चाचा भतीजे की ये लड़ाई कोई नई नहीं है। समय समय पर दोनों
अपनी ताकत का इजहार करते रहे हैं। चाचा को इस बात का गुमान है कि वो मुलायम के छोटे
भाई हैं। तो भतीजे को इस बात का गुमान है कि वो मुख्यमंत्री हैं और नेताजी के बड़े
बेटे। अखिलेश को दूर तक राजनीति करनी है इसलिए वो कड़े और बड़े फैसले लेने में अब
नहीं हिचकिचाते। नहीं तो याद होगा आपको यही अखिलेश यादव थे जिनके फैसले 24 घंटे
में ही पलट जाते थे।
2012 में जब सरकार बनी थी तो हर कोई कहता था कि चार
मुख्यमंत्री है, साढ़े चार मुख्यमंत्री है टाइप। तब कभी आजम खान टोचन मारते तो कभी
चाचा शिवपाल। 2012 में जब पार्टी यूपी में जीती थी तब बीएसपी की सरकार थी। अखिलेश
पार्टी की प्रदेश इकाई के अध्यक्ष थे। चुनाव नेताजी के नाम पर लड़ा गया था लेकिन
लड़ाई अखिलेश ने लड़ी थी।
अब एक बार फिर चुनावी समर शुरू होने वाला है। मुलायम ने
यूपी के महाभारत में अपने रथ का सारथी बदल दिया है। अब पार्टी के फैसले प्रदेश में
शिवपाल यादव करेंगे। अखिलेश सिर्फ मुख्यमंत्री भर हैं। चर्चा तो ये भी हो रही है
कि मुख्यमंत्री ही कहीं चुनाव तक न बदल दिया जाए। समाजवादी पार्टी परिवार की
पार्टी है, लिहाजा संभव यहां कुछ भी हो सकता है। लेकिन अभी अखिलेश इतने कमजोर नहीं
हुए हैं कि मुलायम उन्हें बदलने की हिम्मत दिखा पाएंगे। जहां तक चाचा भतीजे की
लड़ाई का सवाल है तो ये परंपरागत तरीके से हर घर में होता आया है और यहां भी होता
रहेगा।
नेताजी के जाने के बाद पार्टी बनी रहेगी, बची रहेगी, एकजुट
रहेगी कहा नहीं जा सकता। लेकिन जब तक नेताजी हैं तब तक सबको साथ रहना पड़ेगा। 2012
में जब नेताजी मुख्यमंत्री नहीं बन रहे थे तब हवा में शिवपाल का नाम भी उड़ने लगा
था। शिवपाल खुद को मानने भी लगे थे। लेकिन बाजी भतीजे ने मार ली। बाद में दोनों
अपने अपने समर्थकों को जगह पर सेट करने में लग गए। अंदर खाने सब चल रहा था लेकिन
21 जून को अखिलेश की मर्जी के खिलाफ जाकर शिवपाल ने बाहुबली मुख्तार अंसारी की
पार्टी कौमी एकता दल का विलय करा दिया। कहा गया कि नेताजी की सहमति से हुआ है।
लेकिन अखिलेश को छवि की चिंता थी सो उन्होंने चाचा के फैसले पर बड़ा प्रहार किया। विलय
वाली रात विलय में भूमिका निभाने वाले बलराम यादव को बर्खास्त कर दिया। फिर मान
मनव्वौल और सब कुछहोने के बाद अखिलेश की बात मानी गई और मुख्तार की पार्टी को
बेआबरू होकर बाहर निकलना पड़ा।
शिवपाल को मन मसोस कर रह जाना पड़ा। इससे पहले शिवपाल अमर
सिंह को शामिल कराने में कामयाब रहे थे सो उनका मन बढ़ा हुआ था जबकि अखिलेश की
मर्जी नहीं थी अमर सिंह को लाने के लिए। तब अखिलेश खून का घूंट पीकर रह गए और इस
बार शिवपाल को रहना पड़ा।
फिर 7 जुलाई को शिवपाल के करीबी अफसर को प्रमुख सचिव बना
दिया गया। इस अफसर पर कई दाग पहले से रहे हैं। लेकिन शिवपाल को दागी ही पसंद आता
है। जबकि अखिलेश इसके घोर विरोधी है। इस नियुक्ति को शिवपाल की जीत के तौर पर देखा
गया और कहा गया कि मुख्तार वाले डैमेज को कंट्रोल करने के लिए इस दागी को अहम पद
पर बिठाया गया है। लेकिन दागी को भी दो महीने से ज्यादा अखिलेश बर्दाश्त नहीं कर
पाए। परसों 12 सितंबर को उनको भी बाहर कर दिया। उसी दिन दो मंत्री गायत्री प्रजापति
और राज किशोर सिंह को भी अखिलेश ने भ्रष्टाचार के आरोप में मंत्रिमंडल से बाहर का
रास्ता दिखाया।
गायत्री प्रजापति पहले से बदनाम रहे हैं लेकिन नेताजी के
चहेते माने जाते हैं। नेताजी से कल होकर पूछा गया कि अखिलेश ने बर्खास्त कर दिया
है आपके चहेते को तो उनका जवाब था कि मीडिया यानी आपसे ही मालूम हो रहा है। बड़े
ही दुख भरे अंदाज में मुलायम का ये बयान था। इस बातचीत में उन्होंने कई बार ये कहा
कि मुख्यमंत्री तो उनको बनना था लेकिन बना दिया अखिलेश को। मुलायम यहां मीडिया को
टीस के साथ बताते दिखे कि चुनाव उन्हीं के नाम पर लड़ा गया लेकिन हम सब देख चुके
थे सो उन्हीं को बना दिया। अब मुख्यमंत्री हैं सो हर फैसला पूछ कर थोड़े लेंगे। इस
बयान में एक पिता या पार्टी का अध्यक्ष नहीं बल्कि एक बेबस नेता ज्यादा दिख रहे थे
मुलायम।
इस फैसले के अगले ही दिन यानी कल 13 सितंबर को मुलायम ने
अखिलेश को प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटा दिया। बताया जा रहा है कि इस बारे में
अखिलेश से राय नहीं ली गई। अखिलेश को हटाया तो हटाया बनाया किसे तो शिवपाल यादव
को। अब भला इस मात को मुख्यमंत्री कैसे बर्दाश्त कर पाते। दिन को शिवपाल अध्यक्ष
बने और रात को ही अखिलेश ने शिवपाल से नौ में से 7 मंत्रालय वापस ले लिए। 2 पुराना
छोड़ा और एक नया दे दिया। खबर मिली तो सैफई में शिवपाल कोप भवन में जा बैठे। रात 8
बजे के बाद कमरे से नहीं निकले। चर्चा होने लगी कि इस्तीफा देंगे। सरकार छोड़ेंगे
और न जाने क्या क्या करेंगे।
रात को ही मुलायम ने शिवपाल की पत्नी सरला और बेटे को लखनऊ
से सैफई रवाना किया। मुलायम से फोन पर बात कराई गई। सुबह होते होते शिवपाल ने सुर
बदल दिये। कार्यकर्ताओं से कहा कि इस्तीफा नहीं दूंगा और मीडिया के सामने आए तो
कहा कि जो नेताजी कहेंगे वो करूंगा। प्रेस क़न्फ्रेंस में 27 बार नेताजी नेताजी
नेताजी कहा। लेकिन अखिलेश का नाम जुबान पर नहीं लाए। कार्यकर्ताओं को जब सैफई में
घर के बाहर भाषण दे रहे थे तब भी उन्होंने अखिलेश का नाम नहीं लिया। या कहिए उचित
नहीं समझा। इससे पहले भी तल्खी वाले मौके पर वो ऐसा करते रहे हैं। इससे आप अंदाजा
लगा सकते हैं कि शिवपाल और अखिलेश के रिश्ते किस कदर बिगड़े हुए हैं।
प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद नाराजगी को लेकर की गई इस पहली
प्रेस कॉन्फ्रेंस में शिवपाल में जो सबसे बड़ी बात कही वो ये कि चुनाव किसके
नेतृत्व में लड़ेंगे साफ नहीं है। अमूमन जो मुख्यमंत्री होता है वही चेहरा होता
है। लेकिन ये कहकर प्रदेश अध्यक्ष की हैसियत से शिवपाल ने अखिलेश के आगे बड़ा सा
पूर्ण विराम लगा दिया है। हो सकता है कि ये चुनाव पार्टी मुलायम के नाम पर भी लड़े।
ऐसा इसलिए क्योंकि अखिलेश और उनके सौतेले भाई प्रतीक में
पटती नहीं है। मुलायम प्रतीक को भी राजनीति में सेट करना चाहते हैं। परिवार का
प्रेशर भी है। और तो और प्रतीक और उनकी पत्नी ही पूरे परिवार में ऐसे हैं जो शिवपाल
खेमे के माने जाते हैं। बाकी पार्टी के पांच सांसद (रामगोपाल सहित) अखिलेश के खेमे
से हैं।
अखिलेश काजल की कोठली में रहने वाले बेदाग छवि के नेता हैं।
लेकिन परिवार का छाप छूटेगा तो नहीं ही। सो बाहुबलियों से दूरी बनाकर, करप्शन के
आरोपियों से पीछा छुड़ाकर अखिलेश संदेश तो सख्त छवि की देना चाहते हैं । लेकिन
चाचा मौके बेमौके पर रूठ कर सब पर पानी फेर देते हैं। अब शिवपाल अध्यक्ष बन गये
हैं तो टिकट बंटवारे में उनकी ज्यादा चलेगी। ऐसे में कैसे अखिलेश खुद को फिट कर
पाएंगे इस विंडो में देखने वाली बात होगी।