Monday, September 30, 2013

लालू के जेल जाने से ज्यादा नुकसान किसको?

क्या लालू के जेल जाने से सबसे ज्यादा नुकसान नीतीश कुमार को होने वाला है? आप कहेंगे कि हर कोई लालू के नुकसान की बात कर रहा है और हम यहां नीतीश के नुकसान का जिक्र कर रहे हैं । असल में बिहार का जो ताजा राजनीतिक समीकरण है उस हिसाब से ये सवाल अहम हो जाता है ।




बिहार में लालू शुरू से पिछड़ों की राजनीति कर रहे हैं । लालू और मुस्लिम समीकरण के दम पर ही लालू ने बिहार में रिकॉर्ड पंद्रह साल तक राज किया । अब इस समीकरण में नीतीश सेंध लगाने के लिए तैयार बैठे हैं । नीतीश की नजर मुस्लिम वोटरों पर है । इसी वोट के चलते नीतीश ने सत्रह साल का अपना पुराना गठबंधन बीजेपी से तोड़ लिया । अब अगर लालू के सेंटीमेंट में मुस्लिम और यादव आक्रमक रूप से एक साथ फिर एक हो गये तो नीतीश के लिए न माया मिली न राम वाली स्थिति हो सकती है ।



ढाई दशक से लालू के आसपास ही बिहार की राजनीति घूम रही है । लालू ने सत्ता में आते ही सबसे पहले कांग्रेस के आधार वोट में सेंध लगाई और मुस्लिमों में अपना वोट बैंक मजबूत किया । 1991 के विवादित ढांचा गिरने के बाद लालू मुसलमानों में और ज्यादा लोकप्रिय हो गए । इसके बाद बिहार में जो MY समीकरण बना वो पंद्रह साल तक अटूट रहा । 2005 में पासवान के मुस्लिम मुख्यमंत्री के दांव के बाद राजनीतिक समीकरण बदलने लगे । पासवान बाद में भले ही लालू के साथ हो गए लेकिन पिछड़े मुस्लिमों ने नीतीश का दामन थाम लिया । इसी का नतीजा रहा कि 2010 के चुनाव आते आते नीतीश बीजेपी के साथ गठबंधन करके दो सौ से ज्यादा सीट गए । अब सवाल यही है मुस्लिम वोटों का क्या होगा ?



लालू को मुस्लिम वोटरों को अपने साथ जोड़े रखने के लिए यादव सेंटीमेंट को उभारना होगा । लालू की ओर से हाल के दिनों में ये कोशिश हुई भी है । लेकिन जब तक लालू का कुनबा बिहार के करीब बीस फीसदी यादव वोटरों को अपने प्रति आक्रमक रूप से नहीं जोड़ेगा तब तक लालू के लौटने की गुंजाइश नहीं होगी । और अब बदली हुई परिस्थिति में यादव वोटरों के बीच ये संदेश बताने की कोशिश हो सकती है कि लालू को मिलकर हर कोई परेशान कर रहा हैं ।



जेल जाने का फायदा लालू पहले भी उठा चुके हैं । चारा घोटाले में गिरफ्तार होकर लालू पहली बार जब जेल गये थे उसके बाद 1998 में लोकसभा का चुनाव हुआ था । उस चुनाव में झारखंड के इलाके को छोड़ दे तो बिहार की चालीस लोकसभा सीटों में 21 सीटों पर लालू गठबंधन को जीत मिली थी । इनमें से अकेले लालू की पार्टी को 17, कांग्रेस को 3 और एक शिवहर की सीट लालू के समर्थन ने आनंद मोहन ने जीत ली थी । साल 2000 के विधानसभा चुनाव में भी पूरा विपक्ष एक होकर चुनाव लड़ रहा था तब भी लालू की पार्टी को 242 में से 115 सीटों पर जीत मिली थी । इस चुनाव में लालू को 33 फीसदी वोट मिले थे । लालू के रणनीतिकार भी इस हकीकत से वाकिफ हैं ।

ये अलग बात है कि अब उस जमाने की रणनीति नहीं रह गई है ।



अब इस सियासी खेल में बीजेपी के अपनी रणनीति है । बीजेपी ये बताने में जुटी है कि

लालू कमजोर नहीं हुए हैं । बीजेपी अपने इस बयान से अपने सवर्ण वोटरों में लालू के जंगल राज का खौफ तो दिखा ही रही है । ये कहकर मुस्लिम और यादव वोटरों को भी लालू के पास ही रहने देने का संदेश देने की कोशिश है । क्योंकि अगर बीजेपी के नेता ये कहते हैं कि लालू कमजोर हो गये हैं तो मुस्लिम वोटर नीतीश के पाले में जा सकते हैं और इसका नुकसान बीजेपी को होगा ।



यही वजह है कि नीतीश जैसे माहिर खिलाड़ी ने भी इतने बड़े फैसले के बाद मुंह बंद रखने में ही अपनी भलाई समझी । क्योंकि नीतीश की टिप्पणी यादवों को भावनात्मक रूप से लालू के नाम पर गोलबंद कर सकती है । नीतीश की पार्टी में भी यादव जाति के चार सांसद हैं और यादव सेंटीमेंट का नुकसान इनकी राजनीतिक दुकानदारी ठप कर सकता है ।



लालू की पार्टी में ऐसा कोई नेता दिखता नहीं है जो सिर्फ अपने दम पर सीट निकाल ले । इसलिए पार्टी में जिनको रहना है उनको लालू का फैसला मानना होगा । अब नेतृत्व को लेकर लालू कैसा फैसला लेते हैं इस पर बहस हो सकती है । यादवों में अपना संदेश देने के लिए लालू को अपने बेटे को ही आगे करना होगा । रघुवंश सिंह और प्रभुनाथ सिंह जैसे नेताओं की अपनी अहमियत जरूर है लेकिन ये नेता नेतृत्व नहीं दे सकते । वैसे लालू के लिए झारखंड की जेल में रहकर पार्टी चलाने में ज्यादा परेशानी नहीं होगी । क्योंकि हेमंत सोरेन सरकार में लालू की पार्टी भी अहम सहयोगी है ।

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