Wednesday, July 22, 2015

लालू ही हैं नीतीश के सांप ?

लालू-नीतीश के बीच जो हो रहा है वो आगे भी होना है। नीतीश की राजनीतिक पहचान ही लालू के खिलाफ बनी है। लेकिन राजनीतिक वजूद बचाने के लिए नीतीश को लालू से हाथ मिलाने के लिए मजबूर होना पड़ा। नीतीश के साथ दिक्कत ये है कि उन्होंने लालू से दोस्ती तो कर ली है लेकिन जिन वजहों से 1994 में उन्होंने लालू का साथ छोड़ा था उसमें उन्हें कोई बदलाव नहीं दिख रहा है। इसीलिए समय समय पर नीतीश के मन का भाव किसी न किसी माध्यम से सामने आ रहा है।
चंदन और सांप वाले इस ताजा विवाद में नीतीश को ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं थी। चाहते तो वो लालू के जहर वाले बयान का जिक्र नहीं करते। लेकिन ऐसा लगता है कि डेढ महीने पहले लालू ने उनके लिए जो जहर शब्द का इस्तेमाल किया था उससे वो काफी असहज महसूस कर रहे थे। और जब रहा नहीं गया तो पत्रकारों के सामने मुंह से निकल ही गया।
ट्विटर पर इन दिनों बिहार की जनता से जु़ड़कर नीतीश उनके सवालों का जवाब देते हैं। ऐसा ही एक सीधा सा सवाल उनसे पूछा गया कि चुनाव में लालू के साथ जीत लेते हैं तो बिहार में विकास कैसे करेंगे? इस सवाल का सीधा जवाब इतना भर काफी हो सकता था कि बिहार का विकास ही उनका एकमात्र एजेंडा है। लेकिन इसके आगे उन्होंने रहीम का सांप-चंदन वाला दोहा जोड़ दिया। भाई सवाल सीधा लालू के साथ बिहार के बनाने को लेकर था। जवाब में नीतीश जी ने खुद को चंदन माना। तो सीधा समझ है कि इस लिहाज से उन्होंने लालू को सांप माना। लेकिन नहीं। मानने को तैयार नहीं हैं। भाई नीतीश सार्वजनिक तौर पर ये कैसे मानने को तैयार हो सकते हैं कि उन्होंने लालू के लिए सांप शब्द का प्रयोग किया था ?
मेरे हिसाब से नीतीश को जो बात जहां तक पहुंचानी थी उन्होंन पहुंचा दी है। अब सफाई चाहे नीतीश दें या लालू। पब्लिक को आप ज्यादा दिन तक गफलत में नहीं रख सकते। दोनों की दोस्ती और दुश्मनी की दास्तान बिहार के लोग बखूबी जानते हैं। मजबूरी में दोनों का रिश्ता बना है ये भी किसी से छिपा नहीं है। सार्वजनिक तौर पर दोनों पार्टियों के नेता इसे मानते भी हैं। बिहार की राजनीति को करीब से देखने वाला हर शख्स जानता है कि दोनों नेता अहंकारी स्वभाव के हैं। और दोनों साथ आने के बाद अपने अपने स्वभाव के सामने बेबस हैं।
लोकसभा चुनाव में नीतीश की मजबूरी दिख चुकी है। नीतीश के पास नाम और काम है लेकिन वोट बैंक का आधार नहीं। लालू के पास वोट बैंक का आधार है लेकिन नाम और काम के लिहाज से ठन ठन गोपाल। हां जंगल राज का तमगा लालू के साथ है। और यही जंगल राज के तमगे को नीतीश साथ लेकर घूमने से बच रहे हैं। पोस्टर से लेकर बैनर तक। प्रचार से लेकर साझा प्रचार तक। दोनों अलग राग गा रहे हैं।

प्रचार के तमाम पोस्टरों में सिर्फ नीतीश की तस्वीर दिख रही है। लालू की पार्टी को ये बात खल रही है। लालू खुद नहीं बोल रहे लेकिन रघुवंश बाबू से बोलवा रहे हैं। लेकिन रघुवंश बाबू भी तीस-चालीस साल से नेतागीरी कर रहे हैं उनको भी पता है कि किसके बारे में कितना बोलना है।
27 तारीख को लालू ने जातीय जनगणना आंकड़ों को लेकर बिहार बंद का एलान किया है। अब उसी दिन नीतीश को क्या जरूरत थी सरकार के रिपोर्ट कार्ड जारी करने की। लेकिन नहीं नीतीश ने वही दिन तय किया है। अब इससे सवाल ये भी तो उठेगा ही न कि क्या नीतीश बिहार की धरती पर लालू को मजबूत होते नहीं देखना चाहते। भाई अब अगर लालू मजबूत होंगे तो उसी हिसाब से विधानसभा के लिए सीटों की मांग भी तो होगी। सो कहीं न कहीं मजबूरी की इस दोस्ती में भरोसे की भारी कमी दिख रही है।
23 को लालू मुजफ्फरपुर के मीनापुर जा रहे हैं चुनावी सभा के लिए। ऐसा नहीं है कि मीनापुर में लालू का भरा पूरा जनाधार है। 15 साल से वहां जेडीयू के (अब बागी) दिनेश प्रसाद विधायक हैं। लेकिन लालू जा रहे हैं बिना नीतीश के अकेले प्रचार करने। नीतीश जी भी चार दिन पहले ही पूर्व विधायक अरुण कुमार सिन्हा के श्राद्धकर्म में शामिल होकर मुजफ्फरपुर से आए हैं। अब इफ्तार वाली पार्टी को ही देख लीजिए। नीतीश को दिल्ली आने की क्या जरूरत थी। लेकिन लालू की इफ्तार छोड़कर वो दिल्ली सोनिया की इफ्तार में शामिल हुए। नीतीश जान चुके हैं कि मुस्लिम वोट के पीछे भागेंगे तो हिंदू वोट फिर लोकसभा चुनाव की तरह एकतरफा हो जाएगा। सो लालू की पॉलिटिक्स अपने हिसाब से है और नीतीश की अपने हिसाब से।
विधान परिषद चुनाव में साथ लड़कर मिली हार को भले नीतीश ने सार्वजनिक तौर पर नहीं माना लेकिन अंदर से उन्हें बिहार के मूड का अंदाजा हो गया है।
परसों पटना में सत्येंद्र बाबू वाले कार्यक्रम में जिस अंदाज में नीतीश को लालू ने बिठाकर बेइज्जतकिया उससे भी नीतीश खेमे में खलबली देखी जा रही है। सात बार मंच से लालू ने बताया कि नीतीश आज उनकी वजह से ही सीएम हैं। नीतीश के करीबी मेरे एक मित्र ने बताया कि इससे नीतीश जी काफी असहज हुए थे। नीतीश की खासियत है कि परेशानी वो जाहिर नहीं होने देते लेकिन अंदर ही अंदर अपना काम करते रहते हैं ।
अनंत सिंह और सुनील पांडे की गिरफ्तारी का श्रेय भी जिस तरीके से लालू ने लिया उससे नीतीश खासे परेशान हुए थे। नीतीश के करीबी मेरे मित्र ने बताया कि इससे बिहार में सरकार के खिलाफ गलत संदेश जा रहा है। माना जाने लगा है कि बिहार में सरकार नीतीश नहीं बल्कि लालू चला रहे हैं। जबकि नीतीश बार बार सुशासन और विकास को अपना एजेंडा बताते फिर रहे हैं। लालू के बयानों से नीतीश के सुशासन में पलीता लग चुका है। नीतीश डेंट को सेट करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन आसान नहीं रहने वाला। जहां तक सांप और जहर का सवाल है तो नीतीश के लिए भी सांप जैसे शब्दों का इस्तेमाल हो चुका है।

Monday, July 13, 2015

ओबीसी पॉलिटिक्स का सच क्या है ?


बिहार में चुनाव होने हैं सो ओबीसी वोट बैंक को लेकर खूब राजनीति हो रही है। बाजेपी अपने आप को ओबीसी का मसीहा बनाकर पेश करना चाह रही है लेकिन लालू नीतीश बीजेपी के दावे की हवा निकालने में जुटे हैं। असल में ओबीसी वोट की राजनीति इसलिए हो रही है क्योंकि बिहार में इसकी कुल आबादी करीब पचास फीसदी के आसपास है। लालू और नीतीश दोनों पिछड़े वर्ग की राजनीति करते हैं । बैक वार्ड में लालू यादवों की राजनीति करते हैं जिसकी आबादी बाकी जातियों से ज्यादा है। नीतीश कुर्मी बिरादरी से आते हैं जिसकी आबादी 5 फीसदी से कम है। हाल के दिनों तक नीतीश को कुर्मी-कोइरी दोनों बिरादरी का नेता माना जाता था लेकिन अब पहले वाली बात नहीं है। कोइरी वोट नीतीश से छिटक चुका है। बाकी जातियों की बात करने से पहले आते हैं विवाद पर।
बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि बीजेपी ने देश को पहला
ओबीसी पीएम दिया। इसके जवाब में पहले नीतीश कुमार ने फिर लालू यादव ने कहा है कि सबसे पहले ओबीसी पीएम देवेगौड़ा थे जिन्हें हमलोगों ने बनाया।
 जबकि हकीकत ये है कि देवेगौड़ा जब पीएम बने तब नीतीश बीजेपी के साथ थे। 8 सांसदों वाली समता पार्टी के नेता तब जॉर्ज फर्नांडीस हुआ करते थे। देवेगौड़ा को पीएम बनाने या बनवाने में किसी तरह का योगदान नीतीश जी का नहीं था। 
1996 में जब देवेगौड़ा पीएम बने तब नीतीश कुमार समता पार्टी में थे और बीजेपी से तालमेल कर पहला चुनाव उन्होंने लड़ा था। उसी दौरान वाजपेयी जी की तेरह दिन की सरकार बनी थी। जिसके गिरने पर देवेगौड़ा पीएम बने थे। देवेगौड़ा जब पीएम बने तब कर्नाटक के सीएम थे। राष्ट्रीय मोर्चे में जनता दल सबसे बड़ी पार्टी थी जिसके 26 सांसद थे। लालू यादव तब इसके अध्यक्ष थे। पीएम के लिए देवेगौड़ा के नाम पर सहमति बनने के पीछे कई तरह की चर्चा होती है। देवेगौड़ा तब कहीं से भी रेस में नहीं थे। वाजपेयी की सरकार गिरने के बाद सरकार बनाने में जुटे संयुक्त मोर्चे (राष्ट्रीय मोर्चा+लेफ्ट मोर्चा) के नेताओं की तब भी पहली पसंद वीपी सिंह ही थे। मोर्चे के नेता वीपी सिंह के पास पीएम बनने का प्रस्ताव लेकर गये थे। लेकिन कहा जाता है कि वीपी सिंह तैयार नहीं थे। उन्होंने तब प. बंगाल के सीएम ज्योति बसु का नाम सुझाया था। लेकिन वीपी सिंह को मनाने के लिए मोर्चे के नेता जब वीपी सिंह के घर गये तो उस दिन अपनी गाड़ी में बैठकर वीपी सिंह दिल्ली के रिंग रोड पर चक्कर काट रहे थे । और घर नहीं गये। हारकर मोर्चे के नेता लौट गये। ज्योति बसु के नाम पर अपनी पार्टी से मुहर नहीं लगी थी। लालू ने खुद का नाम आगे करवाने की भरपूर कोशिश की लेकिन कामयाबी नहीं मिली। बिहार निवास की बैठक में उनकी पार्टी और उनके स्वजातियों लोगों ने ही हामी नहीं भरी। इसके बाद ज्योति बसु के सुझाए गए देवेगौड़ा के नाम पर मुहर लगी। कहा जाता है कि यादव बिरादरी के नेताओं में ही इस बात को लेकर अंदर ही अंदर ये चलने लगा था कि वो हमसे बड़ा नेता बन जाएगा। 
मतलब ये कि देवेगौड़ा कोई सबकी पसंद से और आसानी से पीएम नहीं बने थे। जब किसी के नाम पर बात नहीं बनी तो देवेगौड़ा को बना दिया गया। इसके बाद फिर अगले साल 1997 में जब कांग्रेस की जिद पर देवेगौड़ा हटे तो ओबीसी राजनीति करने वाले नेताओं में ही राय नहीं बनी। मुलायम सिंह यादव तब पीएम बन गये होते अगर लालू यादव ने विरोध नहीं किया होता। लालू के विरोध की बात खुद मुलायम भी कबूल चुके हैं।
कहने का मतलब ये कि देवेगौड़ा मजबूरी के प्रधानमंत्री थे। लालू को मजबूरी में उनके नाम पर मानना पड़ा था। नीतीश की कोई भूमिका भी नहीं थी। हां बिहार में दोनों जरूर ओबीसी के क्षत्रप हैं। लेकिन इस बार के चुनाव में इनकी अग्निपरीक्षा होनी है। लोकसभा चुनाव में ओबीसी वोटरों ने भी इन दोनों को नकार दिया था। नतीजा हुआ कि बीजेपी के लालू-नीतीश का कुनबा (अलग अलग लड़कर) 9 पर सिमट गया था।
लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 19 फीसदी यादवों ने, 26 फीसदी कुर्मी-कोइरी, 63 फीसदी अत्यंत पिछड़ी जाति के वोट मिले
थे। नीतीश को अत्यंत पिछडी जाति के महज 18 और महादलितों क 25 फीसदी वोट मिले थे। 
लालू के जिस ग्रिप में फंसकर नीतीश पिछ़ड़ों की गोलबंदी की राजनीति कर रहे हैं उससे लालू को तो फायदा हो रहा है लेकिन नीतीश को इसका लगातार नुकसान उठाना पड़ रहा है। आगे भी उन्हें उठाना पड़ेगा। बीजेपी ने अपना ओबीसी दांव इसीलिए चला है ताकि लोकसभा वाले वोट के आंकड़े को और ज्यादा बढ़ाया जा सके। 
लेकिन बीजेपी के इस दांव से पार्टी को नुकसान भी हो सकता है। अमित शाह के ओबीसी वाले बयान का एक संकेत ये भी है कि बिहार में मुख्यमंत्री इसी वर्ग से आएगा। यानी लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 78 फीसदी वोट देने वाले सवर्ण समाज का पत्ता उन्होंने अपने एक बयान से साफ कर दिया है। तो क्या गिरिराज सिंह, सीपी ठाकुर, रविशंकर प्रसाद, शत्रुघन सिन्हा, राजीव प्रताप रूडी, राधा मोहन सिंह, अश्विनी चौबे जैसे नेताओं के लिए सीएम का पद सपना हो सकता है।   
लोकसभा की 40 सीटों में से बीजेपी गठबंधन को 31 और बाकी को 9 सीटें मिली थी। जाति का गणित देखें तो सवर्ण जातियों के सांसदों की संख्या 14 ( राजपूत-6, भूमिहार-4, ब्राह्मण-3, कायस्थ-1) है। जो कि सब के सब एनडीए से ही हैं।  पिछडी जाति के 16 उम्मीदवार जीते थे। इनमें से 10 एनडीए के हैं। बाकी के 6 लालू-नीतीश-कांग्रेस पार्टी से हैं। 4 मुस्लिम और 6 सुरक्षित सीटों वाले सांसद हैं।  
अमित शाह के बयान को अगर आधार मान लें तो फिर सुशील कुमार मोदी की राह सीएम की कुर्सी के लिए आसान हो जा रही है। लेकिन दिक्कत ये है कि सुशील मोदी बीजेपी को बिहार भर में जिता नहीं सकते। वैश्य वोटबैंक बीजेपी का आधार वोटबैंक जरूर है लेकिन इस समाज के वोटर आक्रमक होकर वोट नहीं दे पाते। इसलिए पार्टी सीएम उम्मीदवार घोषित कर चुनाव लड़ने का रिस्क नहीं लेने वाली है। 

Friday, July 10, 2015

क्यों इस जीत में भी बीजेपी की हार है ?

इस परीक्षा में भी नीतीश फेल हो गए। लेकिन बीजेपी के लिए भी ज्यादा उत्साहित होने की जरूरत नहीं है। ऐसा क्यों कह रहा हूं इसका विश्लेषण आगे पढ़िएगा। पहले फैक्ट सीट को देख लीजिए।  विधान परिषद के इस चुनाव को आने वाले विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा था। और इस सेमीफाइनल में नीतीश लालू की दोस्ती को बिहार ने नकार दिया । 24 में से अकेले बीजेपी ने 12 सीटें (बेगूसराय सीट लेकर) जीती और सहयोगी एलजेपी के खाते में सहरसा की एक सीट आई। जबकि महागठबंधन में नीतीश की पार्टी को 5, लालू की पार्टी को 4 और कांग्रेस के खाते में 1 सीटें आई। दोनों गठबंधन में एक-एक पार्टी का खाता नहीं खुला। एनडीए में जहां उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी 2 सीटों पर लड़ी थी और दोनों हार गई वहीं महागठबंधन में कटिहार की सीट एनसीपी हार गई। पटना की सीट निर्दलीय रीतलाल यादव ने जीती है। (बेगूसराय का परिणाम ब्लॉग लिखे जाने तक आधिकारिक तौर पर घोषित नहीं है)

पिछली बार इन 24 सीटों में से नीतीश की पार्टी के पास 16 सीटें थी। लालू के पास 3 और बीजेपी के पास महज 5 सीटें थी। लेकिन बीजेपी 5 से 12 तक पहुंच गई और नीतीश 16 से 5 पर आ गए।
महागठबंधन में लालू-नीतीश की पार्टी 10-10 सीटों पर लड़ी थी। जबकि 3 सीटों पर कांग्रेस और एक पर एनसीपी का उम्मीदवार था। एनडीए की बात करें तो बीजेपी ने 18 पर उम्मीदवार उतारे थे । एलजेपी 4 और कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी 2 सीटों पर लड़ी थी। पहली बार बिहार में विधान परिषद का ये चुनाव इस तरह से पार्टी लाइन पर लड़ा गया था। नेताओं ने प्रचार में जमकर पसीना बहाया और बीजेपी का ये पसीना काम आया।
नतीजे इसलिए अहम है क्योंकि दो-तीन महीने बाद विधानसभा के चुनाव होने हैं। और इस विधान परिषद के चुनाव में वही लोग वोटर होते हैं जो किसी न किसी तरह का चुनाव जीतकर आये होते हैं। मसलन मुखिया, पंचायत समिति के सदस्य, शहरी और ग्रामीण इलाकों के वार्ड मेंबर। जिला परिषद के सदस्य, विधायक और सांसद। ये वही लोग हैं जिनका अपने इलाकों में प्रभाव होता है। या फिर यूं कहें कि जो अपने इलाकों में वोटरों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। इस लिहाज से इस जीत को नीतीश-लालू की दोस्ती के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता।
बीजेपी जहां 5 से 12 पर पहुंच गई है। वहीं पार्टी के लिए अच्छी बात ये भी रही कि उन इलाकों में फिर से जीत मिली है जहां से लोकसभा चुनाव में अच्छे परिणाम नहीं मिले थे। बिहार के सीमांचल का इलाका जहां मुस्लिम सीटों की बहुलका है वहां से पूर्णिया, कटिहार जैसी सीटें पार्टी ने फिर जीत ली है। लोकसभा चुनाव में पूर्णिया से पप्पू सिंह और कटिहार से निखिल चौधरी जैसे दिग्गज हार गये थे। पूर्णिया-अररिया-किशनजगंज संयुक्त सीट से दिलीप जायसवाल फिर जीते हैं तो कटिहार से बीजेपी समर्थित अशोक अग्रवाल जीते हैं। सहरसा-सुपौल-मधेपुरा की सीट एलजेपी ने जीती है। नीतीश की पार्टी के बागी हुए नीरज कुमार बबलू की पत्नी को एलजेपी ने उम्मीदवार बनाया था।
इस बड़ी जीत में बीजेपी के लिए बुरी खबर भी है। बुरी खबर ये रही कि पार्टी अपनी सीटिंग दो सीटें सीतामढ़ी और गया हार गई। सीतामढ़ी से वैद्यनाथ प्रसाद की जगह इस बार देवानंद साह को टिकट दिया था। देवानंद आरजेडी के दिलीप राय के हाथों हार गये। गया की सीटिंग सीट से अनुज सिंह जीते थे। इस बार जेडीयू उम्मीदवार के हाथों हार गईं। अनुज कुमार सिंह सुशील मोदी के करीबी थे। 
 इससे भी बुरी खबर ये रही कि जिस नवादा सीट से जीतकर बीजेपी के गिरिराज सिंह सांसद और केंद्र में मंत्री तक बने। उस नवादा की सीट से बीजेपी की हार हो गई है। बक्सर के सांसद अश्विनी चौबे भी अपने संसदीय क्षेत्र से जुड़ी भोजपुर की सीट एनडीए की झोली में नहीं डाल सके। यहां से एलजेपी ने बाहुबली जेडीयू विधायक सुनील पांडे के भाई हुलास पांडे को उतारा था। हुलास पांडे अभी इस सीट से जेडीयू के सीटिंग विधायक थे।
जिस मुजफ्फरपुर से पीएम नरेंद्र मोदी बिहार में विधानसभा चुनाव अभियान शुरू करने जा रहे हैं उस सीट से तो बीजेपी हारी ही है आसपास की तमाम सीटें भी हार गई। तिरहुत में कुल 6 जिले हैं और विधान परिषद की 5 सीटें। लेकिन 4 सीटें बीजेपी हार गई है। मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी, वैशाली और पश्चिमी चंपारण की सीट महागठबंधन के खाते में चली गई है। मुजफ्फरपुर में तो पार्टी के उम्मीदवार को 6 हजार में से महज तीन सौ के आसपास वोट ही मिले। जेडीयू के दिनेश सिंह तीसरी बार जीते हैं। इनकी पत्नी बीजेपी की विधायक हैं। दिनेश सिंह के नामांकन में नीतीश मुजफ्फरपुर गये थे।
इस बड़ी जीत में बीजेपी के लिए खतरे का सिग्नल भी है। तिरहुत में विधानसभा की 49 सीटें हैं और विधानसभा क्षेत्र के हिसाब से ये राज्य का सबसे बड़ा इलाका है। 2010 के विधानसभा चुनाव में तिरहुत की 49 सीटों में से बीजेपी को 21 और जेडीयू को 24 सीटें मिली थी। 1 सीट लालू को और बाकी की 3 सीटें निर्दलीय ने जीती थी।
राम विलास पासवान के संसदीय क्षेत्र वैशाली से एनडीए की हार हुई है यहां से आरजेडी उम्मीदवार सुबोध राय जीते हैं। सिर्फ कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ही अपने मोतिहारी से पार्टी को जीत दिलवा सके। लोकसभा चुनाव में तिरहुत की सभी 8 सीटें एनडीए ने जीती थी।
जिस पटना से रविशंकर प्रसाद, रामकृपाल यादव जैसे नेता केंद्र में मंत्री हैं उस पटना की सीट लालू-नीतीश के खाते में तो नहीं गई लेकिन बीजेपी भी नहीं जीती। निर्दलीय और बाहुबली रीतलाल यादव ने ये सीट जीती है। रीतलाल यादव वही बाहुबली है जिससे लोकसभा चुनाव के वक्त समर्थन मांगने लालू ने अपने दूत को जेल भेजा था। और चुनाव के दौरान उसे पार्टी का महासचिव तक बना दिया था। लेकिन बागी होकर रीतलाल लड़े और जीत गये।
लालू अपने यादवों के गढ़ में टिक नहीं पाए हैं। छपरा, सीवान और गोपालगंज। सारण की ये तीनों सीटें बीजेपी ने जीती हैं। सारण से ही राबड़ी देवी लोकसभा का चुनाव हारी थीं। और गोपालगंज लालू का गृह जिला है। मुस्लिम बहुल इलाके में महागठबंधन को कामयाबी नहीं मिली। सीमांचल में तो बुरा हाल हुआ ही है । मिथिलांचल में भी महागठबंधन का सूपड़ा साफ हो गया है। दरभंगा, मधुबनी और समस्तीपुर सीट बीजेपी ने जीती है। नीतीश अपना किला बचाने में जरूर कामयाब रहे। नालंदा में एलजेपी के रंजीत डॉन हार गए और जेडीयू ने ये सीट अपने नाम की।
23-24 साल तक बिहार में विधान परिषद के स्थानीय प्राधिकार वाली सीटों पर चुनाव नहीं हुए थे। 2003 में चुनाव कराए गए थे जिसके बाद 2009 और अब 2015 में चुनाव कराये गए । आगे एक साथ इन 24 सीटों पर चुनाव होंगे या नहीं कहा नहीं जा सकता। क्योंकि नियम के हिसाब से उपरी सदन की सभी सीटें एक साथ खाली नहीं हो सकती। जबकि दो दशक तक चुनाव नहीं होने की वजह से इन 24 सीटों पर फिलहाल ये नियम लागू नहीं हो पा रहा। हाईकोर्ट में मामला है। बहुत मुमकिन है कि इन जीते लोगों में से किसी का 2 साल का किसी का 4 साल का और किसी किसी का 6 साल का कार्यकाल होगा। अब किसकी किस्मत 6 साल वाली होगी अभी कह नहीं सकते।

Tuesday, July 7, 2015

बिहार में भूमिहारों का वोट किसे मिलेगा ?

बिहार में आज भले ही दोनों गठबंधन जाति को बड़ा मुद्दा नहीं होने की बात कह रही है। लेकिन हकीकत ये है कि पूरा राजनीतिक ताना बाना एक बार फिर से जातियों के आसपास ही बुना जा रहा है। 2010 के चुनाव में जाति का भेदभाव विकास के सामने ढेर हो गया था। नतीजा हुआ कि उस चुनाव में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन को 243 में से 206 सीटों पर जीत मिली। कोई भी पार्टी विपक्ष बनने के काबिल नहीं रह गई थी। ऐसा संभव इसलिए हुआ था क्योंकि तब जाति कोई चुनावी मुद्दा रह ही नह गया था। विकास के भूखे बिहार ने नीतीश में विश्वास जताया और रिकॉर्ड सीटें झोली में डाल दी।
लेकिन आज फिर बिहार में जाति की राजनीति की वापसी हो गई है। नेताओं की बयानबाजी, जातीय सम्मेलन, जातीय गोलबंदी, जाति के हिसाब से ट्रांसफर-पोस्टिंग, जाति के हिसाब से पद, कद और कार्रवाई। इतने सारे उदाहरण सामने हैं कि इस सच को झुठलाने की कोई हिम्मत नहीं कर सकता।
विजय चौधरी के साथ नीतीश कुमार (फाइल फोटो)
नीतीश कुमार ने भले ही विकास की राजनीति की है। लेकिन उन्होंने अपनी राजनीति में जातीय समीकरण का ख्याल हर कदम पर रखा है। नब्बे के दशक में लालू की राजनीति के शिकार मास लेवल पर सवर्ण समुदाय के लोग हुए थे। इसमें भी भूमिहार समाज उनका पहला टारगेट था। यही वजह रही कि नीतीश के सत्ता में आने के बाद भूमिहारों का खास ख्याल रखा गया। ललन सिंह तब सिर्फ पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नहीं थे। बल्कि बिहार की राजनीति उनके दरवाजे से होकर नीतीश तक पहुंचती थी। ललन सिंह जब नीतीश से दूर हुए तो विजय चौधरी ने वो जगह ली। आज भी विजय चौधरी सरकार में नीतीश के बाद नंबर टू की हैसियत रखते हैं।  वकील से नेता बने पीके शाही को नीतीश ने न सिर्फ मंत्री बनाया बल्कि लाख विरोध के बाद भी सरकार में अहम जिम्मेदारी दी। बाद में भी नाराज ललन सिंह को पार्टी में लेकर आए और मंत्री तक बनाया। अभयानंद को राज्य का पुलिस प्रमुख बनाना भी इसी राजनीति का हिस्सा रहा है। चंद्र भूषण राय को भोजपुरी अकादमी का चेयरमैन बनाया गया। बाहुबलियों के सामने नतमस्तक होने की तस्वीर सालों से सोशल मीडिया में चर्चा का विषय बनी हुई है।
कुल मिलाकर कहानी ये है कि नीतीश आज भी भूमिहार वोटरों में अपना भरोसा तलाश रहे हैं। लेकिन दिक्कत ये है कि लालू के साथ जाने को लेकर ये समाज नीतीश को पसंद नहीं कर रहा।
नीतीश भूमिहारों में भरोसा तलाश रहे हैं तो बीजेपी इसे अपना पारंपरिक वोट बैंक मानकर चल रही है। वैसे नीतीश की दिलचस्पी से बीजेपी के नेता भयभीत भी दिख रहे हैं। गिरिराज सिंह को केंद्र में मंत्री बनाना बीजेपी की भूमिहार रणनीति का हिस्सा ही तो है।
हाल ही में मुख्यमंत्री पद पर दावा करने वाला सीपी ठाकुर का बयान ऐसे ही सामने नहीं आया था। असल में बीजेपी को इस बात का डर तो है ही कि नीतीश की पार्टी विधानसभा चुनाव में अपने गठबंधन में वही रोल निभाने वाली है जो नीतीश के साथ गठबंधन में बीजेपी निभाती रही है। यानी सवर्णों की राजनीति तुम और पिछड़ों की हम।
लोकसभा चुनाव में गठबंधन टूटने का नतीजा ये हुआ कि न तो नीतीश के साथ पिछड़ी जाति के वोटर रहे और ना ही अगड़ों का साथ मिला। इसी के बाद से नीतीश की राजनीति की दिशा बदली। मांझी को मुख्यमंत्री बनाने के पीछे मंशा ये थी कि महादलितों में जो उनका बेस है उसे फिर से साथ लाया जाए। लेकिन महालदित बेस वापस जुटाने की मुहिम मात खा गई मांझी की एंटी फॉरवार्ड पॉलिटिक्स से। नतीजा हुआ कि मांझी गए और नीतीश फिर से आए।
लोकसभा चुनाव में नीतीश ने 38 में से ( 2 सीटें लेफ्ट को ) सवर्णों को कुल 9 टिकट दिये थे। इनमें सबसे ज्यादा चार भूमिहारों को,  2 राजपूत  2 ब्राह्ण, 1 कायस्थ को टिकट मिला। एनडीए ने कुल 5 भूमिहारों को उम्मीदवार बनाया था। 3 बीजेपी से 1-1 पासवान और कुशवाहा की पार्टी से। बीजेपी के 1 उम्मीदवार को छोड़कर एनडीए के बाकी 4 भूमिहार उम्मीदवार जीते थे। इनमें से जहानाबाद और मुंगेर में मुकाबला भूमिहार उम्मीदवारों के बीच ही रहा।
जहां तक विधायकों की बात है तो 2010 के चुनाव में कुल 26 भूमिहार विधायक बने थे। इनमें से जेडीयू के 12 और बीजेपी से 14 विधायक जीते। फिलहाल उपचुनाव में दो विधायकों के जीतने और एक सीटिंग(अवनीश कुमार सिंह) के इस्तीफे के बाद आंकड़ा 27 का है अभी। जबकि 2005 में ये आंकड़ा 23 था। 1990 में लालू जब पहली बार सत्ता में आए तब बिहार में भूमिहार विधायकों की संख्या 34 थी। लेकिन 5 साल बाद 1995 में आंकड़ा 18 पर आ गया। और साल 2000 में सिर्फ 19 भूमिहार ही जीत पाए थे।
कहने का मतलब ये कि कभी बिहार की राजनीति के केंद्र में रहने वाले भूमिहार समुदाय की राजनीति का दौर लालू-राबड़ी राज में सिमट कर रह गया था। लेकिन नीतीश के आने के बाद भूमिहारों का ग्राफ बढ़ा है।
मुन्ना शुक्ला, अनंत सिंह, धूमल सिंह, सुनील पांडे
अभी तक की जो रणनीति है उसके हिसाब से तमाम भूमिहार बाहुबलियों का टिकट मिलना जेडीयू से तय माना जा रहा है। पार्टी के सूत्र बताते हैं कि जेल जाने के बाद भी अनंत सिंह मोकामा से लडेंगे। लालगंज से मुन्ना शुक्ला की पत्नी अन्नू शुक्ला, रुन्नी सैदपुर से राजेश चौधरी की पत्नी गुड्डी चौधरी, मटिहानी से बोगो सिंह, दरौंधा से अजय सिंह की पत्नी कविता सिंह, एकमा से बाहुबली धूमल सिंह का जेडीयू से लड़ना फाइनल है।
तरारी से बाहुबली सुनील पांडे विधायक हैं । इस सीट से इस बार भोजपुरी अकादमी के अध्यक्ष चंद्रभूषण राय भी दावेदारी जता रहे हैं । बीजेपी भी ज्यादातर सीटिंग भूमिहार विधायकों को टिकट देगी। लोक जन शक्ति पार्टी भी दलितों के बाद भूमिहार नेताओं पर ही ज्यादा से ज्यादा दांव लगाने वाली है। वोट बैंक के लिहाज से बिहार में इसकी आबादी महज पांच फीसदी के आसपास है। लेकिन इसका प्रभाव बारह से पंद्रह फीसदी वोट बैंक पर पड़ता है। धन और बाहुबल में भी समाज सबसे आगे है। यही वजह है कि जेडीयू और बीजेपी, दोनों गठबंधन इस वोट बैंक को साधने की तैयारी कर रही है।
मंत्री ललन सिंह के साथ पीके शाही
राष्ट्रकवि दिनकर की जयंती के बहाने पीएम का कार्यक्रम, बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की जयंती का कार्यक्रम या फिर आरएलएसपी के सांसद अरुण कुमार का नीतीश पर दिया गया छाती तोड़ने वाला बयान । इन सबके पीछे भूमिहार वोट को अपने पाले में करने की रणनीति हैं।
अनंत सिंह भले ही भूमिहारों के नेता नहीं हैं लेकिन उनके बहाने समाज को प्रताड़ित करने का आरोप लगाना एनडीए की उसी रणनीति का हिस्सा है जिसमें वो नीतीश को भूमिहार विरोधी साबित करना चाहता है। कमोबेश इस मुहिम में एनडीए को कामयाबी भी मिल रही है।
भूमिहार विधायक सुरेश शर्मा (बीजेपी) के कब्जे वाले मुजफ्फरपुर से पीएम का चुनावी शंखनाद करना भी इसी रणनीति का हिस्सा हो सकता है। लोकसभा चुनाव में भूमिहारों का वोट कमोबेश एकतरफा एनडीए को मिला था। भूमिहार राजपूत, ब्राह्मण और कायस्थ यानी तमाम सवर्णों की बात करें तो 78 फीसदी सवर्णों ने एनडीए उम्मीदवारों के पक्ष में वोट दिये थे। लालू के कार्यकाल में राजपूत समाज सत्ता के करीब था पर नीतीश के समय वो दूर रह गया। राजपूतों के एक बड़े तबके में नीतीश को लेकर खुन्नस है। लेकिन लालू (रघुवंश, प्रभुनाथ, जगदानंद) की वजह से लोकसभा चुनाव के वक्त जितने वोट मिले थे उतने इस बार भी मिल सकते हैं। बाकी वोट एनडीए को मिलेंगे।
वैसे इस भूमिहार पॉलिटिक्स के साइड इफेक्ट भी हैं। बीजेपी में जहां सुशील मोदी की निजी तौर पर पार्टी के भूमिहार नेताओं से पटती नहीं है वहीं सुशील मोदी खेमा भूमिहार नेताओं को पसंद नहीं करता। सुशील मोदी की वजह से ही बीजेपी के सबसे पुराने विधायकों में से एक अवनीश कुमार ने पार्टी छोड़ दी। बड़े नेता चंद्र मोहन राय ने लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी के पदों से इस्तीफा दे दिया । 2010 के चुनाव में सीपी ठाकुर के लाख चाहने पर उनके बेटे विवेक को उम्मीदवारी नहीं मिली। ठाकुर को दोबारा अध्यक्ष भी नहीं बनने दिया। गिरिराज सिंह बेगूसराय से लड़ना चाहते थे लेकिन उन्हें उनकी मर्जी के खिलाफ नवादा लड़ने भेजा गया।
लोक जन शक्ति पार्टी में सूरजभान की छवि बाहुबली नेता की है। उनके चाहने वाले जितने लोगों को पार्टी टिकट देगी उनकी छवि को लेकर भी सवाल उठेंगे सो अलग। आरएलएसपी में भले ही भूमिहार जाति के अरुण कुमार पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष हैं। लेकिन इस पार्टी का उदय ही भूमिहार राजनीति के खिलाफ हुआ था।। कभी नीतीश के खास रहे उपेंद्र कुशवाहा जो कि आरएलएसपी के अध्यक्ष हैं वो चाहते थे कि सरकार और संगठन में उन्हें वही रुतबा मिले जो ललन सिंह को मिल रहा था। पर ऐसा हुआ नहीं। नतीजा जब जब ललन सिंह नीतीश के साथ रहे कुशवाहा ने अपना अलग कुनबा बनाया। अरुण कुमार भी इसी दोस्ती के सताए माने जाते हैं। नीतीश के सत्ता में आने के बाद कोइरी नेताओं को समस्या ये हो गई थी कि भूमिहार और कुर्मी से ज्यादा वोट होने के बाद भी उन्हें सरकार में वो रुतबा रुआब हासिल नहीं हो रहा था जो कथित तौर पर भूमिहार नेताओं को मिल रहा था। इन दिनों नीतीश के खिलाफ राजनीति करने वाले कुर्मी-कोइरी नेता अपने समाज में यही बात पेश कर रहे हैं। यही वजह रही कि उपेंद्र कुशवाहा, भगवान सिंह कुशवाहा, नागमणि, दिनेश प्रसाद जैसे बड़े कोइरी नेता एक एक कर नीतीश का साथ छोड़ते चले गए।
फिलहाल बिहार में भूमिहारों की राजनीति को ऐसे समझिए। सरकार में नंबर दो विजय चौधरी के जरिये नीतीश इस समाज की राजनीति कर रहे हैं। अपनी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सह जहानाबाद के सांसद अरुण कुमार के जरिये उपेंद्र कुशवाहा अपनी राजनीति कर रहे हैं। पासवान के पास बाहुबली राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सूरजभान हैं। कांग्रेस के पास पूर्व केंद्रीय मंत्री अखिलेश सिंह हैं। जॉर्ज के करीबी रहे डॉक्टर हरेंद्र कुमार के जरिये लालू इस समाज पर डोरे डाल रहे हैं। जहां तक बीजेपी का सवाल है तो केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह और पूर्व केंद्रीय मंत्री सीपी ठाकुर के जरिये इस समाज को साधने की कोशिश हो रही है।
वैशाली, मुजफ्फरपुर, बेगूसराय, लखीसराय, मुंगेर, जहानाबाद, नवादा जिलों के साथ ही पटना जिले के एक बड़े हिस्से में भूमिहार वोटरों की संख्या सबसे ज्यादा है। तिरहुत के इलाके से सबसे ज्यादा भूमिहार विधायक पिछली बार जीते थे। कोसी और मिथिला (1-1सीट छोड़कर ) के इलाके को छोड़ कर राज्य के हर हिस्से से पिछली बार भूमिहार विधायक जीते थे।
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Friday, July 3, 2015

पीएम मोदी का मुजफ्फरपुर प्लान

25 तारीख को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिहार के मुजफ्फरपुर से चुनाव अभियान की शुरुआत करने वाले हैं। उसी मुजफ्फरपुर से जहां उन्होंने लोकसभा चुनाव के वक्त पटना बम ब्लास्ट के बाद बिहार में अपनी पहली सभा की थी। उस रैली से मोदी ने पहली बार पिछड़ों की राजनीति का संदेश दिय था। मंच पर रामविलास पासवान, उपेंद्र कुशवाहा और कैप्टन जयनारायण निषाद पहली बार एक साथ आये थे। इसी रैली ने बिहार की राजनीति में बीजेपी को पिछड़ों की राजनीति से जोड़ने का काम किया था। इस बार भी मुजफ्फरपुर में पीएम की पहली सभा के कई मायने हैं। 
मुजफ्फरपुर शहर उत्तर बिहार की राजधानी के रूप में जानी जाती है । और ये शहर राजनीतिक रूप से जागरूक भी है। खुदीराम बोस, जुब्बा साहनी, राजेंद्र बाबू, दिनकर, रामवृक्ष बेनीपुरी, जेबी कृपलानी, रामदयालु बाबू, लंगट सिंह, श्याम नंदन सहाय, जानकी वल्लभ शास्त्री , जॉर्ज फर्नांडिस जैसी शख्सियतों के नाम के लिए ये शहर जाना जाता है ।
इमरजेंसी के बाद यहीं से नीतीश के राजनीतिक गुरु जॉर्ज फर्नांडिस जेल से जीतकर सांसद बने थे। अपना आखिरी लोकसभा चुनाव जॉर्ज यहीं से जीते भी और हारे भी। जॉर्ज के साथ ही लालू को छोड़कर नीतीश ने समता पार्टी का गठन किया था। जॉर्ज ही थे जो नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री भी बने। जॉर्ज ने जीवन भर जिस कांग्रेस की राजनीति का विरोध किया और जिस विरोध के दम पर नीतीश को यहां तक पहुंचाया उसी कांग्रेस से नीतीश हाथ मिला चुके हैं। मुजफ्फरपुर जाने पर मोदी उन जख्मों को आसानी से कुरेद पाएंगे।
दूसरी बड़ी वजह ये है कि मुजफ्फरपुर जिस तिरहुत प्रमंडल का मुख्यालय है वहीं विधानसभा की सबसे ज्यादा सीटें हैं। 2010 में तिरहुत की कुल 49 सीटों में से 24 पर जेडीयू और 21 पर बीजेपी को जीत मिली थी। लालू को सिर्फ 1 और 3 सीटें निर्दलीय को मिली थी। लोकसभा चुनाव में तो सभी 8 सीटें एनडीए को मिली। इस बार और ज्यादा सीटों की उम्मीद है क्योंकि सहयोगी पासवान और उपेंद्र कुशवाहा भी इसी इलाके से आते हैं।
तीसरी बड़ी वजह जातीय समीकरण है। पार्टी ने मुजफ्फरपुर में पहला कार्यक्रम अगर रखा है तो इसमें जातीय गणित का भी नफा नुकसान जरूर देखा होगा। शहर की सीट पर बीजेपी के सुरेश शर्मा विधायक हैं जो भूमिहार जाति के हैं। भूमिहारों को बीजेपी का वोट बैंक माना जाता है। लेकिन नीतीश की भी नजर इस वोट बैंक पर है। विजय चौधरी, ललन सिंह, पीके शाही, अवनीश कुमार के जरिये नीतीश इस वोट बैंक को साधना चाहते हैं। मुजफ्फरपुर, वैशाली और मोतिहारी में भूमिहारों की ज्यादा संख्या है। इस इलाके से 19 सवर्ण विधायक हैं जिनमें से 8 भूमिहार हैं। अभी पिछले हफ्ते नीतीश विधान परिषद चुनाव के लिए अपने उम्मीदवार दिनेश सिंह (राजपूत) के नामांकन में शामिल मुजफ्फरपुर गए थे। बाकी कहीं नामांकन में नहीं गये लेकिन मुजफ्फरपुर गए।
चौथी बड़ी वजह है इलाके का पिछड़ापन। बारिश हो या न हो लेकिन बाढ इस इलाके में जरूर हर साल आती है। और पांच-सात साल पर तो भयानक वाली बाढ़। रोड का नेटवर्क ठीक नहीं है। बगल में नेपाल है लेकिन ढंग का रास्ता नहीं है। फैक्ट्रियां जो हैं वो बंद हैं। यहां का कपड़ा, लीची का उद्योग ठीक हालत में नहीं है। लिहाजा नीतीश पर अटैक करने का हथियार हाथ में होगा। पीएम आएंगे तो कांटी थर्मल पावर और शहर को स्मार्ट सिटी का हिस्सा बनाने का जिक्र करके क्रेडिट जरूर लेने की कोशिश करेंगे। सब कुछ होने के बाद भी वैशाली को टूरिस्ट प्लेस के तौर पर स्थापित नहीं करने का ठिकरा मोदी जरूर लालू-नीतीश पर फोड़ना चाहेंगे। हो सकता है वैशाली, केसरिया, जानकी जन्म स्थली सीतामढ़ी के लिए कुछ खास एलान भी करें।  
मुजफ्फरपुर के मौजूदा बीजेपी सांसद अजय निषाद के पिता और पूर्व सांसद कैप्टन जयनारायण निषाद का बीजेपी से मोहभंग हो गया है। लोकसभा चुनाव में साथ आने पर बेटे को टिकट और सरकार बनने पर राज्यपाल का सपना दिखाया गया था। बेटे को टिकट मिला और वो सांसद भी बन गये लेकिन निषाद के राज्यपाल बनने का सपना पूरा नहीं हो पाया। माना जा रहा है कि निषाद इसी वजह से बागी हो गये हैं। निषाद का इस इलाके में अच्छा खासा प्रभाव है। मुजफ्फरपुर और वैशाली लोकसभा सीट पर मल्लाह वोट अच्छी संख्या में हैं। हालांकि विधानसभा में इस समाज के वोट का ज्यादा असर नहीं दिखता। और पूर्व सांसद के मौजूदा सांसद बेटे अभी पार्टी लाइन से अलग नहीं हैं। इसलिए ज्यादा दिक्कत नहीं है।
मुजफ्फरपुर जिले में विधानसभा की कुल 11 सीटें हैं। जेडीयू के पास 6, बीजेपी के पास 4 और एक सीट आरजेडी के पास। लेकिन नीतीश के सबसे ज्यादा बागी इसी मुजफ्फरपुर जिले से हैं। 6 में से 4 विधायक नीतीश के खिलाफ हैं। रमई राम और मनोज कुशवाहा मंत्री हैं इसलिए अभी तक नीतीश के साथ हैं। बाकी के चार पूर्व मंत्री अजीत कुमार, दिनेश प्रसाद, राजू सिंह और सुरेश चंचल एनडीए के टिकट पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं । माना जा रहा है कि 25 जुलाई को नीतीश के ये तमाम बागी विधायक बीजेपी में शामिल होने का एलान कर सकते हैं। रमई राम भी कब तक नीतीश के पाले में हैं कह नहीं सकते।
वैसे एक सच ये भी है कि रामविलास पासवान नहीं चाहते कि कांटी के विधायक अजीत कुमार को किसी भी हाल में एनडीए के किसी घटक का टिकट मिले। ऐसे में अजीत कुमार के लिए सबसे मुफीद यही है कि वो 25 को पीएम के सामने शामिल होने का एलान कर दें। ताकि टिकट के पेंच में ज्यादा परेशानी न हो।
ये तो रहा नीतीश के खिलाफ बीजेपी का प्लान है। नीतीश ने भी मुजफ्फरपुर के लिए लालू के साथ मिलकर अपना प्लान बना रखा है। लालू का अभी तक प्लान ये है कि मुजफ्फरपुर शहरी सीट या तो कांग्रेस को दे दें या फिर आरजेडी से डॉ़क्टर हरेंद्र कुमार को लड़ाया जाए। वैसे हरेंद्र जी के नाम पर नीतीश मानेंगे इस पर सस्पेंस हैं। विजेंद्र चौधरी को टिकट देना मतलब कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा।  हरेंद्र जी अपने गृह क्षेत्र हरलाखी से भी टिकट की कोशिश में लगे हैं। फिलहाल जो हाल है उसके हिसाब से लगता यही है कि नीतीश इस जिले में ज्यादा सीट लालू की पार्टी को देना चाहेंगे। ताकि बैकवार्ड वर्सेस फॉरवार्ड कराकर सीट निकाला जा सके।
किसका प्लान सफल होता है ये बहुत हद तक टिकट बंटवारे पर निर्भर करता है। फिलहाल नीतीश प्रचार में बीजेपी पर भारी पड़ रहे हैं। और बीजेपी मोदी की पहली रैली के जरिये मजबूत एंट्री मारने की तैयारी में जुटी है।

Thursday, July 2, 2015

मोदी के हथियार से मोदी पर ही नीतीश का हमला

पिछले साल लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार के पारंपरिक तरीकों को बदल कर रख दिया था। हाईटेक तरीकों से प्रचार किये गए। नाम से लेकर नारों तक की ब्रांडिंग हुई थी। कमोबेश प्रचार के उसी पैटर्न पर नीतीश बिहार में बढ़ रहे हैं। चुनाव की तारीखों का भले ही एलान नहीं हुआ है । लेकिन चुनाव ज्यादा दूर भी नहीं है । चूंकि बिहार का चुनाव बड़ा और कई फेज में होगा इसलिए अगले महीने तारीखों के एलान की उम्मीद की जा रही है।
जहां तक प्रचार का सवाल है तो इस मामले में नीतीश अभी बीजेपी पर बीस हैं। बीजेपी ने अभी जमीनी तौर पर कोई ऐसा प्लान पेश नहीं किया है जिससे जनता से संपर्क किया जा सके। लेकिन नीतीश की पार्टी अपना अभियान शुरू कर चुकी है। चाहे पोस्टर की बात हो, नारों की बात हो या फिर वोटरों तक पहुंचने के लिए कार्यक्रमों की। बीजेपी और बाकी उसके सहयोगी क्षेत्र में जाकर कार्यक्रम तो कर रहे हैं लेकिन उस तरह का प्रचार उनके कार्यक्रमों को नहीं मिल रहा है। हां विवादित बात निकलने पर जरूर उसकी चर्चा हो रही है।
नीतीश की कोशिश प्रचार में बीजेपी को पछाड़ कर चुनाव के करीब आने तक बहुत आगे निकलने की है । इसके लिए नीतीश ने पूरी तैयारी कर रखी है। तैयारी बीजेपी की भी है लेकिन उस तरीके से उसकी चर्चा नहीं हो रही है जैसी नीतीश के प्रचार की हो रही है।  सबसे पहले लालू को सरेंडर कराकर नीतीश ने खुद को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित करा लिया। वही बीजेपी अभी तय ही नहीं कर पाई है कि उसे किसके नेतृत्व में लड़ना है। मुख्यमंत्री का उनका कोई उम्मीदवार घोषित होगा भी या नहीं, साझा नेतृत्व होगा या फिर नरेंद्र मोदी के नाम पर ही लड़ा जाएगा ? ये तमाम सवालात हैं जिनके जवाब मिलने बाकी हैं। लेकिन नीतीश कैंप में नतीजों तक इसकी लड़ाई नहीं रह गई है।   
नारे भी नीतीश की ओर से फाइनल हो चुके हैं। जैसे लोकसभा के वक्त अबकी बार मोदी सरकार का नारा लोगों की जुबान पर चढ़ गया था । उसी से मिलता जुलता नीतीश का फिर एक बार नीतीश कुमार वाला नारा बिहार में लोगों के जुबान पर चढ़ने लगा है। कहने को तो बीजेपी की तरफ से भी तीन चार नारे तय हुए हैं लेकिन एक मेन नारा अभी फाइनल नहीं हो पाया। जय-जय बिहार, भाजपा सरकार का नारा लोगों को आकर्षित नहीं कर पाया है। और सुशील मोदी के लिए दिया गया दिल्ली में मोदी-बिहार में मोदी वाला नारा विवाद होने के बाद ठंडे बस्ते में पड़ गया।
लोकसभा चुनाव के वक्त मोदी के लिए बीजेपी ने चाय पर चर्चा कार्यक्रम का आयोजन किया था। नीतीश ने अपने लिए पर्चे पर चर्चा नाम से पिछले महीने राज्य भर में कार्यक्रम चलाया। हालांकि पर्चे पर चर्चा हिट नहीं हो पाया लेकिन नीतीश ने अपने कार्यकर्ताओं को काम पर लगाए रखा। लोकसभा चुनाव के वक्त हर हर मोदी- घर घर मोदी महज एक नारा भर था मोदी की लोकप्रियता को दिखाने के लिए। लेकिन नीतीश ने इस नारे को अपने लिए बदलकर हर घर दस्तक, घर-घर दस्तक नाम का कार्यक्रम बना दिया है। आज से पटना में नीतीश ने इसकी शुरुआत की। एक करोड़ घर यानी करीब 6 करोड़ वोटरों तक पहुंचने का लक्ष्य है। पटना से शुरुआत के पीछे भी रणनीति है। अमूमन नीतीश अपना कोई भी कार्यक्रम पटना से बाहर से ही शुरू करते थे। लेकिन पटना के शहरी वोटरों में बीजेपी का जो क्रेज है उसको प्रभावित करने के लिए नीतीश न सिर्फ मंदिर गए बल्कि गलियों में पैदल भी घूमे।
पटना के तमाम होर्डिंग इन दिनों नीतीश के नारों से पटे पड़े हैं। बीजेपी आरोप लगाती रही और नीतीश ने तमाम होर्डिंग चुनाव से छे महीने पहले ही बुक करा लिए। हालत ये है कि हर तरफ पटना में फिर एक बार नीतीश कुमार के पोस्टर ही दिख रहे हैं।
नीतीश की तारीफ में कसीदे पढ़ता चार मिनट इक्कीस सेकेंड का जो गीत तैयार हुआ है वो भी पसंद किया जा रहा है। खुद नीतीश कुमार ने सोशल साइट्स पर गीत को पोस्ट किया है । यू ट्यूब पर 24 घंटे में 5 हजार लोग इस गीत को सुन चुके हैं। उत्तर भारत में किसी नेता के लिए तैयार गीत तक इतने लोगों का पहुंचना वो भी बिहार जैसे तकनीकी रूप से पिछड़े राज्य के लिए राजनीतिक रूप से मायने रखता है। गीत में नीतीश के टाइटल कुमार से जोड़कर जबरदस्त तुकबंदी की गई है। मसलन रोजगार, अधिकार, जुमलों का वार, जयकार, सरोकार पुरबा-पछिया बयार, बिहार । और सबके साथ फिर एक बार नीतीश कुमार।
लोकसभा के वक्त नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी के प्रचार अभियान पर जब अटैक करते तो उसे ब्लोअर की हवा बताते थे। लेकिन उसी हवा को अब अपने लिए नीतीश हथियार बना चुके हैं। मोदी की प्रचार टीम का जिम्मा संभालने वाले प्रशांत इस बार नीतीश के लिए काम कर रहे हैं। विधायकों से लेकर सांसदों तक को ट्रेनिंग दी जा रही है कि कैसे हर तरफ छा जाना है। लेकिन लोकसभा चुनाव का अनुभव और जीत का इतिहास देखने के बाद भी बीजेपी नेता प्रचार के मोर्चे पर न सिर्फ पीछे हैं बल्कि आज की तारीख में कहीं नहीं टिकते। असल में पिछड़ने का एक कारण चेहरे का न होना भी है। नीतीश एक ब्रांड हैं अपनी पार्टी के औप प्रचार के प्वाइंट। जबकि बीजेपी में तो कोई नाम ही नहीं है जिसके नाम पर पहले से प्रचार करके माहौल तैयार किया जा सके ।
हां 25 तारीख को पीएम मुजफ्फरपुर से प्रचार अभियान शुरू करने वाले हैं। हो सकता है उसकी तैयारी को लेकर जो जोर लगेगा उससे कही रफ्तार पकड़े। फिलहाल बीजेपी के हथियार का ही इस्तेमाल करके नीतीश प्रचार की लड़ाई में बीजेपी को घायल कर रहे हैं।