भारतीय अन्ना पार्टी, अन्ना स्वराज पार्टी...अन्ना क्रांति पार्टी.... नाम चाहे जो हो सवाल ये है कि अन्ना की पार्टी अगर चुनाव मैदान में उम्मीदवार उतारती है तो फिर फायदा किसको होगा...कांग्रेस को या फिर बीजेपी गठबंधन को। अन्ना के आंदोलन के साथ देश का जो वर्ग जुड़ा हुआ है या फिर जुड़ा रहा है वो कहीं ने कहीं कांग्रेस विरोधी तबका है। लोकपाल की मांग को लेकर बाकी पार्टियों खासकर विपक्षी पार्टियों के दोहरे रवैये ने लोगों को जब निराश किया तब अन्ना की ताकत बढ़ी और अब जब चुनावी राजनीति की बात हो रही है तो कहीं न कहीं इसका सबसे ज्यादा नुकसान इन्हीं को होगा। मतलब शुरुआती संकेतों को अगर आसानी से समझा जाए तो कांग्रेस विरोधी वोटों का बंटवारा होना तय लगता है। मतलब सीधे सीधे नुकसान बीजेपी और उसके गठबंधन में शामिल पार्टियों का। शायद यही वजह से है कि अन्ना के पार्टी बनाने के फैसले को लेकर कांग्रेसी सांसद, मंत्री कल से ही कुछ ज्यादा ही खुश दिख रहे हैं। और बीजेपी के नेता लोकतंत्र और सबको अधिकार है टाइप बातें करके दर्द छिपाने की कोशिश कर रहे हैं।
अब ये तो सच है कि अन्ना का असर जितना शहरी मध्यम वर्ग के वोटरों पर होगा उतना गांव देहात में नहीं । सवाल ये भी है कि जंतर मंतर और रामलीला मैदान में जुटने वाली भीड़ ही सिर्फ वोट नहीं है। हां चुनावी मैदान में उतरने से दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में शहरी वोटरों पर गांव और छोटे शहरों के वोटरों की तुलना में ज्यादा असर हो सकता है। हो सकता है टीम अन्ना के सदस्य भी शुरुआती दिनों में इन्हीं टाइप शहरों पर ज्यादा फोकस करें। अन्ना टीम के सदस्य भी ज्यादातर (जो बड़े चेहरे या नाम हैं) बड़े शहरों से ही ताल्लुक रखते हैं। जानकारों का मानना है कि इन लोगों का अपने अपने क्षेत्र में उतना कोई प्रभाव नहीं है। मतलब शहरी वोटरों को अगर आधार मानकर टीम अन्ना की राजनीति होती है तो पहली नजर में नुकसान बीजेपी का ही दिखता है।
अन्ना और उनकी टीम का नाम देश भर में हो चुका है। लिहाजा पार्टी को पहचान देने में परेशानी नहीं होगी । खुद अन्ना का नाम भी बहुत बड़ा है। लेकिन सवाल ये है कि अन्ना का नाम जितना बड़ा है आज की तारीख में दायरा उनका उतना बड़ा नहीं है। मतलब ये कि अगर देश में अगला चुनाव लड़ने की बात होगी तो फिर उम्मीदवार कहां से लाएंगे । कोई भी पार्टी चुनाव मैदान में उतरती है तो मकसद जीतने का होता है। इसके लिए राजनीतिक पार्टियां हर तरह के दांव आजमाती है। जातिगत समीकरण से लेकर आर्थिक और राजनीतिक पारिवारिक पहचान तक मायने रखते हैं। जिन राज्यों में आज भी जातिगत राजनीति होती है, जातिगत समीकरणों के हिसाब से टिकट बांटे जाते हैं, चुनाव लड़े और जीते जाते हैं। वहां अन्ना का राजनीतिक गणित क्या कहता है? क्या अन्ना और उनकी पार्टी के लोग जातिगत राजनीति की परिभाषा बदल देंगे ? अगर बदल देंगे तो फिर उम्मीदवारों का चुनाव किस आधार पर होगा ? क्या सिर्फ भ्रष्ट नहीं होना ही अच्छे उम्मीदवार की योग्यता होगी....अगर हां तो फिर राजनीति की राह इतनी आसान नहीं रहने वाली...और अगर इसका जवाब ना है तो फिर अन्ना की पार्टी और बाकी जो पार्टियां अभी देश में मौजूद हैं उसमें फर्क क्या रह जाएगा?
सवा सौ करोड़ के हिन्दुस्तान में अन्ना को चुनावी राजनीति करने के लिए संगठन खड़ा करना होगा। सामाजिक संगठन और राजनीतिक संगठन चलाने में फर्क होता है। सवाल ये है कि दिल्ली में बैठकर दस बीस लोग जो टीम अन्ना चलाते हैं क्या वो हर जगह के राजनीतिक समीकरणों से वाकिफ हैं.. अगर नहीं तो उनको वाकिफ कौन कराएगा...? क्या इसमें दागी लोगों का उनके साथ जुड़ने की कोई संभावना नहीं है...अगर दागी लोग जुड़ ही जाएंगे...संगठन में, उम्मीदवारी में, टिकट लेने और देने में.. तो फर्क क्या रहने वाला बाकी दलों में और अन्ना की पार्टी में।
राजनिति के अखाड़े में उतरना, विकल्प की बात करना अच्छी बात है। लेकिन इसमें सावधानी की बहुत ज्यादा जरूरत है। राजनीति करने के लिए हर तरह की नीति अपनाई जाती है...सत्य और अहिंसा आज की तारीख में राजनीति के क्षेत्र में मायने नहीं रखते। और ये तो हिन्दुस्तान की पब्लिक है कब सिर पर चढ़ाए और कब उतार दे कह नहीं सकते।
अगर आप लोगों को याद हो तो 1994 के वैशाली लोकसभा उपचुनाव को याद करिए। आनंद मोहन ने तब नई पार्टी बनाई थी। उस वक्त आनंद मोहन की छवि एकदम रॉबिन हुड टाइप थी। लोकसभा के उपचुनाव में ऐसा समीकरण बना की लवली चुनाव जीत गईं। पूरे बिहार में (तब झारखंड भी साथ थे) आनंद मोहन की लहर सी फैल गई थी। ऐसा लगने लगा कि अब बिहार में लालू राज का खात्मा हो जाएगा। परिवर्तन आने वाला है। आनंद मोहन भी उम्मीदों के झाड़ पर चढ़े थे। 1995 के विधानसभा चुनाव में सभी 324 सीटों पर बिहार पीपुल्स पार्टी ने अपने उम्मीदवार उतार दिये। खुद आनंद मोहन तीन जगहों से खड़े थे। उनकी सभाओं में भारी भीड़ जुटती थी। लेकिन जब नतीजे आए तो आनंद मोहन तो अपनी तीनों सीट हारे ही बिहार में पार्टी को सिर्फ एक सीट मिली। वो भी उम्मीदवार को अपने दम पर। बाद में बिहार पीपुल्स पार्टी का जो हाल हुआ उससे सब वाकिफ हैं। इसी 1995 के विधानसभा चुनाव से पहले जॉर्ज-नीतीश ने मिलकर समता पार्टी बनाई थी। 1995 में समता पार्टी भी 324 सीटों पर चुनाव लड़ी थी लेकिन जीत सात सीटों पर मिली। 2000 के चुनाव में आंकड़ा 35 हुआ और फिर दो हजार पांच में तो सरकार ही बन गई।
ये कहानी अन्ना पार्टी के संदर्भ में बता रहा था कि कुछ पाने के लिए सब्र करना होता है। और स्थापित होने के लिए हर वो दांव आजमान होता है जिसकी जरूरत उम्मीदवार महसूस करता है। अन्ना की टीम को छोड़ दीजिए बाकी जो कोई भी उम्मीदवार मैदान में उतरेगा वो तो चुनाव जीतने या फिर खुद को स्थापित करने की नीयत से उतरेगा। ऐसे में वो हर कला लगाएगा । लिहाजा ये कहना कि गंदगी को साफ करने के लिए गंदगी में उतरना पड़ता है ठीक है लेकिन सफाई के दौरान गंदा भी होना पड़ता है। ये भी सच है। काजल की कोठरी से शायद ही कोई-कोई बेदाग निकलता है। लोकतंत्र है चुनाव लड़ना चाहिए। हर किसी को अधिकार है। देखना होगा कि अन्ना की पार्टी बनती है तो कैसे कैसे लोग उनके हिस्से में आते हैं।
अब ये तो सच है कि अन्ना का असर जितना शहरी मध्यम वर्ग के वोटरों पर होगा उतना गांव देहात में नहीं । सवाल ये भी है कि जंतर मंतर और रामलीला मैदान में जुटने वाली भीड़ ही सिर्फ वोट नहीं है। हां चुनावी मैदान में उतरने से दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में शहरी वोटरों पर गांव और छोटे शहरों के वोटरों की तुलना में ज्यादा असर हो सकता है। हो सकता है टीम अन्ना के सदस्य भी शुरुआती दिनों में इन्हीं टाइप शहरों पर ज्यादा फोकस करें। अन्ना टीम के सदस्य भी ज्यादातर (जो बड़े चेहरे या नाम हैं) बड़े शहरों से ही ताल्लुक रखते हैं। जानकारों का मानना है कि इन लोगों का अपने अपने क्षेत्र में उतना कोई प्रभाव नहीं है। मतलब शहरी वोटरों को अगर आधार मानकर टीम अन्ना की राजनीति होती है तो पहली नजर में नुकसान बीजेपी का ही दिखता है।
अन्ना और उनकी टीम का नाम देश भर में हो चुका है। लिहाजा पार्टी को पहचान देने में परेशानी नहीं होगी । खुद अन्ना का नाम भी बहुत बड़ा है। लेकिन सवाल ये है कि अन्ना का नाम जितना बड़ा है आज की तारीख में दायरा उनका उतना बड़ा नहीं है। मतलब ये कि अगर देश में अगला चुनाव लड़ने की बात होगी तो फिर उम्मीदवार कहां से लाएंगे । कोई भी पार्टी चुनाव मैदान में उतरती है तो मकसद जीतने का होता है। इसके लिए राजनीतिक पार्टियां हर तरह के दांव आजमाती है। जातिगत समीकरण से लेकर आर्थिक और राजनीतिक पारिवारिक पहचान तक मायने रखते हैं। जिन राज्यों में आज भी जातिगत राजनीति होती है, जातिगत समीकरणों के हिसाब से टिकट बांटे जाते हैं, चुनाव लड़े और जीते जाते हैं। वहां अन्ना का राजनीतिक गणित क्या कहता है? क्या अन्ना और उनकी पार्टी के लोग जातिगत राजनीति की परिभाषा बदल देंगे ? अगर बदल देंगे तो फिर उम्मीदवारों का चुनाव किस आधार पर होगा ? क्या सिर्फ भ्रष्ट नहीं होना ही अच्छे उम्मीदवार की योग्यता होगी....अगर हां तो फिर राजनीति की राह इतनी आसान नहीं रहने वाली...और अगर इसका जवाब ना है तो फिर अन्ना की पार्टी और बाकी जो पार्टियां अभी देश में मौजूद हैं उसमें फर्क क्या रह जाएगा?
सवा सौ करोड़ के हिन्दुस्तान में अन्ना को चुनावी राजनीति करने के लिए संगठन खड़ा करना होगा। सामाजिक संगठन और राजनीतिक संगठन चलाने में फर्क होता है। सवाल ये है कि दिल्ली में बैठकर दस बीस लोग जो टीम अन्ना चलाते हैं क्या वो हर जगह के राजनीतिक समीकरणों से वाकिफ हैं.. अगर नहीं तो उनको वाकिफ कौन कराएगा...? क्या इसमें दागी लोगों का उनके साथ जुड़ने की कोई संभावना नहीं है...अगर दागी लोग जुड़ ही जाएंगे...संगठन में, उम्मीदवारी में, टिकट लेने और देने में.. तो फर्क क्या रहने वाला बाकी दलों में और अन्ना की पार्टी में।
राजनिति के अखाड़े में उतरना, विकल्प की बात करना अच्छी बात है। लेकिन इसमें सावधानी की बहुत ज्यादा जरूरत है। राजनीति करने के लिए हर तरह की नीति अपनाई जाती है...सत्य और अहिंसा आज की तारीख में राजनीति के क्षेत्र में मायने नहीं रखते। और ये तो हिन्दुस्तान की पब्लिक है कब सिर पर चढ़ाए और कब उतार दे कह नहीं सकते।
अगर आप लोगों को याद हो तो 1994 के वैशाली लोकसभा उपचुनाव को याद करिए। आनंद मोहन ने तब नई पार्टी बनाई थी। उस वक्त आनंद मोहन की छवि एकदम रॉबिन हुड टाइप थी। लोकसभा के उपचुनाव में ऐसा समीकरण बना की लवली चुनाव जीत गईं। पूरे बिहार में (तब झारखंड भी साथ थे) आनंद मोहन की लहर सी फैल गई थी। ऐसा लगने लगा कि अब बिहार में लालू राज का खात्मा हो जाएगा। परिवर्तन आने वाला है। आनंद मोहन भी उम्मीदों के झाड़ पर चढ़े थे। 1995 के विधानसभा चुनाव में सभी 324 सीटों पर बिहार पीपुल्स पार्टी ने अपने उम्मीदवार उतार दिये। खुद आनंद मोहन तीन जगहों से खड़े थे। उनकी सभाओं में भारी भीड़ जुटती थी। लेकिन जब नतीजे आए तो आनंद मोहन तो अपनी तीनों सीट हारे ही बिहार में पार्टी को सिर्फ एक सीट मिली। वो भी उम्मीदवार को अपने दम पर। बाद में बिहार पीपुल्स पार्टी का जो हाल हुआ उससे सब वाकिफ हैं। इसी 1995 के विधानसभा चुनाव से पहले जॉर्ज-नीतीश ने मिलकर समता पार्टी बनाई थी। 1995 में समता पार्टी भी 324 सीटों पर चुनाव लड़ी थी लेकिन जीत सात सीटों पर मिली। 2000 के चुनाव में आंकड़ा 35 हुआ और फिर दो हजार पांच में तो सरकार ही बन गई।
ये कहानी अन्ना पार्टी के संदर्भ में बता रहा था कि कुछ पाने के लिए सब्र करना होता है। और स्थापित होने के लिए हर वो दांव आजमान होता है जिसकी जरूरत उम्मीदवार महसूस करता है। अन्ना की टीम को छोड़ दीजिए बाकी जो कोई भी उम्मीदवार मैदान में उतरेगा वो तो चुनाव जीतने या फिर खुद को स्थापित करने की नीयत से उतरेगा। ऐसे में वो हर कला लगाएगा । लिहाजा ये कहना कि गंदगी को साफ करने के लिए गंदगी में उतरना पड़ता है ठीक है लेकिन सफाई के दौरान गंदा भी होना पड़ता है। ये भी सच है। काजल की कोठरी से शायद ही कोई-कोई बेदाग निकलता है। लोकतंत्र है चुनाव लड़ना चाहिए। हर किसी को अधिकार है। देखना होगा कि अन्ना की पार्टी बनती है तो कैसे कैसे लोग उनके हिस्से में आते हैं।
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