Wednesday, July 22, 2015

लालू ही हैं नीतीश के सांप ?

लालू-नीतीश के बीच जो हो रहा है वो आगे भी होना है। नीतीश की राजनीतिक पहचान ही लालू के खिलाफ बनी है। लेकिन राजनीतिक वजूद बचाने के लिए नीतीश को लालू से हाथ मिलाने के लिए मजबूर होना पड़ा। नीतीश के साथ दिक्कत ये है कि उन्होंने लालू से दोस्ती तो कर ली है लेकिन जिन वजहों से 1994 में उन्होंने लालू का साथ छोड़ा था उसमें उन्हें कोई बदलाव नहीं दिख रहा है। इसीलिए समय समय पर नीतीश के मन का भाव किसी न किसी माध्यम से सामने आ रहा है।
चंदन और सांप वाले इस ताजा विवाद में नीतीश को ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं थी। चाहते तो वो लालू के जहर वाले बयान का जिक्र नहीं करते। लेकिन ऐसा लगता है कि डेढ महीने पहले लालू ने उनके लिए जो जहर शब्द का इस्तेमाल किया था उससे वो काफी असहज महसूस कर रहे थे। और जब रहा नहीं गया तो पत्रकारों के सामने मुंह से निकल ही गया।
ट्विटर पर इन दिनों बिहार की जनता से जु़ड़कर नीतीश उनके सवालों का जवाब देते हैं। ऐसा ही एक सीधा सा सवाल उनसे पूछा गया कि चुनाव में लालू के साथ जीत लेते हैं तो बिहार में विकास कैसे करेंगे? इस सवाल का सीधा जवाब इतना भर काफी हो सकता था कि बिहार का विकास ही उनका एकमात्र एजेंडा है। लेकिन इसके आगे उन्होंने रहीम का सांप-चंदन वाला दोहा जोड़ दिया। भाई सवाल सीधा लालू के साथ बिहार के बनाने को लेकर था। जवाब में नीतीश जी ने खुद को चंदन माना। तो सीधा समझ है कि इस लिहाज से उन्होंने लालू को सांप माना। लेकिन नहीं। मानने को तैयार नहीं हैं। भाई नीतीश सार्वजनिक तौर पर ये कैसे मानने को तैयार हो सकते हैं कि उन्होंने लालू के लिए सांप शब्द का प्रयोग किया था ?
मेरे हिसाब से नीतीश को जो बात जहां तक पहुंचानी थी उन्होंन पहुंचा दी है। अब सफाई चाहे नीतीश दें या लालू। पब्लिक को आप ज्यादा दिन तक गफलत में नहीं रख सकते। दोनों की दोस्ती और दुश्मनी की दास्तान बिहार के लोग बखूबी जानते हैं। मजबूरी में दोनों का रिश्ता बना है ये भी किसी से छिपा नहीं है। सार्वजनिक तौर पर दोनों पार्टियों के नेता इसे मानते भी हैं। बिहार की राजनीति को करीब से देखने वाला हर शख्स जानता है कि दोनों नेता अहंकारी स्वभाव के हैं। और दोनों साथ आने के बाद अपने अपने स्वभाव के सामने बेबस हैं।
लोकसभा चुनाव में नीतीश की मजबूरी दिख चुकी है। नीतीश के पास नाम और काम है लेकिन वोट बैंक का आधार नहीं। लालू के पास वोट बैंक का आधार है लेकिन नाम और काम के लिहाज से ठन ठन गोपाल। हां जंगल राज का तमगा लालू के साथ है। और यही जंगल राज के तमगे को नीतीश साथ लेकर घूमने से बच रहे हैं। पोस्टर से लेकर बैनर तक। प्रचार से लेकर साझा प्रचार तक। दोनों अलग राग गा रहे हैं।

प्रचार के तमाम पोस्टरों में सिर्फ नीतीश की तस्वीर दिख रही है। लालू की पार्टी को ये बात खल रही है। लालू खुद नहीं बोल रहे लेकिन रघुवंश बाबू से बोलवा रहे हैं। लेकिन रघुवंश बाबू भी तीस-चालीस साल से नेतागीरी कर रहे हैं उनको भी पता है कि किसके बारे में कितना बोलना है।
27 तारीख को लालू ने जातीय जनगणना आंकड़ों को लेकर बिहार बंद का एलान किया है। अब उसी दिन नीतीश को क्या जरूरत थी सरकार के रिपोर्ट कार्ड जारी करने की। लेकिन नहीं नीतीश ने वही दिन तय किया है। अब इससे सवाल ये भी तो उठेगा ही न कि क्या नीतीश बिहार की धरती पर लालू को मजबूत होते नहीं देखना चाहते। भाई अब अगर लालू मजबूत होंगे तो उसी हिसाब से विधानसभा के लिए सीटों की मांग भी तो होगी। सो कहीं न कहीं मजबूरी की इस दोस्ती में भरोसे की भारी कमी दिख रही है।
23 को लालू मुजफ्फरपुर के मीनापुर जा रहे हैं चुनावी सभा के लिए। ऐसा नहीं है कि मीनापुर में लालू का भरा पूरा जनाधार है। 15 साल से वहां जेडीयू के (अब बागी) दिनेश प्रसाद विधायक हैं। लेकिन लालू जा रहे हैं बिना नीतीश के अकेले प्रचार करने। नीतीश जी भी चार दिन पहले ही पूर्व विधायक अरुण कुमार सिन्हा के श्राद्धकर्म में शामिल होकर मुजफ्फरपुर से आए हैं। अब इफ्तार वाली पार्टी को ही देख लीजिए। नीतीश को दिल्ली आने की क्या जरूरत थी। लेकिन लालू की इफ्तार छोड़कर वो दिल्ली सोनिया की इफ्तार में शामिल हुए। नीतीश जान चुके हैं कि मुस्लिम वोट के पीछे भागेंगे तो हिंदू वोट फिर लोकसभा चुनाव की तरह एकतरफा हो जाएगा। सो लालू की पॉलिटिक्स अपने हिसाब से है और नीतीश की अपने हिसाब से।
विधान परिषद चुनाव में साथ लड़कर मिली हार को भले नीतीश ने सार्वजनिक तौर पर नहीं माना लेकिन अंदर से उन्हें बिहार के मूड का अंदाजा हो गया है।
परसों पटना में सत्येंद्र बाबू वाले कार्यक्रम में जिस अंदाज में नीतीश को लालू ने बिठाकर बेइज्जतकिया उससे भी नीतीश खेमे में खलबली देखी जा रही है। सात बार मंच से लालू ने बताया कि नीतीश आज उनकी वजह से ही सीएम हैं। नीतीश के करीबी मेरे एक मित्र ने बताया कि इससे नीतीश जी काफी असहज हुए थे। नीतीश की खासियत है कि परेशानी वो जाहिर नहीं होने देते लेकिन अंदर ही अंदर अपना काम करते रहते हैं ।
अनंत सिंह और सुनील पांडे की गिरफ्तारी का श्रेय भी जिस तरीके से लालू ने लिया उससे नीतीश खासे परेशान हुए थे। नीतीश के करीबी मेरे मित्र ने बताया कि इससे बिहार में सरकार के खिलाफ गलत संदेश जा रहा है। माना जाने लगा है कि बिहार में सरकार नीतीश नहीं बल्कि लालू चला रहे हैं। जबकि नीतीश बार बार सुशासन और विकास को अपना एजेंडा बताते फिर रहे हैं। लालू के बयानों से नीतीश के सुशासन में पलीता लग चुका है। नीतीश डेंट को सेट करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन आसान नहीं रहने वाला। जहां तक सांप और जहर का सवाल है तो नीतीश के लिए भी सांप जैसे शब्दों का इस्तेमाल हो चुका है।

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