Monday, July 13, 2015

ओबीसी पॉलिटिक्स का सच क्या है ?


बिहार में चुनाव होने हैं सो ओबीसी वोट बैंक को लेकर खूब राजनीति हो रही है। बाजेपी अपने आप को ओबीसी का मसीहा बनाकर पेश करना चाह रही है लेकिन लालू नीतीश बीजेपी के दावे की हवा निकालने में जुटे हैं। असल में ओबीसी वोट की राजनीति इसलिए हो रही है क्योंकि बिहार में इसकी कुल आबादी करीब पचास फीसदी के आसपास है। लालू और नीतीश दोनों पिछड़े वर्ग की राजनीति करते हैं । बैक वार्ड में लालू यादवों की राजनीति करते हैं जिसकी आबादी बाकी जातियों से ज्यादा है। नीतीश कुर्मी बिरादरी से आते हैं जिसकी आबादी 5 फीसदी से कम है। हाल के दिनों तक नीतीश को कुर्मी-कोइरी दोनों बिरादरी का नेता माना जाता था लेकिन अब पहले वाली बात नहीं है। कोइरी वोट नीतीश से छिटक चुका है। बाकी जातियों की बात करने से पहले आते हैं विवाद पर।
बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि बीजेपी ने देश को पहला
ओबीसी पीएम दिया। इसके जवाब में पहले नीतीश कुमार ने फिर लालू यादव ने कहा है कि सबसे पहले ओबीसी पीएम देवेगौड़ा थे जिन्हें हमलोगों ने बनाया।
 जबकि हकीकत ये है कि देवेगौड़ा जब पीएम बने तब नीतीश बीजेपी के साथ थे। 8 सांसदों वाली समता पार्टी के नेता तब जॉर्ज फर्नांडीस हुआ करते थे। देवेगौड़ा को पीएम बनाने या बनवाने में किसी तरह का योगदान नीतीश जी का नहीं था। 
1996 में जब देवेगौड़ा पीएम बने तब नीतीश कुमार समता पार्टी में थे और बीजेपी से तालमेल कर पहला चुनाव उन्होंने लड़ा था। उसी दौरान वाजपेयी जी की तेरह दिन की सरकार बनी थी। जिसके गिरने पर देवेगौड़ा पीएम बने थे। देवेगौड़ा जब पीएम बने तब कर्नाटक के सीएम थे। राष्ट्रीय मोर्चे में जनता दल सबसे बड़ी पार्टी थी जिसके 26 सांसद थे। लालू यादव तब इसके अध्यक्ष थे। पीएम के लिए देवेगौड़ा के नाम पर सहमति बनने के पीछे कई तरह की चर्चा होती है। देवेगौड़ा तब कहीं से भी रेस में नहीं थे। वाजपेयी की सरकार गिरने के बाद सरकार बनाने में जुटे संयुक्त मोर्चे (राष्ट्रीय मोर्चा+लेफ्ट मोर्चा) के नेताओं की तब भी पहली पसंद वीपी सिंह ही थे। मोर्चे के नेता वीपी सिंह के पास पीएम बनने का प्रस्ताव लेकर गये थे। लेकिन कहा जाता है कि वीपी सिंह तैयार नहीं थे। उन्होंने तब प. बंगाल के सीएम ज्योति बसु का नाम सुझाया था। लेकिन वीपी सिंह को मनाने के लिए मोर्चे के नेता जब वीपी सिंह के घर गये तो उस दिन अपनी गाड़ी में बैठकर वीपी सिंह दिल्ली के रिंग रोड पर चक्कर काट रहे थे । और घर नहीं गये। हारकर मोर्चे के नेता लौट गये। ज्योति बसु के नाम पर अपनी पार्टी से मुहर नहीं लगी थी। लालू ने खुद का नाम आगे करवाने की भरपूर कोशिश की लेकिन कामयाबी नहीं मिली। बिहार निवास की बैठक में उनकी पार्टी और उनके स्वजातियों लोगों ने ही हामी नहीं भरी। इसके बाद ज्योति बसु के सुझाए गए देवेगौड़ा के नाम पर मुहर लगी। कहा जाता है कि यादव बिरादरी के नेताओं में ही इस बात को लेकर अंदर ही अंदर ये चलने लगा था कि वो हमसे बड़ा नेता बन जाएगा। 
मतलब ये कि देवेगौड़ा कोई सबकी पसंद से और आसानी से पीएम नहीं बने थे। जब किसी के नाम पर बात नहीं बनी तो देवेगौड़ा को बना दिया गया। इसके बाद फिर अगले साल 1997 में जब कांग्रेस की जिद पर देवेगौड़ा हटे तो ओबीसी राजनीति करने वाले नेताओं में ही राय नहीं बनी। मुलायम सिंह यादव तब पीएम बन गये होते अगर लालू यादव ने विरोध नहीं किया होता। लालू के विरोध की बात खुद मुलायम भी कबूल चुके हैं।
कहने का मतलब ये कि देवेगौड़ा मजबूरी के प्रधानमंत्री थे। लालू को मजबूरी में उनके नाम पर मानना पड़ा था। नीतीश की कोई भूमिका भी नहीं थी। हां बिहार में दोनों जरूर ओबीसी के क्षत्रप हैं। लेकिन इस बार के चुनाव में इनकी अग्निपरीक्षा होनी है। लोकसभा चुनाव में ओबीसी वोटरों ने भी इन दोनों को नकार दिया था। नतीजा हुआ कि बीजेपी के लालू-नीतीश का कुनबा (अलग अलग लड़कर) 9 पर सिमट गया था।
लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 19 फीसदी यादवों ने, 26 फीसदी कुर्मी-कोइरी, 63 फीसदी अत्यंत पिछड़ी जाति के वोट मिले
थे। नीतीश को अत्यंत पिछडी जाति के महज 18 और महादलितों क 25 फीसदी वोट मिले थे। 
लालू के जिस ग्रिप में फंसकर नीतीश पिछ़ड़ों की गोलबंदी की राजनीति कर रहे हैं उससे लालू को तो फायदा हो रहा है लेकिन नीतीश को इसका लगातार नुकसान उठाना पड़ रहा है। आगे भी उन्हें उठाना पड़ेगा। बीजेपी ने अपना ओबीसी दांव इसीलिए चला है ताकि लोकसभा वाले वोट के आंकड़े को और ज्यादा बढ़ाया जा सके। 
लेकिन बीजेपी के इस दांव से पार्टी को नुकसान भी हो सकता है। अमित शाह के ओबीसी वाले बयान का एक संकेत ये भी है कि बिहार में मुख्यमंत्री इसी वर्ग से आएगा। यानी लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 78 फीसदी वोट देने वाले सवर्ण समाज का पत्ता उन्होंने अपने एक बयान से साफ कर दिया है। तो क्या गिरिराज सिंह, सीपी ठाकुर, रविशंकर प्रसाद, शत्रुघन सिन्हा, राजीव प्रताप रूडी, राधा मोहन सिंह, अश्विनी चौबे जैसे नेताओं के लिए सीएम का पद सपना हो सकता है।   
लोकसभा की 40 सीटों में से बीजेपी गठबंधन को 31 और बाकी को 9 सीटें मिली थी। जाति का गणित देखें तो सवर्ण जातियों के सांसदों की संख्या 14 ( राजपूत-6, भूमिहार-4, ब्राह्मण-3, कायस्थ-1) है। जो कि सब के सब एनडीए से ही हैं।  पिछडी जाति के 16 उम्मीदवार जीते थे। इनमें से 10 एनडीए के हैं। बाकी के 6 लालू-नीतीश-कांग्रेस पार्टी से हैं। 4 मुस्लिम और 6 सुरक्षित सीटों वाले सांसद हैं।  
अमित शाह के बयान को अगर आधार मान लें तो फिर सुशील कुमार मोदी की राह सीएम की कुर्सी के लिए आसान हो जा रही है। लेकिन दिक्कत ये है कि सुशील मोदी बीजेपी को बिहार भर में जिता नहीं सकते। वैश्य वोटबैंक बीजेपी का आधार वोटबैंक जरूर है लेकिन इस समाज के वोटर आक्रमक होकर वोट नहीं दे पाते। इसलिए पार्टी सीएम उम्मीदवार घोषित कर चुनाव लड़ने का रिस्क नहीं लेने वाली है। 

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