बिहार में चुनाव की तारीखों का एलान हो गया है। पांच चरणों में चुनाव और 8 नवंबर को नतीजे। यानी दीवाली से पहले साफ हो जाएगा कि बिहार में जीत के पटाखे कौन फोड़ेगा ? बिहार का ये चुनाव लालू-नीतीश के लिए तो करो या मरो का चुनाव है। नरेंद्र मोदी और बीजेपी नेताओं के लिए भी सीधे सीधे बिहार का ये चुनाव प्रतिष्ठा का चुनाव बन चुका है। लोकसभा चुनाव में जीत के बाहर मोदी लहर की सवारी कर बीजेपी ने महाराष्ट्र, हरियाणा, गुजरात में सरकार बना ली। जम्मू कश्मीर में भी मिली जुली सरकार बनाने में पार्टी कामयाब रही। लेकिन दिल्ली में बीजेपी को बुरी हार का सामना करना पड़ा। बिहार का चुनाव इन चुनावों से अलग है। बिहार का चुनावी पूरी तरह जाति के समीकरण पर लड़ा जाने वाला चुनाव है। विकास का तड़का लगाकर जातियों की तोड़ने की रणनीति बीजेपी कर तो रही है लेकिन उससे कितना फायदा मिलेगा ये चुनाव में ही पता चलेगा। अभी भले ही दुनिया की नजरों में जातीय बदनामी से बचने के लिए नेता विकास विकास की बात कर रहे हैं लेकिन चुनावी हकीकत में विकास पीछे छूट जाएगा और वोट जाति के नाम पर ही पड़ेंगे। असल में बिहार अब भी जातीय राजनीति के दलदल से बाहर नहीं आ पाया है। इसलिए तमाम पार्टियां जाति के गणित को ही दुरुस्त करने में जुटे हैं। विकास की बात करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मुजफ्फरपुर जाते हैं तो यदुवंशी की बात करते हैं। महादलित के अपमान का जिक्र करते हैं। लालू हैं कि जाति आधारित गिनती से बाहर आ ही नहीं रहे। विकास पुरुष की छवि वाले नीतीश कुमार की पार्टी के नेता भी जाति को बिहार की राजनीति की जरूरत मानते हैं। टिकटों का बंटवारा भी इसी आधार पर होने वाला है। इस बंटवारे में जो सामाजिक संतुलन और विद्रोह की आग को शांत कर लेगा वो भारी पड़ेगा। बिहार में कांग्रेस की भूमिका स्टेपनी वाली है। असली नेता लालू-नीतीश हैं। अगर ये दोनों चुनाव हारते हैं तो फिर इनकी आगे की राजनीति लगभग खत्म हो जाएगी। यही वजह है कि लालू हर दांव लगाकर बेटे-बेटियों को विधायक बनाने की जुगत में हैं। जहां तक नीतीश की बात है तो उनका परिवार राजनीति में नहीं है। ऐसे में हार के बाद पांच साल तक दिल्ली और पटना में सत्ता से दूर रहना इन क्षेत्रीय पार्टी के नेताओं के लिए आसान नहीं रहेगा। लालू खुद चुनाव नहीं लड़ रहे ये उनकी सबसे बड़ी कमजोरी है । नीतीश लालू को साथ लेकर चुनावी अखाड़े में उतरे हैं ये नीतीश की सबसे बड़ी कमजोरी है। इन कमजोरियों को साथ लेकर दोनों सत्ता के संघर्ष में उतरे हैं। हां नीतीश के पास विकास वाली छवि की पूंजी है तो लालू के पास वोट बैंक की। लेकिन लालू की छवि का घाटा भी नीतीश की छवि को उठाना पड़ रहा है। बीजेपी के पास सबसे बड़ा माइनस प्वाइंट ये है कि इनके पास नेताओं की भरमार है। लेकिन मुख्यमंत्री के लायक घोषणा करने वाला कोई चेहरा नहीं है। बिहार ये जरूर जानना चाहेगा कि अगर सरकार बनेगी तो उनका मुख्यमंत्री कौन होगा ? विरोधी पार्टी के नेता यही पूछ रहे हैं कि नीतीश कुमार के सामने कौन होगा ? दूसरी बात ये कि खास खास समुदाय का एक तरफा वोट अगर बीजेपी को मिलने की उम्मीद है तो उसके लिए नरेंद्र मोदी या बीजेपी को श्रेय नहीं जाता। उसका श्रेय जाता है लालू यादव को। हां नरेंद्र मोदी अब भी बिहार में लोकप्रिय हैं। जिसका फायदा बीजेपी को मिलने की उम्मीद है। अगर नुकसान होता है भी है इसका कारण पासवान, कुशवाहा और मांझी जैसे सहयोगी हो सकते हैं। चुनाव जीतने के लिए दोनों गठबंधनों ने अपने अपने तमाम घोड़े खोल दिये । प्रधानमंत्री ने सवा लाख करोड़ के पैकेज का एलान किया। वित्त राज्य मंत्री बिहार जाकर बोल आए कि सरकार बनने पर और इतना देंगे। चुनाव से पहले छे फीसदी डीए का एलान केंद्रीय कर्मचारियों के लिए हुआ। बाढ़ पावर प्लांट के लिए भी स्पेशल एलान आज ही हुआ है। नीतीश कुमार ने भी अंतिम समय में सारी ताकत लगा दी। नौकरी में महिलाओं को 35 फीसद आरक्षण देने से लेकर पुलिस वालों को 13 महीने की सैलरी देने तक का एलान कर दिया। जीतन राम मांझी के सीएम पद से हटने के बाद उनके लिए ज्यादतर फैसले नीतीश ने रद्द कर दिये थे। लेकिन चुनाव से ठीक पहले उन्हीं फैसलों को लागू करने का फैसला किया। सवा लाख करोड़ के पैकेज के जवाब में दो लाख सत्तर हजार के विकास का प्लान नीतीश ने पेश किया है। पिछले दिनों ही एसटी कोर्ट में निषाद आरक्षण की मांग कर रहे प्रदर्शनकारियों पर लाठी से प्रहार किया गया और लगा कि मामला अलग रंग लेगा तो तुरंत आरक्षण देने का प्रस्ताव पास कर दिया। वैसे नीतीश के लिए रोजगार सेवक, सांख्यिकी सेवक, नियोजित शिक्षक अब भी परेशानी की वजह हैं। एक दिन पहले ही राजभवन के पास साख्यिकी सेवक ने खुदकुशी की कोशिश की। आज जेडीयू दफ्तर के बाहर रोजगार सेवक ने इसी तरह की कोशिश की है। मतलब ऐसा नहीं है कि राजकाज में हर कोई खुश ही है। बिहार का चुनाव आज पूरी तरह व्यक्ति केंद्रित हो गया है। पार्टियां पीछे हैं, सामने नीतीश, लालू और मोदी का चेहरा ही है। जहां तक सियासी समीकरण का सवाल है तो अभी तक बुरी खबर लालू-नीतीश के लिए ही आ रही है। पप्पू यादव लालू से बाहर होकर यादवों में सेंध लगाने की तैयारी कर रहे हैं । तारिक अनवर मुस्लिम कार्ड खेलकर महागठबंधन से बाहर चले गए। तस्लीमुद्दीन जैसे नेता खुश नहीं दिख रहे। टिकट बंटवारे को लेकर कलह है। नीतीश के दर्जन भर विधायक पार्टी छोड़ चुके हैं। इन संकेतों को समझें तो फिर दीवाली के पटाखे फोड़ने से नीतीश और लालू अभी की परिस्थिति में तो दूर ही दिख रहे हैं। आगे इनके विरोधियों का हाल क्या होगा उस पर नजर रहेगी।
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