लोगों में
खास क्रेज है। यही वजह है कि बिहार के गांवों में नरेंद्र मोदी के नाम को लेकर
चर्चा हो रही है।
नीतीश को चिंता पिछड़े मुस्लिम
वोटरों की है जो विधानसभा चुनाव में नीतीश का साथ देते रहे हैं। नीतीश को डर है कि
मोदी के नाम पर पिछड़ा मुस्लिम वोट छिटक सकता है। लेकिन डर इस बात का भी है कि अगर
बाजेपी का साथ छूटता है तो फिर सवर्ण और वैश्य वोट भी थोक के भाव में बीजेपी को
मिल जाएगा। इस हालत में पिछड़ों और दलितों का थोक वोट लालू और पासवान की झोली में
भी जा सकता है।
नीतीश के रणनीतिकार इसी से डर
रहे हैं। और अभी से ही पीएम को लेकर पत्ते खोलने का दबाव बीजेपी पर बना रहे हैं।
ताकि अगर मोदी के नाम पर बीजेपी नहीं मानती तो फिर क्षेत्र में एक साल का समय अपनी
जमीन बनाने के लिए मिल जाए। लेकिन बीजेपी की रणनीति नीतीश को उलझा कर रखने की है।
बिहार में अगर नीतीश और बीजेपी
अलग होकर चुनाव लड़ते हैं और लालू-पासवान के साथ कांग्रेस भी चुनाव लड़ती है। तो
लड़ाई बड़ी दिलचस्प हो सकती है। बिहार में बैकवार्ड क्लास में बड़ा तबका इस बात से
नाराज है कि नीतीश के राज में सवर्णों (कुछ खास लोगों) को ज्यादा तरजीह दी जा रही
है। यादव वोटर इस बात से नाराज है कि उनका सबसे बड़ा नेता लालू 5 साल से दिल्ली और
10 साल से बिहार की सत्ता से दूर है। पासवान की हार को दलित वोटरों का एक बड़ा
खेमा अब तक पचा नहीं पाया है क्योंकि पासवान के कद का कोई बड़ा नेता बिहार में है
नहीं। और नीतीश दलित-महादलित के विवाद से बाहर निकले नहीं है।
भूमिहार, ब्राह्ण और कायस्थ के
थोक वोट बीजेपी के खाते में जाएंगे इसको लेकर जानकारों में एकमत है। राजपूत वोट को
लेकर कहीं-कहीं दुविधा की स्थिति हो सकती है। क्योंकि राजपूत का थोक वोट तो बीजेपी
को मिल सकता है लेकिन लालू की पार्टी को भी राजपूत वोट करते रहे हैं। लेकिन नीतीश
के पास वैसा कोई चेहरा नहीं है जिससे वो इस वोट को लुभा सके। ऐसे में नीतीश को
सवर्णों के बहुमत से हाथ धोना पड़ सकता है। फिर बचे कुर्मी-कोइरी वोटर। इनके 11
फीसदी वोट में ज्यादा वोट नीतीश को मिलेंगे। लेकिन मुसलमान का वोट सिर्फ इसलिए
नीतीश को मिल जाएगा कि बीजेपी से अलग हो रहे हैं ये कहना गलत होगा। क्योंकि मुसलमानों
का वोट कुछ हद तक लालू और कांग्रेस को भी मिलेगा ही।
नीतीश के लिए परेशानी इसी बात की
है। बिहार की राजनीति के लिए नीतीश चाहे कितने भी बड़े नेता हो जाए लेकिन बीजेपी
की बैसाखी उनके लिए जरूरी है। नीतीश का उदय ही बीजेपी के साथ हुआ है। 1995 में
नीतीश कुर्मी-कोइरी के नाम पर वोट मांगने बिहार में उतरे थे तो 325 में 7 सीटों पर
जीत मिली थी। इसके बाद 1996 से बीजेपी और उनका तालमेल हुआ। बीच में पासवान साथ
जुड़े गए...आनंद मोहन आए गए...लेकिन बीजेपी और नीतीश का संबंध बना रहा। सिर्फ
मुसलमान वोट के लिए नीतीश इतना बड़ा जुआ खेल लेंगे। ये कहा नहीं जा सकता।
एक बात और क्या बिहार को स्पेशल
स्टेट की बात कह कहके नीतीश सवर्ण वोटरों का ध्यान भटकाने की कोशिश कर रहे है?
कोई
बड़ी बात नहीं है। क्योंकि मोदी को बैलेंस करने के लिए नीतीश स्पेशल स्टेट की बात
कहके हवा बनाने में लग जाते हैं। कांग्रेस भी लॉलीपॉप दिखाने लगती है। कुछ खास
अखबारों में खबरें छपने होने लगती है। ऐसा नहीं है कि बिहार में जो कुछ हो रहा है
उसपर बिहार के अंदर या बाहर के लोगों की नजर नहीं है।
वैसे भी लोगों को पता है कि
बिहार के वोट से नीतीश को पीएम तो बनना नहीं है। और चुनाव सीएम का है। लिहाजा नया
सियासी समीकरण दिल्ली की सियासत को लेकर नीतीश पर भारी पड़ जाए तो हैरानी नहीं
होनी चाहिए।
No comments:
Post a Comment