Thursday, September 10, 2015

बिहार चुनाव के बारे में जानिए

बिहार में विधानसभा की 243 सीटें हैं ।
2010 के चुनाव में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन को 206 सीटें मिली थी
2010 में लालू और पासवान की पार्टी का गठबंधन था
2010 के चुनाव में लालू को 22 और पासवान को 3 सीटें मिली
2010 के नतीजे- जेडीयू- 115, बीजेपी-91, आरजेडी- 22, एलजेपी-3, कांग्रेस-4,  निर्दलीय-6 अन्य- 2
 सबसे ज्यादा पटना जिले में 14 सीटें हैं
सबसे कम शिवहर जिले में विधानसभा की सिर्फ 1 सीट है
राजनीतिक रूप से बंटवारा-
उत्तर बिहार-(तिरहुत, सारण,मिथिला मंडल) में 13 जिले- विधानसभा की सीटें- 110
कोसी सीमांचल- (कोसी, पूर्णिया मंडल) में 7 जिले, विधानसभा की सीटें 37
भोजपुर-मगध (पटना, गया मंडल) में 11 जिले- विधानसभा की सीटें- 69
अंगिका (भागलपुर, मुंगेर मंडल) में 7 जिले, विधानसभा की सीटें- 27
 चारों जोन में 2010 के नतीजे
उत्तर बिहार (110)- जेडीयू- 49, बीजेपी- 47, आरजेडी- 10, कांग्रेस- 0, अन्य- 4
कोसी सीमांचल (37)- जेडीयू 14, बीजेपी- 14, आरजेडी- 3, एलजेपी- 2, कांग्रेस-3, अन्य- 1
भोजपुर-मगध(69)- जेडीयू- 35, बीजेपी-24, आरजेडी- 7, एलजेपी-1, अन्य- 2
अंगिका (27)- जेडीयू-17, बीजेपी- 6, आरजे़डी- 2, कांग्रेस-1, अन्य- 1

2010 विधानसभा चुनाव में किसको कितने वोट
जेडीयू- 22.58 %
बीजेपी- 16.49 %
 आरजेडी-18.84%
एलजेपी- 6.74%
 कांग्रेस 8.37%

2014 लोकसभा चुनाव के नतीजे (कुल सीटें-40)
NDA-बीजेपी-22
एलजेपी-6
आरएलएसपी- 3
UPA- आरजेडी-4
कांग्रेस-2
एनसीपी-1
OTHERS- जेडीयू-2

 2014 लोकसभा चुनाव में किसे कितने वोट
 NDA-बीजेपी 29.40%
एलजेपी 6.40 %
आरएलएसपी 3 %
UPA- आरजेडी- 20.10%
कांग्रेस-8.40%
एनसीपी- 1.20%
OTHERS- जेडीयू- 15.80%
  
अभी के गठबंधन के पास 2010 के हिसाब से विधानसभा सीटें
एनडीए- 94
बीजेपी- 91
एलजेपी-3
आरएलएसपी-0
हम- 0
महागठबंधन- 141
जेडीयू- 115
आरजेडी- 22
कांग्रेस-4

बिहार में मुख्य पार्टियां-
एनडीए- बीजेपी(कमल) , एलजेपी(बंगला), आरएलएसपी(पंखा), हम(टेलीफोन)
महागठबंधन- जेडीयू(तीर),  आरजेडी(लालटेन), कांग्रेस(पंजा)
लेफ्ट-
एनसीपी- घड़ी
समाजवादी पार्टी- साइकिल 
जन अधिकार पार्टी पप्पू यादव-
गरीब जनता दल सेक्यूलर- साधु यादव- ऑटो निशान
समरस समाज पार्टी- नागमणि- टेलीविजन

सिर्फ बिहार के मुख्य नेता-
जेडीयू- नीतीश कुमार, विजय चौधरी, वशिष्ठ नारायण सिंह, श्याम रजक
आरजेडी- लालू यादव, राबडी देवी, रघुवंश सिंह, अब्दुल बारी सिद्दीकी, रामचंद्र पूर्वे
कांग्रेस-अशोक चौधरी,सदानंद सिंह,शकील अहमद,मीरा कुमार, रंजीत रंजन, असरारुल हक
 बीजेपी- सुशील मोदी, नंद किशोर यादव, राजीव रूडी. गिरिराज सिंह,शाहनवाज, राधामोहन
एलजेपी- रामविलास, चिराग, रामचंद्र, पशुपति, सूरजभान, रामा सिंह, महबूब अली कैसर
आरएलएसपी- उपेंद्र कुशवाहा, अरुण कुमार, रामकुमार शर्मा
हम- जीतन राम मांझी, शकुनी चौधरी, वृषण पटेल, नीतीश मिश्रा, महाचंद्र सिंह, लवली
 समाजवादी पार्टी- रामचंद्र सिंह कुशवाहा-प्रदेश अध्यक्ष
एनसीपी- तारिक अनवर, सांसद

जन अधिकार पार्टी- पप्पू यादव सांसद

दिवाली के पटाखे कौन फोड़ेगा ?

बिहार में चुनाव की तारीखों का एलान हो गया है। पांच चरणों में चुनाव और 8 नवंबर को नतीजे। यानी दीवाली से पहले साफ हो जाएगा कि बिहार में जीत के पटाखे कौन फोड़ेगा ?  बिहार का ये चुनाव लालू-नीतीश के लिए तो करो या मरो का चुनाव है। नरेंद्र मोदी और बीजेपी नेताओं के लिए भी सीधे सीधे बिहार का ये चुनाव प्रतिष्ठा का चुनाव बन चुका है। लोकसभा चुनाव में जीत के बाहर मोदी लहर की सवारी कर बीजेपी ने महाराष्ट्र, हरियाणा, गुजरात में सरकार बना ली। जम्मू कश्मीर में भी मिली जुली सरकार बनाने में पार्टी कामयाब रही। लेकिन दिल्ली में बीजेपी को बुरी हार का सामना करना पड़ा। बिहार का चुनाव इन चुनावों से अलग है। बिहार का चुनावी पूरी तरह जाति के समीकरण पर लड़ा जाने वाला चुनाव है। विकास का तड़का लगाकर जातियों की तोड़ने की रणनीति बीजेपी कर तो रही है लेकिन उससे कितना फायदा मिलेगा ये चुनाव में ही पता चलेगा। अभी भले ही दुनिया की नजरों में जातीय बदनामी से बचने के लिए नेता विकास विकास की बात कर रहे हैं लेकिन चुनावी हकीकत में विकास पीछे छूट जाएगा और वोट जाति के नाम पर ही पड़ेंगे। असल में बिहार अब भी जातीय राजनीति के दलदल से बाहर नहीं आ पाया है। इसलिए तमाम पार्टियां जाति के गणित को ही दुरुस्त करने में जुटे हैं। विकास की बात करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मुजफ्फरपुर जाते हैं तो यदुवंशी की बात करते हैं। महादलित के अपमान का जिक्र करते हैं। लालू हैं कि जाति आधारित गिनती से बाहर आ ही नहीं रहे। विकास पुरुष की छवि वाले नीतीश कुमार की पार्टी के नेता भी जाति को बिहार की राजनीति की जरूरत मानते हैं। टिकटों का बंटवारा भी इसी आधार पर होने वाला है। इस बंटवारे में जो सामाजिक संतुलन और विद्रोह की आग को शांत कर लेगा वो भारी पड़ेगा। बिहार में कांग्रेस की भूमिका स्टेपनी वाली है। असली नेता लालू-नीतीश हैं। अगर ये दोनों  चुनाव हारते हैं तो फिर इनकी आगे की राजनीति लगभग खत्म हो जाएगी। यही वजह है कि लालू हर दांव लगाकर बेटे-बेटियों को विधायक बनाने की जुगत में हैं। जहां तक नीतीश की बात है तो उनका परिवार राजनीति में नहीं है। ऐसे में हार के बाद पांच साल तक दिल्ली और पटना में सत्ता से दूर रहना इन क्षेत्रीय पार्टी के नेताओं के लिए आसान नहीं रहेगा। लालू खुद चुनाव नहीं लड़ रहे ये उनकी सबसे बड़ी कमजोरी है । नीतीश लालू को साथ लेकर चुनावी अखाड़े में उतरे हैं ये नीतीश की सबसे बड़ी कमजोरी है। इन कमजोरियों को साथ लेकर दोनों सत्ता के संघर्ष में उतरे हैं। हां नीतीश के पास विकास वाली छवि की पूंजी है तो लालू के पास वोट बैंक की। लेकिन लालू की छवि का घाटा भी नीतीश की छवि को उठाना पड़ रहा है। बीजेपी के पास सबसे बड़ा माइनस प्वाइंट ये है कि इनके पास नेताओं की भरमार है। लेकिन मुख्यमंत्री के लायक घोषणा करने वाला कोई चेहरा नहीं है। बिहार ये जरूर जानना चाहेगा कि अगर सरकार बनेगी तो उनका मुख्यमंत्री कौन होगा ? विरोधी पार्टी के नेता यही पूछ रहे हैं कि नीतीश कुमार के सामने कौन होगा ?  दूसरी बात ये कि खास खास समुदाय का एक तरफा वोट अगर बीजेपी को मिलने की उम्मीद है तो उसके लिए नरेंद्र मोदी या बीजेपी को श्रेय नहीं जाता। उसका श्रेय जाता है लालू यादव को। हां नरेंद्र मोदी अब भी बिहार में लोकप्रिय हैं। जिसका फायदा बीजेपी को मिलने की उम्मीद है। अगर नुकसान होता है भी है इसका कारण पासवान, कुशवाहा और मांझी जैसे सहयोगी हो सकते हैं। चुनाव जीतने के लिए दोनों गठबंधनों ने अपने अपने तमाम घोड़े खोल दिये । प्रधानमंत्री ने सवा लाख करोड़ के पैकेज का एलान किया। वित्त राज्य मंत्री बिहार जाकर बोल आए कि सरकार बनने पर और इतना देंगे। चुनाव से पहले छे फीसदी डीए का एलान केंद्रीय कर्मचारियों के लिए हुआ। बाढ़ पावर प्लांट के लिए भी स्पेशल एलान आज ही हुआ है। नीतीश कुमार ने भी अंतिम समय में सारी ताकत लगा दी। नौकरी में महिलाओं को 35 फीसद आरक्षण देने से लेकर पुलिस वालों को 13 महीने की सैलरी देने तक का एलान कर दिया। जीतन राम मांझी के सीएम पद से हटने के बाद उनके लिए ज्यादतर फैसले नीतीश ने रद्द कर दिये थे। लेकिन चुनाव से ठीक पहले उन्हीं फैसलों को लागू करने का फैसला किया। सवा लाख करोड़ के पैकेज के जवाब में दो लाख सत्तर हजार के विकास का प्लान नीतीश ने पेश किया है। पिछले दिनों ही एसटी कोर्ट में निषाद आरक्षण की मांग कर रहे प्रदर्शनकारियों पर लाठी से प्रहार किया गया और लगा कि मामला अलग रंग लेगा तो तुरंत आरक्षण देने का प्रस्ताव पास कर दिया। वैसे नीतीश के लिए रोजगार सेवक, सांख्यिकी सेवक, नियोजित शिक्षक अब भी परेशानी की वजह हैं। एक दिन पहले ही राजभवन के पास साख्यिकी सेवक ने खुदकुशी की कोशिश की। आज जेडीयू दफ्तर के बाहर रोजगार सेवक ने इसी तरह की कोशिश की है। मतलब ऐसा नहीं है कि राजकाज में हर कोई खुश ही है। बिहार का चुनाव आज पूरी तरह व्यक्ति केंद्रित हो गया है।  पार्टियां पीछे हैं, सामने नीतीश, लालू और मोदी का चेहरा ही है। जहां तक सियासी समीकरण का सवाल है तो अभी तक बुरी खबर लालू-नीतीश के लिए ही आ रही है। पप्पू यादव लालू से बाहर होकर यादवों में सेंध लगाने की तैयारी कर रहे हैं । तारिक अनवर मुस्लिम कार्ड खेलकर महागठबंधन से बाहर चले गए। तस्लीमुद्दीन जैसे नेता खुश नहीं दिख रहे। टिकट बंटवारे को लेकर कलह है। नीतीश के दर्जन भर  विधायक पार्टी छोड़ चुके हैं। इन संकेतों को समझें तो फिर दीवाली के पटाखे फोड़ने से नीतीश और लालू अभी की परिस्थिति में तो दूर ही दिख रहे हैं। आगे इनके विरोधियों का हाल क्या होगा उस पर नजर रहेगी।  

बिहार चुनाव- किस दौर के चुनाव में कौन है भारी ?

बिहार में चुनावी बिगुल बज गया है । चुनाव आयोग ने 5 चरणों में चुनाव कराने का एलान किया है । नतीजे 8 नवंबर को यानी दीवाली से पहले आ जाएंगे । चुनाव की तारीखों के एलान के बाद आज हम आपको आंकड़ों के लिहाज बताने जा रहे हैं कि किस दौर में कौन सी पार्टी भारी है और कौन सी पार्टी कमजोर ।

12 अक्टूबर को पहले दौर का चुनाव
पहले चरण में भागलपुर मंडल के दोनों जिले भागलपुर और बांका, मुंगेर प्रमंडल के सभी पांचों जिले मुंगेर, लखीसराय, शेखपुरा, खगड़िया, जमुई के साथ मिथिला मंडल के समस्तीपुर, बेगूसराय और मगध मंडल के नवादा जिलों में वोट डाले जाएंगे । यानी कुल 10 जिलों की 49 सीटों पर वोटिंग होगी । 2010 में इन 49 सीटों में से जेडीयू के पास 29, बीजेपी के पास 13, आरजेडी के पास 4, कांग्रेस के पास 1 और अन्य के पास 2 सीटें थी ।

16 अक्टूबर को दूसरे दौर का चुनाव
चुनावों का सबसे छोटा चरण है । मगध प्रमंडल के गया, जहानाबाद, औरंगाबाद, अरवल के अलावा पटना प्रमंडल के कैमूर और रोहतास में वोट डाले जाएंगे । इन 6 जिलों में विधानसभा की कुल 32 सीटें हैं । 2010 के चुनाव में जेडीयू के पास 18 बीजेपी के पास 9, आरजेडी के पास 2, एलजेपी के पास 1 और अन्य को 2 सीटें मिली थी ।

28 अक्टूबर को तीसरे दौर का चुनाव
राजधानी पटना सहित 6 जिलों में इस दौर में वोट डाले जाएंगे । पटना प्रमंडल के पटना, भोजपुर, बक्सर, नालंदा जिले के अलावा तिरहुत प्रमंडल के वैशाली और सारण प्रमंडल के छपरा जिले में वोट डाले जाएंगे । इस दौर में कुल 50 सीटों पर वोटिंग होगी । 2010 के नतीजों को देखें तो बीजेपी और जेडीयू का अंतर काफी कम है । जेडीयू को उस वक्त 23 सीटें मिली थी । बीजेपी के पास 20 और आरजेडी के खाते में 7 सीटें गई थी ।

1 नवंबर को पांचवें दौर का चुनाव
तिरहुत प्रमंडल के 5 जिलों के साथ सारण के दो जिलों में  55 सीटों पर वोटिंग होगी । मुजफ्फऱपुर, सीतामढ़ी, शिवहर, पूर्वी और पश्चिमी चंपारण के साथ सारण प्रमंडल के सीवान और गोपालगंज जिले में 1 नवंबर को वोट डाले जाएंगे । 2010 के चुनाव में यहां बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी थी । जेडीयू को तब 25 और बीजेपी को 26 सीटों पर जीत मिली थी । तब आरजेडी को एक और अन्य को तीन सीटें मिली थी ।

5 नवंबर को पांचवें दौर का चुनाव
सीमांचल के साथ ही मिथलांचल के भी दरभंगा और मधुबनी जिलों की 57 सीटों पर इस दौर में वोटिंग होगी । कोसी प्रमंडल के 3 जिले मधेपुरा, सहरसा, सुपौल के अलावा पूर्णिया के 4 जिले पूर्णिया, कटिहार, अररिया और किशनगंज में तो वोटिंग होगी ही । मिथिला मंडल के दरभंगा और मधुबनी जिलों में भी पांचवें दौर में वोट डाले जाएंगे ।
2010 में इन 9 जिलों में जेडीयू को 20 और बीजेपी को 23 सीटें मिली थी । आरजेडी को 8, एलजेपी को 2, कांग्रेस को 3 और एक सीट निर्दलीय के खाते में गई थी ।
आखिरी दौर का चुनाव काफी अहम माना जा रहा है । बीजेपी अभी संख्या के हिसाब से भले ही सब पर भारी है । लेकिन असल प्रभाव इस इलाके में लालू-नीतीश का ही है । सीमांचल मुस्लिम और यादव बहुल इलाका है। लेकिन इस बार के चुनाव में पप्पू यादव तारिक अनवर, तस्लीमुद्दीन महागठबंधन को नुकसान पहुंचाने की कोशिश में जुटे हैं ।
ट्विटर पर यहां जुड़े- @Manojkumarmukul  

Saturday, August 8, 2015

अब बिहारी सम्मान का जिक्र नीतीश को शोभा देता है ?

राजनीति का पारा बिहार में गर्म है। लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री बिहार से बाहर के बिहारियों को गोलबंद करने में जुटे हैं। दिल्ली में दो कार्यक्रमों के जरिये नीतीश ने बिहार से बाहर रह रहे बिहारी वोटरों को लुभाने की कोशिश की है। नीतीश कुमार की ये कोशिश आगे भी जारी रहेगी। अभी दिल्ली में हुआ है। इसके बाद मुंबई, कोलकाता, गुवाहाटी में भी इस तरह के कार्यक्रम आयोजित करने की तैयारी है। इस बार बिहार से बाहर नीतीश की इस कोशिश के खास मायने हैं। विधानसभा का चुनाव जिस वक्त होने वाला है उस वक्त छुट्टियों का मौसम रहेगा। दशहरा से लेकर दीवाली से पहले तक चुनाव होने की उम्मीद है। नीतीश और उनकी पार्टी की कोशिश यही है कि बिहार से बाहर जो लोग हैं उनके बीच उनका कथित सुशासन का संदेश आसानी से पहुंचाया जा सके।
दिल्ली, मुंबई, गुवाहाटी, जालंधर, लुधियाना, सूरत, अहमदाबाद जैसे बड़े शहरों में बड़ी संख्या में बिहार के लोग रहते हैं। दिल्ली में तो करीब तीस फीसदी आबादी बिहार के लोगों की है। जवाब में बीजेपी भी गुजरात, पंजाब, हरियाणा के शहरों में बिहारी सम्मेलन करने वाली है।  नीतीश कुमार अपने भाषण में हर जगह ये जिक्र कर रहे हैं कि उन्होंने बिहारी शब्द को सम्मान दिलाने का काम किया है। हैबिटेट वाले कार्यक्रम में और श्रीराम सेंटर दोनों ही कार्यक्रमों में नीतीश बिहार के लोगों से कहते सुने गए कि लोग अब बिहारियों पर फब्तियां नहीं कसते, सम्मान करते हैं।
बात सही भी है। नीतीश कुमार का इसमें बहुत बड़ा योगदान है। नीतीश के सत्ता में आने से पहले मेरा देखा हुआ है कि दिल्ली में बिहार के छात्र खुद को बिहारी कहने से कतराते थे। लेकिन 2005 के बाद परिस्थितियां वाकई में बदली है। लेकिन नीतीश जी आपको ये भी बताना चाहिए कि किन लोगों की वजह से बिहारी शब्द गाली का पर्याय बना ? आज जिन लालू के साथ आप गलबहियां कर रहे हैं उन्हीं के दिये गड्ढ़ों को तो आप भर रहे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून व्यवस्था को लेकर सुशासन का दंभ आप भरते हैं, भरना चाहिए क्योंकि आपने ऐसा किया है। लेकिन आपको बिना किसी हिचक के ये भी बताना चाहिए कि इन चीजों के लिए लालू,राबड़ी और कांग्रेस की हुकुमतें जिम्मेदार रही हैं। लेकिन आप आज की तारीख में ऐसा कहने की हिम्मत नहीं जुटा सकते। क्योंकि आप उन्हीं लोगों की बैसाखी के सहारे अभी सरकार चला रहे हैं और आगे भी उन्हीं की बैसाखी के सहारे सत्ता में बने रहना चाहते हैं। तो क्या आपके मुंह से आज की तारीफ में बिहारी सम्मान की वापसी का जिक्र करना शोभा देता है ?
जिन परिस्थितियों में बिहारी शब्द कहा जाना गाली हो गया था क्या उन परिस्थितियों की बिहार वापसी चाहता है?  मुझे लगता है कि नीतीश जी को अपने स्तर पर सर्वे करवाना चाहिए। वाकई आप बिहार का भविष्य सोच रहे हैं तो फिर आपके अपने पर भरोसा करना चाहिए। जिस जाति की राजनीति को बिहार भूलने लगा था। उस जाति की राजनीति को आज फिर से क्यों उभारा जा रहा है ? नीतीश जी आपसे बिहार जानना चाहता है। बिहार से बाहर रहने वाले बिहारी जानना चाहते हैं कि क्या विकास विरोधी छवि वाले चारा घोटाले में जेल की सजा काट आए लालू से हाथ मिलाने की मजबूरी आपके कमजोर होने का संकेत नहीं है ? नीतीश जी आप राजनीतिक रूप से कमजोर हुए हैं तो अपनी वजह से।
लालू से हाथ मिलाने का फैसला आपका अपना था। जिस वक्त आपने लालू से हाथ मिलाया क्या उस वक्त आपको इस तरह के कार्यक्रम आयोजित कर बिहारियों से राय लेने की जरूरत नहीं थी ? अगर उस वक्त ऐसा करते तो शायद आपको लोग सही राह दिखाते।ऐसा नहीं है  कि लालू यादव राजनीतिक रूप से कमजोर हैं। लालू की राजनीति का अपना स्टाइल है। अपने तरीके से राजनीति करके लालू ने बिहार को बर्बादी के गड्ढे में धकेल दिया। दस साल से नीतीश कुमार उसकी भरपाई कर रहे हैं। जात-पात, अगड़ा-पिछड़ा, दलित-सवर्ण, भूराबाल, चरवाहा विद्यालय, पहलवान विद्यालय ये सब लालू की राजनीति का हिस्सा था। दंगों का डर दिखाकर मुस्लिमों के वोट बटोरने के आरोप लालू पर लगते रहे। अब उनके साथ जाकर आप बिहारियों के बीच अपने कथित सुशासन का संदेश दे रहे हैं।
आप भले ही कानून व्यवस्था को लेकर श्रीराम सेंटर में हुए हंगामे को हल्के में ले रहे हैं। लेकिन बहुत मुमकिन है कि आपको इस तरह की तस्वीरों का सामना बिहार में भी करना पड़े। ऐसा नहीं है कि आपके राज में अपराध पर बिल्कुल ब्रेक लग गया था। घटनाएं तब भी होती थी, आज भी हो रही हैं। फर्क इतना है कि तब अफसरों पर सिर्फ आपका जोर चलता था आज लालू भी जोर लगाते हैं, कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी एसएसपी को फोन करके हड़काते हैं।
कहने का मतलब ये कि ये सब सबूत है कि सत्ता पर आपकी पकड़ ढीली पड़ती जा रहा है। अफसरों के तबादले पहले भी होते रहे हैं, मांझी के जमाने में भी हुए। तब किसी ने सवाल नहीं उठाए। आज बीजेपी वाले ताल ठोककर कह रहे हैं कि लालू और कांग्रेस नेताओं की मर्जी वाले अफसर बिठाये जा रहे हैं।
इस बात का जिक्र इसलिए हो रहा है क्योंकि दस साल पहले तक यही लोग अफसरों को पॉकेट में रखने की बात करते थे। मंच पर खैनी बनाने से लेकर पीकदान उठाने तक की तस्वीर देश के लोग देख चुके हैं। आज फिर जब बिहार से बाहर चौक चौराहों दफ्तरों में चर्चा होती है तो लालू का जिक्र हो रहा है। लोग कह रहे हैं कि लालू का राज लौट आया है। लालू राज लौटना ऐसे कहा जा रहा है जैसे कोई ऐसी ताकत वापस आ गई है जिससे बिहार बुरे दौर में लौटने वाला है।
सर्वे के नतीजों के देखें तो नीतीश जी आप अच्छी राजनीति के लिए जाने जाते हैं। लोग आज भी कह रहे हैं कि नीतीश अच्छे हैं लेकिन लालू का साथ लेकर उन्होंने अच्छा नहीं किया। बिहार के मूड को समझिए। राजनीति एक दो दिन की चीज नहीं है। हो सकता है वोटों के समीकरण के हिसाब से आप सत्ता में दोबारा लौट आए। लालू और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार भी बना लें। लेकिन तब क्या आप उस ईमानदारी और हिम्मत से काम कर पाएंगे जिस तरीके से आज तक करते आए हैं ?  तब आपकी गिनती भी लालू के साथ होगी। तब आप भी उन लोगों में शुमार होंगे जिन्हें बिहार को उठाकर पटकने के लिए पहचाना जाएगा।
लेकिन ऐसा होने वाला नहीं है। राजनीति चीज ही ऐसी है। पहले नेता अपनी हैसियत और ताकत तौलता है फिर जनता का नंबर आता है। जिन जॉ़र्ज फर्नांडिंस ने अपनी पूरी राजनीतिक जिंदगी कांग्रेस के खिलाफ लगा दी। आप उन्हीं जॉर्ज के शिष्य हैं। जॉर्ज के साथ आपने समता पार्टी का गठन किया था। जॉर्ज न होते तो आप शायद बिहार के मुख्यमंत्री कभी नहीं बनते। लेकिन कुर्सी पाने के बाद आपने पहले जॉर्ज को छोड़ा,फिर जॉर्ज की विचारधारा को। जॉर्ज बुजुर्ग हो गये तो उन्हें राजनीति से दूर कर दिया। लेकिन जॉर्ज के साथ रहे लोग जो आपके राजनीतिक साथी भी थे उनके साथ आपने क्या किया ?
बीजेपी से रिश्ता तोड़ने के लिए शिवानंद तिवारी, साबिर अली को आपने हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया। लेकिन मौका मिला तो दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर कर दिया। उपेंद्र कुशवाहा, भगवान सिंह कुशवाहा, ज्ञानेंद्र सिंह ज्ञानू, डॉक्टर अरुण कुमार, डॉक्टर हरेंद्र कुमार, दिनेश कुशवाहा ये सब लोग आपके संघर्ष के दिनों के साथी थे। जब आप बिहार में अपनी जमीन बना रहे थे तब इन लोगों ने आपके मशाल को दिन रात जलाए रखा था। लेकिन इनके साथ क्या किया आपने ?  मैं ये नहीं कह रहा कि इन सब मामलों में आपकी एकतरफा गलती है। लेकिन आप नेता थे इनको आपको सोचना चाहिए था। ऐसा क्या हुआ कि आपके अपने दूर चले गए और दुश्मन दोस्त हो रहे हैं ?
पीएम मोदी ने डीएनए वाला बयान दिया तो कैसे आपको दुख हुआ और आपने उसे बिहार के सम्मान से जोड़ दिया। उसी तरह पार्टी और बिहार में जो हो रहा है उसे भी अपने अपमान और सम्मान से जोड़कर देखिये तब बिहार का भी भला होगा और बिहारियों का भी।

क्या बीजेपी पर भारी पड़ेगा डीएनए का डंक ?

मुजफ्फरपुर की रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नीतीश कुमार के डीएनए को लेकर जो टिप्पणी की थी उसका विवाद थमता नहीं दिख रहा है। नीतीश और लालू मोदी के डीएनए वाले बयान को चुनावी मुद्दा बनाने पर तुले हैं । नीतीश ने तो पहले दिन ही इसे बिहार के अपमान से जोड़ दिया था । लालू ने भी नीतीश के सुर में सुर मिलाया । और अब पीएम से बयान वापस लेने की मांग को लेकर नीतीश ने खुली चिट्ठी लिख दी है । असल में बिहार चुनाव को लेकर इन दिनों नेताओं की जुबान पर कोई लगाम नहीं है। हर नेता उटपटांग और बे मतलब की बयानबाजी में जुटा है ।
पीएम मोदी का दर्द समझ में तो आता है । लेकिन जिस अंदाज में उन्होंने नीतीश के डीएनए पर सवाल उठाए उससे इस विवाद के तूल पकड़ने का खतरा पहले दिन की लग गया था । 25 जुलाई की रात को ही शत्रुघन सिन्हा ने नीतीश पर हमले को गलत ठहरा कर पार्टी को बैकफुट पर ला दिया था । पीएम के बयान का पोस्टमार्टम करे तो समझ में आता है कि उनका बयान भी राजनीतिक फायदे के लिए ही दिया गया था । पहले खाने की थाली वापस लेने की बात कहना फिर महादलित कहकर मांझी को सीएम की कुर्सी से हटाने का जिक्र करते हुए डीएनए को दोष देना ।पीएम ने पूरा सोच समझकर बयान दिया था । शायद उनको एहसास भी रहा होगा कि देर सवेर इसका मुद्दा बनना तय है । लेकिन जिस तरीके नीतीश कुमार इसे बिहार की जन भावना से जोड़ रहे हैं वैसा नहीं सोचा रहा होगा । लेकिन अब बात दूसरी ओर जाने लगी है ।  जिससे बीजेपी को नुकसान हो सकता है । बेहतर है कि डैमेज कंट्रोल के लिए कोई तोड़ निकालकर इसस विवाद को पार्टी यही खत्म कर ले ।
पार्टी के नेता वैसे राजनीतिक डीएनए की बात कहकर इसे रफा दफा करना चाहते हैं । लेकिन जब तक पीएम या किसी बहुत बड़े नेता इस पर रुख साफ नहीं करते विवाद बना रहेगा । जेडीयू के सूत्र बता रहे हैं कि जल्द इसपर पीएम की तरफ से सफाई नहीं आती तो फिर चुनाव तक इस मुद्दे को ले जाया जाएगा और इसे अपने नेता और उनके परिवार की बेइज्जती बताकर पेश किया जाएगा ।
जैसा बीजेपी के नेता कह रहे हैं कि डीएनए पर सवाल उठाने के पीछे पीएम मोदी की मंशा नीतीश की राजनीतिक दगाबाजी से थी । कैसे 2009 के चुनाव में पोस्टर छपने पर बवाल हुआ था । पटना में नीतीश ने अपने घऱ पर राजनीतिक भोज रद्द कर दिया था । बिहार आने से रोक दिया था । फिर जार्ज फर्नांडस से लेकर जीतन राम मांझी तक से धोखे का जिक्र किया । हो सकता है कि पीएम की मंशा राजनीतिक दगाबाजी ही बताने की रही होगी । लेकिन जिस तरीके से मुद्दा बनाया जा रहा है उससे पीएम की 'असली बात' पीछे रह गई है ।
यहां बीजेपी को ये बिल्कुल ही नहीं भूलना चाहिए कि लोकसभा चुनाव के वक्त गिरिराज सिंह का झाऱखंड की सभा में दिया गया एक बयान पार्टी को भारी पड़ गया था। गिरिराज सिंह ने तब मोदी विरोधियों को पाकिस्तान जाने की सलाह दी थी । नतीजा ये हुआ कि इस बयान के ठीक बाद बिहार में मुस्लिम वोटों का एकतरफा ध्रुवीकरण हुआ और बीजेपी पूर्णिया, कटिहार, भागलपुर, बांका जैसी जीतने वाली सीट हार गई । उसी चुनाव में तब जेडीयू के नेता रहे शकुनी चौधरी ने नरेंद्र मोदी को जमीन में गाड़ देने की बात कही थी । नतीजा हुआ कि जेडीयू का लोकसभा चुनाव में सफाया ही हो गया ।
बीजेपी को ये समझना चाहिए कि नीतीश कुमार ही वो नेता हैं जिन्होंने बिहारी भावना को उभारा है । नीतीश के कार्यकाल से पहले बिहारी कहा जाना गाली के समान था । लेकिन नीतीश के सत्ता में आने के बाद से बिहारी होने की परिभाषा बदल चुकी है । और नीतीश कुमार पीएम के इस डीएनए वाले बयान के जरिये इसी बिहारी सेंटीमेंट को उभारने में जुटे हैं ।
अभी चुनाव में भले ही वक्त है । लेकिन मुद्दा बना रहा तो फिर बीजेपी को लेने के देने पड़ सकते हैं । ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि नीतीश अगर चुनावी सभाओं में जाकर इस बात को अपने परिवार से जोड़कर पेश करते हैं तो फिर लोगों की सहानुभूति उनके पक्ष में जा सकती है । खासकर महिला वोटरों की । पिछले विधानसभा चुनाव में महिला वोटरों ने नीतीश का बढ चढकर साथ दिया है । नीतीश वैसे भी हल्की बयानबाजी नहीं करते हैं । लिहाजा बीजेपी को संभलकर चलने की जरूरत है ।
चूंकि बात पीएम की जुबान से निकली थी इसलिए बड़ी हो जाती है । नहीं तो चिरकुट से लेकर, रावण, पुतना और राक्षस जैसे कितने बयान सामने आ चुके हैं । लालू ने हाल ही में मांझी और पप्पू यादव को मिली सुरक्षा पर सवाल उठाते हुए चिरकुट कह दिया था । चिरकुट यानी तुच्छ टाइप । इससे पहले अश्विनी चौबे सोनिया गांधी को पुतना कह चुके हैं । सुशील मोदी, रामकृपाल, चौबे, मांझी जैसे नेता नीतीश को रावण बता चुके हैं । नीतीश ने मांझी को जब विभीषण कहा था तब जाकर बीजेपी और मांझी की ओर से ऐसी प्रतिक्रिया सामने आई थी ।

बिहार में बीवियां करेंगी बेड़ा पार ?

बीवी और राजनीति का रिश्ता काफी पुराना है। बिहार में लालू यादव जब चारा घोटाले में जेल गए तो बीवी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना दिया। यूपी में अखिलेश यादव सांसद से सीएम बने तो अपनी सीट से डिंपल को सांसद बना दिया। राजनीति में ऐसे कई उदाहरण देखने को मिल जाएंगे। अब बिहारी बाबू यानी बीजेपी सांसद शत्रुघन सिन्हा ने कोई सीट तो नहीं छोड़ी है लेकिन बीवी के लिए बागी होते जरूर दिख रहे हैं। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक शत्रुघन सिन्हा पत्नी पूनम सिन्हा के लिए विधानसभा का टिकट चाह रहे हैं । नीतीश कुमार से हफ्ते भर में उनकी दो मुलाकात हो चुकी है। हालांकि इस मुलाकात को दोनों ने सियासी नहीं माना है लेकिन बीबी के चुनाव लड़ने की चर्चा के बीच इसे संयोग भऱ नहीं माना जा सकता । चर्चा है कि पूनम सिन्हा दीघा या बांकीपुर सीट से लड़ना चाहती है। बीजेपी में टिकट मिलने की उम्मीद तो नहीं दिख रही है लिहाजा बिहारी बाबू नीतीश का गुणगान करने में लगे हैं । नीतीश कुमार भी इस मौके को अपने पक्ष में भुनाने में जुटे हैं
कायस्थ वोट बैंक बीजेपी का आधार वोट रहा है । बिहार में एक फीसदी कायस्थ वोटरों की आबादी है । पटना, मुजफ्फऱपुर, मोतिहारी में इसका प्रभाव है । शत्रुघन सिन्हा के जरिये नीतीश इस वोट बैंक को तोड़ने में जुटे हैं । बहुत उम्मीद है कि पूनम सिन्हा को जेडीयू की उम्मीदवारी भी मिल जाए ।
ऐसा नहीं है कि बीबी के लिए सिर्फ शत्रुघन सिन्हा ही व्याकुल हैं। बिहार की राजीतिक तस्वीर को देखें तो तमाम बाहुबली इन दिनों बीवी के जरिये राजनीति कर रहे हैं । आनंद मोहन जेल में हैं बीबी लवली आनंद एनडीए के टिकट के लिए सक्रिय हो गईं हैं । बाहुबली मुन्ना शुक्ला सजा पाने के बाद से बीबी अन्नू शुक्ला के जरिये राजनीति करते हैं । सीतामढ़ी जिले के रुन्नी सैदपुर से विधायक गुड्डी देवी के पति राजेश चौधरी बाहुबली हैं लिहाजा उनकी राजनीति भी पत्नी के जरिये होती है । सीतामढ़ी के ही बेलसंड से सुनीता सिंह विधायक हैं । पति राणा रंधीर सिंह चौहान कभी जिले में जनता दल के बड़े नेता थे । लेकिन अब पत्नी के जरिये ही पॉलिटिक्स करते हैं । खगड़िया में बाहुबली रणवीर यादव की पत्नी पूनम विधायक हैं । बाहुबली अवधेश मंडल पर केस मुकदमे चल रहे हैं लिहाजा पत्नी बीमा भारती के जरिये उनकी राजनीति की दुकानदारी चल रही है । दरौंधा से बाहुबली अजय सिंह को नीतीश ने टिकट नहीं दिया तो हडबड़ी में ब्याह करके पत्नी कविता को टिकट दिलवाया और मां की सीट से विधायक बन गई । नवादा की विधायक पूर्णिमा देवी भी विधायक हैं और पति कौशल यादव भी । कौशल से पहले पूर्णिमा विधायक बनी थी । पिछली बार दोनों को टिकट मिला और दोनों जीत गए । वर्तमान विधानसभा का ये इकलौता उदाहरण है । सीवान जिले में बीजेपी के पुराने नेता रामाशंकर पाठक पत्नी आशा पाठक के जरिये राजनीति का झंडा बुलंद किये हुए हैं ।पूर्णिया में बूटन सिंह की विरासत मंत्री लेसी सिंह संभाल रही हैं ।
कई ऐसे भी नेता, बाहुबली हैं जो पत्नी ही नहीं रिश्तेदारों को भी राजनीतिक में लाकर अपना सिक्का चला रहे हैं । शाहपुर की विधायक मुन्नी देवी बाहुबली विशेश्वर ओझा के परिवार से ताल्लुक रखती हैं । गोविंदगंज की विधायक मीना देवी बाहुबली रहे देवेंद्र दुबे की भाभी हैं । मीना के पति भूपेंद्र दुबे भी एमएलए रहे हैं । सांसद भोला सिंह की राजनीति की विरासत बहू वंदना के हाथ में है । हालांकि पिछली बार लहर में भी वो हार गईं । बिहार बीजेपी के भीष्म पितामह कहे जाने वाले कैलाशपति मिश्र की विरासत बहू दिलमणी संभाल रही हैं । कई पार्टियों का पाला बदलने के बाद बीजेपी में पहुंचे साबिर अली अपनी पत्नी यास्मीन के भरोसे विधानसभा की राजनीति करना चाहते हैं । यास्मीन नरकटिया सीट से चुनाव लड़कर हार चुकी हैं ।
विधानसभा ही क्यों लोकसभा में भी बीवियां पतियों की विरासत संभाल रही हैं । बाहुबली बृज बिहारी प्रसाद की हत्या के बाद रमा देवी विधायक बनीं थी । फिलहाल शिवहर से बीजेपी की सांसद हैं । बाहुबली सूरजभान सिंह लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ सकते । लिहाजा पत्नी वीणा सिंह मुंगेर से उनकी विरासत संभाल रही हैं । पूर्व मंत्री दिग्विजय सिंह की राजनीतिक विरासत पूर्व सांसद पुतुल सिंह के हाथ में है । समस्तीपुर के बाहुबली प्रदीप महतो समता पार्टी के जमाने में मारे गये थे । नीतीश ने पत्नी अश्वमेध देवी को लोकसभा का टिकट देकर सांसद बनवया था। अभी वो हार चुकी हैं ।
2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में 34 महिला विधायक जीती थीं। इनमें से 22 जेडीयू की हैं जबकि बीजेपी की 11 । एक डेहरी की सीट निर्दलीय ज्योति रश्मि ने जीती थी । बेतिया, सीतामढ़ी, पटना और बक्सर जिले से 3-3 महिला विधायक जीती थीं ।( उपचुनाव जीतने के बाद वर्तमान में बेतिया जिले में 4 महिला विधायक हैं )

बेटे लाएंगे लालू के अच्छे दिन ?

बेटे-बेटी को राजनीति में विरासत सौंपने की परंपरा पुरानी रही है । देश का कोई हिस्सा इस परंपरा से अछूता नहीं है । लगभग तमाम पार्टियों में कार्यकर्ताओं से ज्यादा परिवार को तरजीह मिलती रही है । बिहार इस बार भी इससे अछ्ता नहीं रहने वाला है । बेटे-बेटी को सियासी उत्तराधिकारी बनाने में छोटे से लेकर बड़ा नेता तक शामिल है । लालू यादव हों तब या फिर रामविलास पासवान, रघुनाथ झा, शकुनी चौधरी, जगन्नाथ मिश्रा जैसे नेता ।लोकसभा चुनाव में बेटी को विरासत सौंपने का मन बनाने वाले लालू अब डोल गये हैं । बेटी हार गईं तो लालू अब बेटों में अपना भविष्य देख रहे हैं । बेटों का भविष्य संवारने के लिए लालू हर तरह की कुर्बानी देने को तैयार है ।
बिहार में हर तरफ इसी बात की चर्चा है कि लालू ने अपने बेटों का भविष्य बनाने के लिए ही नीतीश के सामने घुटने टेके हैं । सांसद पप्पू यादव को पार्टी से निकाला भी इसीलिए गया था क्योंकि विरासत के सवाल पर उन्होंने बगावत का बिगुल बजा दिया था । पप्पू यादव खुद को लालू का राजनीतिक वारिस मानकर चल रहे थे । इसके लिए बाकयदा उन्होंने लॉबिंग भी की । लेकिन लालू बेटों के सामने बेबस हो गये । और पप्पू को बाहर का रास्ता दिखा दिया ।
खबर है कि इस बार लालू की पत्नी राबड़ी देवी और बेटी मीसा भारती विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ेंगी । लालू खुद भी चारा घोटाले के दोषी हैं इसलिए लड़ नहीं सकते । इसलिए लालू इस बार अपने दोनों बेटों को लॉन्च करने तैयारी में हैं । बड़ा बेटा तेज प्रताप वैशाली जिले की महुआ सीट से लड़ सकता है तो सोनपुर या राघोपुर से तेजस्वी के लड़ाने की तैयारी हो रही है । तेज प्रताप की उम्मीदवारी का बाकायदा एलान हो चुका है । महुआ सीट से अभी जेडीयू के रवींद्र राय विधायक हैं । रवींद्र राय बागी हैं और उनके एनडीए के टिकट पर लड़ने की उम्मीद है । तेज प्रताप की उम्मीदवारी के लिए पूर्व उम्मीदवार जागेश्वर राय को पार्टी से निकाला जा चुका है । सोनपुर सीट से पहले लालू जीत चुके हैं। हालांकि पिछले चुनाव में राबड़ी देवी हार गई थीं ।
सिर्फ लालू ही नहीं आरजेडी में चुनाव लड़ने वाले नेता पुत्रों की लंबी लिस्ट है । पूर्व केंद्रीय मंत्री और आरजेडी नेता रघुनाथ झा के बेटे अजीत कुमार झा शिवहर से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं । पूर्व केंद्रीय मंत्री अली अशरफ फातमी के बेटे फराज फातमी आरजेडी के टिकट पर केवटी से लड़ सकते हैं । आरजेडी से सांसद रहे जगदानंद सिंह के बेटे सुधाकर बीजेपी में हैं जिन्हें बक्सर की किसी सीट से टिकट मिलने की उम्मीद है । जेडीयू के एमएलसी विजय मिश्रा के बेटे ऋषि मिश्रा पिछले साल उपचुनाव में लॉन्च हुए थे। जीत गए और इस बार फिर से लड़ेंगे । पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा के बेटे नीतीश मिश्रा (हम )पहले से एमएलए हैं । इस बार एनडीए के टिकट पर झंझारपुर से लड़ने वाले हैं ।हम के प्रदेश अध्यक्ष शकुनी चौधरी और उनके बेटे सम्राट चौधरी दोनों राजनीति में हैं । सम्राट विधानसभा का चुनाव परबत्ता से लडेंगे । हम के नेता नरेंद्र सिंह खुद एमएलसी हैं । उनके दो बेटे विधायक हैं । जमुई जिले से दोनों फिर से चुनाव लड़ेंगे । बीजेपी सासंद हुकुमदेव नारायण यादव के विधायक बेटे अशोक यादव केवटी से फिर लड़ेंगे । मीनापुर से जेडीयू के टिकट पर तीन बार के विधायक रहे दिनेश प्रसाद इस बार बागी हैं । मीनापुर से बेटे अजय कुमार को टिकट मिलने की उम्मीद है । पूर्व सासंद जगदीश शर्मा के बेटे राहुल शर्मा घोसी से चुनाव लड़ेंगे । राहुल अभी भी विधायक हैं । पिछली बार जेडीयू से जीते थे इस बार बागी है । बैकुंठपुर के विधायक मंजीत सिंह भी पिता की विरासत संभाल रहे हैं । कांग्रेस में भी ऐसे नेताओं की भरमार है । खुद प्रदेश अध्यक्ष अशोक चौधरी के पिता महावीर चौधरी भी मंत्री थे ।

Saturday, August 1, 2015

बाहुबली जिताएंगे बीजेपी को ?

लवली आनंद, आनंद मोहन
लोकसभा चुनाव में भले ही बीजेपी ने किसी बाहुबली को टिकट नहीं दिया लेकिन पार्टी ससानबाहुबलियों से दूरी बनाकर भी नहीं रह सकी। इस बार भी विधानसभा चुनाव में बीजेपी बाहुबलियों को गले लगाने वाली है। सहयोगी पार्टी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा में लवली आनंद का शामिल होना इसकी शुरुआत है। लवली आनंद बाहुबली आनंद मोहन की पत्नी हैं। लवली शिवहर या सहरसा की किसी सीट से उम्मीदवार हो सकती हैं।  बिहार की राजनीति में बाहुबलियों की एंट्री की शुरुआत आनंद मोहन के विधायक बनने के समय ही शुरू हुई थी। आनंद मोहन पहली बार 1990 में विधायक का चुनाव जीते थे। उस वक्त उनका बाहुबली वाला रूप चरम पर था। बाद में वो सांसद भी बने और अभी डीएम हत्याकांड की वजह से जेल में हैं। आनंद मोहन को राजपूतों का नेता माना जाता था। 
पप्पू यादव, रंजीत रंजन
बाहुबली कहे जाने वाले पप्पू यादव अगर बीजेपी के करीब नहीं हैं तो दूर भी नहीं हैं। पप्पू को विद्रोह के बाद लालू ने पार्टी से निकाल दिया था। जिसके बाद से वो अपनी नई पार्टी बनाकर लालू का नुकसान करने में जुटे हैं। पप्पू यादव लालू को जितना नुकसान पहुंचाएंगे बीजेपी को उतना ही फायदा होगा। यूं तो पप्पू की निगाहें पूरे बिहार पर है । लेकिन कोसी और पूर्णिया प्रमंडल की 37 सीटों पर उनका प्रभाव लालू-नीतीश के गणित को बिगाड़ सकता है। पप्पू यादव का अपने इलाके में मुसलमान और यादवों पर अच्छी पकड़ है। वैसे रॉबिनहुड वाली छवि की वजह से अपने इलाके में वो हर समाज में लोकप्रिया माने जाते हैं। लेकिन राज्य के बाकी हिस्सों में आम लोगों के बीच उनकी छवि अच्छी नहीं मानी जाती।
बिहार की राजनीति में बाहुबलियों का अपना अलग ही महत्व है। चुनाव जीतने के लिए तमाम पार्टियां अपने समीकरण के हिसाब से बाहुबलियों को गले लगाती रही है। बाहुबली नेता भी अपने हिसाब से पाला बदलते रहे हैं। एक दौर में आनंद मोहन को लालू के खिलाफ प्रतीक के तौर पर माना जाता था लेकिन 1998 के चुनाव में उन्होंने लालू से हाथ मिला लिया था। लालू राज में बाहुबली छोटन शुक्ला, अशोक सम्राट, बृजबिहारी प्रसाद, हेमंत शाही, प्रदीप महतो सहित दर्जनों बाहुबली मारे गए। इसके बाद तो हर गली मोहल्ले में बाहुबली जन्म लेने लगे। बाहुबली बदमाशों का भी जातीय वर्गीकरण होने लगा। लालू-राबड़ी के कार्यकाल में यादव बाहुबलियों का वर्चस्व बढ़ा। इस दौरान समाज में जाति की दीवार चौड़ी होती चली गई। लालू राज में जो बाहुबली राजनीतिक तौर पर सताए जा रहे थे, नीतीश के राज में उन बाहुबलियों में से ज्यादा माननीय हो गए। 2000 के दौर में कहा जाता था कि नीतीश कुमार मुन्ना शुक्ला को मानते हैं तो रामविलास पासवान की पसंद सूरजभान और रामा सिंह हैं। लालू शहाबुद्दीन को गले लगाते हैं। यानी अपने वोट बैंक के लिए हर बाहुबली हर बड़े नेता की पसंद हुआ करता था। साल 2000 में जब नीतीश कुमार पहली बार मुख्यमंत्री बने थे। उस वक्त बाहुबलियों ने नीतीश का साथ दिया था। विधानसभा के बाहर की एक तस्वीर काफी चर्चित रही थी जब नीतीश कुमार ने निर्दलीय जीते बाहुबलियों के साथ हाथ उठाकर तस्वीर खिंचवाई थी। सूरजभान, मुन्ना शुक्ला, जगदीश शर्मा, राजन तिवारी, धूमल सिंह सहित आठ-नौ बाहुबलियों के साथ हाथ उठाकर नीतीश एकता का संदेश दे रहे थे। हालांकि उस वक्त सरकार नहीं बच पाई। लेकिन बाहुबलियों से ये दोस्ती बढ़ती चली गई। बाहुबल का खौफ, पैसे की कमी नहीं और पार्टी का जातीय हिसाब-किताब बाहुबली नेताओं की जीत की गारंटी बन गया। नतीज हुआ कि जिताऊ बाहुबली नेता पार्टियों की पसंद बनते रहे और बाहुबली नेता भी सत्ता के साथ रहकर अपनी झोली भरते रहे। राज्य में ज्यादातर बड़े बड़े ठेकों पर बाहुबलियों का ही कब्जा है।
दस साल से बाहुबलियों का साथ नीतीश-बीजेपी गठबंधन के साथ था। लेकिन इस बार तस्वीरें बदलती दिख रही है। जिन अनंत सिंह के सामने नीतीश कभी हाथ जोड़े खड़े रहते थे उनको इस बार जेल भिजवा चुके हैं। मोकामा से टिकट की गारंटी है कि नहीं कहा नहीं जा सकता। मोकामा बिहार की ऐसी सीट है जहां मुकाबला बाहुबली बनाम बाहुबली का होता है। तरारी से विधायक सुनील पांडे अब तक जेडीयू से जीतते आ रहे थे। किडनैपिंग केस में एक बार नाम आया तो जॉर्ज फर्नांडिस ने पार्टी से बाहर तक कर दिया था लेकिन चुनाव के वक्त फिर से नीतीश की पसंद बन जाया करते थे। पर इस बार गणित उनके पक्ष में नहीं है। जेडीयू के खाते में सीट रही तो भोजपुरी अकादमी के अध्यक्ष चंद्र भूषण राय को टिकट मिलना तय है। आरजेडी के खाते में सीट गई तो फिर कांति सिंह या उनके परिवार, पसंद का कोई उम्मीदवार बनेगा। विधान परिषद चुनाव में सुनील पांडे के भाई हुलास पांडे को एलजेपी ने टिकट दिया था। घोसी से पूर्व सांसद जगदीश शर्मा के विधायक बेटे राहुल शर्मा इस बार बागी हैं लिहाजा उनका एनडीए के टिकट पर लड़ने की चर्चा है।
लालगंज से मुन्ना शुक्ला की पत्नी अन्नू शुक्ला, रुन्नी सैदपुर से राजेश चौधरी की पत्नी गुड्डी देवी, रूपौली से अवधेश मंडल की पत्नी बीमा भारती, कुचायकोट से सतीश पांडे के भाई अमरेंद्र पांडे, दरौंधा से अजय सिंह की पत्नी कविता सिंह. एकमा से मनोरंजन सिंह उर्फ धूमल सिंह, गोविंदपुर से कौशल यादव नवादा से कौशल की विधायक पत्नी पूर्णिमा यादव, वारसलिगंज से प्रदीप कुमार, खगड़िया से रणवीर यादव की पत्नी पूनम यादव (जैसे बाहुबली नेता या उनके परिवार के सदस्य) को जेडीयू का टिकट मिलना तय है।
बाहुबली प्रभुनाथ सिंह के परिवार के दो-तीन सदस्य आरजेडी के उम्मीदवार होंगे ही। बाहुबली बबलू देव मधुबन, केसरिया में से कही से आरजेडी के दावेदार हैं। ललित यादव, अनवारुल हक, शहाबुद्दीन, पप्पू खां के परिवार से भी टिकट के दावेदार हैं।
जहां तक बीजेपी की बात है तो अरवल से चितरंजन सिंह फिर से लड़ेंगे ही। बाहुबली विशेश्वर ओझा के परिवार से मुन्नी देवी शाहपुर सीट से फिर से लड़ेंगी । दोनों अभी भी विधायक हैं। ढाका के निर्दलीय विधायक पवन जायसवाल हाल ही में बीजेपी में शामिल हुए हैं। सीवान के आतंक शहाबुद्दीन को टक्कर देने वाले रामाकांत पाठक की पत्नी आशा पाठक जीरादेई से विधायक हैं। इनका टिकट कटने का सवाल ही नहीं है। पाठक ने शहाबुद्दीन से लड़ाई में अपना परिवार खोया है। जीरादेई वही सीट है जहां से शहाबुद्दीन पहली बार जीतकर विधायक बने थे। शहाबुद्दीन की सत्ता को सीवान में तहस नहस करने वाले ओम प्रकाश यादव बीजेपी से सांसद हैं। बाहुबली बृजबिहारी की पत्नी रमा देवी अभी शिवहर से बीजेपी की सांसद हैं। बृज बिहारी जब बिहार में मंत्री थे तब उनकी हत्या हुई थी। 
एनडीए की सहयोगी पासवान की पार्टी की बात करें तो एक जमाने में इसे बाहुबलियों का बंगला तक कहा जाता था। हालांकि अब भी परिवार से बाहर के जो 3 लोग सांसद हैं उनमें से दो बाहुबली और उनके परिवार से ही हैं। सूरजभान की पत्नी मुंगेर से और रामा सिंह वैशाली से सांसद हैं। कहा जा रहा है कि परिवार के सदस्यों के अलावा जिनको भी पार्टी का टिकट मिलेगा उनका रिश्ता बाहुबलियों से जरूर होगा। मोकामा से सूरजभान सिंह के दाहिना हाथ माने जाने वाले ललन सिंह की पत्नी चुनाव लड़ सकती हैं। बाहुबली पप्पू देव भी एलजेपी के संपर्क में हैं। पत्नी पिछली बार बिहपुर से लड़ी भी थी। इस बार पप्पू सेफ पैसेज देख रहे हैं। मुमकिन है कि बात बनने पर जेडीयू का भी रुख करें। विधान परिषद चुनाव में पासवान ने सहरसा सीट से जेडीयू के बागी दबंग नीरज सिंह बबलू की पत्नी को टिकट दिया था। वो जीत गई हैं सो बबलू की उम्मीदवारी भी किसी सीट से तय है।
हर दल को बाहुबलियों पर यकीन है। फिलहाल सुशासन की बात करने वाले नीतीश की पार्टी में ही सबसे ज्यादा बाहुबली हैं। वो भी किसी जाति विशेष के नहीं। लगभग हर जाति समुदाय के बाहुबली का कनेक्शन यहां मिल जाएगा। जीत के लिए बीजेपी भी उसी हिसाब से अपने मोहरे फिट करने में जुटी है।