इस परीक्षा में भी नीतीश फेल हो गए। लेकिन बीजेपी के लिए भी ज्यादा उत्साहित होने की जरूरत नहीं है। ऐसा क्यों कह रहा हूं इसका विश्लेषण आगे पढ़िएगा। पहले फैक्ट सीट को देख लीजिए। विधान परिषद के इस चुनाव को आने वाले विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा था। और इस सेमीफाइनल में नीतीश लालू की दोस्ती को बिहार ने नकार दिया । 24 में से अकेले बीजेपी ने 12 सीटें (बेगूसराय सीट लेकर) जीती और सहयोगी एलजेपी के खाते में सहरसा की एक सीट आई। जबकि महागठबंधन में नीतीश की पार्टी को 5, लालू की पार्टी को 4 और कांग्रेस के खाते में 1 सीटें आई। दोनों गठबंधन में एक-एक पार्टी का खाता नहीं खुला। एनडीए में जहां उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी 2 सीटों पर लड़ी थी और दोनों हार गई वहीं महागठबंधन में कटिहार की सीट एनसीपी हार गई। पटना की सीट निर्दलीय रीतलाल यादव ने जीती है। (बेगूसराय का परिणाम ब्लॉग लिखे जाने तक आधिकारिक तौर पर घोषित नहीं है)
पिछली बार इन 24 सीटों में से नीतीश की पार्टी के पास 16 सीटें थी। लालू के पास 3 और बीजेपी के पास महज 5 सीटें थी। लेकिन बीजेपी 5 से 12 तक पहुंच गई और नीतीश 16 से 5 पर आ गए।
महागठबंधन में लालू-नीतीश की पार्टी 10-10 सीटों पर लड़ी थी। जबकि 3 सीटों पर कांग्रेस और एक पर एनसीपी का उम्मीदवार था। एनडीए की बात करें तो बीजेपी ने 18 पर उम्मीदवार उतारे थे । एलजेपी 4 और कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी 2 सीटों पर लड़ी थी। पहली बार बिहार में विधान परिषद का ये चुनाव इस तरह से पार्टी लाइन पर लड़ा गया था। नेताओं ने प्रचार में जमकर पसीना बहाया और बीजेपी का ये पसीना काम आया।
नतीजे इसलिए अहम है क्योंकि दो-तीन महीने बाद विधानसभा के चुनाव होने हैं। और इस विधान परिषद के चुनाव में वही लोग वोटर होते हैं जो किसी न किसी तरह का चुनाव जीतकर आये होते हैं। मसलन मुखिया, पंचायत समिति के सदस्य, शहरी और ग्रामीण इलाकों के वार्ड मेंबर। जिला परिषद के सदस्य, विधायक और सांसद। ये वही लोग हैं जिनका अपने इलाकों में प्रभाव होता है। या फिर यूं कहें कि जो अपने इलाकों में वोटरों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। इस लिहाज से इस जीत को नीतीश-लालू की दोस्ती के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता।
बीजेपी जहां 5 से 12 पर पहुंच गई है। वहीं पार्टी के लिए अच्छी बात ये भी रही कि उन इलाकों में फिर से जीत मिली है जहां से लोकसभा चुनाव में अच्छे परिणाम नहीं मिले थे। बिहार के सीमांचल का इलाका जहां मुस्लिम सीटों की बहुलका है वहां से पूर्णिया, कटिहार जैसी सीटें पार्टी ने फिर जीत ली है। लोकसभा चुनाव में पूर्णिया से पप्पू सिंह और कटिहार से निखिल चौधरी जैसे दिग्गज हार गये थे। पूर्णिया-अररिया-किशनजगंज संयुक्त सीट से दिलीप जायसवाल फिर जीते हैं तो कटिहार से बीजेपी समर्थित अशोक अग्रवाल जीते हैं। सहरसा-सुपौल-मधेपुरा की सीट एलजेपी ने जीती है। नीतीश की पार्टी के बागी हुए नीरज कुमार बबलू की पत्नी को एलजेपी ने उम्मीदवार बनाया था।
इस बड़ी जीत में बीजेपी के लिए बुरी खबर भी है। बुरी खबर ये रही कि पार्टी अपनी सीटिंग दो सीटें सीतामढ़ी और गया हार गई। सीतामढ़ी से वैद्यनाथ प्रसाद की जगह इस बार देवानंद साह को टिकट दिया था। देवानंद आरजेडी के दिलीप राय के हाथों हार गये। गया की सीटिंग सीट से अनुज सिंह जीते थे। इस बार जेडीयू उम्मीदवार के हाथों हार गईं। अनुज कुमार सिंह सुशील मोदी के करीबी थे।
इससे भी बुरी खबर ये रही कि जिस नवादा सीट से जीतकर बीजेपी के गिरिराज सिंह सांसद और केंद्र में मंत्री तक बने। उस नवादा की सीट से बीजेपी की हार हो गई है। बक्सर के सांसद अश्विनी चौबे भी अपने संसदीय क्षेत्र से जुड़ी भोजपुर की सीट एनडीए की झोली में नहीं डाल सके। यहां से एलजेपी ने बाहुबली जेडीयू विधायक सुनील पांडे के भाई हुलास पांडे को उतारा था। हुलास पांडे अभी इस सीट से जेडीयू के सीटिंग विधायक थे।
जिस मुजफ्फरपुर से पीएम नरेंद्र मोदी बिहार में विधानसभा चुनाव अभियान शुरू करने जा रहे हैं उस सीट से तो बीजेपी हारी ही है आसपास की तमाम सीटें भी हार गई। तिरहुत में कुल 6 जिले हैं और विधान परिषद की 5 सीटें। लेकिन 4 सीटें बीजेपी हार गई है। मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी, वैशाली और पश्चिमी चंपारण की सीट महागठबंधन के खाते में चली गई है। मुजफ्फरपुर में तो पार्टी के उम्मीदवार को 6 हजार में से महज तीन सौ के आसपास वोट ही मिले। जेडीयू के दिनेश सिंह तीसरी बार जीते हैं। इनकी पत्नी बीजेपी की विधायक हैं। दिनेश सिंह के नामांकन में नीतीश मुजफ्फरपुर गये थे।
इस बड़ी जीत में बीजेपी के लिए खतरे का सिग्नल भी है। तिरहुत में विधानसभा की 49 सीटें हैं और विधानसभा क्षेत्र के हिसाब से ये राज्य का सबसे बड़ा इलाका है। 2010 के विधानसभा चुनाव में तिरहुत की 49 सीटों में से बीजेपी को 21 और जेडीयू को 24 सीटें मिली थी। 1 सीट लालू को और बाकी की 3 सीटें निर्दलीय ने जीती थी।
राम विलास पासवान के संसदीय क्षेत्र वैशाली से एनडीए की हार हुई है यहां से आरजेडी उम्मीदवार सुबोध राय जीते हैं। सिर्फ कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ही अपने मोतिहारी से पार्टी को जीत दिलवा सके। लोकसभा चुनाव में तिरहुत की सभी 8 सीटें एनडीए ने जीती थी।
जिस पटना से रविशंकर प्रसाद, रामकृपाल यादव जैसे नेता केंद्र में मंत्री हैं उस पटना की सीट लालू-नीतीश के खाते में तो नहीं गई लेकिन बीजेपी भी नहीं जीती। निर्दलीय और बाहुबली रीतलाल यादव ने ये सीट जीती है। रीतलाल यादव वही बाहुबली है जिससे लोकसभा चुनाव के वक्त समर्थन मांगने लालू ने अपने दूत को जेल भेजा था। और चुनाव के दौरान उसे पार्टी का महासचिव तक बना दिया था। लेकिन बागी होकर रीतलाल लड़े और जीत गये।
लालू अपने यादवों के गढ़ में टिक नहीं पाए हैं। छपरा, सीवान और गोपालगंज। सारण की ये तीनों सीटें बीजेपी ने जीती हैं। सारण से ही राबड़ी देवी लोकसभा का चुनाव हारी थीं। और गोपालगंज लालू का गृह जिला है। मुस्लिम बहुल इलाके में महागठबंधन को कामयाबी नहीं मिली। सीमांचल में तो बुरा हाल हुआ ही है । मिथिलांचल में भी महागठबंधन का सूपड़ा साफ हो गया है। दरभंगा, मधुबनी और समस्तीपुर सीट बीजेपी ने जीती है। नीतीश अपना किला बचाने में जरूर कामयाब रहे। नालंदा में एलजेपी के रंजीत डॉन हार गए और जेडीयू ने ये सीट अपने नाम की।
23-24 साल तक बिहार में विधान परिषद के स्थानीय प्राधिकार वाली सीटों पर चुनाव नहीं हुए थे। 2003 में चुनाव कराए गए थे जिसके बाद 2009 और अब 2015 में चुनाव कराये गए । आगे एक साथ इन 24 सीटों पर चुनाव होंगे या नहीं कहा नहीं जा सकता। क्योंकि नियम के हिसाब से उपरी सदन की सभी सीटें एक साथ खाली नहीं हो सकती। जबकि दो दशक तक चुनाव नहीं होने की वजह से इन 24 सीटों पर फिलहाल ये नियम लागू नहीं हो पा रहा। हाईकोर्ट में मामला है। बहुत मुमकिन है कि इन जीते लोगों में से किसी का 2 साल का किसी का 4 साल का और किसी किसी का 6 साल का कार्यकाल होगा। अब किसकी किस्मत 6 साल वाली होगी अभी कह नहीं सकते।
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