Wednesday, September 14, 2016

इसे कहते हैं सियासत में असली गृह युद्ध

चाचा भतीजे की ये लड़ाई कोई नई नहीं है। समय समय पर दोनों अपनी ताकत का इजहार करते रहे हैं। चाचा को इस बात का गुमान है कि वो मुलायम के छोटे भाई हैं। तो भतीजे को इस बात का गुमान है कि वो मुख्यमंत्री हैं और नेताजी के बड़े बेटे। अखिलेश को दूर तक राजनीति करनी है इसलिए वो कड़े और बड़े फैसले लेने में अब नहीं हिचकिचाते। नहीं तो याद होगा आपको यही अखिलेश यादव थे जिनके फैसले 24 घंटे में ही पलट जाते थे।
2012 में जब सरकार बनी थी तो हर कोई कहता था कि चार मुख्यमंत्री है, साढ़े चार मुख्यमंत्री है टाइप। तब कभी आजम खान टोचन मारते तो कभी चाचा शिवपाल। 2012 में जब पार्टी यूपी में जीती थी तब बीएसपी की सरकार थी। अखिलेश पार्टी की प्रदेश इकाई के अध्यक्ष थे। चुनाव नेताजी के नाम पर लड़ा गया था लेकिन लड़ाई अखिलेश ने लड़ी थी।
अब एक बार फिर चुनावी समर शुरू होने वाला है। मुलायम ने यूपी के महाभारत में अपने रथ का सारथी बदल दिया है। अब पार्टी के फैसले प्रदेश में शिवपाल यादव करेंगे। अखिलेश सिर्फ मुख्यमंत्री भर हैं। चर्चा तो ये भी हो रही है कि मुख्यमंत्री ही कहीं चुनाव तक न बदल दिया जाए। समाजवादी पार्टी परिवार की पार्टी है, लिहाजा संभव यहां कुछ भी हो सकता है। लेकिन अभी अखिलेश इतने कमजोर नहीं हुए हैं कि मुलायम उन्हें बदलने की हिम्मत दिखा पाएंगे। जहां तक चाचा भतीजे की लड़ाई का सवाल है तो ये परंपरागत तरीके से हर घर में होता आया है और यहां भी होता रहेगा।
नेताजी के जाने के बाद पार्टी बनी रहेगी, बची रहेगी, एकजुट रहेगी कहा नहीं जा सकता। लेकिन जब तक नेताजी हैं तब तक सबको साथ रहना पड़ेगा। 2012 में जब नेताजी मुख्यमंत्री नहीं बन रहे थे तब हवा में शिवपाल का नाम भी उड़ने लगा था। शिवपाल खुद को मानने भी लगे थे। लेकिन बाजी भतीजे ने मार ली। बाद में दोनों अपने अपने समर्थकों को जगह पर सेट करने में लग गए। अंदर खाने सब चल रहा था लेकिन 21 जून को अखिलेश की मर्जी के खिलाफ जाकर शिवपाल ने बाहुबली मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल का विलय करा दिया। कहा गया कि नेताजी की सहमति से हुआ है। लेकिन अखिलेश को छवि की चिंता थी सो उन्होंने चाचा के फैसले पर बड़ा प्रहार किया। विलय वाली रात विलय में भूमिका निभाने वाले बलराम यादव को बर्खास्त कर दिया। फिर मान मनव्वौल और सब कुछहोने के बाद अखिलेश की बात मानी गई और मुख्तार की पार्टी को बेआबरू होकर बाहर निकलना पड़ा।
शिवपाल को मन मसोस कर रह जाना पड़ा। इससे पहले शिवपाल अमर सिंह को शामिल कराने में कामयाब रहे थे सो उनका मन बढ़ा हुआ था जबकि अखिलेश की मर्जी नहीं थी अमर सिंह को लाने के लिए। तब अखिलेश खून का घूंट पीकर रह गए और इस बार शिवपाल को रहना पड़ा।
फिर 7 जुलाई को शिवपाल के करीबी अफसर को प्रमुख सचिव बना दिया गया। इस अफसर पर कई दाग पहले से रहे हैं। लेकिन शिवपाल को दागी ही पसंद आता है। जबकि अखिलेश इसके घोर विरोधी है। इस नियुक्ति को शिवपाल की जीत के तौर पर देखा गया और कहा गया कि मुख्तार वाले डैमेज को कंट्रोल करने के लिए इस दागी को अहम पद पर बिठाया गया है। लेकिन दागी को भी दो महीने से ज्यादा अखिलेश बर्दाश्त नहीं कर पाए। परसों 12 सितंबर को उनको भी बाहर कर दिया। उसी दिन दो मंत्री गायत्री प्रजापति और राज किशोर सिंह को भी अखिलेश ने भ्रष्टाचार के आरोप में मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखाया।
गायत्री प्रजापति पहले से बदनाम रहे हैं लेकिन नेताजी के चहेते माने जाते हैं। नेताजी से कल होकर पूछा गया कि अखिलेश ने बर्खास्त कर दिया है आपके चहेते को तो उनका जवाब था कि मीडिया यानी आपसे ही मालूम हो रहा है। बड़े ही दुख भरे अंदाज में मुलायम का ये बयान था। इस बातचीत में उन्होंने कई बार ये कहा कि मुख्यमंत्री तो उनको बनना था लेकिन बना दिया अखिलेश को। मुलायम यहां मीडिया को टीस के साथ बताते दिखे कि चुनाव उन्हीं के नाम पर लड़ा गया लेकिन हम सब देख चुके थे सो उन्हीं को बना दिया। अब मुख्यमंत्री हैं सो हर फैसला पूछ कर थोड़े लेंगे। इस बयान में एक पिता या पार्टी का अध्यक्ष नहीं बल्कि एक बेबस नेता ज्यादा दिख रहे थे मुलायम।
इस फैसले के अगले ही दिन यानी कल 13 सितंबर को मुलायम ने अखिलेश को प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटा दिया। बताया जा रहा है कि इस बारे में अखिलेश से राय नहीं ली गई। अखिलेश को हटाया तो हटाया बनाया किसे तो शिवपाल यादव को। अब भला इस मात को मुख्यमंत्री कैसे बर्दाश्त कर पाते। दिन को शिवपाल अध्यक्ष बने और रात को ही अखिलेश ने शिवपाल से नौ में से 7 मंत्रालय वापस ले लिए। 2 पुराना छोड़ा और एक नया दे दिया। खबर मिली तो सैफई में शिवपाल कोप भवन में जा बैठे। रात 8 बजे के बाद कमरे से नहीं निकले। चर्चा होने लगी कि इस्तीफा देंगे। सरकार छोड़ेंगे और न जाने क्या क्या करेंगे।
रात को ही मुलायम ने शिवपाल की पत्नी सरला और बेटे को लखनऊ से सैफई रवाना किया। मुलायम से फोन पर बात कराई गई। सुबह होते होते शिवपाल ने सुर बदल दिये। कार्यकर्ताओं से कहा कि इस्तीफा नहीं दूंगा और मीडिया के सामने आए तो कहा कि जो नेताजी कहेंगे वो करूंगा। प्रेस क़न्फ्रेंस में 27 बार नेताजी नेताजी नेताजी कहा। लेकिन अखिलेश का नाम जुबान पर नहीं लाए। कार्यकर्ताओं को जब सैफई में घर के बाहर भाषण दे रहे थे तब भी उन्होंने अखिलेश का नाम नहीं लिया। या कहिए उचित नहीं समझा। इससे पहले भी तल्खी वाले मौके पर वो ऐसा करते रहे हैं। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि शिवपाल और अखिलेश के रिश्ते किस कदर बिगड़े हुए हैं।

प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद नाराजगी को लेकर की गई इस पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में शिवपाल में जो सबसे बड़ी बात कही वो ये कि चुनाव किसके नेतृत्व में लड़ेंगे साफ नहीं है। अमूमन जो मुख्यमंत्री होता है वही चेहरा होता है। लेकिन ये कहकर प्रदेश अध्यक्ष की हैसियत से शिवपाल ने अखिलेश के आगे बड़ा सा पूर्ण विराम लगा दिया है। हो सकता है कि ये चुनाव पार्टी मुलायम के नाम पर भी लड़े।
ऐसा इसलिए क्योंकि अखिलेश और उनके सौतेले भाई प्रतीक में पटती नहीं है। मुलायम प्रतीक को भी राजनीति में सेट करना चाहते हैं। परिवार का प्रेशर भी है। और तो और प्रतीक और उनकी पत्नी ही पूरे परिवार में ऐसे हैं जो शिवपाल खेमे के माने जाते हैं। बाकी पार्टी के पांच सांसद (रामगोपाल सहित) अखिलेश के खेमे से हैं।    

अखिलेश काजल की कोठली में रहने वाले बेदाग छवि के नेता हैं। लेकिन परिवार का छाप छूटेगा तो नहीं ही। सो बाहुबलियों से दूरी बनाकर, करप्शन के आरोपियों से पीछा छुड़ाकर अखिलेश संदेश तो सख्त छवि की देना चाहते हैं । लेकिन चाचा मौके बेमौके पर रूठ कर सब पर पानी फेर देते हैं। अब शिवपाल अध्यक्ष बन गये हैं तो टिकट बंटवारे में उनकी ज्यादा चलेगी। ऐसे में कैसे अखिलेश खुद को फिट कर पाएंगे इस विंडो में देखने वाली बात होगी। 

Thursday, July 14, 2016

विवादित चेहरों के दम पर कांग्रेस जीतेगी यूपी की जंग ?

शीला दीक्षित को कांग्रेस यूपी में मुख्यमंत्री का चेहरा बनाने जा रही है । कांग्रेस चाहे तो किसी को भी चेहरा बनाए ये पार्टी का मामला है । लेकिन जो नेता बीस पच्चीस साल से यूपी की राजनीति से दूर हो । जिसका यूपी की सियासत से अभी कोई वास्ता न हो उस पर दांव लगाकर कांग्रेस कौन सा तीर मार लेगी ? शीला दीक्षित दिल्ली में विकास का चेहरा मानी जाती थी लेकिन वो बात तब की थी अब तो उन्हें भ्रष्टाचार के प्रतीक के तौर पर पेश कर रहे हैं विरोधी । दिल्ली में टैंकर घोटाले को लेकर आज ही खबर आई है कि पुलिस उनसे पूछताछ करने वाली है । हफ्ते भर पहले ही वाटर मीटर घोटाला भी सामने आया है । कहने का मतलब ये कि सिर्फ 
 ब्राह्मणों के वोट के लिए ही शीला को चेहरा बनाया जा रहा है तब तो कांग्रेस की नाव भगवान के भरोसे है ।
शीला पर घोटाले का दाग लगा है तो पार्टी के उपाध्यक्ष बनाये गये इमरान मसूद हेट स्पीच के लिए मशहूर हैं। मसूद सहारनपुर से लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे तब उन्होंने नरेंद्र मोदी को लेकर बोटी बोटी काटने वाला विवादित बयान दिया था । बाद में माफी मांगी लेकिन इस बयान ने उन्हें फायदा भी दिलाया था । सहारनपुर में समाजवादी पार्टी का मुस्लिम उम्मीदवार चौथे नंबर चला गया और मसूद 4 लाख वोट पाकर दूसरे नंबर रहे । थोड़ा और जोड़ लगाते तो शायद जीत भी जाते । लेकिन इसका साइड इफेक्ट ये है कि मसूद सक्रिय हुए तो ब्राह्मण ही नहीं हिंदू वोटों का विरोध में ध्रुवीकरण हो सकता है । इसका नुकसान कांग्रेस को ही होगा । वैसे भी कांग्रेस के नेताओं पर भड़काऊ बातें बोलने का आरोप कम ही लगता है लेकिन मसूद जैसों का महत्व बढ़ना कांग्रेस की रणनीति में बदलाव के संकेत हैं ।

माननीय राज बब्बर भी दूध के धुले नहीं हैं । 2013 में 12 रुपये में भऱपेट खाना दिलवा रहे थे । बाद में लगा कि गलत बात मुंह से निकल गई तो माफी मांग लिए । लेकिन दामन में गरीब विरोधी होने का दाग लग गया जो कि बाद में कांग्रेस के वोट बैंक के नुकसान का बड़ा कारण साबित हुआ। राजब्बर पार्टी के प्रवक्ता रहते हुए कभी मोदी की तुलना हिटलर से कर चुके हैं । बाद में तो हिटलर से तुलना परिपाटी बन गई  । मीडिया में कहा जा रहा है कि प्रियंका गांधी की जिद की वजह से राजबब्बर को अध्यक्ष बनाया गया । जबकि पार्टी का कोई बड़ा नेता ऐसा नहीं चाहता था । यहां तक की राहुल गांधी भी । राज बब्बर जिस यूपी कांग्रेस के अध्यक्ष बने हैं उसी यूपी की गाजियाबाद लोकसभा सीट से 5 लाख 67 हजार वोटों से 2014 का लोकसभा चुनाव हारे हैं । इतने वाटों से हारना अपने आप में एक रिकॉर्ड है । 2014 के चुनाव में सबसे ज्यादा वोट से हारने वाले देश में दूसरे उम्मीदवार हैं राजब्बर ।
पार्टी राज्य में जिन संजय सिंह को प्रचार की जिम्मेदारी दे रही है वो संजय सिंह भी कम विवादित नहीं हैं । बेटे से महल को लेकर झगड़ा हो रहा है । महल को लेकर खून तक बह चुका है ।  संजय सिंह गांधी परिवार के लॉय़ल रहे हैं। संजय सिंह की दो शादियां हैं और पहली पत्नी और उनके बेटे से उनका विवाद हो रहा है । संजय सिंह का विवाद कभी अंतर्राष्ट्रीय बैडमिंटन खिलाड़ी सैय्यद मोदी की हत्या से भी जुड़ा था । इसमें उन्हें कई तरह की जांच से गुजरना पड़ा था । लेकिन राजपूत वोटों को लुभाने के लिए संजय सिंह को आगे लाया गया है । राजपूतों का नेता यूपी में कौन होगा । राजनाथ सिंह, अमर सिंह, संजय सिंह या कोई और सिंह । 2012 में 13 फीसदी राजपूतों के वोट कांग्रेस को मिले थे। सपा को 26 और बीजेपी को 29 फीसदी राजपूतों के वोट मिले थे तब ।
संजय सिंह को राजपूतों की गोलबंदी के लिए तो शीला को ब्राह्मणों की गोलबंदी के लिए लाया गया है । यूपी में कांग्रेस को 2012 में महज 13 फीसदी ब्राह्मणों के वोट मिले थे । तब दिल्ली में भी कांग्रेस का क्रेज था और सोनिया से लेकर राहुल गांधी तक खासे सक्रिय थे । इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस वक्त ब्राह्मण बीजेपी के साथ है । शीला के आने के बाद बीजेपी के ब्राह्मण वोट बैंक में सेंध लगना तय है ।

Monday, July 11, 2016

ब्राह्मण वोट के लिए क्यों व्याकुल हैं पार्टियां ?

ब्राह्मणों ने हर चुनाव में एक नया प्रयोग किया है। इस बार भी ब्राह्मण वोट क्या करेंगे इसको लेकर तमाम पार्टियों के अपने अपने दावे हैं। कोई भी हिम्मत के साथ ये कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा कि ब्राह्मणों का वोट उन्हीं की झोली में जाने वाला है।
यूपी में ब्राह्मण वोटरों की संख्या करीब 10 से 12 फीसदी के आसपास है। 80 में से 20 संसदीय क्षेत्र ऐसे हैं जहां ब्राह्मण वोटर जीत और हार की तस्वीर तय करते हैं। यही वजह है कि विधानसभा चुनाव में तमाम पार्टियां ब्राहमणों को लुभाने में जुटी है। कोई ब्राह्मण सीएम की बात कर रहा है तो कोई ज्यादा टिकट देने की। कोई सोशल इंजीनियरिंग के भरोसे है तो किसी को सम्मेलनों का सहारा है। कुल मिलाकर ब्राह्मणों के लिए यूपी के नेता व्याकुल हुए पड़े हैं।
कांग्रेस से होते हुए बीजेपी, बीएसपी और एसपी तक का सफर ब्राह्मण वोटर तय कर चुके हैं। कांग्रेस की राज्य में स्थिति वैसी नहीं है कि ये समाज उनपर भरोसा करके आगे बढ़ सके। बीजेपी को लोकसभा चुनाव में खुलकर इस जाति का समर्थन मिला था। लक्ष्मीकांत वाजपेयी पार्टी के अध्यक्ष हुआ करते थे। जब से वाजयेपी जी की छुट्टी हुई है पार्टी हिली हुई है। वाजपेयी जी भी कोप भवन में चले गये हैं। वोट के तौर पर कहीं ब्रह्मणों का श्राप न लग जाए इसी डर से पहले बीजेपी ने राज्यसभा की एकमात्र सीट से इस जाति के नेता शिव प्रताप शुक्ल को दिल्ली भेजा। फिर तमाम कायदे कानून और नियम फॉर्मूले कलराज मिश्र के सामने फेल हो गये। 75 पार वालों को मंत्रिमंडल से बाहर करने का विचार था लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाई पार्टी। कलराज मिश्र तो बने ही रहे। चंदौली से सांसद महेंद्र पांडे को भी मंत्री बनाया गया। इतना ही नहीं मुरली मनोहर जोशी के नाम को राष्ट्रपति की रेस में लाया गया और अब खबर है कि लक्ष्मीकांत वाजपेयी को पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया जाएगा। कहने का मतलब ये कि बीजेपी हिली हुई है। पार्टी के सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला फेल हो जाएगा अगर ब्राह्मणों ने खेल कर दिया तो।
कांग्रेस है तो कही नहीं लेकिन उसे भी ब्राह्मणों से ही उम्मीद है। कभी प्रियंका गांधी का नाम तो कभी शीला दीक्षित का नाम। पार्टी के रणनीतिकार प्रशांत किशोर के हवाले से खबरें रोज आती हैं कि ब्राह्मण चेहरा लाओ। प्रियंका लाओ, राहुल लाओ, वरुण लाओ और अगर इनमें से कोई नहीं तो फिर शीला दीक्षित ही लाओ। अभी पिछले दिनों खबर आई कि गुलाम नबी ने शीला को नेतृत्व करने का ऑफर दिया है। शीला दीक्षित इसके लिए तैयार भी है।
15 साल तक दिल्ली की मुख्यमंत्री, केरल की राज्यपाल और केंद्र में मंत्री रह चुकी शीला दीक्षित पच्चीस तीस साल से यूपी की सियासत से दूर हैं। लेकिन पार्टी को लगता है कि ब्राह्मण इनके नाम पर भी मान जाएंगे। शीला दीक्षित कन्नौज से सांसद रही हैं। शीला की ससुराल यूपी में है और इसी के दम पर कांग्रेस उनको आगे करने की तैयारी में है। इतना ही नहीं पार्टी ने जितिन प्रसाद जैसे युवा ब्राह्मण चेहरे को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की तैयारी कर रखी है। जितिन पहले सांसद और केंद्र में मंत्री रहे हैं और राहुल की टीम का हिस्सा हैं। प्रमोद तिवारी जैसे ब्राह्मण नेता को पिछली बार राज्यसभा भेजने की रणनीति भी इसी का हिस्सा था।
बीएसपी को उम्मीद है कि ब्राह्मण सम्मेलन कराकर 2007 वाला सोशल इंजीनियरिंग का फ़र्मूला फिर से चल जाएगा। हाल के दिनों तक हाशिये पर चल रहे सतीश चंद्र मिश्र की पूछ फिर से बढ़ गई है। 2007 की जीत के हीरो मायावती से ज्यादा मिश्रा जी ही माने जाते हैं। अभी मिश्रा जी का कार्यकाल राज्यसभा में पूरा हुआ तो तुरंत उनको रिपीट किया। टिकट देने में भी खास ख्याल रखा जा रहा है। हाल ही में एक नेता ने सोशल मीडिया पर ब्राह्मणों के बारे में टिप्पणी कर दी तो उसे तुरंत पार्टी से बाहर कर दिया गया। ये वही बीएसपी है जिसका उदय ही तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार नारे के साथ हुआ था। लेकिन आज पार्टी कहां खड़ी है सबके सामने है।
समाजवादी पार्टी की पिछली जीत में इस समाज का अहम योगदान था। कागज पर सपा की जीत में ब्राह्मणों की चर्चा नहीं होती लेकिन आंकड़े बताते हैं कि ब्राह्मणों ने मायावती के साथ खेल करके साइकिल की सवारी कर दी और हाथी की हवा निकल गई। स्वर्गीय जनेश्वर मिश्रा के बहाने पार्टी ब्राह्मणों को याद दिला रही है कि सत्ता में सबसे ज्यादा सम्मान इसी समाज को मिला है। समाजवादी पार्टी के राज में ही परशुराम जयंती के मौके पर सरकारी छुटटी का एलान हुआ था। 2012 में जब फिर सरकार बनी तो अखिलेश इस जाति के 13 लोगों को मंत्री बनाया था। आगरा में हाल ही में कई घोषित नेताओं का टिकट काटकर ब्राह्मण उम्मीदवार को टिकट दिया गया् है। आगरा के एक ब्राह्मण नेता को राज्यमंत्री का दर्जा दिया गया है।
आंकड़ों के मुताबिक 2012 के चुनाव में 19 फीसदी ब्राह्मणों ने सपा और 19 फीसदी ने ही बसपा को वोट दिया था। जबकि 2010 में सपा को सिर्फ 10 फीसदी वोट मिले थे इस समाज के। 2007 के मुकाबले 2012 में बीएसपी को 3 फीसदी ज्यादा ब्राह्मणों का वोट तो मिला लेकिन जीत में बदल नहीं पाया। जबकि 2002 में 50 फीसदी ब्राह्मणों ने बीजेपी को वोट किया था। 2007 में घटकर 44 और 2012 में 38 रह गया। 2014 में ये ग्राफ जरूर बेहतर हुआ। कांग्रेस को 2007 में 19 फीसदी और 2012 में महज 13 फीसदी वोट ब्राह्मणों के मिले थे।
2012 के चुनाव में सबसे ज्यादा बीएसपी ने 74 ब्राह्मण उतारे थे। बीजेपी ने 73, सपा ने 50 और कांग्रेस ने 42 उम्मीदवारों को टिकट दिया। सपा के 50 में से 21 ब्राह्मण उम्मीदवार जीत गए। जबकि 2007 में बीएसपी ने 86 ब्राह्मणों को उतारा था और 43 जीते थे। 2012 में इनमें से 20 को टिकट नहीं देने का खामियाजा भी मायावती को भुगतना पड़ा था। 

2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 15 ब्राह्मणों को टिकट दिया और सभी जीते। जबकि कांग्रेस के 11 में से सिर्फ 2 को जीत मिली। बीएसपी ने 21 को टिकट दिया और कोई नहीं जीता।  

Saturday, July 9, 2016

सम्राट सुहेलदेव पार कराएंगे पूर्वांचल में बीजेपी की नाव ?


राजा सुहेलदेव की प्रतिकात्म तस्वीर
वैसे देश की राजनीति में इस पार्टी का न तो नाम चर्चा में रहा है औ ना ही इस पार्टी के किसी नेता को ज्यादा लोग जानते हैं। सीमित दायरे में रहकर राजनीति करने वाली सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी की स्थापना साल 2002 में हुई थी। मायावती का साथ छोड़कर ओम प्रकाश राजभर ने अपनी पार्टी बनाई । मकसद था राजभर जाति को सत्ता में भागीदार बनाना।
12 साल बाद राजभर जाति की राजनीति करने वाली इस पार्टी की अहमियत को उभार देने का आइ़डिया बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को आया है। पूर्वांचल के मऊ में आयोजित रैली में ये तय हो गया है कि बीजेपी पूर्वांचल में राजभर की पार्टी के साथ तालमेल करके चुनाव लड़ेगी। वैसे इतिहास के पन्नों को पलटे तो ओम प्रकाश राजभर की पार्टी बीते दो विधानसभा चुनावों में कोई गुल नहीं खिला सकी है। पार्टी का प्रदर्शन बेहद ही सीमित रहा है। 2012 के चुनाव में मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल के साथ तालमेल करके भी ओम प्रकाश राजभर विधानसभा नहीं पहुंच पाए थे।
राजभर को एक ऐसे साथी की तलाश थी जो उनकी इच्छाओं को पंख लगा सके। लखनऊ की लड़ाई जीतने के लिए बीजेपी को भी दलित और पिछड़े वोट बैंक में सेंध लगाने वाले नेताओं की जरूरत है। लोकसभा चुनाव के वक्त इसकी जरूरत महसूस नहीं हुई थी लेकिन विधानसभा चुनाव में हजार पांच सौ वोटों से हार जीत की कहानी लिखी जाती है। लिहाजा बीजेपी पूर्वांचल की कम से कम पचास सीटों पर हजार पांच सौ वोटों से हार नहीं चाहती। यही वजह है कि यूपी की राजनीति में हाशिये पर खड़ी एक पार्टी को बीजेपी ने 20 से 22 सीटें देने का फैसला किया है। बीजेपी राजभर की पार्टी को उन सीटों पर चुनाव लड़ाएगी जहां मुख्तार अंसारी की पार्टी का दबदबा है। 
राजभर की राजनीति 
बहराइच, मऊ, गाजीपुर, श्रावस्ती के इलाकों में ओम प्रकाश राजभर के उम्मीदवार चुनाव लड़ेंगे। राजभर वोटों की संख्या राज्यभर में तो 3 फीसदी के आसपास ही है लेकिन इन इलाकों में 8 फीसदी के आसपास। पार्टी के दावे को माने तो करीब सौ सीटों पर 20 हजार से लेकर 1 लाख तक वोट हैं।
2007 के विधानसभा चुनाव में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने 97 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे। इनमें से 94 पर पार्टी की जमानत जब्त हो गई । कुल वोट 4 लाख 91 हजार मिले। यानी कुल वोटों का एक फीसदी से भी कम। 2012 में राजभर नें 52 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे। 48 की जमानत जब्त हुई। कुल वोट मिले 4 लाख 77 हजार 330। 
गाजीपुर की जहूराबाद सीट से लड़ने वाले ओम प्रकाश राजभर 2012 के चुनाव में तीसरे नंबर पर रहे थे। जीतने वाले को 67 हजार, दूसरे नंबर पर बीएसपी को 56 हजार और राजभर को 48 हजार वोट मिले थे। यहां बीजेपी के उम्मीदवार को 5600 वोट मिले थे
हिंदू राजा के नाम पर राजनीति 
राजभर की पार्टी से नाता जोड़ने के पीछे बीजेपी का मकसद सिर्फ इस वर्ग के वोट पाना नहीं नहीं है। बल्कि राजा सुहेलदेव के जरिये बीजेपी हिंदू वोटों की गोलबंदी की राजनीति भी करना चाहती है। श्रावस्ती सम्राट राजा सुहेलदेव को हिंदुओं का राजा कहा जाता है। महज 18 साल में ही सुहेलदेव राजा बने थे। 17 बार भारत को लूटने के बाद महमूद गजनवी का भांजा सालार मसूद गाजी 1034 में भारत को मुस्लिम राष्ट्र बनाने की नीयत से हमला करते हुए आगे बढ़ रहा था। हजारों हिंदुओं की हत्या के बाद बहराइच की सीमा में उसका सामना सुहेलदेव से हुआ। सुहेलदेव की सेना इस स्थिति में नहीं थी कि अकेले गाजी का मुकाबला किया जा सके। इसलिए राजा सुहेलदेव नें 21 हिंदू राजाओं को अपने साथ मिलाया और उनका नेतृत्व करते हुए गाजी पर टूट पड़े।
कहा जाता है कि गाजी बहुत की शातिर था । सुहेलदेव को मात देने के लिए वो अपनी सेना के आगे गायों को बांध कर खड़ा कर देता था। क्योंकि सुहेलदेव गायों पर आक्रमण नहीं करते। पहली बार में ही सुहेलदेव को इसकी भनक लगी और रात को ही उन्होंने गायों की रस्सियां कटवा दी। बाद में लड़ाई में सुहेलदेव के हाथों गाजी मारा गया। और उसकी मंशा पूरी नहीं हुई। 

उन्ही राजा सुहेलदेव के नाम पर ओमप्रकाश राजभर नें अपनी पार्टी बनाई है। वैसे इतिहास में राजा की जाति को लेकर स्पष्ट मत नहीं मिलने की बात कही जाति है। लेकिन राजभर समाज सुहेलदेव को अपनी जाति का मानते हैं। सुहेलदेव के बहाने राजभर वोटों को साधने के लिए ही फरवरी महीने में गाजीपुर से दिल्ली के बीच सुहेलदेव एक्सप्रेस ट्रेन शुरू की गई। राजा सुहेलदेव की आज की सेना ने बीजेपी का साथ दिया तो पूर्वांचल के आधा दर्जन जिलों का राजनीतिक समीकरण प्रभावित हो सकता है। क्योंकि इस जाति के वोटरों को अभी तक कोई स्पष्ट भविष्य नहीं दिख रहा था। राजभर के मायावती का साथ छोड़ने के बाद समाज बिखर सा गया था। लेकिन गठबंधन दोनों के लिए संजीवनी का काम कर सकता है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि तमाम राजभर समाज इन्हीं के साथ है। राजभर की अहमियत को समझते हुए ही मायावती ने अपनी पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष राम अचल राजभर को बना रखा है। 

Tuesday, July 5, 2016

जाति के जोड़तोड़ से यूपी जीतेगी बीजेपी ?

तय समय पर चुनाव हुआ तो यूपी में वोटिंग अगले साल ही होगी। लेकिन तमाम राजनीतिक पार्टियां अपने अपने सेनापति और सिपाहियों को फिट करने में जुटे हैं। मोदी मंत्रिमंडल का विस्तार इसी कड़ी का एक हिस्सा है। यूपी से जिन तीन मंत्रियों को शामिल किया गया है उनमें से एक सवर्ण हैं दूसरे पिछड़ी जाति से हैं और तीसरी दलित हैं। जिन जातियों को बीजेपी ने मंत्रिमंडल में जगह दी है उन जातियों के वोट बैंक पर बीजेपी की नजर है। लोकसभा चुनाव में इन जातियों ने बीजेपी को झोली भर भरकर वोट किया था।
चंदौली के सांसद महेंद्र नाथ पांडे पूर्वांचल में किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर निखरकर अभी ही सामने आए हैं। माना जा रहा था कि पांडे को मंत्री बनाकर कलराज मिश्र को कल्टी कराया जाएगा। लेकिन कलराज भी 70 का बैरियर पास करने के बाद बने हुए हैं। कलराज जी का क्षेत्र और पांडे जी का इलाका ज्यादा दूर नहीं है। लेकिन मंत्री बनाने के पीछे ब्राह्मण वोट का हिसाब किताब ही है। 2002 के चुनाव में बीजेपी को 50 फीसदी ब्राह्मणों का वोट मिला था लेकिन 2012 में घटकर 38 फीसदी रह गया। जबकि 2007 में ब्राह्मणों ने हाथी की सवारी की थी ।  2007 में मायावती ने 86 ब्राह्मणों को टिकट दिया था। लोकसभा चुनाव से पहले तक ब्राह्मण समाज का बड़ा हिस्सा बीएसपी के साथ था। लेकिन अमित शाह की सोशल इंजीनियरिंग के कमाल का नतीजा था कि लोकसभा चुनाव में ब्राह्मण बनिये के साथ गैर यादव-मुस्लिम वोट बैंक का बड़ा चंक जुड़ गया। अपने आप में ये समीकरण यूपी के लिए चौंकाने वाला था। लेकिन हिस्सा मिल गया और 80 में से 73 सीट झोली में आ गई।
बीजेपी के सामने इस परिणाम को विधानसभा में दोहराने की चुनौती है। लेकिन न तो मोदी जैसा चेहरा है और ना ही यूपी चुनाव में कोई बड़ा मु्द्दा। लिहाजा जातिय गणित को ही जोड़ने तोड़ने का काम जारी है। 10 से 12 फीसदी आबादी वाला ब्राह्मण जो कि सवर्णों में सबसे बड़ा वर्ग है वो अगर साथ बना रहा तो बीजेपी को 25 से 50 सीट इसी के दम पर निकालने में दिक्कत नहीं होगी। लेकिन कांग्रेस भी ब्राह्मण के भरोसे ही है। कभी शीला दीक्षित का नाम सीएम के लिए तो कभी जितिन प्रसाद का नाम प्रदेश अध्यक्ष के लिए पेश किया जा रहा है। बीएसपी में मायावती को भी सतीशचंद्र मिश्र के सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला दोहराने का इंतजार है। हालांकि बीएसपी से ब्राह्मणों की दूरी इसलिए बढ़ती जा रही है क्योंकि हाल ही में देवरिया के एक बीएसपी नेता ने सोशल मीडिया पर ब्राह्मणों के बारे में विवादित टिप्पणी कर दी थी। हाल ही में कैराना कांड के बाद समाजवादी पार्टी की सरकार ने ब्राह्मण जाति के साधु संतों की टीम को कैराना भेजकर संदेश देने की कोशिश की है।
शायद यही वजह है कि पूर्वांचल से दो दो ब्राह्मणों को मंत्रिमंडल में मौका दिया गया है।  अगर ऐसा नहीं होता तो फिर कलराज मिश्र की छुट्टी हो जाती। पश्चिम में ब्राह्मण चेहरे के तौर पर नोएडा के सांसद महेश शर्मा मंत्री हैं। यानी लोकसभा के हिसाब से देखें तो 10 फीसदी वोट वाले ब्राह्मण जाति के 3 सांसद मंत्री हो गये हैं। जबकि ब्राह्मण जाति के रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर भी यूपी से ही राज्यसभा सांसद हैं। इनको जोड़ लेंगे तो 4 ब्राह्मण मंत्री हो जाएंगे। अभी इसमें मेनका गांधी को शामिल नहीं कर रहा हूं।
लक्ष्मीकांत वाजपेयी बीजेपी के यूपी अध्यक्ष थे। उनको हटाकर केशव मौर्य को अध्यक्ष बनाया। वाजपेयी को हटाने से ब्राह्मणों में संदेश गलत गया था। इसी संदेश को सुधारने के लिए पहले ब्राह्मण जाति के शिव प्रताप शुक्ल को राज्यसभा भेजा फिर पांडे जी को मंत्री बनाया गया और मिश्रा जी को बरकरार रखा गया।
अब बात करते हैं कुर्मी वोट की। अनुप्रिया पटेल जो कि अपना दल से जीती हुई हैं उनको इसलिए जगह दी गई है ताकि पिछड़ों में यादवों के बाद जो सबसे बड़ा वोट बैंक है उसको अपने साथ रखा जाए। अनुप्रिया भी पूर्वांचल की मिर्जापुर सीट से सांसद हैं। कुर्मियों के बड़े नेता रहे सोनेलाल पटेल की बेटी अनुप्रिया पटेल पहली बार सांसद बनीं हैं। उनको मंत्री बनाकर पूर्वांचल में बेनी प्रसाद वर्मा के कद को कम करने की कोशिश है। बेनी प्रसाद वर्मा भी पूर्वांचल के इसी इलाके में कुर्मियों के नेता माने जाते हैं। बेनी प्रसाद वर्मा कांग्रेस छोड़कर समाजवादी पार्टी में शामिल होकर राज्यसभा पहुंच चुके हैं। कुर्मी वोट पर नीतीश कुमार की भी नजर है। कांग्रेस के कुर्मी नेता आरपीएन सिंह पूर्वांचल से ही आते हैं।
लेकिन असल लड़ाई अनुप्रिया पटेल के घर में ही है। अनुप्रिया की मां कृष्णा पटेल बेटी के मंत्री बनने से खुश नहीं हैं। कृष्णा ही अभी पार्टी की अध्यक्ष हैं। कहा जाता है कि दोनों मां-बेटी में पार्टी पर कब्जे के लिए संघर्ष चल रहा है। मां बड़ी बेटी पल्लवी का कद बढ़ाना चाहती हैं लेकिन अनुप्रिया को शायद इससे खतरा महसूस होता है। पल्लवी को पार्टी का महासचिव बनाने के बाद से ही अनुप्रिया की बात बिगड़ी थी। अब अगर इस घर के झगड़े को शांत नहीं किया गया तो थोड़ा बहुत असर कुर्मी वोटर पर जरूर पडेगा। वैसे भी कुर्मी बहुल जिस रोहनिया सीट पर सोनेलाल पटेल के परिवार का कब्जा होता था उस सीट पर पिछले साल अनुप्रिया की मां हार गईं थीं। जबकि बीजेपी का समर्थन था उनको। ऐसे में घर के झगड़े का असर 8 फीसदी वोट वाले कुर्मी वोटर पर दिख जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।  अभी कुर्मी समाज से आने वाले संतोष गंगवार ही यूपी से एकमात्र मंत्री हैं जो मध्य यूपी से आते हैं।
मंत्रिमंडल का तीसरा चेहरा है कृष्णा राज का। पासी समाज से आने वाली कृष्णा राज दो बार की विधायक हैं और शाहजहांपुर से पहली बार सांसद बनी हैं। पहली बार में ही मंत्री बनाने के पीछे मकसद है पासी वोट को अपने पाले में लाना। पासी वोट बैंक करीब 3 से 4 फीसदी है। जाटव जाति के बाद पासी ही दलित में आबादी और दबदवे वाली जाति है। पिछले दिनों इसी जाति के आरके चौधरी ने मायावती का साथ छोडा था। बीजेपी जान रही है कि जाटव को उनके पास आने से रहा थोड़ा बहुत पासी को तोड़ लें तो बहन जी को ज्यादा नुकसान हो जाएगा। इसी को लेकर कृष्णा राज को पासी समाज का चेहरा पेश किया गया है।


Tuesday, May 10, 2016

देवभूमि का दाग कहीं भारी न पड़ जाए सरकार ?


उत्तराखंड का फैसला मोदी सरकार के लिए बड़ा झटका है। सुबह तक पार्टी के महासचिव कैलाश विजयवर्गीय दावा कर रहे थे कि कई कांग्रेसी विधायक उनका साथ देंगे । लेकिन ऐसा हो नहीं पाया । कांग्रेस की एक मात्र रेखा आर्या बागी हुईं और बीजेपी के खेमे में चली गईं । लेकिन बीजेपी को इससे कोई फायदा नहीं हुआ ।
अब जो खबरें छन कर आ रही हैं और दावे किये जा रहे हैं उसके मुताबिक बीजेपी को महज 28 वोट मिले जबकि कांग्रेस को उम्मीद के मुताबिक 33 वोट मिले । यानी बहुमत के आंकड़े को हरीश रावत आसानी से पार गये ।
उत्तराखंड में विधानसभा की कुल 70 सीटें हैं । जबकि 1 मनोनीत विधायक है। यानी सदस्यों की कुल संख्या 71 है । यहां मनोनीत विधायक भी वोट देते हैं । कांग्रेस के 9 विधायकों के बागी हो जाने की वजह से सदन की संख्या 62 हो गई थी । इसमें से स्पीकर ने वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया फिर भी कांग्रेस के पक्ष में बहुमत की बात सामने आ रही है ।
कांग्रेस की रेखा आर्य के बागी होने की वजह से बीजेपी के पास संख्या 27 से बढकर 28 हो गई थी । बाकी किसी ने भी बीजेपी का साथ नहीं दिया । जबकि कांग्रेस के 26 (स्पीकर को छोडकर) बीएसपी के 2, निर्दलीय 3 और यूकेडी के 1 विधायक ने कांग्रेस का साथ दिया । बीजेपी के एक बागी जिसे पार्टी पहले ही निलंबित कर चुकी थी उस भीमलाल आर्य ने भी कांग्रेस के पक्ष में वोटिंग की और इस तरह से आंकड़ा बढ़कर 33 हो गया । स्पीकर को वोट देने की नौबत ही नहीं आई ।
कांग्रेस के पक्ष में 33, बीजेपी के पक्ष में 28 वोट मिले। ऐसा बताया जा रहा है । जबकि स्पीकर ने हिस्सा नहीं लिया । यानी सदन में इस वक्त कांग्रेस के पास 34 विधायक हैं । अब रेखा आर्य जो कि बीजेपी के खेमे में गई थी उन पर कांग्रेस कार्रवाई कर सकती है । लेकिन पहले कल कोर्ट के नतीजों का इंतजार करना होगा ।

बीजेपी की रणनीति इस तरीके से फेल हो गई कि हरिद्वार में बीएसपी के साथ देने का भी फायदा उसे नहीं मिला । बीएसपी के दो विधायक हैं। मायावती ने सुबह ही एलान कर दिया कि उनका वोट कांग्रेस के साथ जाएगा । बीएसपी विधायकों ने कांग्रेस का साथ दिया भी । निर्दलीय 3 विधायक और यूकेडी का एक विधायक भी हरीश रावत के साथ चट्टान की तरह जुड़ा रहा ।  बीजेपी ने बीएसपी को अपने पक्ष में करने के लिए हरिद्वार जिला पंचायत अध्यक्ष के लिए समर्थन देने का फैसला भी किया था । लेकिन मायावती ने दूर की खेलकर हरिद्वार पर हामी नहीं भरी। अब तो वहां बीएसपी ने कांग्रेस को समर्थन दे दिया है।

असल में उत्तराखंड की ये हार बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की हार है। बगावत को कांग्रेस का अंदरुनी मामला बताकर बीजेपी ने खुद को भले ही अलग करने की कोशिश हो लेकिन पूरे खेल में बीजेपी बड़ा खिलाड़ी बनना चाहती थी। कैलाश विजयवर्गीय जैसे नेता डेरा जमाकर देहरादून में जमे थे। राष्ट्रपति शासन और स्टिंग का खेल भी इसी मकसद से हुआ था। लेकिन सब बेकार हो गया।
उत्तराखंड में खेल का खराब होना बीजेपी को उत्तर प्रदेश में भारी पड़ सकता है। अगले साल यूपी में चुनाव होने हैं। इस खेल से केंद्र और बीजेपी दोनों की छवि खराब हुई है।
बीजेपी को बाहर से बैठकर तमाशा देखना चाहिए था लेकिन बीजेपी पहले दिन से ही पार्टी बन गई। बागियों को हवाई जहाज में घूमाने से लेकर गुड़गांव में ठहराने तक के पीछे बीजेपी का ही दिमाग था।
मार्च महीने में वित्त विधेयक पर वोटिंग के दौरान 9 विधायक कांग्रेस के बागी हुए थे। 28 को हरीश रावत को बहुमत साबित करना था लेकिन 27 मार्च को केंद्र ने राष्ट्रपति शासन लगा दिया। तर्क दिया गया संवैधानिक संकट, वित्त विधेयक में हार और खरीद फरोख्त के स्टिंग को। लेकिन 21 अप्रैल को उत्तराखंड हाईकोर्ट ने राष्ट्रपति शासन हटाने का आदेश देकर केंद्र सरकार को करारा झटका दिया। वैसे अगले दिन ही सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले पर रोक भी लगा दी थी। सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में बहुमत परीक्षण हुआ और कल सुप्रीम कोर्ट में फैसला हो जाएगा। दो महीने तक चले इस ड्रामे में देवभूमि के कई राजनीतिक रंग देखने को मिले।
विधायक की खरीद फरोख्त करते मुख्यमंत्री का स्टिंग भी सामने आया तो कैमरे में विधायकों को 25-25 लाख देने की बात कहते विधायक का स्टिंग भी बाहर आ गया। कलेक्टर खनन पट्टे के लिए लाख लाख रुपये लेते हैं इस स्टिंग में इसका भी जिक्र हुआ।

कुल मिलाकर दो महीने में देवभूमि की राजनीति की काफी किरकिरी दुनिया भर में हुई। अब सवाल ये है कि कांग्रेस सिम्पैथी के लिए चुनाव में जाने की तैयारी करेगी या फिर हरीश रावत को हटाकर किसी और को सूबे की कमान सौंपेगी या फिर दोनों में से कोई नहीं ? साल भर चलती रहेगी ऐसे ही सूबे की सियासत।  

Monday, April 11, 2016

नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया

पूरे यकीन के साथ कह सकता हूं कि देश में लाखों-करोड़ों लोग ऐसे होंगे जिन्होंने नागा साधुओं को कभी अपनी आंखों से नहीं देखा होगा। जब भी कोई कुंभ होता है नागा साधु चर्चा में आ जाते हैं। इस बार उज्जैन में सिंहस्थ महाकुंभ लग रहा है। और इस बार भी नागा साधु हिंदुओं के इस बड़े उत्सव में आकर्षण का केंद्र हैं।

कुंभ मेले के बाद नागा साधु कहां लुप्त हो जाते हैं, ये सबसे बड़ा रहस्य का विषय है। लेकिन उससे भी रहस्यमयी है इन नागा साधुओं की जिंदगी। नागा साधु बनाने का काम हरिद्वार और उज्जैन के कुंभ में ही होता है। बाकी दोनों जगह इलाहाबाद और नासिक में नए नागा साधु नहीं बनाए जाते। नागा साधु बनने की प्रक्रिया काफी कठिन है। परिवार समाज को त्याग कर इस दुनिया में आने वाले साधुओं को ब्रह्मचर्य का पालन करन होता है। नागा बनाने से पहले ये सुनिश्चित कर लिया जाता है कि वो साधु वासना और इच्छाओं से मुक्त हो चुका है। अखाड़े में जब साधु नागा बनने के लिए आते हैं तो सबसे पहले उनके ब्रह्मचर्य की परीक्षा ली जाती है। इस परीक्षा को पास करने में साधुओं को महीनों से लेकर सालों तक का वक्त लग जाता है। ब्रह्मचर्य की परीक्षा पास होने के बाद उन्हें महापुरुष का दर्जा मिलता है। इसके बाद भी कई कठिन प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद उन्हें अवधूत बनाया जाता है।
इस वक्त ही नागा साधु बनने जा रहे साधुओं को अपना खुद का पिंडदान करना होता है यानी सांसरिक और भौतिक दुनिया से उसे खुद को मुक्त करना होता है। इसके बाद आखिरी दौर होता है। जब अवधूत नागा बनता है। इसके लिए 24 घंटे बिना कपड़ों के अखाड़े के नीचे साधु को खड़ा होना होता है। इसी दौरान वैदिक मंत्रों के जरिये उनके लिंग को अखाड़े के वरिष्ठ साधु झटके देकर निष्क्रिय करते हैं।
और फिर तैयार होता है एक नया नागा। उज्जैन में जो साधु तैयार होते हैं उन्हें खूनी नागा कहा जाता है। यानी वैसे नागा जो धर्म की रक्षा के लिए जान की बाजी लगाने को तैयार रहते हैं। नागा साधु का मतलब होता है बिना कपड़ों के दिखने वाला। बदन को भभूत से लपेटे हुए। रूप रंग डरावना लगता है लेकिन एक अलग सी चमक भी होती है। कपड़ों की जगह नागा साधु भभूत ही शरीर पर लपेटते हैं। जटा वाले बाल। माथे पर लंबा और बड़ा सा चंदन इनका श्रृंगार है।
अमूमन किसी भी नागा को कपड़े पहनने की इजाजत नहीं होती है। लेकिन विशेष परिस्थिति में उन्हें गुरुए कपड़े पहनने की अनुमति दी गई है। 24 घंटे में एक बार ही खाना खाना होता है। एक दिन में सात घर से ज्यादा मांगने की अनुमति भी नहीं होती। यानी सात घरों में भीक्षा नहीं मिलने पर उन्हें भूखे ही सोना पड़ता है। नागा साधु जमीन पर ही सोते हैं।
7 शैव और 3 वैष्णव अखाड़े हैं और सभी अखाड़ों के अपने अपने नागा साधु होते हैं। इनके बीच फर्क करना बड़ा मुश्किल होता है। लेकिन कुंभ के दौरान किसी भी शाही स्नान में सबसे पहले इन्हीं नागाओं को नहाने की अनुमति होती है। नागा साधु के नहाने के बाद ही बाकी लोग नहाते हैं। जिस रास्ते से नागाओं का जुलूस कुंभ में निकलता है उस रास्ते पर आम लोगों के आने जाने की अनुमति नहीं होती।
अमूमन नागा साधुओं को गुस्से के लिए जाना जाता है । हाथ में त्रिशूल, तलवार, शंख, गदा लेकर भ्रमण करते हैं। ज्यादातर नागा साधु जंगल, पहाड़ के इलाकों में रहने चले जाते हैं। बहुत नागा अपने अपने आश्रम में रहते हैं। ज्यादातर समय ये गुप्त ही रहते हैं।
नागा बनने से पहले खुद का तपर्ण और पिंडदान कर देते हैं इसलिए इन्हें सामाजिक रूप से जिंदा नहीं माना जाता। तब ये देश के नागरिक भी नहीं रह जाते। इसीलिए वोटर लिस्ट में इनका नाम दर्ज नहीं होता।
नागा बनने की प्रक्रिया के दौरान ही अपने शरीर को इस कदर तैयार करते हैं कि ताकि. जाड़ा और गर्मी से कोई परेशानी न हो। सड़क पर नागा साधु का दर्शन हिंदू धर्म में सौभाग्य की बात है। इतिहास में नागा साधु बनाने की परंपरा आश्रम, अखाड़ों की रक्षा के लिए की गई थी। लेकिन ये परंपरा अब भी जारी है। उज्जैन सिंहस्थ कुंभ में पचास हजार साधु नागा साधु बनने वाले हैं।

  

Monday, February 1, 2016

15 साल बाद पूरा हुआ हरिओम कुशवाहा का सपना

हरिओम कुशवाहा को मुजफ्फरपुर जिला जनता दल यूनाइटेड का अध्यक्ष बनाया गया है। वैसे तो हरिओम पार्टी में कई अहम पदों पर रह चुके हैं लेकिन अध्यक्ष बनने का सपना 15 साल बाद साकार हुआ है। बात उन दिनों की है जब हरिओम समता पार्टी की युवा इकाई के जिला अध्यक्ष हुआ करते थे। मुजफ्फरपुर में समता पार्टी के जिला अध्यक्ष को लेकर विवाद चल रहा था। एक गुट हरिनारायण सिंह को अध्यक्ष बनाना चाहता था तो दूसरा गुट विश्वजीत कुमार को।
तब डॉक्टर हरेंद्र कुमार मुजफ्फरपुर में पार्टी के सबसे बड़े नेता हुआ करते थे। हरिओम कुशवाहा डॉक्टर साहब के साथ ही थे। डॉक्टर साहब का खेमा हरिनारायण सिंह की अध्यक्ष के पद पर वापसी चाह रहा था लेकिन रघुनाथ झा का खेमा विश्वजीत के अलावा किसी नाम पर मानने को राजी नहीं था। नतीजा हुआ कि जिले में लंबे समय तक दो-दो अध्यक्ष के नेतृत्व में पार्टी काम कर रही थी। उसी दौरान विवाद के बीच में हरेंद्र कुमार समर्थकों ने एक नया गुट खड़ा कर दिया। तब इस तीसरे गुट का उदय हरिओम कुशवाहा के नेतृत्व में हुआ था।
15 साल पहले 7 जुलाई 2001 को सरैयागंज स्थित कमलू भाई के घर पर पार्टी के तमाम प्रकोष्ठों के जिला अध्यक्षों की बैठक हुई। इस बैठक में युवा के अध्यक्ष हरिओम कुशवाहा,  समता सेवा दल के अध्यक्ष शैलेश कुमार शैलू, महिला समता की जानकी श्रीवास्तव, किसान के अध्यक्ष दिग्विजय नारायण सिंह, पिछड़ा के अध्यक्ष दिनेश सहनी,
अल्पसंख्यक के जलील हुसैन, दलित प्रकोष्ठ के अध्यक्ष गोवर्धन पासवान मौजूद थे। इस बैठक में तमाम प्रकोष्ठों के अध्यक्ष ने मिलकर अध्यक्ष मंडल का गठन किया था। इस अध्यक्ष मंडल के प्रमुख बनाए गए थे हरिओम कुशवाहा।
इस बैठक के बाद अगले दिन तमाम अखबारों ने खबर छापी कि मुजफ्फरपुर जिला समता में तीसरे गुट की नींव पड़ी। पार्टी के भीतर संवैधानिक संकट का खड़ा हो गया था। स्थिति ऐसी थी कि पार्टी के तमाम प्रकोष्ठों पर किसी तरह की कार्रवाई की हिम्मत प्रदेश नेतृत्व नहीं जुटा पाया था। लंबे समय तक मुजफ्फरपुर में इस तरह का झगड़ा चलता रहा। बाद में महंथ राजीव रंजन दास को महानगर का अध्यक्ष और विश्वजीत कुमार को जिला का अध्यक्ष बनाकर दोनों गुटों को साधने की कोशिश हुई।
इस बैठक को 15 साल होने वाले हैं और अध्यक्ष की असली कुर्सी तक पहुंचने में हरिओम कुशवाहा को इतना वक्त लग गया। हरिओम कुशवाहा मुरौल प्रखंड के रहने वाले हैं। हरिओम जब समता पार्टी की युवा इकाई के जिला अध्यक्ष थे तब मुरौल में पार्टी की राजनीति इन्हीं के हिसाब से चलती थी। सकरा की राजनीति में पूर्व विधायक सुरेश चंचल कभी हरिओम के करीबी थे। बाद में दोनों की राजनीति की राह अलग हो गई।
जब पार्टी सत्ता में नहीं थी तब पद को लेकर बड़ा संघर्ष हुआ करता था। जिला अध्यक्ष से लेकर महानगर के अध्यक्ष पर सब की सहमति से कभी फैसला नहीं हो पाया। पद को लेकर संघर्ष के उस दौर में हरिओम कुशवाहा जॉर्ज (हरेंद्र कुमार) गुट में हुआ करते थे। जबकि नीतीश कुमार (गणेश भारती) का अपना अलग गुट था। लेकिन हरेंद्र कुमार के पार्टी छोड़ने के बाद जिले की राजनीतिक परिस्थितियां बदल गई। हरिओम कुशवाहा और गणेश भारती उस दौर में एक दूसरे के राजनीतिक विरोधी हुआ करते थे। लेकिन अब पार्टी में न तो जॉर्ज हैं और ना ही हरेंद्र कुमार, लिहाजा हरिओम कुशवाहा को पार्टी ने जिले में गणेश भारती का उत्तराधिकारी बनाया है।

हरिओम कुशवाहा के साथ पार्टी ने उन अमरीश कुमार (कमलू भाई के बेटे) को महानगर का अध्यक्ष बनाया है जो कभी विभात कुमार और माधव जी के वक्त पद को लेकर चल रहे विवाद में अपने लिए तीसरा कोण देखा करते थे। अमरीश युवा इकाई में तब प्रदेश के सचिव, महासचिव हुआ करते थे। बाद में इनसे बहुत जूनियर रहे शब्बीर अहमद को महानगर का अध्यक्ष बना दिया गया। लेकिन विधानसभा चुनाव में जिस तरह से शब्बीर ने पार्टी के फैसलों का विरोध किया उनकी छुट्टी तय मानी जा रही थी।