ब्राह्मणों ने हर चुनाव में एक नया
प्रयोग किया है। इस बार भी ब्राह्मण वोट क्या करेंगे इसको लेकर तमाम पार्टियों के
अपने अपने दावे हैं। कोई भी हिम्मत के साथ ये कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा कि
ब्राह्मणों का वोट उन्हीं की झोली में जाने वाला है।
यूपी में ब्राह्मण वोटरों की संख्या
करीब 10 से 12 फीसदी के आसपास है। 80 में से 20 संसदीय क्षेत्र ऐसे हैं जहां
ब्राह्मण वोटर जीत और हार की तस्वीर तय करते हैं। यही वजह है कि विधानसभा चुनाव
में तमाम पार्टियां ब्राहमणों को लुभाने में जुटी है। कोई ब्राह्मण सीएम की बात कर
रहा है तो कोई ज्यादा टिकट देने की। कोई सोशल इंजीनियरिंग के भरोसे है तो किसी को
सम्मेलनों का सहारा है। कुल मिलाकर ब्राह्मणों के लिए यूपी के नेता व्याकुल हुए
पड़े हैं।
कांग्रेस से होते हुए बीजेपी, बीएसपी
और एसपी तक का सफर ब्राह्मण वोटर तय कर चुके हैं। कांग्रेस की राज्य में स्थिति
वैसी नहीं है कि ये समाज उनपर भरोसा करके आगे बढ़ सके। बीजेपी को लोकसभा चुनाव में
खुलकर इस जाति का समर्थन मिला था। लक्ष्मीकांत वाजपेयी पार्टी के अध्यक्ष हुआ करते
थे। जब से वाजयेपी जी की छुट्टी हुई है पार्टी हिली हुई है। वाजपेयी जी भी ‘कोप
भवन’
में चले गये हैं। वोट के तौर पर कहीं ब्रह्मणों का श्राप न लग जाए इसी डर से पहले
बीजेपी ने राज्यसभा की एकमात्र सीट से इस जाति के नेता शिव प्रताप शुक्ल को दिल्ली
भेजा। फिर तमाम कायदे कानून और नियम फॉर्मूले कलराज मिश्र के सामने फेल हो गये। 75
पार वालों को मंत्रिमंडल से बाहर करने का विचार था लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाई पार्टी।
कलराज मिश्र तो बने ही रहे। चंदौली से सांसद महेंद्र पांडे को भी मंत्री बनाया
गया। इतना ही नहीं मुरली मनोहर जोशी के नाम को राष्ट्रपति की रेस में लाया गया और
अब खबर है कि लक्ष्मीकांत वाजपेयी को पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया जाएगा।
कहने का मतलब ये कि बीजेपी हिली हुई है। पार्टी के सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला
फेल हो जाएगा अगर ब्राह्मणों ने खेल कर दिया तो।
कांग्रेस है तो कही नहीं लेकिन उसे भी
ब्राह्मणों से ही उम्मीद है। कभी प्रियंका गांधी का नाम तो कभी शीला दीक्षित का
नाम। पार्टी के रणनीतिकार प्रशांत किशोर के हवाले से खबरें रोज आती हैं कि
ब्राह्मण चेहरा लाओ। प्रियंका लाओ, राहुल लाओ, वरुण लाओ और अगर इनमें से कोई नहीं
तो फिर शीला दीक्षित ही लाओ। अभी पिछले दिनों खबर आई कि गुलाम नबी ने शीला को
नेतृत्व करने का ऑफर दिया है। शीला दीक्षित इसके लिए तैयार भी है।
15 साल तक दिल्ली की मुख्यमंत्री,
केरल की राज्यपाल और केंद्र में मंत्री रह चुकी शीला दीक्षित पच्चीस तीस साल से
यूपी की सियासत से दूर हैं। लेकिन पार्टी को लगता है कि ब्राह्मण इनके नाम पर भी
मान जाएंगे। शीला दीक्षित कन्नौज से सांसद रही हैं। शीला की ससुराल यूपी में है और
इसी के दम पर कांग्रेस उनको आगे करने की तैयारी में है। इतना ही नहीं पार्टी ने
जितिन प्रसाद जैसे युवा ब्राह्मण चेहरे को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की तैयारी कर रखी
है। जितिन पहले सांसद और केंद्र में मंत्री रहे हैं और राहुल की टीम का हिस्सा
हैं। प्रमोद तिवारी जैसे ब्राह्मण नेता को पिछली बार राज्यसभा भेजने की रणनीति भी
इसी का हिस्सा था।
बीएसपी को उम्मीद है कि ब्राह्मण
सम्मेलन कराकर 2007 वाला सोशल इंजीनियरिंग का फ़र्मूला फिर से चल जाएगा। हाल के
दिनों तक हाशिये पर चल रहे सतीश चंद्र मिश्र की पूछ फिर से बढ़ गई है। 2007 की जीत
के हीरो मायावती से ज्यादा मिश्रा जी ही माने जाते हैं। अभी मिश्रा जी का कार्यकाल
राज्यसभा में पूरा हुआ तो तुरंत उनको रिपीट किया। टिकट देने में भी खास ख्याल रखा
जा रहा है। हाल ही में एक नेता ने सोशल मीडिया पर ब्राह्मणों के बारे में टिप्पणी
कर दी तो उसे तुरंत पार्टी से बाहर कर दिया गया। ये वही बीएसपी है जिसका उदय ही
तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार नारे के साथ हुआ था। लेकिन आज पार्टी कहां
खड़ी है सबके सामने है।
समाजवादी पार्टी की पिछली जीत में इस
समाज का अहम योगदान था। कागज पर सपा की जीत में ब्राह्मणों की चर्चा नहीं होती
लेकिन आंकड़े बताते हैं कि ब्राह्मणों ने मायावती के साथ खेल करके साइकिल की सवारी
कर दी और हाथी की हवा निकल गई। स्वर्गीय जनेश्वर मिश्रा के बहाने पार्टी
ब्राह्मणों को याद दिला रही है कि सत्ता में सबसे ज्यादा सम्मान इसी समाज को मिला
है। समाजवादी पार्टी के राज में ही परशुराम जयंती के मौके पर सरकारी छुटटी का एलान
हुआ था। 2012 में जब फिर सरकार बनी तो अखिलेश इस जाति के 13 लोगों को मंत्री बनाया
था। आगरा में हाल ही में कई घोषित नेताओं का टिकट काटकर ब्राह्मण उम्मीदवार को
टिकट दिया गया् है। आगरा के एक ब्राह्मण नेता को राज्यमंत्री का दर्जा दिया गया
है।
आंकड़ों के मुताबिक 2012 के चुनाव में
19 फीसदी ब्राह्मणों ने सपा और 19 फीसदी ने ही बसपा को वोट दिया था। जबकि 2010 में
सपा को सिर्फ 10 फीसदी वोट मिले थे इस समाज के। 2007 के मुकाबले 2012 में बीएसपी
को 3 फीसदी ज्यादा ब्राह्मणों का वोट तो मिला लेकिन जीत में बदल नहीं पाया। जबकि
2002 में 50 फीसदी ब्राह्मणों ने बीजेपी को वोट किया था। 2007 में घटकर 44 और 2012
में 38 रह गया। 2014 में ये ग्राफ जरूर बेहतर हुआ। कांग्रेस को 2007 में 19 फीसदी
और 2012 में महज 13 फीसदी वोट ब्राह्मणों के मिले थे।
2012 के चुनाव में सबसे ज्यादा बीएसपी ने 74
ब्राह्मण उतारे थे। बीजेपी ने 73, सपा ने 50 और कांग्रेस ने 42 उम्मीदवारों को
टिकट दिया। सपा के 50 में से 21 ब्राह्मण उम्मीदवार जीत गए। जबकि 2007 में बीएसपी
ने 86 ब्राह्मणों को उतारा था और 43 जीते थे। 2012 में इनमें से 20 को टिकट नहीं
देने का खामियाजा भी मायावती को भुगतना पड़ा था।
2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने
15 ब्राह्मणों को टिकट दिया और सभी जीते। जबकि कांग्रेस के 11 में से सिर्फ 2 को
जीत मिली। बीएसपी ने 21 को टिकट दिया और कोई नहीं जीता।
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