Wednesday, December 22, 2010

तेरी कमी तो खलती रहेगी...



 
ये जो तस्वीर है अपने आप में एक न्यूज चैनल है। निप्पू ने जो कहा है कि ये टीम जिस काम को भी ले लें इनसे बेहतर आउटपुट कोई दे नहीं सकता। इससे मैं भी इत्तेफाक रखता हूं। पहले ये सब लोग एक साथ एक जगह पर काम करते थे। लेकिन अब लोग एक दूसरे से दूर होते जा रहे हैं। पहले निखिल जी गए, अब निप्पू और यश । कल कोई और जाएगा। कहने का मतलब ये कि ये एक सिलसिला है जो अनंत काल तक चलता रहेगा। ऐसा नहीं कि इस टीम से बेहतर टीम इंडस्ट्री में नहीं है या नहीं होगी। लेकिन अभिनित और रश्मि, जो की इन तस्वीरों में नहीं हैं उनको शामिल करके देखें तो अपने आप में एक संपूर्ण व्यवस्था है। ऊपर खाली टोपी पहनाने के लिए एक चाहिए, बाकी सब फिट है। ये तो भूमिका बांध रहा हूं, जो लगता है ज्यादा हो गया।
खैर लिखना ये चाह रह हूं कि निप्पू और यश अब पुरानी कंपनी के लिए अतीत के अंग हो गये। स्वभाविक प्रक्रिया है कि कोई करीबी जब आपसे दूर जाता है तो आपको दुख होता है। जिसके साथ आप चौबीस घंटे में से 10 घंटे रोज बीताते हो वो अगर आपसे दूर होता है तो दुख होगा ही। उसमें भी निप्पू और यश जैसे सहयोगी और करीबी हो तो मामला कुछ ज्यादा करीब का हो जाता है। कोई खानदानी परिचय तो था नहीं, यहीं आकर इनसे जान पहचान हुई, जाने बुझे तो संबंध बेहतर बना और फिर एक सिलसिला चल पड़ा। कभी दोनों से व्यक्तिगत शिकायत नहीं रही मेरी, मैं कभी नाराज हुआ भी तो मुझसे ज्यादा तापमान इन लोगों का बढ़ जाता था। काम के दौरान निप्पू के बार-बार सिगरेट पीने को लेकर मेरी नाराजगी रहती थी, एक बार नाइट शिफ्ट थी उस दौरान तो सिगरेट को गोली मारिए, वो दो-दो घंटे किसी और चक्कर में लगा रहता था फोन पर, कई बार डांट खाया लेकिन अपनी आदत से बाज नहीं आया। एक बार तो मुझे महाशय को मनाने के लिए बड़ा जोर लगाना पड़ा था। मुझे कहता है कि आपको समझना बड़ा मुश्किल है, मैं आपको पौने चार साल में समझ नहीं पाया। पर ये नहीं बताता कि क्या नहीं समझ पाया। निप्पू बार बार आरोप लगाता है कि आपका कौन अपना है कौन पराया ये आपको आज तक पता नहीं चला। निप्पू, मेरे दोस्त क्या करना जानकर, कौन अपना है कौन पराया। तुम अपने हो ये काफी है। वैसे एक बात साफ कर दूं नहीं तो नाराजगी तो तय है। निप्पू और यश दोनों व्यक्तिगत रूप से मेरे काफी करीबी हैं। मैं ये मानता हूं उन लोगों का नहीं पता। प्रोफेशनल रूप से एक को अपना दायां हाथ मानता था तो दूसरे को बायां। बाकी बाद में। वैसे निप्पू दिखने में जितना भोला लगता है उतना है नहीं। मुझे पता है इस लाइन पर बवाल तय है। अबे मजाक कर रहा हूं ...।
दफ्तर में ये दोनों काम करने के मामले में भूत हैं। वक्त की जरूरत कहिये या फिर किस्मत का कनेक्शन, पहले टर्म में साथ काम करने का इतना ही वक्त तय हुआ था सो अच्छी जिंदगी की तलाश में दोनों जा रहे हैं। क्या पता कल मुझे भी कहीं जाना पड़े। यशजी तो गाय हैं। बर्दाश्त करते हैं तो खूब करते हैं उखड़ते हैं तो पता नहीं कब किसको क्या कर (बोल) दें। वैसे दोनों उन बेटियां की तरह हैं, जो जिस घर में जाएंगे उनको संवार देंगे,  बशर्तें भरोसा करके देखना होगा। यहां के लोगों को समझ में नहीं आया ये यहां का दुर्भाग्य है लेकिन कुछ महापुरुषों ने ये जो कहा है कि इतने पैसे में लड़के तैयार हैं किसी के जाने आने से फर्क नहीं पड़ता, ऐसे लोगों का अपना दुर्भाग्य हैं जिनका भगवान मालिक है। अभी देखिए एक खेल हो गया, कल ये तय हुआ था कि दोनों को भव्य विदाई दी जाएगी। इंतजाम बाकी लोग करेंगे। अभी ये जानकारी मिली कि दोनों में से एक इधर के लोगों के लिए ही इंतजाम में लगा है। अद्भूत है...

Monday, December 20, 2010

आतंकवाद पर नया नजरिया



अपुन सियासत के लिए कुछ भी बोलेगा...

आतंकवाद को लेकर देश में इस वक्त बहस छिड़ी हुई है। अब तक आतंकवाद को जाति, धर्म, संप्रदाय वगैरह-वगैरह के चश्मे से देखने से देश का प्रबुद्ध समाज बचता रहा था। जानते सब थे लेकिन खुली जुबान में बोलने और लिखने से परहेज करते थे। ‘आतंक का कोई धर्म नहीं होता’ इस जुमले में अब से पहले शायद राजनीति करने वाले हर दल के लोग यकीन करते थे। लेकिन अमेरिका की नाक में दम कर रखने वाले विकीलीक्स वेबसाइट ने बीते 17 दिसंबर को जो खुलासे किए उसने देश में आतंकवाद के लिए नए शब्द की रचना कर दी । भगवा आतंकवाद, हिंदू आतंकवाद, मुस्लिम आतंकवाद, सिख आतंकवाद और जितने भी नाम हो सकते हैं उन सब नामों को लेकर जो बातें दबी जुबान में ऑफ द रिकॉर्ड होती थी वो बातें विकीलीक्स के खुलासे के बाद ऑन रिकॉर्ड होने लगी। न्यूज चैनलों और अखबारों में आतंकवाद को आतंकवाद के नाम से ही लिखा या बोला जाता था लेकिन 17 दिसंबर को देश के सभी न्यूज चैनल से लेकर अगले दिन अखबारों तक ने मर्यादा की परिभाषा को लांघते हुए आतंकवाद शब्द को हिन्दुस्तान के पारंपरिक परिदृश्य से हटाकर दो धड़ों में बांट दिया। साफ-साफ लिखा गया ‘इस्लामिक आतंकवाद’ ।


मुंबई पर हमला किसने किया?

(आपको अगर याद हो तो याद कीजिए मुंबई पर हमले के वक्त किसी ने नहीं कहा कि ये इस्लामिक आतंकवाद है, दिल्ली ब्लास्ट के वक्त किसी ने नहीं कहा कि हमला मुसलमानों ने किया है, क्योंकि तब आतंक को धर्म के चश्मे से देखने की परंपरा शुरू नहीं की हुई थी, मीडिया ने शुरुआत भी की और कांग्रेस को और आगे बढ़कर कहने का मंच भी दिया।)

आगे बढ़िए, बात यही तक होती तो काम चल जाता लेकिन मामला देश के सबसे बड़े राजनीतिक घराने से जुड़ा था लिहाजा इस पर पानी डालने के बजाए कांग्रेस के लोगों ने आक्रमक होने की रणनीति पर अमल करना बेहतर समझा। 19 दिसंबर को कांग्रेस महाधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने आतंकवाद को जिन दो शब्दों में बांट कर रखा उसे देश ने इससे पहले न तो सुना था और ना ही किसी किताब में पढ़ा था। सोनिया के मुंह से निकले थे दो शब्द अल्पसंख्यक आतंकवाद और बहुसंख्यक आतंकवाद। मतलब दूध की तरफ साफ है। अल्पसंख्यक आतंकवाद की जगह वो इस्लामिक आतंकवाद, मुस्लिम आतंकवाद और बहुसंख्यक आतंकवाद की जगह हिंदू आतंकवाद जैसे शब्द भी बोल सकती थी। लेकिन सियासत में डर हर किसी को लगता है। लिहाजा अपने पूरे भाषण के दौरान सोनिया ने इन दोनों शब्दों का दोबारा इस्तेमाल तो नहीं ही किया ना ही इसका वर्णन करना उचित समझा। इन दो शब्दों ने कांग्रेस की सियासी आक्रमकता के मतलब तो बताये ही ये भी साफ करने की कोशिश की गई कि राहुल गांधी ने पिछले साल अमेरिकी राजदूत से जो कुछ कहा उसके लिए सफाई की जगह देश को तेवर दिखाने की जरूरत है। सोनिया के बयान को समझने के लिए राहुल के उस बयान को जानना जरूरी है जो उन्होंने अमेरिकी राजदूत को कहा था। पिछले साल यानी 2009 के जुलाई महीने में अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन भारत दौरे पर थीं, और पीएम के घर भोज के दौरान अमेरिका के राजदूत टिमोथी रोमर ने राहुल से सवाल किया कि “देश को लश्कर से कितना बड़ा खतरा है। जवाब में राहुल ने कहा कि देश को इस्लामिक आतंकवाद से ज्यादा हिंदू कट्टरपंथियों से खतरा है।"


अब क्यों चुप रह गए युवराज?

संघ और उससे जुड़े संगठनों के खिलाफ राहुल बोलते रहे हैं, ये उनका अधिकार भी है और विचारधारा के स्तर पर इनके खिलाफ बोलना कर्तव्य भी। लेकिन जिस तरह के शब्दों का इस्तेमाल उन्होंने रोमर के सामने किया वाकई में देश को इसकी उम्मीद नहीं हो सकती थी। और शायद देश में कभी भी किसी जगह जाकर खुद इस तरह के शब्दों को बोलने की हिम्मत वो नहीं जुटा सकते थे। लेकिन पर्दे के पीछे हुई बातचीत विकीलीक्स के विस्फोट के बाद दुनिया के सामने हैं। और डैमेज कंट्रोल के लिए रुख को और ज्यादा आक्रमक बनाया जा रहा है। 19 दिसंबर को दिल्ली के अधिवेशन में सोनिया के साथ ही संघ और उससे जुड़े संगठनों के खिलाफ आक्रमक अंदाज में बोलने वाले कोई और था तो वो थे दिग्विजय सिंह। दिग्विजय सिंह ने तो न जाने क्या क्या कहा...लेकिन बारी जब राहुल गांधी की आई तो देश उनके मुंह से विकीलीक्स के दावे की सच्चाई जानना चाहता था पर राहुल विकास, संगठन और भ्रष्टाचार पर बोलकर चलते बने। जिस बहस की शुरुआत उन्होंने की उसको छूने तक की जरूरत या यूं कहिए हिम्मत नहीं जुटा पाए।

एक बात जो समझ से परे नहीं है वो ये कि अगर विकीलीक्स का खुलासा नहीं होता तो शायद इस वक्त कमजोर हो चुके विपक्ष पर एक साथ कांग्रेस का पूरा कुनबा वार नहीं करता और देश में आतंकवाद की परिभाषा को लेकर बहस नहीं शुरू हुई होती। बहस की शुरुआत इसलिए ही हुई कि कांग्रेस के युवराज ने दुनिया के मंच पर देश के बहुसंख्यक समुदाय की छवि को आतंक से सीधे सीधे जोड़ दिया। संघ का आतंक से रिश्ता है या नहीं ये मामला सियासत के लिए सही हो सकता है। लेकिन हिन्दुस्तान को लश्कर, जैश, हूजी, आईएम की जगह हिंदू कट्टरपंथ से ज्यादा खतरा है ये कहना आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को दुनिया के मंच पर कमजोर करने की दिशा में दिया गया बयान ही माना जाएगा। क्योंकि देश क्योंकि देश 26/11 के कसाब से लेकर मुंबई सीरियल ट्रेन ब्लास्ट, दिल्ली सीरियल ब्लास्ट, जयपुर ब्लास्ट, अहमदाबाद ब्लास्ट, संसद हमला, लाल किला हमला और न जाने कितने हमलों की तारीख भले ही भूल गया है दर्द को नहीं भूला पाया है। और विकीलीक्स का दावा इसी दर्द पर मरहम नहीं नमक के समान है।

Saturday, December 11, 2010

बिहार के बाहुबलियों का हाल जानिए...


इस साल विकास के नाम पर बिहार के लोगों ने जो जनमत दिया उसमें नीतीश के बाहुबलियों की बल्ले बल्ले रही। जेडीयू और बीजेपी के सभी बाहुबली जीतकर विधानसभा पहुंचे। लेकिन दूसरी पार्टियों के बाहुबली धरती पकड़ लिए। एक भी जो कोई जीत
पाता। नामी-नामी दिग्गज बाहुबली जो नीतीश के खिलाफ खड़े थे सब के सब हवा हो गए। यहां तक के अपने न लड़ के रिश्तेदारों को लड़वा रहे थे लेकिन उनको भी नहीं जीतवा पाए। चाहे एलजेपी के सूरजभान हो तब या फिर रामा सिंह। कांग्रेस के आनंद मोहन या फिर साधु यादव। जितने भी पुराने यदुवंशी बाहुबली क्षत्रप थे जो लालू की टिकट पर उतरे सब के सब हवा हो गए। लेकिन नीतीश की पार्टी से अनंत सिंह, सुनील पांडे, धूमल सिंह, लेसी सिंह, बीमा भारती, जगमातो देवी, गुड्डी चौधरी, अन्नू शुक्ला, गुलजार देवी, पूर्णिमा यादव, मीना द्विवेदी, सरफराज आलम, प्रभाकर चौधरी, अमरेंद्र पांडे, कौशल यादव, प्रदीप कुमार, बोगो सिंह, हो या फिर बीजेपी के टिकट पर उतरे चितरंजन सिंह, सतीश दूबे, अवनीश कुमार जैसे बाहुबली नेता या उनके रिश्तेदार, सब के सब जीत गए। उधर कांग्रेस के टिकट पर मैदान में ताल ठोकने वाली बाहुबली आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद, पप्पू यादव की पत्नी रंजीता रंजन, लालू के साले साधु और सुभाष यादव, बाहबली अखिलेश सिंह की पत्नी अरुणा देवी, बाहुबली आदित्य सिंह की बहू नीतू कुमारी या फिर एलजेपी के टिकट पर ताल ठोंकने वाली बाहुबली ललन सिंह(सूरजभान के करीबी) की पत्नी सोनम देवी, सूरजभान के बहनोई रमेश कुमार सब हार गए।
अब थोड़ा इनके जीत हार का अंतर भी देख लीजिए जिस आनंद मोहन ने साल 1995 में अपनी पार्टी बनाकर पूरे बिहार में उम्मीदवार खड़े किए थे, तब झारखंड भी साथ था। उस आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद को आलम नगर में मात्र 22 हजार वोट मिले, जबकि जानते हैं जीतने वाले उम्मीदवार जेडीयू के नरेंद्र यादव को 64 हजार वोट मिले। आगे बढ़े उससे पहले लवली के बारे में थोड़ा अपडेट करते चलें आपको, लवली की सियासी पारी तब शुरू हुई जब 1994 में वैशाली लोकसभा सीट के लिए उपचुनाव हो रहा था। आनंद मोहन ने लवली को पहली बार पार्टी फोरम पर लाकर चुनाव लड़ाने का एलान किया। इस चुनाव में राजपूत-भूमिहार बहुल वैशाली सीट पर इन दोनों जाति के वोटरों ने विरोध की पुरानी परंपराओं को तोड़ते हुए लवली का साथ दिया। नतीजा हुआ कि लवली जीत गई। 1995 में आनंद मोहन ने बिहार की 324 सीटों पर उम्मीदवार खड़ा कर दिया। एक सीट छोड़ सब सीट हार गए। खुद लड़ रहे तीन सीटों से आनंद मोहन हार गए। 94-96 तक सांसद रहने के बाद लवली फिर कभी लोकसभा नहीं पहुंचीं। 96 में नवीनगर से उपचुनाव में विधायक बनीं। 2005 के फरवरी वाले चुनाव में बाढ़ से जेडीयू के टिकट पर विधायक बनीं थी। सवर्ण वोटों की सियासत करने वाले आनंद मोहन ने जब 1998 में लालू से हाथ मिलाया उसके बाद इनका मार्केट डाउन हुआ, और राजपूत नेता की जो प्रभावशाली छवि बनी थी वो खत्म होने लगी। फिलहाल कलेक्टर मर्डर केस में आनंद मोहन को फांसी की सजा मिली हुई है। पत्नी लवली के भरोसे सियासत में बने रहने की कोशिश कर रहे थे जिसको जनता ने नकार दिया।
बड़ी चर्चा हुई थी रंजीता रंजन को लेकर, बाहुबली पप्पू यादव की पत्नी हैं। बिहारीगंज से लड़ने गई थी कांग्रेस के टिकट पर हार गई। वोट मिला 27 हजार। जीतने वाली रेणु कुमारी को मिला 79 हजार। रंजीता यहां तीन नंबर पर रहीं। अंतर देख लीजिए। रंजीता का भी थोड़ा छोटा परिचय कराते हुए आगे बढ़ते हैं,पप्पू यादव की पत्नी होने के साथ राजनीतिक परिचय ये है कि सहरसा से 2004 में एलजेपी के टिकट पर सांसद चुनी गई थी। 2009 में हार गई। पप्पू यादव अभी विधायक अजीत सरकार की हत्या के दोषी है सो जेल में हैं। पप्पू का राजनीतिक उदय 1990 में हुआ था जब वो सिंहेश्वर सीट से पहली बार जनता दल के टिकट पर एमएलए बने थे। आपराधिक छवि के पप्पू यादव पर लूट, हत्या,रंगदारी,अपहरण के दर्जनों केस हैं।
राजनीतिक रूप से जागरूक कोई भी शख्स साधु यादव के नाम से तो अंजान नहीं ही होगा। लालू के साले होने के अलावा शायद कोई और परिचय पहले रहा होगा, अब ये है कि लालू के साथ नहीं हैं और कांग्रेस के टिकट पर गोपालगंज से चुनाव लड़ने गए थे। घर भी गोपालगंज ही पड़ता है। वोट कितना मिला जानिएगा तो हैरान रह जाइएगा। यहां से जीतने वाले सुभाष सिंह को मिला 58 हजार और इनको मिला कुल जमा 8 हजार 488 वोट। तीसरे नंबर पर रहे। अंतर देखते चलिएगा। इ भी बाहुबली थे अपने जमाने के। इनके एक दूसरे भाई जो अब लालू के साथ नहीं हैं। सुभाष यादव विक्रम से निर्दलीय लड़ने गए थे। 9994 वोट मिला इनको। लेकिन चौथे नंबर पर आ गए। वारसलीगंज में मुकाबला बाहुबलियों के बीच था। प्रदीप महतो के दाहिना हाथ प्रदीप कुमार के सामने थीं अखिलेश सिंह की पत्नी अरुणा देवी। प्रदीप जेडीयू के टिकट पर जीते लेकिन अरुणा को कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में 36953 वोट यानी प्रदीप से 5 हजार कम वोट मिले। बाहुबलियों के बीच ही मुकाबला मोकामा में भी था। जेडीयू के टिकट पर अनंत सिंह जीत गए। एलजेपी के टिकट पर ललन सिंह की पत्नी सोनम हार गईं। अनंत सिंह को 51 हजार और सोनम को 42 हजार वोट मिले। विभूतिपुर में बाहुबली सूरजभान अपने बहनोई रमेश कुमार को लाख कोशिशों के बाद भी नहीं जीतवा पाए। जेडीयू के जीते उम्मीदवार को यहां मिला 46 हजार वोट और रमेश कुमार को मिला 23 हजार। लेकिन दूसरे नंबर पर रहा सीपीआई का उम्मीदवार। रमेश को तीसरे नंबर से संतोष करना पड़ा। हिसुआ में आदित्य सिंह की बहू हो तब या फिर मधुबन में बाहुबली बबलू देव। कांग्रेस के टिकट पर इन लोगों की भी हार हुई। रामा सिंह का नाम तो सुने ही होइएगा। आधा दर्जन से ज्यादा राज्यों में इनके खिलाफ मामले बताये जाते हैं। वैसे कई साल से माननीय थे। लेकिन इस बार इनके सामने इनके पुराने परिचित अच्युतानंद सिंह आ गए। महनार में रामा सिंह का तंबू उखड़ गया और बीजेपी उम्मीदवार के हाथों 25 सौ वोट से हार गए। अब थोड़ा जीतने वाले बाहुबलियों का भी बायोडाटा देख लीजिए। तरारी में सुनील पांडे तीसरी बार विधायक बने। बतौर जेडीयू उम्मीदवार इनको 42 हजार वोट मिले। जबकि आरजेडी को 34 हजार। यहां लेफ्ट के उ्म्मीदवार को जो 30 हजार वोट मिले वहीं उनकी जीत का रास्ता खोला। नहीं तो 34 और 30 जोड़के कुछ घटा भी दे तो मामला गोल था। क्षेत्र बदलके धूमल सिंह इस बार गए एकमा, हारने वाले दूसरे नंबर के उम्मीदवार से दोगुना वोट मिला। धूमल सिंह को 55 हजार वोट मिले। यहां धूमल सिंह को छोड़कर बाकी सारे उम्मीदवारों के वोट को जोड़ दे न..तो भी धूमल सिंह को मिले वोट से कम है। बाहुबली बूटन सिंह जो अब इस दुनिया में नहीं हैं उनकी पत्नी लेसी सिंह इस बार भी जीती। अवधेश मंडल की पत्नी चुनाव से पहले पाला बदलकर नीतीश के साथ हो गई, किस्मत अच्छी रही और जीत गई। रूपौली में वैसे भी अवधेश मंडल की पत्नी बीमा भारती का मुकाबला बाहुबली शंकर सिंह से था। लेकिन शंकर सिंह को बतौर एलजेपी उम्मीदवार 27 हजार वोट मिले और बीमा भारती को 64 हजार। बाहुबली अजय सिंह की मां जगमातो देवी दरौंधा से,बाहुबली देवनाथ यादव की पत्नी गुलजार देवी फुलपरास से और बाहुबली राजेश चौधरी की पत्नी गुड्डी चौधरी रून्नी सैदपुर से जीतकर विधायक बन गई हैं। उधर बाहुबली देवेंद्र दूबे की भाभी मीना दूबे का मुकाबला बाहुबली राजन तिवारी के भाई राजू तिवारी से था। लेकिन एलजेपी के टिकट पर उतरे राजू तिवारी हार गए और जेडीयू की टिकट पर उतरी मीना गोविंदगंज की लड़ाई 8 हजार वोट से जीत गई। कुचाय कोट सीट से बाहुबली सतीश पांडे के भाई अमरेंद्र कुमार पांडे जीत गए और हार गए बाहुबली काली पांडे के भाई आदित्य नारायण पांडे। जेडीयू के अमरेंद्र को 51 हजार और आरजेडी के आदित्य को 32 हजार वोट मिले।
बाहुबली मुन्ना शुक्ला की पत्नी अन्नू शुक्ला पहली बार विधायक बनीं हैं। लालगंज में अन्नू शुक्ला को 58 हजार वोट मिले। लड़ाई में आरजेडी गठबंधन का उम्मीदवार नहीं था। दूसरे नंबर पर रहे राज कुमार साह जो कि निर्दलीय उम्मीदवार थे उनको 34हजार वोट मिले। अब थोड़ा अन्नू शुक्ला का परिचय भी जान लीजिए। सत्य और अहिंसा का पैगाम देने वाले महावीर और बुद्ध की धरती वैशाली की लालगंज सीट से बाहुबली मुन्ना शुक्ला की पत्नी अन्नू शुक्ला जीती हैं। राजनीतिक पहचान यही है कि मुन्ना शुक्ला की पत्नी हैं। विजय कुमार शुक्ला उर्फ मुन्ना शुक्ला को अपराध की दुनिया में पहचान विरासत में मिली है। 1999 में मुन्ना शुक्ला ने राजनीति में कदम बढ़ाया। उस वक्त लोकसभा चुनाव हो रहा था और मुन्ना शुक्ला ने जेल में रहकर मुजफ्फरपुर से चुनाव लड़ गये। उसी वक्त उनकी पत्नी अन्नू शुक्ला ने चुनाव प्रचार की कमान संभाली थी। हालांकि स्वजातीय नेताओं के समर्थन के बाद भी मुन्ना शुक्ला कैप्टन जयनारायण निषाद को हरा नहीं सके थे। अगले ही साल 2000 में अपने पैतृक विधानसभा क्षेत्र लालगंज से निर्दलीय चुनाव लड़े और जीत गये। 2004 के लोकसभा चुनाव में वैशाली से निर्दलीय मैदान में उतरे लेकिन हार गये। इसके बाद 2005 में पहले लोजपा से फिर नवंबर 2005 में जेडीयू के टिकट पर चुनाव लड़कर विधायक बने। 2009 के लोकसभा चुनाव में वैशाली से पार्टी ने उम्मीदवार बनाया था लेकिन हार गए। पूर्व मंत्री बृजबिहारी प्रसाद की हत्या के केस में सजा मिली है। सो जेल में बंद हैं।
ये रहा बिहार के नामी बाहुबलियों(रिश्तेदारों)के जीत हार का रिपोर्ट कार्ड। सब नामों को समेटने का वक्त अभी नहीं मिल रहा। वक्त निकालकर जो नाम छूट गए हैं उनकी भी चर्चा करूंगा।

Thursday, December 9, 2010

नीतीश का 'न्याय' अभी आधा है...


नीतीश कुमार- मुख्यमंत्री (गृह, सामान्य प्रशासन)
सुशील कुमार मोदी (उप मुख्यमंत्री, वित्त, वाणिज्य, पर्यावरण, वन)

जनता दल यूनाइटेड-
विजय कुमार चौधरी (सरायरंजन)- जल संसाधान
विजेंद्र यादव- (सुपौल) ऊर्जा,संसदीय कार्य, उत्पाद
नरेंद्र सिंह---कृषि मंत्री
वृषण पटेल- (वैशाली) परिवहन और सूचना जनसंपर्क

नरेंद्र नारायण यादव-(आलमनगर) विधि, योजना विकास
रेणु कुमारी-(बिहारीगंज) उद्योग, आपदा प्रबंधन
जीतन राम मांझी(मखदुमपुर)- अनुसूचित जाति, जनजाति
शाहिद अली खान(सुरसंड) अल्पसंख्यक कल्याण, सूचना प्रौद्योगिकी
दामोदर रावत(झाझा)- भवन निर्माण
हरिप्रसाद साह(लौकहा)- पंचायती राज
गौतम सिंह(मांझी)- विज्ञान प्रौद्योगिकी
नीतीश मिश्रा(झंझारपुर)- ग्रामीण विकास
पीके शाही- मानव संसाधन
श्याम रजक (फुलवारी)- खाद्य आपूर्ति
रमई राम-(बोचहां) राजस्व और भूमि सुधार
परवीन अमानुल्लाह- (साहेबपुर कमाल)समाज कल्याण
भीम सिंह- ग्रामीण कार्य विभाग
अवधेश कुशवाहा(पीपरा)- लघु सिंचाई


बीजेपी के मंत्री---
नंद किशोर यादव(पटना साहिब)- पथ निर्माण
अश्विनी कुमार चौबे (भागलपुर)-स्वास्थ्य
प्रेम कुमार (गया टाउन)- शहरी विकास
गिरिराज सिंह- पशु एवं मत्स्य
जनार्दन सिंह सिग्रीवाल(छपरा)- श्रम संसाधन
चंद्र मोहन राय(चनपटिया)- पीएचईडी
सुखदा पांडे (बक्सर)- कला संस्कृति, युवा
एस एन आर्या (राजगीर)- खान एवं भूतत्व
रामाधार सिंह (औरंगाबाद)- सहकारिता
सुनील कुमार पिंटू (सीतामढ़ी)- पर्यटन

बीजेपी कोटे से मंत्री बनने वाले ज्यादातर विधायक शहरी क्षेत्र से चुने गए हैं। चनपटिया और राजगीर का अपना महत्व है, नहीं तो बाकी सब जिला मुख्यालय वाले ही विधायक जी मंत्री बने हैं।
और उसमें भी जानते चलिए कि बिहार में कुल 38 जिले हैं। 19 जिलों को ही अभी नीतीश के कुनबे में जगह मिली है। बाकी के 19 जिले के एनडीए विधायक फिलहाल 'बेरोजगार'हैं। कब तक रहेंगे ये मुझे नहीं पता।
जिलेवार आंकड़ों पर गौर फरमाए तो
जिला--------कुल सीट------एनडीए-----कितने मंत्री
मधुबनी--------10--------7---------------2
मधेपुरा--------04--------3---------------2
सीतामढ़ी------ 08--------8---------------2
छपरा---------10--------8---------------2
पटना --------14--------11--------------2
गया---------10--------09--------------1
जहानाबाद-----3---------03--------------1
बक्सर ------4---------04--------------1
औरंगाबाद----- 6--------05--------------1
सुपौल ----- -5--------05--------------1
मोतिहारी---- 12--------11-------------1
मुजफ्फरपुर-- 11--------10--------------1
समस्तीपुर--- 10-------08--------------1
बेतिया----- 09-------07---------------1
वैशाली --- -08-------08---------------1
बेगूसराय--- 07-------06---------------1
भागलपुर-- 07-------06---------------1
नालंदा--- 07--------06---------------1
जमुई---- 4--------03----------------1
इसके अलावा बाकी के 19 जिलों का खाता फिलहाल खाली है।
सीमांचल के इलाके में अररिया की कुल 6 में से 5 सीट एनडीए के पास है, पूर्णिया की 7 में से 6 सीट कटिहार में 7 में से 6 सीट लेकिन कोई मंत्री नहीं बना।
दरभंगा 10 में से 8 सीट, गोपालगंज 6 में से 6 सीट, सीवान 8 में से 8 सीट, नवादा की 5 में से 5 सीट, मुंगेर की 3 में से 3 सीट, भोजपुर की 7 में से 5 सीट एनडीए के खाते में है लेकिन कोई मंत्री नहीं है।
बाकी के बचे जिले के हालात भी मिलते जुलते हैं। सिर्फ किशनगंज जिला ऐसा है जहां एनडीए का खाता नहीं खुला 4 की सभी 4 सीट एनडीए हार गई।
कुल मामला ये है कि जिन जिलों से एनडीए के 77 विधायक जीत कर आए हैं वहां से कोई मंत्री नहीं है। कुल 129 जीते विधायकों वाले जिले से 28 मंत्री बनाए गए हैं।

रमेश की नई दुनिया


मृणाल पांडे की खोज नवरत्न में से एक रमेश रंजन सिंह ने हिन्दुस्तान दिल्ली को बाय बोल दिया है। रमेश ने पटना में सीएनईबी के ब्यूरो हेड के रूप में कार्यभार भी संभाल लिया है। रमेश हिन्दुस्तान दिल्ली में सेंट्रल डेस्क पर थे। हिन्दुस्तान के लिए खेल और फिल्म रिपोर्टिंग कर चुके रमेश अगस्त 2008 से हिन्दुस्तान में थे। हिन्दुस्तान में ही लखनऊ, पटना, रांची होते हुए दिल्ली पहुंचे और अब एक बार फिर अखबार छोड़ टीवी की दुनिया में पटना पहुंच गए हैं। रमेश ने करियर की शुरुआत सहारा से की थी। लंबे समय तक सहारा अखबार के लिए रिपोर्टिंग करने वाले रमेश आईआईएमएसी के छात्र रहे हैं। 2004-2005 बैच के छात्र रहे रमेश शांत स्वभाव के गंभीर पत्रकार माने जाते हैं। रमेश के लिए टीवी का ये जिम्मेदारी वाला पहला बड़ा अनुभव है। रमेश बिहार के छपरा के रहने वाले है।

Sunday, December 5, 2010

कांग्रेस का टाइम ही खराब है...


राहुल गांधी ने कहा है कि बिहार के चुनाव नतीजों से वो हताश नहीं हैं। हालांकि ये भी नहीं कहा कि वो खुश हैं। वैसे कहने लायक बिहार ने छोड़ा ही कहां हैं । खैर बिहार चुनाव के नतीजे कांग्रेस के लिए प्रत्याशित तो कतई ही नहीं थे। जिस तामझाम के साथ फिर से खुद के दम पर खड़े होने की तैयारी हुई थी उसमें पलीता लग गया। टिकट का बंटवारा कहिए या फिर बड़े नेताओं का घालमेल, उम्मीदों पर नहीं उतरे खड़े तो नहीं उतरे। वैसे कांग्रेस के लिए समय ही शुभ नहीं चल रहा है। अक्टूबर, नवंबर और दिसंबर का जो महीना है वो कांग्रेस के लिए ठीक नहीं है। आदर्श सोसायटी घोटाला, स्पेक्ट्रम घोटाला, बिहार में
बर्बादी, जगन मोहन का विद्रोह, सुप्रीम कोर्ट से रोज डांट । भाई इतने मुश्किल दौर से मनमोहन सिंह का तो पहला कार्यकाल भी नहीं गुजरा था। यूपीए वन में तो परमाणु करार पर लेफ्ट ने हाथ खींचा तो हाथ बढ़ाने कई लोग आगे आ गए। लेकिन
इस बार सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह बड़े बुरे दौर से गुजर रहे हैं। जिसको देखिए वही उनके खिलाफ बोल कर कट ले रहा है। सुप्रीम कोर्ट हो या फिर सुब्रमण्यम स्वामी, परसों ये भी सुनने में मिला कि ए राजा की तरफ से भी पीएम की चिट्ठी को लेकर अनाप शनाप कहा गया था। वैसे कहने वाले सब कहते भी हैं कि पीएम साहब की ईमानदारी पर कोई शक नहीं है। लेकिन खाली कहने भर से क्या होता है। अक्टूबर लास्ट में आदर्श सोसायटी फ्लैट घोटाला वाला मामला लाइट में आया। अब समय खराब ही कहिएगा न कि जिस अशोक चव्हाण को मुंबई हमले जैसे विकट हालात में सीएम बनाया वो इतने पुराने मामले में नप गए। जमी जमाई दुकानदारी उखड़ गई। अशोक चव्हाण के बारे में एक और मजेदार बात पढ़ते हुए बढ़िए,
अशोक चव्हाण का नाम अक्टूबर से पहले तक अशोक चव्हाण ही हुआ करता था लेकिन अक्टूबर शुरू में ही उन्होंने अपने नाव को वजन देने के लिए राव जोड़वा लिया और हो गए अशोक राव चव्हाण। अंकज्योतिषियों ने साफ कहा कि ये शुभ नहीं है, भारी विपत्ति आने वाली है, बीस दिन भी नहीं बीता कि कहां से फ्लैट का भूत निकला और ले गया।
अब कांग्रेस के लिए एक टेंशन हो तब तो, जगन मोहन रेड्डी, आंध्र प्रदेश के कडप्पा से कांग्रेस के सांसद हुआ करते थे। पूर्व मुख्यमंत्री और आंध्र प्रदेश के कांग्रेस छत्रप रहे वाईएसआर के बेटे हैं। इनका बड़ा लंबा चौड़ा कारोबार है। टीवी चैनल से लेकर अखबार तक। अभी पंद्रह दिन पहले इनके चैनल पर सोनिया गांधी, राहुल और मनमोहन सिंह के खिलाफ स्टोरी चल गई। खूब किरकिरी हुई। अब जगन संकट से निपटने के लिए कांग्रेस को वहां के रोसैया को सीएम की कुर्सी से हटाना पड़ा, किरण कुमार सीएम बने। किसी राज्य में नेतृत्व बदलना किसी भी राजनीतिक दल के लिए आसान काम नहीं होता। लेकिन मजबूरी में करना पड़ा। इससे क्या हुआ सो जानिए, जगन मोहन पर दबाव बना और उन्होंने इस्तीफा दे दिया। पांच पन्नों की चिट्ठी लिखी सोनिया को बहुत बुरा भला कहा। हालांकि उनके चाचा उनके साथ नहीं गए लेकिन किरण कुमार मंत्रिमंडल में जो मंत्री बने हैं ज्यादा उसमें नाखुश ही हैं। मतलब कि यहां भी कांग्रेस के लिए समय ठीक नहीं चल रहा है। अब उन्हीं की पार्टी का सांसद रहा शख्स पार्टी तोड़ चुका है। सोनिया की अध्यक्षता में पार्टी टूटने की पहली बड़ी घटना है। अभी भले चुनाव नहीं है लेकिन अगला चुनाव आसान नहीं होगा। जगन मोहन के पिता वाईएसआर की हेलिकॉप्टर हादसे में मौत हुई और इसके बाद जब सत्ता संभालने की बारी आई तो जगन की महत्वकांक्षाओं को नजरअंदाज करते हुए रोसैया को गद्दी दी गई उस वक्त जगन ने तो साथ दिया। लेकिन बाद में जगन ने अपनी पिता की मौत के बाद जिन समर्थकों ने खुदकुशी की थी उनके घरों का दौरा शुरु किया, कांग्रेस को ये मंजूर नहीं था जानते हैं क्यों... क्योंकि कांग्रेस के लोग नहीं चाहते कि पार्टी में कोई दूसरे परिवार का नेता क्षत्रप बनकर उभरे। वाईएसाआर अपवाद थे जिन्हें खुली छूट देना मजबूरी थी कांग्रेस की।
बिहार और दो मुख्यमंत्रियों को नाप कर आगे बढ़ते हैं। स्पेक्ट्रम घोटाले का भूत कब तक पीछा करेगा भगवान जाने। पंद्रह दिन तो हो चुका है कहीं महीना न हो जाए संसद के ठप हुए। जेपीसी जांच के दबाव के आगे सरकार का गणित काम नहीं कर रहा है। ऊपर से सुप्रीम कोर्ट से रोज फटकार मिल रही है। सीवीसी को लेकर मामला भी सरकार के खिलाफ जा चुका है। थॉमस की बहाली हो रही थी तो नेता विपक्ष सुषमा स्वराज ने विरोध किया था। लेकिन दो-एक के बहुमत से मनमोहन सिंह ने बना दिया । अब सुप्रीम कोर्ट में सरकार से लेकर सीवीसी तक सफाई दिए फिर रहे हैं।
अभी इतना ही थोड़े है सुरेश कलमाडी का खेल भी तो है। कॉमनवेल्थ वाले मामले में सीबीआई कलमाडी के मातहत काम करने वाले अफसरों को जेल में डाल चुकी है। किसी दिन कलमाडी साहब से भी पूछताछ होगी। कलमाडी भी पुणे से कांग्रेस के ही सांसद हैं, और बड़े पुराने नेता भी हैं। उधर हिमाचल वाले नेताजी, केंद्र में इस्पात मंत्री वीरभद्र सिंह के खिलाफ भी तो भ्रष्टाचार वाले मामले में शायद चार्जशीट दायर हो ही चुका है। और हां ये भी जान लीजिए कि रोज जो है कोई न कोई बड़े अफसरों के त्रिया चरित्र का खुलासा भी इसी में हो रहा है। सो बड़ा मुश्किल भरा टाइम चल रहा है कांग्रेस का। एतना टफ टाइम पार्टी के लिए कभी नहीं रहा होगा, नए जेनरेशन में। इंदिरा जी वाले टाइम का अंदाजा नहीं है इसलिए कह रहा हूं ।

Thursday, December 2, 2010

अब तेरा क्या होगा 'कालिया'...


बिहार चुनाव के नतीजों को लेकर नीतीश कुमार के विरोधी तो कभी भी ऐसी उम्मीद लगाकर नहीं बैठे रहे होंगे।चुनावी साल में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और नीतीश के हमकदम माने जाने वाले ललन सिंह ने अपना हिसाब किताब अलग कर लिया। नीतीश तानाशाह है,पार्टी में लोकतंत्र खत्म हो गया और न जाने दुनिया भर के क्या क्या बोलते बोलते पटना से डोलते डोलते दिल्ली में आसन जमा लिए। बिहार चुनाव से पहले कांग्रेस को सेट किया और अपना राजनीतिक प्लेटफॉर्म तैयार कर लिया। कांग्रेस को भी लगा कि भैया बड़ा नाम है,पुराना सहयोगी है नीतीश का हमारा भी फायदा कराएगा। सो सटा लिए बेचारे।अब सांसद बने जेडीयू के टिकट पर और चुनाव में प्रचार के लिए गाड़ी में कांग्रेस का झंडा लगाकर खूब घूमे, लेकिन लोगों ने लाइन पर ला दिया। अब तो कांग्रेस के लिए भी बेचारे किसी काम के नहीं रहे उपर से झंडा लगाके घूमने और कांग्रेस के मंच से भाषण देने को लेकर सदस्यता खतरे में है। नीतीश कुमार के लोग चाहते हैं कि इनको पार्टी से निकालकर शहीद बनाने के बजाए बेहतर होगा इनकी संसद सदस्यता के खिलाफ पहले शिकायत की जाए। लिहाजा चुनाव आयोग और लोकसभाध्यक्ष से शिकायत की तैयारी है। पूरा सबूत के साथ। अगर वहां से कुछ फायदे वाला जवाब पार्टी को नहीं मिला तो किसी भी दिन इनको चलता कर दिया जाएगा। काहे कि जिस बंटाईदारी बिल को लेकर बिहार में हाय तौबा मचाए थे उसको लेकर तो बंटाइदारी बिल वाले समाज के लोग सरकार के खिलाफ गए नहीं, तो भला अब समाज का विश्वास खो दिए, नेता का भरोसा खो दिया, जिसके साथ गए उसको कोई फायदा नहीं कराए तो ऐसे खोटे सिक्के का काम क्या ? जानते चलिए कि ललन सिंह अभी मुंगेर से जेडीयू के सांसद हैं।
औरंगाबाद के जेडीयू सांसद हैं सुशील कुमार सिंह।पहले विधायक हुआ करते थे.एक बार सांसद भी रहे। इस बार औरंगाबाद से चाहते थे कि भाई को टिकट मिले जेडीयू का।लेकिन सीट था बीजेपी के खाते का। चुनाव भर औरंगाबाद में नीतीश कुमार को
परेशान करते रहे। अंत में न कुछ समझ में आया को भाई को लड़ा दिए लालू की पार्टी के टिकट पर। पार्टी और गठबंधन के उ्म्मीदवार को हराने के लिए पूरा ताकत झोंक दिए, भाई तो इनके हारे ही, लेकिन जहां इनका घर पड़ता है वहां से भी नीतीश के उम्मीदवार की जीत हो गई। बीजेपी वाले जोर लगाए बैठे हैं, कि भइया इनको कल्टी कराओ। और तो और औरंगाबाद में इनको बैलेंस करने के लिए इन्हीं के समाज के नेता को जिन्होंने इनके भाई को हराया उनको मंत्री बना दिया गया है। इन पर अनुशासन का डंडा चलाने के लिए स्क्रिप्ट टाइप हो रहा है।
आगे बढ़िए महाबली सिंह बेचारे बीएसपी, आरजेडी और कहां कहां घूमते फिरते नीतीश की शरण में आए। चुनाव हुआ लोकसभा का तो इनको काराकाट से टिकट दे दिया। अब इनका खेल देखिए जिस चैनपुर सीट से विधायक थे वहां अपने सुपुत्र धर्मेंद्र को टिकट दिलवाकर विरासत बरकरार रखवाने के फेर में थे। लेकिन पार्टी ने मना कर दिया । और सुनिए इ तो विधायक बनने के बाद पार्टी बदलते रहे लेकिन इनके सुपुत्र इनसे भी फास्ट निकले, विधायकी के चुनाव लड़ने के लिए ही पार्टी बदल दिए। आरजेडी के टिकट पर लड़ गए। धर्मसंकट में फंसे बाबूजी ने पार्टी के नीति, सिद्धांत को ताखा पर रखके बेटा के लिए मोर्चा संभाल लिया, लेकिन बेटा बेचारा बाबूजी की विरासत को संभाल नहीं पाया।
पूर्णमासी राम लालू-राबड़ी के जमाने में खाद्य-आपूर्ति मंत्री होते थे, दूरदर्शी थे तभी मौका देखकर 2005 में ही पलटी मार गए और लोकसभा चुनाव के वक्त किस्मत ने साथ दिया तो गोपालगंज से जेडीयू के टिकट पर जीतकर दिल्ली का मुंह भी देख लिए। हालांकि लोकसभा चुनाव के बाद उनकी विधानसभा सीट पर जो उपचुनाव हुआ उसमें उन्होंने खेल कर दिया। बेटा के लिए टिकट चाहते थे, नहीं मिला तो खिलाफ में प्रचार किए और बगहा में पार्टी हार गई। सजा मिली तो इनको पार्टी से निलंबित भी कर दिया गया। लेकिन इस बार चुनाव से पहले फिर से उनको पार्टी ने सटा लिया। अबकी बार फिर बेटा का टिकट चाहते थे, अड़ गए, पार्टी ने फाइनली टिकट नहीं दिया। आदत से लाचार पूर्णमासी राम ने फिर मुंह खोला, बेटे को हरसिद्धि से लड़वा दिया वो भी कांग्रेस के टिकट पर। अब कहां बगहा और कहां हरसिद्धि। गोपालगंज के किसी सीट से लड़ते तो लोग शायद सोचते भी कि सांसद का बेटा है। इनको लगा कि पूरा बिहार का महादलित इन्हीं के इशारे पर चलता है। बेटा को कुल जमा छे हजार वोट मिले हैं। यहां भी बीजेपी के उम्मीदवार का खेल बिगड़ने चले थे जेडीयू के सांसद महोदय। अब इनका अपना खेल बिगड़ने वाला है।
मोनिजर हसन। लालू के साथ रहे तो लालू को तेल लगाया। पांच साल पहले नीतीश के साथ हुए तो नीतीश को तेल लगाया। नीतीश को लगा की मास लीडर है सो फायदा भी कराया। मंत्री बनाया। लोकसभा चुनाव के वक्त टिकट देकर सांसद बनवा दिया। वो भी उस बेगूसराय सीट से जहां इनको कोई पूछे न, लेकिन इनको तो लग रहा है कि पूरा बिहार के मुसलमानों के यही इकलौते नेता हैं। खैर विधानसभा का जब उपचुनाव हुआ तो उम्मीदवारी को लेकर ललन सिंह से भिड़ गए। नतीजा हुआ कि
उस समय लालू के उम्मीदवार की जीत हो गई। इस बार मोनाजिर भाई को लगा कि अपनी घरवाली को भी विधायक बना लेंगे। लेकिन शायद नीतीश को उपचुनाव वाला खेल याद था सो टिकट नहीं मिला। लेकिन खेलल-खालल नेता मानने वाला थोड़ा था, लालू से हाथ-गोर जोड़के अपनी बीवी को आरजेडी के टिकट पर खड़ा करवा दिए। बेचारा लालू की पार्टी के जो विधायक थे, साल भर में ही उनको मोनाजिर ने सेट कर दिया। लेकिन लोग तो भाई खेल समझ गया लगता है। तभी तो मोनाजिर की बीवी को सेट कर दिया। हार गई बेचारी। अब मोनाजिर किसी को मुंह नहीं दिखा रहे। पटना में रुकने की बात छोड़ दिजीए। नया घर तलाश रहे हैं। लेकिन लालू के लिए भी फूंके कारतूस हैं बेचारे।
उपेंद्र कुशवाहा से बहुत कम लोग परिचित होंगे। नीतीश के बाद पार्टी में किसी जमाने में नंबर दो हुआ करते थे। एक बार जन्दाहा से विधायक थे। झारखंड बंटा और सुशील मोदी के लिए जब नेता विपक्ष का नंबर घट गया तो समता पार्टी ने इन्हें विरोधी दल का नेता बनाया। 2005 के चुनाव में हार गए। इन्हीं के समाज के नागमणि की पूछ बढ़ गई और इनको कोई पूछने वाला नहीं रहा तो लगे नीतीश के खिलाफ अनाप-शनाप बोलने। पार्टी छोड़े, एनसीपी में चले गए। घूमघूम के कोइरी के नेता के रूप में अपनी दुकानदारी चमकाने की नाकाम कोशिश में जुटे। कोई फायदा नहीं दिखा तो लोकसभा चुनाव के बाद फिर से नीतीश से सेटिंग कर पार्टी में लौट आए। तब तक बेचारे नागमणी से नीतीश का संपर्क ठीक नहीं रह गया था। इनको लगा कि कोइरी के सबसे बड़े नेता तो हमही रह गए हैं। नीतीश की भी मजबूरी थी नागमणी भाग जो गए थे सो इनको राज्यसभा भेजा गया। अब देखिए राज्यसभा सांसद बनने के बाद लगे रंग दिखाने। लगा कि हमसे बड़़ा कोइरी का तो कोई नेता नहीं है, लेकिन टिकट बंटवारे में कोई पूछा नहीं इनको। उल्टे नीतीश ने इनसे भी बड़ा एक कोइरी के नेता को शामिल करा लिया। लेकिन इनका गणित काम कर गया, बेचारे कोइरी के बड़े नेता जो नीतीश के बौरो प्लेयर थे, हार गए हैं। अब कुशवाहा जी इसे अपनी जीत मान रहे हैं लेकिन नीतीश के लोग अपनी हार। अब इनका क्या होगा.. नीतीश जाने।
ये बात तो सिर्फ जेडीयू की है। आरजेडी में भी महाराजगंज वाले सांसद उमाशंकर सिंह परेशान हैं। चुनाव में उनको लालू ने पूछा नहीं। प्रभुनाथ सिंह की कर्ता धर्ता बने रहे। अब जिस प्रभुनाथ सिंह को हराकर वो सांसद बने थे उनकी बढ़ती हैसियत ने इनको नाराज कर दिया। चुनाव भर खाली आरजेडी और प्रभुनाथ सिंह के समर्थकों को घूम घूमकर हराने में लगे रहे। कामयाब भी रहे। अब नीतीश के विकास की माला जप रहे हैं। वैसे भी नीतीश के साथ काम कर चुके हैं। उपेंद्र कुशवाहा को जब विपक्ष के नेता बनाया गया था बिहार में। उस वक्त बिहार में समता पार्टी विधायक दल के नेता उमाशंकर सिंह ही थे। बाद में लालू से सट गए। अब इ क्या करेंगे या इनके साथ लालू क्या करेंगे ये तो ये जाने या फिर लालू।
ऐसे नेताओं के खिलाफ संगठन के लोग नाराज हैं। वैसे भी परंपरा तो गलत ही है, अनुशासन में लोग न रहे तो हर कोई ऐसा करेगा। तब तो भगवान मालिक है राजनीतिक दलों का।

Sunday, November 28, 2010

असली परीक्षा तो अब होगी



विकास, विकास और विकास। बिहार की नई पीढ़ी विकास का नाम भूल चुकी थी। लेकिन पिछले पांच सालों के दौरान उसने जो कुछ देखा, सुना उसका नतीजा है कि आज देश में विकास की बात हो रही है और बिहार का नाम लोग ले रहे हैं। नीतीश की जीत के कई मायने है। लेकिन अब सबसे बड़ी चुनौती है लोगों के लिए रोजगार के अवसर को पैदा करना। बिहार में बंद हो चुके उद्योग धंधे को फिर से पटरी पर लाना। बिहार से बाहर गए लोगों को बिहार वापस लाना। अब नीतीश के पास इसके बारे में क्या मॉडल है इसका खुलासा अभी न तो बिहार के सामने हुआ है और ना ही देश के सामने। बिहार की सियासत को बिरादरी की वजह से लोग ज्यादा जानते थे। इस बार भी बिरादरी को कम करके किसी ने नहीं आंका था लेकिन नीतीश से आस लगाए हर धर्म, जाति के लोगों ने बिरादरी को बाय बाय कर विकास को गले लगाया। कारण था उम्मीद। लोगों ने नीतीश कुमार में अपनी खुशहाली की तस्वीर देखी। लिहाजा नीतीश को दिल खोलकर करने का मौका दिया है। पिछले पांच साल की तुलना लालू-राबड़ी के पंद्रह साल से होती रही, लिहाजा नीतीश का पांच साल भारी पड़ा। अब जब नीतीश की तुलना उनके अपने पांच साल से होनी है लिहाजा चुनौती बड़ी है। बिहार में रहने वाले लोग अब चमचमाती सड़कों के आदि हो चुके हैं। उनके लिए चमचमाती सड़कें, स्कूल में समय पर शिक्षकों का आना, अस्पताल में डॉक्टरों का समय से पहुंचना धीरे धीरे पुरानी बातें होती चली जाएंगी। बिहार से बाहर रहने वाले लोग साल में पर्व त्योहार, शादी ब्याह के मौके पर एक आध बार बिहार जाते हैं लिहाजा उनके लिए चमचमाती सड़कें और वहां का बदला माहौल जरूर नया होता है लेकिन जो लोग वहीं रहते हैं उनके लिए ये बातें नई नहीं होंगी। लिहाजा अब उनकी नई अपेक्षाओं पर खुद को साबित करना नीतीश के लिए चुनौती का काम होगा।
बिहार की पुरानी सड़कें चमचमा जरूर रही है, लेकिन ट्रैफिक की समस्या बड़ी समस्या बनती जा रही है। चाहे पटना हो या मुजफ्फरपुर। छपरा, दरभंगा और जहानाबाद हर शहर और शहर के बाहर व्यस्त सड़कों पर ट्रैफिक का बोझ बढ़ता जा रहा है। कारण भी है बिहार के लोगों की परचेंजिंग कैपेसिटी जिस अनुपात में बढ़ रही उस अनुपात में कोई ग्रेटर पटना या ग्रेटर दरभंगा टाइप नया कुछ नहीं हो रहा है। और फोर लेन या सिक्स लेन का मामला हर जगह के लिए है भी नहीं। इस टाइप की समस्या से निपटने के लिए भी कुछ जल्दी ही करना होगा।
सेंट्रल यूनिवर्सिटी, आईआईटी, आईआईएम टाइप आइटम भी 9 करोड़ वाले बिहार को चाहिए। कब तक यहां के लड़के टपला खाते फिरेंगे। जात पात के बंधन से ऊपर उठकर लोगों ने मौका दिया है तो हर लेवल पर मुस्तैदी से खड़ा होना होगा।
विरोधी तो विरोधी समर्थक भी कहते हैं कि नीतीश के कार्यकाल में अफसरशाही को मजबूती मिली है, और घूसखोरी, भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला है। सच्चाई भी है। लूटने की आदत पहले से पड़ी हुई है जिसका ठीक करना होगा। ट्रांसफर, पोस्टिंग और छोटी मोटी बहालियों में भी लाखों का खेल रुका नहीं है। अंतर इतना हुआ कि पहले टेबल के ऊपर से होता था अभी टेबल के नीचे से हो रहा है, इस चीज को सुधारने का मौका बिहार के लोगों ने दिया है।
अपराध पूरी तरह काबू में नहीं आ सकता इसको हर कोई मानता है लेकिन अपराधियों को जिनका आशीर्वाद मिला है वैसे लोगों पर कंट्रोल कीजिए ताकि समाज खुशी से कमा सके, खा सके। लोग खुश रहेंगे, आप खुश रहेंगे। लोगों को कष्ट हुआ तो आप भी चैन से सो नहीं पाएंगे, उन लोगों की तरह।
फिलहाल चुनौतियां पहले से ज्यादा है।साबित को साबित करना है जो कर दिया उसको भी ले चलना है। करने के लिए पूरा वक्त भी है। सत्ता के अहंकार का वक्त नहीं है। अभी वक्त माहौल को और ठीक करने का है। और हां किसी और के लिए बिहार में फिलहाल कोई स्कोप नहीं है। ऊपर से इतिहास गवाह है बिहार की धरती पर उठकर जो गिर गया दोबारा कभी नहीं उठा है। मौका बेहतर है सेवा करके साबित कीजिए । इस बार सत्ता के शिखर पर पहुंचाने वाला वोटर न तो कुर्मी था न कोइरी, न कोई राजपूत,भूमिहार, वैश्य, मुसलमान या फिर यादव, पूरे बिहार ने चुना है अब बिहार को यकीन दिलाइए।

Thursday, September 23, 2010

अब के नीतीश पर 'नजर' डालिए


जॉर्ज, नीतीश जिंदाबाद, ललन,दिग्विजय जिदाबाद। नीतीश कुमार का जब तक राजतिलक नहीं हुआ था बिहार में कुछ ऐसे नारे लगते थे। 2005 से पहले के बैनर अगर किसी को याद है तो उनको ये नारा भी याद होगा। प्रचार के दौरान बैनरों पर सबसे ऊपर कुछ ऐसा ही लिखा होता था। लेकिन 2005 में जब नीतीश सत्तासीन हुए तो हालात बदल गये। 2010 आते आते हालात बहुत ज्यादा बदल चुके हैं। नीतीश को 2005 में सत्ता के करीब ले जाने वाले जिन चार नामों का जिक्र उस वक्त होता था उन चार में से तीन नाम आज नीतीश से दूर हैं। मुख्यमंत्री बनते ही नीतीश ने सबसे पहले अपने राजनीतिक गुरु जॉर्ज को ठिकाने लगा दिया। शरद यादव ने पार्टी में जॉर्ज की जगह ले ली। राजनीतिक जीवन के आखिरी समय में जॉर्ज की जो स्थिति है उससे कोई अंजाना नहीं है। 20 साल तक नीतीश की राजनीति का प्रबंधन देखने वाले ललन सिंह नीतीश से दूर जा चुके हैं। 2005 में जब पार्टी सत्ता में आई थी ललन सिंह प्रदेश अध्यक्ष थे, जॉर्ज राष्ट्रीय अध्यक्ष। प्रभुनाथ सिंह को नीतीश ने दरकिनार करना शुरू किया नतीजा आज वो लालू के साथ गलबहियां कर रहे हैं। इन नामों के अलावा नीतीश को सत्ता के शिखर पर ले जाने में अहम भूमिका निभाने वाले दिग्विजय सिंह का नाम भी प्रमुख है। बांका से सांसद रहे दिग्विजय दक्षिणी बिहार में पार्टी की कमान संभालते थे। बुद्धजीवियों का बड़ा वर्ग दिग्विजय के जरिये ही पार्टी के करीब था। लेकिन सत्ता में आने के बाद नीतीश ने दिग्विजय सिंह को भी साइड कर दिया। एनडीए की सरकार में समता पार्टी कोटे से तीन मंत्री हुआ करते थे जॉर्ज, नीतीश और दिग्विजय। पार्टी बनने के वक्त से ही दिग्विजय पार्टी के हर फैसले के गवाह रहे थे। लेकिन नीतीश ने साल 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्हें बांका से पार्टी का उम्मीदवार तक नहीं बनाया। लेकिन दिग्विजय न सिर्फ पार्टी से बगावत कर इस सीट से जीते बल्कि पार्टी के उम्मीदवार को लड़ाई के लायक भी नहीं छोड़ा। हालांकि दिग्विजय अब इस दुनिया में नहीं हैं। कहने का मतलब ये कि नीतीश को सत्ता के शीर्ष तक ले जाने वाले चेहरे सिर्फ बैनर पोस्टर से ही नहीं नीतीश के आसपास से भी दूर जा चुके हैं। सीएम बनने के बाद एकएक करके नीतीश ने पुराने साथियों को साइड करना शुरू किया तो नए नए लोगों को अपनी सिपहसलार बनाया। ये वो वक्त था जब लोकतांत्रिक पार्टी की जगह जेडीयू व्यक्ति विशेष के प्रभाव वाली पार्टी बनती जा रही थी। 2005 के चुनाव में बिहार ने नीतीश को वोट नहीं दिया.. वोट लोगों ने बदलाव को दिया और उस बदलाव का नेतृत्व नीतीश को दिया गया था। नेतृत्व देने वाले लोगों को ही नीतीश ने किनारा कर दिया। नीतीश की छवि इस वक्त पार्टी में तानाशाह की तरह उभरने लगी थी। इसकी पृष्ठभूमि नीतीश धीरे धीरे 2004 लोकसभा चुनाव के वक्त से ही लिख रहे थे... जब जॉर्ज को नालंदा सीट छोड़ने के लिए कहा और खुद नालंदा से लड़ने गये। नीतीश और जॉर्ज के बीच मनमुटाव की शुरुआत हो चुकी थी लेकिन बिहार में लड़ाई बदलाव की थी सो अंहकार को फिलहाल साइड रखा गया। हालांकि नीतीश की स्क्रिप्ट के मुताबिक राजनीति का खेल जारी था। एक जमाने में समता पार्टी का साथ छोड़कर गए शिवानंद तिवारी, वृषण पटेल ने लालू का साथ छोड़ फिर से नीतीश का दामन थाम लिया था। नीतीश ने गले लगाया और अहम जिम्मेदारियों से नवाजा। जिंदगी भर कांग्रेस की सियासत करने वाले जगन्नाथ मिश्रा 2004 में ही नीतीश के शरणागत हो गये थे। 2005 में
रामाश्रय प्रसाद सिंह भी नीतीश कुमार के साथ हो गए। जगन्नाथ मिश्रा के सुपुत्र को बिहार में मंत्री बनाया गया तो रामाश्रय सिंह खुद नीतीश सरकार में मंत्री बने। (यहां याद दिलाते चलें कि जब बिहार में कांग्रेस के कमजोर होने का दौर शुरू हुआ था जगन्नाथ मिश्रा ने अलग पार्टी बना ली थी तब बिहार में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता हुआ करते थे रामाश्रय सिंह।) लालू का साथ छोड़ कर नीतीश का साथ देने आए मोनाजिर हसन जैसे नेता भी नीतीश के करीबी हो गये और कैबिनेट मंत्री बनाकर अहम मंत्रालय दिया गया। ये तो बात रही सत्तासीन होने के बाद के शुरुआती दिनों की.. लेकिन धीरे धीरे जैसे समय बीतता गया नीतीश ने अपने आसपास से पुराने वफादार नेताओं को साइड करना तेज कर दिया। नीतीश को कोई मलाल नहीं था कि उनके साथ कौन से लोग जुड़ रहे हैं और कौन से लोग उनसे दूर जा रहे हैं। लालू को जानने वाले लोग रंजन यादव को नहीं भूल सकते। लालू के बाद नंबर दो का दर्जा मिला था। बाद में लालू को धोखेबाज कहते हुए अलग हो गये थे। एक वक्त कहा जाता था कि लालू की पार्टी में लालू से ज्यादा रंजन यादव के समर्थक विधायक हैं। वो रंजन यादव नीतीश की टीम में शामिल हो गये। बाद में जेडीयू के टिकट पर पटना से सांसद बने। 2009 लोकसभा चुनाव के बाद तो परिस्थितियां बिल्कुल ही बदल गई। 25 में से 20 सीट जीतने के बाद नीतीश आसमान में थे और यही वक्त था जब नीतीश को और आसमान में ले जाने वाले लोग उनसे जुड़कर अपना नंबर सेट करने लगे। नीतीश तो प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में गिने जाने लगे थे। खैर चुनाव के तुरंत बाद विधानसभा उपचुनाव का जब वक्त आया तो रमई राम और श्याम रजक जैसे लालू के दाएं-बाएं बैठने वाले नेता नीतीश के साथ आ गए। (रमई राम के बारे में बता दें आपको लगातार चार बार से विधायकी जीत रहे थे.. पार्टी में दलितों का सबसे बड़ा चेहरा। लगातार लालू-राबड़ी राज में मंत्री, बेटी को लालू ने विधान पार्षद बनवाया। लोकसभा का टिकट नहीं दिया तो पार्टी छोड़ दी।) श्याम रजक जो लालू राबड़ी की शान में कसीदे गढ़ते थे। जो लालू के किचन कैबिनेट के मेंबर हुआ करते थे। उन्होंने भी लालू से किनारा किया तो नीतीश ने अपने गले लगा लिया। हालांकि नीतीश की पार्टी से रमई राम और श्याम रजक दोनों विधानसभा उपचुनाव हार गये। आगे बढ़िये तो विजय कृष्ण, जो विजय कृष्ण कई बार बाढ़ से सांसद रहे और 2004 के लोकसभा चुनाव में नीतीश को जिन्होंने हरा दिया था, 2009 चुनाव हारने और हत्या के एक केस में फंसने के बाद नीतीश के शरणागत हो गये। दर्जन भर से ज्यादा मुकदमों के आरोपी तस्लीमुद्दीन का नाम सुना होगा आपने, देवेगौड़ा की सरकार में मंत्री थे लेकिन गृह राज्यमंत्री के पद से हटा दिया गया था। नीतीश राज में कानूनी शिकंजा कसने का डर सताया तो नीतीश की शरण में ही चले गये। नीतीश ने इस बाहुबली नेता को तहे दिल से गले लगाया। उपेंद्र कुशवाहा, अरुण कुमार सिंह जैसे पुराने नेता समता पार्टी के संस्थापकों में से रहे लेकिन सरकार बनने के बाद ही नीतीश से इनके संबंध खराब हो गये... लेकिन राजनीतिक मजबूरी देखिए ललन सिंह की कमी को पाटने के लिए अरुण कुमार को वापस लाया गया है। बताते हैं कि ललन सिंह उपेंद्र कुशवाहा को पार्टी में वापस लाने के पक्ष में नहीं थे लेकिन लोकसभा चुनाव से पहले नागमणि(कोइरी) के पार्टी छोडकर जाने के बाद कोइरी नेता की जो कमी रह गई थी उसे पाटने के लिए उपेंद्र कुशवाहा को लाया गया है। उपेंद्र की वापसी ललन सिंह की मर्जी के बगैर हुई लिहाजा ललन कल्टी मार गये। अब उपेंद्र कुशवाहा की मर्जी के बगैर उस कोइरी जाति के विधायक को जेडीयू में शामिल कर लिया गया है जिसने 2005 के विधानसभा चुनाव में उपेंद्र कुशवाहा को हरा दिया था। उपेंद्र कुशवाहा फिर से नाराज बताये जा रहे हैं। ललन सिंह के जाने के बाद विजय चौधरी को बिहार में पार्टी का अध्यक्ष बना दिया गया। विजय चौधरी की पार्टी में वैसे तो पहले से कोई पहचान नहीं थी लेकिन अब कार्यकर्ता उनका नाम जान गये हैं। उधर जिस बांका से लालू की पार्टी के टिकट पर सांसद रहे गिरधारी यादव भी नीतीश की शरण में पहुंच चुके हैं। एक बात गौर करने वाली ये है कि चुनाव पूर्व दलबदल एक प्रक्रिया है। लेकिन इस प्रक्रिया में उस चीज का ख्याल नहीं रखा जा रहा जो नीतीश सरकार की पहचान है। लालू और नीतीश में अब क्या फर्क रह गया है सिर्फ दोनों के चेहरों के अलावा। कल जो लालू के जंगल राज के मजबूत सिपाही थे आज की तारीख में वो नीतीश के राज के मजबूत सिपाही बन गये हैं।

नीतीश के पास जो चौकरी आजकल चक्कर काट रही है उसको पहचानिए..... विजय चौधरी(अध्यक्ष, बिहार जेडीयू) कोई दाग नहीं है नई पहचान बना रहे हैं। शिवानंद तिवारी(राष्ट्रीय प्रवक्ता) दाग ही दाग, कब लालू की पार्टी में कब नीतीश के साथ उनको भी नहीं पता। श्याम रजक(सालों तक लालू की किचन कैबिनेट के सदस्य)खासियत देखिए- आज बिहार सरकार का पक्ष घूम घूम कर मीडिया में रख रहे हैं। साल भर पहले लालू के जंगल राज वाली पार्टी को छड़कर इधर आए हैं बयान सुनिएगा तो लगेगा कि लालू के जंगल राज के खिलाफ 94से लड़ रहे हैं। पहले लालू के लिए मीडिया को फोनो देते थे अब नीतीश के लिए फोनो देते हैं। रमई राम(90-2005 तक लगातार भूमि राजस्व मंत्री) नीतीश की पार्टी से विधानसभा उपचुनाव हारे तो क्या हुआ अनुसूचित जाति आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया। बिहार में दलित-महादलित का फर्क कर जीत का गणित बनाने वाले नीतीश को पांच साल तक कोई दलित नेता नहीं मिला जिसे ये पद दे सके। खैर...अल्पसंख्यक चेहरों की कमी पड़ गई है जो पहले से थे वो नाराज चल रहे हैं... मोनाजिर हसन के बारे में भूल गये हैं तो बता देता हूं... 2005 में चुनाव से पहले लालू को छोड़कर आए थे जेडीयू से जीते भवन निर्माण मंत्री बनाया गया लालू-राबड़ी कैबिनेट में भी यही ओहदा था। खैर मुख्यमंत्री निवास खाली करने का विवाद 2005 में जब चर्चा में आया तो मोनाजिर ने लालू से पंगा लिया.. लालू ने इनको टीटीएम मंत्री बना दिया..माने.. ताबड़तोड़ तेल मालिश मंत्री कहकर पुकारा.. हालांकि नीतीश के सामने इनका नंबर बन गया.. लेकिन 2009 में जब से ये सांसद बने हैं उनका मामला ठीक नहीं चल रहा सो नीतीश अल्पसंख्यक नेताओं के ऑपरेशन में जुटे हैं। दो दिन पहले एलजेपी की पूरी अल्पसंख्यक यूनिट को पार्टी में ले आए.. अब उन्हीं की पार्टी के विधायक इजहार अहमद को भी ला रहे हैं। तस्लीमुद्दीन को पहले से ही चेहरा बनाकर घूमा रहे हैं। वैसे शहाबुद्दीन को भी अपनी पार्टी में लेने के इच्छुक थे नीतीश। सीवान दौरे के दिन पिछले महीने हीना शहाब से मिलने की पूरी तैयारी हो चुकी थी लेकिन लालू को खबर लगी और पलीता लग गया। लालू पहुंचे सीवान जेल और शहाबुद्दीन को समझा बुझाकर शांत कराया। कहने का मतलब ये कि लालू और नीतीश में फर्क अब सिर्फ दोनों के अपने चेहरे का रह गया है। क्योंकि सुशासन की परिभाषा लिखने वाले पुराने नेता नीतीश से किनारे हो चुके हैं और जंगल राज के सिपाही अब नीतीश के सिपहसलार बन गए हैं। जानकार बता रहे हैं कि नीतीश के राज में जिस तरीके से बाहुबलियों का बुरा हश्र हुआ है बचे खुचे दूसरे दलों के बहाबुली चुनाव के मौके पर सेफ हैंड खेल नीतीश दरबार में नंबर बनाने में जुटे हैं। भला हो बिहार का...अब जंगल राज वाले नेता नीतीश की पार्टी से जीतकर आएंगे तो नीतीश को कौन से राज का मुखिया बनाएंगे... जंगल राज का या सुशासन के राज का??? ऐसे नेताओं के बारे में बिहार को गंभीरता से सोचना होगा। क्योंकि एक आदमी ही गलत होगा ये कहना ठीक नहीं हो सकता क्योंकि उस आदमी के आसपास वाले लोग कहीं से भी ठीक नहीं माने जा सकते। लालू और उनके पुराने संबंधियों के बारे में कुछ ऐसा ही समझना पड़ेगा। क्या कहते हैं...????

नीतीश के विकास पर बटन दबाएगा बिहार!


बिहार में नीतीश कुमार का सहारा है विकास। नारा भी विकास ही है। चूंकि बिहार की राजनीति बिना जात पात के संपूर्ण नहीं है लिहाजा नीतीश को ये जोड़ तोड़ करना पड़ रहा है। वैसे पार्टी नेता विकास के भरोसे आत्मविश्वास से भरे हुए हैं। होना भी चाहिए क्योंकि इससे पहले के पंद्रह साल की तुलना में नीतीश का पांच साल कई गुणा भारी पड़ता है। नीतीश के नेता, कार्यकर्ताओं का सीना इसलिए भी फूला हुआ है कि फीड बैक विकास को लेकर सही आ रहा है। विरोधी भी विकास की दुहाई दे रहे हैं। हालांकि चुनाव है नतीजों का जोड़ घटाव तो वोट देने से पहले तक बदलता रहता है फिर भी आकलन जो कोई भी कर रहा है हवा नीतीश के पक्ष में बता रहा है। बिहार के कुछ लोगों की बातों पर गौर करें तो, पिछली सरकार की तुलना में नीतीश की सरकार में किए गए कुछ काम बेहतर कहने लायक है। राजधानी पटना ही नहीं बिहार के ज्यादातर इलाकों में सड़कें चलने लायक हो गई हैं। कानून व्यवस्था के हालात भी बेहतर हुए हैं। शाम होते ही बाजारों की रौनक गायब हो जाती थी कम से कम इन पांच सालों में लोगों का मनोबल बढ़ा है। जिस तरीके से लालू-राबड़ी के राज में कानून तोड़ने वालों का मनोबल बढ़ा था कम से कम नीतीश के राज में कानून पर भरोसा करने वालों का मनोबल मजबूत हुआ है। पहले लोग दूसरों से तुलना करते थे अब लोग अपने में मस्त होने लगे है। विकासशील व्यवस्था की पहचान इसको मान सकते हैं। लिहाजा इस विकासशील व्यवस्था को विकसित बनाने के लिए जरूरी है कि बिहार को कम से कम पांच साल के लिए नीतीश पर भरोसा करना चाहिए। बिहार की एक पूरी पीढी ने कभी विकास नाम का शब्द बिहार की धरती पर नहीं सुना था। आज पहली बार उस पीढ़ी का नौजवान अपने घर में अपनों से विकास की बात सुन रहा है। बचपन उसका जंगल राज के साये में गुजरा था.. थोड़ा सयाना हुआ तो उसने विकास की परिभाषा को समझने की कोशिश की.. अब वो विकास की बात घर से लेकर बाहर तक सुन रहा है। मतलब नई पीढ़ी के जरिये बिहार के गांव और कस्बों में विकास लौट रहा है। आज राजनीति को समझने वाला हर शख्स देश की राजनीति को समझ रहा है उसमें अगर कोई दो पैसा भी बेहतर करता है तो दांव उसपर लगाने में कोई बुराई नही है। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी बहुत कुछ बदलाव हुआ है.. वैसे बिहार में बहुत चीजें ऐसी है जिसे करने की जरूरत है। नीतीश के समर्थक भी यही बात कह रहे हैं, पंद्रह साल या फिर उससे पहले के शासन में जो नहीं हुआ उसे अगर कोई करना चाहता है तो उसे मोहलत दी जानी चाहिए। कुल मिलाकर ये कह सकते हैं कि आज की तारीख में पहले की तुलना में शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून व्यवस्था, सड़क के मामले में बिहार ने तरक्की की है। दिल्ली, नोएडा, मुंबई के बाद मीडिया के मामले में बिहार आज पावर सेंटर बनकर उभर रहा है। हालांकि इंडस्ट्री, बिजली, रोजगार के अवसर जैसे मामलों में बिहार को काम करने की जरूरत है। पहले के नेता इन मामलों के बारे में सोचते तक नहीं थे, आज अगर कोई सोच रहा है तो कम से कम उसे उसका ड्राफ्ट तैयार करने का वक्त मिलना चाहिए। भरोसा सबसे बड़ी चीज है अब तक बिहार को किसी पर भरोसा नहीं था लेकिन आज बिहार किसी की तरफ मुंह उठाकर देख तो रहा है। लिहाजा जाति, धर्म से उपर उठकर इस बार बिहार में विकास के इसी हथियार को चुनावी हथियार बनाने की तैयारी कर रहे हैं नीतीश कुमार। और हां बिहार का हर शख्स अपना एक राजनीतिक नजरिया रखता है इसलिए उसे पाठ पढ़ाना आसान नहीं होता। अब सवाल उठता है कि बिहार का वो नजरिया पंद्रह साल तक कहां था। तो इसका जवाब आप इस रूप में समझ सकते हैं कि बिहार को तब यही पसंद था। जिस लालू को जमाने में बिहार के सभी धर्म, जाति, संप्रदाय के लोगों ने 1990 में मदद की थी उन्हीं लोगों ने 2005 में लालू को उखाड़ दिया। लालू को उखाड़ने के लिए बिहार में किसी को बाहर से नहीं बुलाना पड़ा। लालू के साथी रहे लोगों ने ही उन्हें धरातल का रास्ता दिखाया था। अब चूंकि नीतीश के राज में लालू-राबड़ी राज की तरह कोई बड़ी शिकायत नहीं मिली है कि इसे धरातल का रास्ता अभी ही दिखा दिया जाए। अभी तो बिहार के पुनर्निर्माण की शुरुआत है। लिहाजा बिहार के हर धर्म, जाति, संप्रदाय. बड़े, छोटे लोगों को बिहार के विकास में अपनी भागीदारी को सुनिश्चित करने का वक्त आया है। उम्मीद है इस बार अपने बिहार को और बेहतर बनाने के लिए बिहार बेहतर फैसला करेगा। आदमी उम्मीद किससे करता है, उसी से जो उसकी उम्मीदों पर खड़ा उतरता है। पहले के लोग उम्मीद नहीं करते थे, अब किसी ने उम्मीद करना सिखाया तो लोग उम्मीद करने लगे हैं। शायद यही वजह है कि लोग नीतीश कुमार से और ज्यादा उम्मीद कर रहे हैं...जिन उम्मीदों पर नीतीश की सरकार खड़ी नहीं उतरी उसी को भुनाने में लगे हैं सरकार के विरोधी। उपर ही मैंने जिक्र किया कि बहुत कुछ करने की जरूरत है सो एक बार उसी उम्मीद के भरोसे बिहार का बेहतर भविष्य चुनिए, ताकि बिहार से बाहर रहने वाले लोग अपने बिहार की दुहाई दे सके। लेकिन सवाल अब भी है कि क्या नीतीश के विकास पर बटन दबाएगा बिहार।

Tuesday, September 21, 2010

बिहार चुनाव 2010 : कुछ सत्य

27 सितंबर को पहले दौर के चुनाव के लिए बिहार में अधिसूचना जारी होगी। फिलहाल चुनाव से पहले दल बदल का काम जोरों पर है। बिहार के चुनाव में दिलचस्पी रखने वाले लोग ये जानना जरूर चाहेंगे कि कौन सा नेता अभी किस पार्टी में चला गया है। लिस्ट लंबी है। नजर डालिए।
1.अखिलेश सिंह(पूर्व केंद्रीय मंत्री) आरजेडी छोड़कर कांग्रेस में जा चुके हैं।
2.सुभाष यादव,आरजेडी से इस्तीफा,जेडीयू,ददन पहलवान की पार्टी में तय नहीं।
3.तस्लीमुद्दीन(पूर्व केंद्रीय मंत्री), आरजेडी छोड़ जेडीयू में शामिल।
4.सरफराज आलम, तस्लीमुद्दीन के बेटे, आरजेडी छोड़ जेडीयू में शामिल
5.इजहार अहमद(लोजपा विधायक, घनश्यामपुर) जेडीयू में शामिल
6.विजेंद्र चौधरी(निर्दलीय विधायक), मुजफ्फरपुर अब लोजपा में शामिल
7.राजेश सिंह(आरजेडी विधायक, धनहा) अब जेडीयू में शामिल
8.जमशेद अशऱफ(जेडीयू विधायक)बलिया, अब कांग्रेस में शामिल
9.सुखदेव पासवान, पूर्व सांसद(अररिया) बीजेपी से लोजपा अब कांग्रेस में शामिल
10.नागमणि(पूर्व मंत्री), जेडीयू से आरजेडी अब कांग्रेस में शामिल
11.सुचित्रा सिन्हा(कुर्था से जेडीयू विधायक), नागमणि की पत्नी अब कांग्रेस में शामिल
12.प्रभुनाथ सिंह(पूर्व सांसद, महाराजगंज) जेडीयू से आरजेडी में शामिल
13.अनिल कुमार (भोरे विधायक, आरजेडी) कांग्रेस में शामिल
14.गिरिधारी यादव(पूर्व सांसद, बांका) आरजेडी से कांग्रेस अब जेडीयू में शामिल
15.अरुण सिंह(पूर्व सांसद,जहानाबाद)जेडीयू,लोजपा,कांग्रेस होते जेडीयू में शामिल
16.राम लखन महतो(दलसिंहसराय से आरजेडी विधायक), अब जेडीयू में शामिल
17.अच्युतानंद सिंह(लोजपा विधायक, जन्दाहा) अब बीजेपी में शामिल
18.उपेंद्र कुशवाहा(पूर्व विधायक), जेडीयू, एनसीपी, होते हुए फिर जेडीयू में शामिल
19. श्याम रजक(आरजेडी रमई राम(आरजेडी से कांग्रेस)जेडीयू में शामिल हो चुके हैं।
20.आनंद मोहन पत्नी लवली के साथ अभी कांग्रेस में हैं।
21.पप्पू यादव भी पत्नी के साथ अभी कांग्रेस में हैं।
22.कांटी विधायक अजीत कुमार अभी तो जेडीयू में हैं।
23.राजन तिवारी, लोजपा में हैं जेल में बंद।
24.जगन्नाथ मिश्रा, पुत्र नीतीश के साथ फिर से जेडीयू के साथ हैं।
25.सांसद ललन सिंह, तकनीकी तौर पर जेडीयू में हैं, दिल कांग्रेस में।
26.कैप्टन जयनाराण निषाद, मुजफ्फरपुर सांसद, जेडीयू से नाराज
27.पूर्णमासी राम, सांसद गोपालगंज, जेडीयू से नाराज

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नवंबर 2005 चुनाव के कुछ जानने वाले तथ्य-
जेडीयू और बीजेपी ने तालमेल कर 139 और 102 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे
जेडीयू को 88 सीटें मिली थी, बीजेपी को 55
आरजेडी ने कांग्रेस से तालमेल किया था। आरजेडी 175, कांग्रेस 51 सीटों पर लड़ी थी।
आरजेडी को 54, कांग्रेस को तब 9 सीटें मिली।
आरजेडी ने 10 सीटें सीपीएम के लिए छोड़ी थी। , एक पर जीत मिली
लोजपा ने सीपीआई, फॉरवर्ड ब्लॉक, आरएसपी से तालमेल किया था।
203 सीटों पर लड़कर लोजपा ने 10 सीटें जीती
35 सीटों पर लड़के सीपीआई को 3 सीटें मिली।
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पहले दौर का चुनाव 21 अक्टूबर
, दिन गुरुवार को 47 सीटों पर होगा।
27 सितंबर से 4 अक्टूबर तक नामांकन, 5 को नामंकन पत्रों की जांच
7 अक्टूबर को नाम वापस लेने की अंतिम तारीख होगी।
मधुबनी, सुपौल, अररिया, किशनगंज, पूर्णिया, कटिहार, मधेपुरा, सहरसा की 47 सीटें।
जेडीयू के पास अभी 16,बीजेपी 13, आरजेडी 5,कांग्रेस के पास 4 अन्य 8 सीटें हैं।
(किशनगंज में एक सीट बढ़ा है)
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दूसरे दौर का चुनाव 24 अक्टूबर दिन रविवार को 45 सीटों पर होगा।
29 सितंबर से 6 अक्टूबर तक नामांकन ,7 को जांच, 9 को नाम वापसी की आखिरी तारीख।
शिवहर,सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर,दरभंगा,समस्तीपुर,मोतिहारी(12 में से 5 सीट) की 45 सीटें।
जेडीयू के पास अभी 13,बीजेपी 7, आरजेडी के पास 18, एलजेपी 3, कांग्रेस 1, अन्य 2
(दरभंगा में एक नई सीट )
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तीसरे दौर का चुनाव 28 अक्टूबर गुरुवार को 48 सीटों पर होगा।
4 अक्टूबर से 11 अक्टूबर तक नामांकन,12 को जांच,14 नाम वापसी की आखिरी तारीख।
बेतिया, मोतिहारी, गोपालगंज, सीवान, छपरा, वैशाली की 48 सीटें।
जेडीयू के पास अभी 15, बीजेपी 14, आरजेडी 11, लोजपा 3, कांग्रेस 1,बीएसपी 1, अन्य 2
(मोतिहारी में एक नई सीट)
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Sunday, September 19, 2010

कांग्रेस के आंगन में किलकारी...


20 साल बाद बिहार कांग्रेस के आंगन में किलकारी गूंज रही है। बीते 20 साल में कांग्रेस की यहां जो स्थिति थी वो किसी से
छिपी नहीं है। सालों तक यहां कांग्रेसियों ने राज किया लेकिन एक बार हाथ से सत्ता निकली तो फिर पिछलग्गु बनकर रह गये।
90 में लालू के सत्ता में आने के वक्त भी पार्टी हार भले गई थी लेकिन स्थिति बेहतर थी.. लेकिन धीरे धीरे नाम लेने वाला
कोई नहीं बचा। सबसे बुरा वक्त तो कांग्रेसियों के लिए रहा 2004-2005 का। पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा, कभी कांग्रेस विधायक दल के नेता (विपक्ष के नेता) रहे रामाश्रय प्रसाद सिंह, प्रदेश अध्यक्ष रामजतन सिन्हा जैसे जन्मजात कांग्रेसियों ने पार्टी से नाता तोड़ लिया। अपने राजनीतिक फायदे के लिए कोई नीतीश के साथ गया तो कोई पासवान के साथ। लेकिन एक बार
फिर से दिन फिरने को है। पटना के सदाकत आश्रम में इन दिनों दिन में ही दिवाली मन रही है। रोज मिलन समारोह आयोजित हो रहे हैं।
आज बिहार में कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं है। साल 2005 के विधानसभा चुनाव में लालू से तालमेल कर कांग्रेस के 51 उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे। 9 सीटों पर जीत मिली। कुल 6.09 फीसदी वोट मिले, यानी 51 उम्मीदवारों को मिले 14 लाख 35 हजार 449 वोट। लेकिन लोकसभा 2009 के चुनाव में हालात बदल गये। हालांकि पार्टी को एक सीट का नुकसान हुआ लेकिन अकेले चुनाव लड़कर भी दो सीटों पर जीत मिली, और राज्य में कांग्रेस को जिंदा करने में मजबूती मिली। 2009 के लोकसभा चुनाव में आरजेडी से नाता तोड़ कांग्रेस ने जो फसल बोने का काम किया था अब उसे इस विधानसभा चुनाव में उसके काटने का वक्त आ गया है। हालांकि कांग्रेस के पास बिहार में अब भी कोई सबसे बड़ा सर्वमान्य चेहरा नहीं है जिसके दम पर वोट मांगने की पार्टी हिम्मत कर सके। लेकिन बदले हालात में पार्टी किसी भी गठबंधन (लालू या नीतीश)को चुनौती देने की हैसियत में है इससे इनकार नहीं कर सकते। तभी तो लगातार नीतीश और लालू दोनों कांग्रेस पर वार करते दिख रहे हैं। अब खासियत देखिए कांग्रेस का जो शुरुआती आधार वोट रहा है उसका झुकाव फिर से पार्टी की ओर लौट रहा है। विधानसभा उपचुनाव 2009 में इसकी झलक देखने को मिली थी। देश की वर्तमान विषम राजनीतिक परिस्थितियों को भुनाने में विपक्षी नाकाम है लिहाजा बिहार में कांग्रेस को ललकारने का घाटा नीतीश और लालू को ही है। बाद इसके आज की तारीख में बिहार के ज्यादातर बाहुलबली कांग्रेस का दामन भी थामे हुए हैं। कोसी के इलाके में आनंद मोहन हों या फिर पप्पू यादव। लालू के साले साधु यादव भी कांग्रेस में ही हैं। रही सही कसर को संपूर्ण करने के लिए पूर्व केंद्रीय मंत्री अखिलेश सिंह पहुंचने वाले हैं। कांग्रेस की स्ट्रेटजी पर गौर करें तो उसकी कोशिश बिहार के हर इलाके से एक बड़ा नाम और बड़े चेहरे को अपने साथ जोड़ने की है। अब अररिया के पूर्व बीजेपी सांसद सुखदेव पासवान भी कांग्रेसी हो गये हैं। बिहार में 21 अक्टूबर को पहल पहले दौर की वोटिंग है। और आज की तारीख में पार्टी सबसे मजबूत स्थिति में इसी इलाके में हैं। आनंद मोहन, पप्पू यादव भले जेल में हैं लेकिन इन बाहुबली पूर्व सांसदों की पूर्व सांसद पत्नियां कमान संभालने के लिए काफी है। दलित वोटरों के लिए इस इलाके में कभी सबसे बड़ा चेहरा रहे सुखदेव पासवान भी अब साथ हो गये हैं। प्रदेश अध्यक्ष और पार्टी के युवा अल्पसंख्यक चेहरा महबूब अली कैसर भी इसी इलाके से आते हैं। पहले दौर के चुनाव में अगर कांग्रेस अपने इन धुरंधरों के जरिये सही टिकट बंटवारे के साथ वोट मैनजमेंट का पुख्ता इंतजाम कर लेती है। तो इसका बड़ा संदेश बिहार के बाकी इलाकों में जाएगा, जो विरोधियों के प्राण सूखाने के लिए काफी हो सकता है। कांग्रेस की कमोबेश कोशिश यही होनी चाहिए। अखिलेश सिंह के पार्टी में शामिल होने के बाद बड़े भूमिहार नेता की जो कमी हो गई थी वो कमी भी पूरी हो जाएगी। 20 साल तक नीतीश की सियासत को चमकाने के लिए रणनीति बनाने वाले सांसद ललन सिंह के बारे में लगातार कहा जा रहा है कि इन दिनों वो कांग्रेस के लिए समीकरण बना रहे हैं... ऐसी बात है तो ये शुभ संकेत है पार्टी के लिए। पाला बदलने वाले नेताओं की आज की तारीख में कांग्रेस पहली पसंद हैं। लोकसभा टिकट न देने से नाराज दलबदल के माहिर खिलाड़ी नागमणि हों या फिर शराब के मुद्दे पर नीतीश सरकार में मंत्री पद छोड़ने वाले जमशेद अशऱफ, या अब गोपालगंज के भोरे से विधायक अनिल कुमार । इतना ही नहीं पूर्व सांसद और पूर्व विधायक तो थोक के भाव में हर हफ्ते शामिल हो रहे हैं। कांग्रेस चूंकि दिल्ली से डील होने वाली पार्टी है लिहाजा हर नेता को शामिल कराने से पहले दिल्ली से हरी झंडी की जरूरत पड़ती है। इसी बीच में अगर पुराने बॉस को मालूम हो गया तो मनाने, बचाने का ऑपरेशन शुरू हो जाता है। इसके चक्कर में कांग्रेस के मिलन समारोह वाली लिस्ट और लंबी नहीं हो पाई है। खबर तो ये भी है कि लालू के दूसरे साले सुभाष यादव भी कांग्रेस की ओर टकटकी लगाये बैठे हैं.. लेकिन जब तक साधु यहां डेरा जमाये हैं तब तकउनका आना डाउटफुल लग रहा है लेकिन राजनीति में कुछ साफ साफ आप कह भी नहीं सकते। पूर्व सांसद जयप्रकाश यादव को भी भाव नहीं मिल रहा सो वो भी लालू से कन्नी काटे हुए है आश्चर्य न हो किसी दिन उनके कल्टी मारने के बारे में भी सुन सकते हैं। कहने का मतलब ये कि कांग्रेस का आधार मजबूत तो हुआ है इसमें कोई आश्चर्य तो है नहीं। वैसे भी सहरसा में राहुल गांधी की जो रैली हुई उसको देखकर उस इलाके में जेडीयू और आरजेडी दोनों के कान खड़े हो चुके हैं. पहले चरण में कोसी और पूर्णिया के जिन 47 सीटों पर चुनाव होने हैं उनमे से एनडीए के पास 29 सीटें हैं। (16 जेडीयू और 13 बीजेपी), लालू के पास 5 है तो कांग्रेस के पास 4 सीटें। मतलब थोक के भाव में खोने का आइटम यहां जेडीयू और बीजेपी के पास ही है। बिहार में कांग्रेस के नाम पर कोई बड़ा चेहरा भले न हो लेकिन अगर जातीय हिसाब से बांट दें तो... अल्पसंख्यकों के सबसे बड़े चेहरे तो खुद प्रदेश अध्यक्ष महबूब अली कैसर हैं।
राष्ट्रीय प्रवक्ता शकील अहमद, किशनगंज वाले सांसद असरारूल हक हैं। 2005 के चुनाव में जो 9 विधायक जीते थे उनमें से चार मुसलमान थे। बाद में कैसर और जमशेद अशरफ के बाद गिनती बढ़ गई। दलित चेहरे के रूप में विधायक दल के नेता अशोक राम के अलावा ताजा ताजा पार्टी में आए सुखदेव पासवान को भी गिन लीजिए। (मीरा कुमार लोकसभा अध्यक्ष हो चुकी हैं) भूमिहार फेस वैसे तो रामजतन सिन्हा, अनिल शर्मा, महाचंद्र प्रसाद सिंह, शाही और पांडे खानदान जैसे लोग भी हैं.. लेकिन अखिलेश सिंह और ललन सिंह जैसे बड़े नाम के जुड़ने के बाद ताकत और ज्यादा बढ़ने की उम्मीद की जा सकती है। राजपूतों में लवली आनंद अपने आप में चेहरा है। लालू के यादव वोट में सेंधमारी के लिए कोसी, पूर्णिया में पप्पू यादव, और खुद लालू के घर वाले इलाके में साले साधु यादव। कुर्मी के वोट मिलने की गारंटी तो कांग्रेस के कोई भी बड़े नेता नहीं दे सकते लेकिन सदानंद सिंह अपने क्षेत्र में कार्यकर्ताओं को भरोसा दे रहे हैं। रही बात 6 फीसदी वोट वाले कोइरी की तो नागमणी खुद को राज्य के सबसे बड़े कोइरी नेता मानते हैं.. 6 फीसदी पर न सही जहानाबाद, औरंगाबाद, पटना में थोड़ा बहुत प्रभाव तो है ही। वैसे भी नाम तो बड़ा ही है। कमी दिखती है तो ब्राह्मण नेता की। मिथलांचल इलाके में कांग्रेस को एक बड़ा नेता चाहिए... प्रेमचंद्र मिश्रा जैसे लोग भले ही पार्टी के लिए पुराने हों ऑफिस के लिए ठीक हैं वोट मांगने के लिए नहीं कह सकते। कहने का मतलब ये कि बिहार कांग्रेस के प्रभारी मुकुल वासनिक बड़ी ही महीनी से पार्टी के लिए ऑपरेशन चला रहे हैं। बिहार में नए बाहुबलियों की पहली च्वाइस भी कांग्रेस ही है। पिछले दो हफ्ते में पटना हवाई अड्डे से लेकर पार्टी कार्यालय तक मीडिया से बात करते मुकुल वासनिक की कोई भी तस्वीर देख लीजिए, उनके आसपास खड़े लोगों को जो जानते हैं आसानी से पहचान लेंगे। मुकुल वासनिक अपने स्ट्रेटजी में सफल होते दिख रहे हैं... अभी तक अनुशासन भंग होने की कोई खबर कांग्रेस के खेमे से नहीं आई है। पुराने दिन याद कीजिए अनिल शर्मा अध्यक्ष थे और हर मीटिंग में कुछ न कुछ खरमंडल होता था। लालू और पासवान से नाता तोड़कर कांग्रेस ने सिर्फ इन दोनों की मुश्किलें नहीं बढ़ाई हैं.. धड़कन नीतीश की भी तेज है। लालू से नाता तोड़ने का फायदा ही है कि एक तीसरा मजबूत विकल्प बिहार में तैयार हो गया है। इस चुनाव में 20 से 25 सीटें भी मिल जाती है (जो कि मिल सकती है) तो सत्ता की चाबी कांग्रेस के हाथ में होगी। लेकिन सवाल ये कि क्या त्रिशंकु विधानसभा की सूरत में कांग्रेसी फिर लालू-पासवान से दोस्ती करेंगे। या बिहार में नीतीश के साथ कांग्रेस का नया गठबंधन बनेगा। नतीजों का इंतजार कीजिए। पहले चरण के चुनाव के बाद ही कांग्रेस की हैसियत की तस्वीर साफ हो जाएगी।

Wednesday, September 15, 2010

विकास या जाति कौन पड़ेगा भारी ? PART -4


बिहार में कुर्मी और कोइरी को एक दूसरे का पूरक माना जाता है। नीतीश कुमार कुर्मी बिरादरी से हैं। 1994 में जब जनता दल का विभाजन हुआ था और समता पार्टी बनी तो बिहार में लोग इसे कुर्मी-कोइरी की पार्टी कहते थे। हालांकि बिहार में कोइरी वोटरों की संख्या कुर्मी से ज्यादा है। दोनों मिलाकर करीब 11 फीसदी के आसपास है। कुर्मी 5 और कोइरी 6 फीसदी। नीतीश कुमार के राजनीतिक उदय से पहले कोइरी जाति के नेता बिहार की राजनीति में ज्यादा प्रभावशाली थे। 90 के दशक में
बिहार में कुर्मी के सबसे बड़े नेता हुआ करते थे सतीश कुमार इनके बाद वृषण पटेल(तब सीवान के सांसद) थे। 94 में बिहार में कुर्मी चेतना महारैली में नीतीश कुमार का उदय हुआ और सतीश कुमार की दुकानदारी पर नीतीश ने कब्जा कर लिया। तब से लेकर अब तक बिहार में कुर्मी जाति के सर्वमान्य नेता नीतीश कुमार ही हैं। नीतीश जब मजबूत हुए तो लालू ने अपना नारा बदल दिया...भूराबाल साफ करो कहने वाले लालू ने तब नारा दिया... भूरा बाल माफ करो, कुर्मी-कोइरी साफ करो। लेकिन सच्चाई समझिए जैसे जैसे नीतीश मजबूत होते गये कुर्मी समुदाय से ज्यादा प्रभावशाली कोइरी समुदाय के नेता बैकफुट पर आने लगे। लेकिन सियासत के चाणक्य नीतीश को अपने 'बड़े भाई' की ताकत का अंदाजा था, लिहाजा कभी सीधे सीधे वार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। चेक एंड बैलेंस वाले फॉर्मूले पर चलते हुए कभी भगवान सिंह को आगे किया तो कभी उपेंद्र कुशवाहा को, मौका पड़ने पर नागमणि को भी साथ ले आए। भगवान सिंह कुशवाहा को युवा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया। विधानसभा में विधायक दल के उपनेता की भी जिम्मेदारी दी। भगवान सिंह से थोड़ा मोहभंग हुआ तो झारखंड बनने के बाद समता पार्टी के विधायकों की संख्या जब बीजेपी से ज्यादा हो गई तो जन्दाहा से पहली बार विधायक बने उपेंद्र कुशवाहा को विपक्ष का नेता बना दिया। बिहार में नीतीश के बाद तब पार्टी में नंबर दो के पोजीशन पर पहुंच गये थे उपेंद्र कुशवाहा, 2005 के विधानसभा चुनाव में उपेंद्र कुशवाहा दलसिंहसराय से हार गये। हारने के बाद पार्टी में पोजीशन घट गया। उपमुख्यमंत्री की चाहत पाले हुए थे। लेकिन नीतीश से संबंध बिगड़े और पार्टी से बाहर हो गये। जेडीयू से बाहर होने के बाद उपेंद्र कुशवाहा एनसीपी में गये, फिर अपनी पार्टी बना ली। लेकिन राजनीतिक हस्ती घटती चली गई। 2005 में ही विधानसभा चुनाव के वक्त पार्टी-पार्टी घूमते हुए नागमणि भी नीतीश के साथ आ गए। नागमणि की पत्नी सुचित्रा सिन्हा को कुर्था से टिकट मिला और वो जीत गई। नागमणि तब कोइरी के बड़े नेता के रूप में स्थापित हुए जगदेव प्रसाद के सुपुत्र हैं और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री सतीश प्रसाद सिन्हा के दामाद। लोकसभा चुनाव के वक्त नीतीश ने टिकट देने से मना कर दिया तो लालू की पार्टी में चले गए। नागमणि के पार्टी से जाने के बाद नीतीश की पार्टी में कोइरी का दमदार नेता नहीं रह गया था सो एक बार फिर उपेंद्र कुशवाहा से संपर्क साधा गय़ा.. और बिहार की राजनीति में हासिये पर चल रहे उपेंद्र कुशवाहा ने इस ऑफर को सहर्ष स्वीकार कर लिया। हालांकि उपेंद्र कुशवाहा की वापसी पार्टी के लिए भारी पड़ी और नीतीश के सबसे अजीज ललन सिंह नाराज हो गये। बाद में बिहार का अध्यक्ष पद भी छोड़ दिया। कहने का मतलब ये कि कोइरी वोट पाने के लिए नीतीश कुमार ने हर वो तिकड़म किये जो एक मंझे हुए नेता के लिए जरूरी होता है। नीतीश जिस इलाके से आते हैं वहां कुर्मी सबसे ज्यादा है तो कोइरी भी कम नहीं है। वैसे कोइरी की कई प्रजातियां भी हैं जो बिहार के हर इलाके में किसी न किसी जाति के रूप में अच्छी संख्या में हैं। नागमणि के जाने से जो जगह खाली थी उसको उपेंद्र कुशवाहा से भरने की कोशिश की गई। वैसे नीतीश ने भोजपुर इलाके के लिए भगवान सिंह कुशवाहा(जगदीशपुर विधायक, ग्रामीण विकास मंत्री) और तिरहुत के लिए दिनेश प्रसाद कुशवाहा(मीनापुर विधायक, लघु सिंचाई मंत्री) को भी मंत्री बनाकर अपना आधार मजबूत किया। नौतन वाले वैद्यनाथ महतो को सांसद बनावाय. उपेंद्र कुशवाहा को पार्टी में लाने के बाद उन्हें राज्यसभा भेजा गया। लेकिन उपेंद्र कुशवाहा को बैलेंस करने के लिए दलसिंहसराय से आरजेडी के विधायक रामलखन महतो (कोइरी) को जेडीयू में शामिल कराया। अब खबर ये है कि उपेंद्र कुशवाहा इससे नाराज हैं। खैर कहने का मतलब ये कि कोइरी वोट खिसके न इसके लिए नीतीश लगातार तिकड़म पर तिमड़म लगाने में जुटे हुए हैं। कारण भी है कोइरी के एक वर्ग का नेतृत्व आरजेडी के कोइरी नेताओं के हाथ में है। समस्तीपुर में कोइरी वोटरों की संख्या ज्यादा है। मंजय लाल पहले वहां से सांसद हुआ करते थे , बाद में आलोक मेहता सांसद बने। दोनों कोइरी। मंजय लाल की मामला निपट चुका है लेकिन आलोक मेहता कोइरी के नौजवानों की अगुवाई करते हैं। हालांकि बीते लोकसभा चुनाव में उनकी ही स्वजातीय अश्वमेघ देवी (जेडीयू)ने उन्हें हरा दिया। उपेंद्र वर्मा, शकुनी चौधरी भागलपुर, मुंगेर इलाके में लालू का मोर्चा संभाले हुए हैं। शकुनी चौधरी बहुत पहले कांग्रेस में थे। 94 में समता पार्टी बनी तो नीतीश के साथ हो लिए, बाद में मन नहीं माना और लालू के साथ हो गए। शकुनी चौधरी को खुश करने के लिए उनके बेटे सम्राट चौधरी को ही लालू ने मंत्री बना दिया था जिसको लेकर खूब बवाल हुआ और लालू की किरकिरी हुई क्योंकि सम्राट चौधरी की उम्र ही 25 साल की नहीं थी। हालांकि जब उम्र हुई तो फिर से मंत्री बनाकर कोइरी आधार को जोड़े ऱखने की लालू ने खूब कोशिश की। तुलसीदास मेहता वैशाली, समस्तीपुर के इलाके में लालू का मोर्चा संभालते थे, अब उनके बेटे आलोक मेहता संभाल रहे हैं। कहने का मतलब ये कि कोइरी वोट नीतीश के साथ आज भी पूरी तरह नहीं है। लिहाजा नीतीश को अपने इस आधार वोट को बनाए रखने के लिए जोड़ तोड़ का गणित करना पड़ रहा है। मतलब साफ है कि विकास भी बात इस समुदाय के सामने भी अहम नहीं है...अब नागमणि पत्नी के साथ कांग्रेसी हो गये हैं। बिहार में अभी कोइरी जाति के करीब बीस विधायक हैं, वहीं कुर्मी जाति से 15। अब सवाल ये कि कोइरी के करीब 6 फीसदी वोटर क्या करेंगे.... लालू, नीतीश और कांग्रेस तीनों को बांटेंगे या फिर लव-कुश का फॉर्मूला हिट कराकर अपने भाई नीतीश को मजबूती देंगे। वैसे इतिहास पलटकर देखिये तो पिछली बार भी कोइरी का वोट पूरी तरह नीतीश को नहीं मिल पाया था। उस वक्त उपेंद्र कुशवाहा और नागमणि दोनों इनके साथ थे। इस बार रामलखन महतो क्या नागमणि की भरपाई करेंगे, क्या दसलिंहसराय में उपेंद्र कुशवाहा रामलखन महतो के लिए वोट मांगेंगे...वक्त बताएगा कि कोइरी का ऊंट किस करवट बैठता है। लेकिन एक बात जो अभी साफ है वो ये कि यदि 'विकास पुरुष' को अपने विकास पर भरोसा होता तो इस आधार वोट को जोड़े रखने के लिए इतना जोड़ घटाव नहीं सोचना होता।

Tuesday, September 14, 2010

विकास या जाति, कौन पड़ेगा भारी ? PART 3


बिहार चुनाव से पहले इस बार राजपूतों का समीकरण एकदम से बदलता नजर आ रहा है। वैसे तो आज की तारीख में कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। लेकिन आनंद मोहन, प्रभुनाथ सिंह और दिग्विजय सिंह अब नीतीश कुमार के साथ नहीं हैं। इन तीनों नेताओं का अपने अपने इलाके में बड़ा दबदबा है। राजपूत समाज में इनकी पूछ है। दिग्विजय सिंह तो अब इस दुनिया में नहीं रहे। लेकिन जाने से पहले उन्होंने नीतीश के खिलाफ राजपूतों का एक बड़ा प्लेटफॉर्म तैयार कर दिया। भागलपुर, बांका, जमुई, मुंगेर के इलाके में दिग्विजय सिंह की बड़ी पकड़ थी। बिहार में जब से नीतीश मुख्यमंत्री बने जॉर्ज खेमे के नेता दिग्विजय सिंह को साइड करके ही चले। सरकार बनने के बाद प्रभुनाथ सिंह की भी कोई पूछ नहीं रह गई थी। इलाका का अफसर इस बाहुबली नेता की बात नहीं सुनता था, लिहाजा समर्थकों में मार्केट खराब होता गया। आनंद मोहन को तो खैर इनके कार्यकाल में कोर्ट ने फांसी की सजा दी है। पिछली बार इन तीनों की ताकत नीतीश के साथ थी। नतीजा देखिये प्रभुनाथ सिंह के प्रभाव वाले छपरा की 10 सीटों में से 5 पर जेडीयू ने कब्जा किया। 2 सीट बीजेपी के खाते में।(छपरा लालू का गढ़ तो था ही), सीवान में भी 8 में से 3 जेडीयू और 2 बीजेपी को मिली थी। 2000 के चुनाव में इन दोनों जिले से सिर्फ एक सीट पर समता पार्टी को कामयाबी मिली थी।
आनंद मोहन की बात करें तो 2005 फरवरी के चुनाव में पत्नी लवली जेडीयू के टिकट पर बाढ़ से चुनाव जीती थी। नवंबर का चुनाव लवली नहीं लड़ी थीं। वैसे आनंद मोहन के प्रभाव वाले कोसी के इलाके में जेडीयू को जबरदस्त सफलता मिली। लालू जिस मधेपुरा से सांसद थे उस जिले की पांच में से 5 सीटें जेडीयू को। सहरसा में कुल 4 सीटों में से 2 जेडीयू को, सुपौल की 5 में से 5 सीटें जेडीयू को मिली थी। इन इलाके में आरजेडी का खाता तक नहीं खुला था। लेकिन परिस्थितियां कैसे बदली वो भी देख लीजिए। सहरसा की जिस सिमरी बख्तियारपुर सीट से दिनेश चंद्र यादव विधायक थे। लोकसभा चुनाव जीतकर दिल्ली पहुंचे लेकिन विधानसभा उपचुनाव में पार्टी को सीट नहीं दिलवा सके। आनंद मोहन की पत्नी लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस में चली गई थी। आनंद मोहन के समर्थन से महबूब अली कैसर उपचुनाव में कांग्रेस के टिकट पर इस सीट से जीत गए।
वैसे एक सच्चाई ये भी है आनंद मोहन के जेल में होने की वजह से उनका पुराना वाला जलवा कायम नहीं रह गया है। इसी का नतीजा हुआ कि पत्नी को शिवहर से लोकसभा चुनाव में हार मिली। नीतीश कुमार एक शादी समारोह में जब सहरसा गये थे तो आनंद मोहन की मां से मिले थे। चर्चा हो चली थी कि आनंद मोहन नीतीश का साथ देंगे। खुद पूर्व सांसद अरुण कुमार सिंह भी संपर्क में थे। लेकिन आनंद मोहन ने कांग्रेस का हाथ नहीं छोड़ने का फैसला किया है। तभी तो राहुल गांधी की सहरसा वाली रैली में लवली ने मंच पर आकर धुंधली तस्वीर साफ कर दी। आनंद मोहन को आरजेडी में भी लाने की कोशिश हो रही थी
विधानसभा चुनाव में तालमेल के तहत सहरसा की सोनबरसा सीट पासवान किशोर कुमार मुन्ना के लिए एलजेपी के खाते से चाहते थे लेकिन लालू ने मना कर दिया। अटकलें थी कि लवली शायद इस सीट पर आरजेडी से लड़े। कहने का मतलब अगर आनंद मोहन-लवली आनंद का खूंटा उखड़ गया(ऐसा कुछ लोगों का मानना है) तो ये लोग उनके पीछे क्यों लगे थे। अब चूंकीं तस्वीर साफ हो चुकी है तो हो सकता है किशोर कुमार मुन्ना ही आरजेडी के टिकट पर यहां से लड़ जाए। मुन्ना भी राजपूत बिरादरी के हैं। आनंद मोहन की जब बीपीपा बनी थी तो मुन्ना स्टूडेंट पीपुल्स के अध्यक्ष थे। बाद में आनंद मोहन से संपर्क खराब हुआ तो अलग राजनीति करने लगे। दिग्विजय सिंह ने भी नीतीश कुमार को लोकसभा चुनाव में अपनी ताकत का इजहार करा दिया। नीतीश ने नजरअंदाज किया तो लोकसभा चुनाव में निर्दलीय लड़े और जीत गये। अब वो नहीं हैं तो उनकी पत्नी पुतुल सिंह को लोकसभा टिकट देने की पेशकश की जा रही है, जेडीयू की ओर से ऐसा सुना जा रहा है। मतलब कहने का ये है कि राजपूतों के 5 फीसदी वोट को लेकर विकास पुरुष चिंतित तो हैं ही। वैसे भी उनके पास इस वक्त राजपूतों का कोई बड़ा नाम उनके साथ नहीं है। पूर्व विदेश राज्य मंत्री हरिकिशोर सिंह को खोज खाजकर नीतीश बाहर निकाल तो लाएं हैं.. लेकिन अब हरिकिशोर सिंह बहुत पुराने नेता हो गये। राजपूत वोटरों पर डोरा डालने के लिए ही पार्टी की बैठकों में इन दिनों पहली पंक्ति में उनको जगह दी जा रही है। राजगीर सम्मेलन जो 17-18 अगस्त के आसपास हुआ था उसमें देख लीजिए। मैनेज करने के लिए इनको योजना आयोग का बिहार में उपाध्यक्ष बनाया गया है। एक पीढ़ी को हरिकिशोर सिंह का नाम याद नहीं होगा, दूसरी पीढ़ी चेहरा देखने के बाद नाम पूछेगी.. इनको पहचानते हैं क्या नाम हैं इनका... टाइप से.... । और सांसद सुशील कुमार, मीना सिंह टाइप सांसद राजपूत के नाम पर नहीं वोट बैंक के नाम पर सांसद हैं। आरजेडी छोड़ जेडीयू में आए विजय कृष्ण जेल में ही हैं। लालू के पास चार सांसद हैं। चार में से तीन राजपूत हैं। रघुवंश सिंह पुराने सांसद हैं। वैशाली, मुजफ्फरपुर, मोतिहारी के राजपूतों में इनका प्रभाव है। आरा, बक्सर के राजपूतों में जगतानंद सिंह का प्रभाव है। उधर छपरा सीवान में उमाशंकर सिंह पहले से थे अब तो प्रभुनाथ सिंह भी साथ हो लिए हैं लालू के। बीजेपी के पास राजपूत के नाम पर मोतिहारी के सांसद राधामोहन सिंह(पूर्व अध्यक्ष), उदय सिंह उर्फ पप्पू सिंह, राजीव प्रताप रूडी हैं ये लोग भी प्रभावी नेता हैं । कांग्रेस में तो मान लीजिए आनंद मोहन जेल में हैं, तो लवली है। निखिल कुमार की पत्नी श्यामा सिंह हैं। लोजपा में हरसिद्धि वाले महेश्वर सिंह हैं लेकिन उनका सीट सुरक्षित हो गया है केसरिया से लड़ने की तैयारी में हैं। लेकिन तालमेल वाला कंट्रोवर्सी कहीं समीकरण का माचो न कर दे। कुल मिलाकर साफ मामला ये है कि राजपूत वोटों के लिए चिंतित हर पार्टी है। बिहार में 5 फीसदी वोट लेकिन दबंग वोट। वैसे इतिहास देख लीजिए राजपूतों के वोट का बड़ा हिस्सा 2005 के चुनाव से पहले तक लालू को मिलता रहा। 2005 में लालू विरोधी लहर में एग्रेसिव होकर नीतीश को साथ दिया था लोगों ने।
वैसे राजनीतिक जानकार कहते हैं कि राजपूत वोटर पार्टी को नहीं जाति के उम्मीदवार को प्राथमिकता देते हैं.. चाहे पार्टी कोई हो। सच्चाई भी है इसमें। लेकिन प्रचार और हवा बनाने के लिए बड़ा नाम तो चाहिए ही नहीं तो विरोधियों को कहने के लिए हो जाता है कि ये पार्टी में फलनवां जाति के कोई नेता न हई, बाहरो से कोई प्रचारे करे न अलई...

Monday, September 13, 2010

विकास या जाति? कौन पड़ेगा भारी! PART- 1

बिहार में चुनावी बिगुल बजे एक हफ्ता से ज्यादा का वक्त बीच चुका है। टिकट का गुणाभाग शुरू है। सवाल ये कि क्या इस बार का चुनाव बिहार में बिना जातीय आधार पर लोग वोट करेंगे। क्या जमाने बाद बिहार जातीय बंधनों से मुक्त होकर सिर्फ विकास बनाक जंगलराज के नाम पर वोट करेगा। कुछ लोग भले ही माहौल बनाने की कोशिश में जुटे हो. लेकिन मेरा मानना है कि बिहार में बिना जातीय आधार के चुनाव नहीं कराए जा सकते। अगर बिहार में राज कर रहे नीतीश कुमार को विकास पर इतना ही भरोसा होता तो ललन सिंह को अध्यक्ष पद से हटाने के बाद विजय चौधरी को बक्से से निकालकर नहीं लाते। ललन सिंह के विद्रोह के बाद नीतीश कुमार के पास भूमिहार का कोई कद वाला नेता नहीं रह गया था। ललन सिंह की कमेटी में चूंकी विजय चौधरी अहम ओहदे पर थे लिहाजा उनके किस्मत से उनको ये गद्दी नसीब हो गई। संतुष्टि नहीं मिली थी जिस जगदीश शर्मा ने नीतीश के खिलाफ विद्रोह करके अपनी पत्नी को उपचुनाव में निर्दलीय विधायक बनवाया। उन्हें पार्टी से निलंबित करने के बाद तुरंत वापस नहीं बुलाते। लेकिन भरपाई संपूर्ण नहीं हो पाई लिहाजा जहानाबाद वाले अरुण कुमार सिंह को भी वापस बुला लिया। ललन सिंह वाला ड्रामा इस कदर फैल गया कि लगा कि सरकार से पूरा समाज ही नाराज है। इसिलिए नीतीश कुमार ने फूंक फूंक कर कदम रखना शुरू किया। और किसी भूमिहार नेता को नाराज होने का कोई मौका नहीं दिया। मुन्ना शुक्ला, अनंत सिंह, सुनील पांडे सब अपना माहौल बनाने में जुट गए लेकिन नीतीश ने कुछ नहीं कहा। अब सवाल ये कि क्या बिहार का भूमिहार इस बार पिछली बार की तरह ही नीतीश की फिर से ताजपोशी के लिए ताकत लगाएगा। या फिर भूमिहारों का वोट प्रसाद की तरह कांग्रेस और एनडीए में बंटेगा? कुछ राजनीतिक पंडित इस आकलन में होंगे कि भूमिहार का वोट आरजेडी गठबंधन को नहीं मिलेगा तो मुझे लगता है कि ये उनका भ्रम है। अब तक ये होता आया है कि समाज के नाम पर समाज एकजुट नहीं होता रहा। लेकिन नीतीश राज के बाद जो हालात बदले हैं.. उसमें समाज को एक बार फिर से अपनी ताकत का एहसास होने लगा है। लालू राज में समाज ने दिशा बदल दी थी। लोगों का झुकाव गलत कामों की ओर ज्यादा हो गया था। बदली परिस्थितियों में समाज ने एक बार फिर गेयर चेंज किया है। राजनीति में फुल एंट्री की झांकी छोटे छोटे चुनावों में दिखा है। लिहाजा आरजेडी का नहीं पता लेकिन एलजेपी के खाते की 75 सीटों में से जिस पर भी समाज का उम्मीदवार होगा वहां समाज कुछ भी कर सकता है इससे इनकार नहीं किया जा सकता। सूरजभान सिंह यहां पासवान के सारथी बने हैं। रही कांग्रेस की बात तो बिहार में आज की तारीख में कांग्रेस में ऐसा कोई नेता नहीं है जिसका भूमिहार वोट पर प्रभाव है। रामजतन सिन्हा, अनिल शर्मा अब बीते जमाने की कहानी है। कोई नया बड़ा चेहरा एंट्री मारता है तो फिर समय के साथ उस क्षेत्र की कहानी बदल सकती है। वैसे भूमिहारों को अब भी सबसे ज्यादा नीतीश पर ही भरोसा है। नीतीश भी अपने इस तथाकथित दबंग वोट बैंक को आसानी से छिटकने नहीं देना चाहते। पूर्व केंद्रीय मंत्री अखिलेश सिंह को मनाने की कोशिश में लगे लालू भी नहीं चाहते कि जो एक्सट्रा फायदा है उसको दूर किया जाए। उत्तर बिहार में भूमिहार नेताओं के आधार की बात करें, तो मुजफ्फरपुर, वैशाली की बात करें तो। मुजफ्फरपुर में सुरेश शर्मा पेशे से व्यापारी है लेकिन बीजेपी के नेता भी है। वोट पार्टी के बैनर का है अपना कुछ है ऐसा नहीं लगता। जेडीयू में मुन्ना शुक्ला चूंकि बाहुबली हैं इसलिए इनका मानदान होता है। लेकिन इनके चलते घाटा भी है। अजीत कुमार कांटी से विधायक हैं, विधानसभा में अच्छी पकड़ का फायदा दो बार मिल चुका है। हरेंद्र कुमार के अभी नीतीश से संबंध बेहतर नहीं हैं। कांग्रेस में पांडे और शाही परिवार के लोग हैं लेकिन सिर्फ चुनावों के समय ही इन लोगों का नाम सामने आता है। विनोद चौधरी, समीर कुमार टाइप के लोग भी नेता हैं यहां जिनकी हर पार्टी में ऊपर तक पहचान है, कब किसी पार्टी में है ये चुनाव के वक्त मालूम पड़ता है। सीतामढ़ी में विमल शुक्ला कांग्रेस के कद्दावर नेता हैं। ढाका वाले बीजेपी विधायक अवनीश कुमार, मधुबन वाले आरजेडी विधायक बबलू देव का भी प्रभाव है। जेडीयू विधायक के पति सैदपुर वाले राजेश चौधरी नए चेहरे हैं। कुछ और नए नाम हैं जो उभरने की कोशिश में हैं। मोतिहारी में अवनीश कुमार, बबलू देव, राय सुंदर देव शर्मा(एलजेपी),गप्पू राय(आरजेडी) जैसे नाम हैं जिनका अपने अपने क्षेत्र में अच्छा प्रभाव है। बेतिया में बीजेपी के चंद्रमोहन राय,कांग्रेस के रणविजय शाही जैसे लोगों का प्रभाव है। छपरा, सीवान में धूमल सिंह(जेडीयू),सत्यदेव सिंह(बीजेपी),सुरेंद्र शर्मा,जैसे लोग प्रभावशाली और दबंग कहे जाते हैं। मतलब हर इलाके में हर नेता का हिसाब किताब है। कोई मास लीडर नहीं जिसका वोट बैंक पर प्रभाव हो। पटना में कोई अनंत सिंह को नेता मानता है. कोई सूरजभान को कोई दीलिप सिंह को श्याम सुंदर सिंह धीरज को,कही संजय सिंह नेता हैं,तो कहीं गणेश शंकर विद्य़ार्थी,बेगूसराय में राजो सिंह के बेटा बहू नेता हैं कांग्रेस के,तो बीजेपी वाले भोला सिंह को भी मानते हैं लोग नेता। कृष्णा शाही, रामजीवन सिंह और सीपीएम सीपीआई वाले समाज के लोग अब पुराने हो चुके हैं। नालंदा में गया सिंह, कुमार पुष्पंजय की नेतागीरी है। जहानाबाद में अरुण कुमार, जगदीश शर्मा, अखिलेश सिंह ,किंग महेंद्र नेता हैं। नवादा में आदित्य सिंह, अनिल सिंह, अखिलेश सिंह पत्नी सहित नेता हैं।(रामाश्रय सिंह अब मामला खत्म है )तो आरा बक्सर में सुखदा पांडे, सुनील पांडे नेता हैं। कटिहार,खगड़िया में निखिल चौधरी और चौधरी बिरादरी नेता हैं। सीपी ठाकुर,ललन सिंह टाइप के लोग आज नेता भले ही बड़े हैं लेकिन प्रभाव को फिलहाल चुनाव तक गोली मारिए। कुल मिलाकर भूमिहारों का मास नेता कोई नहीं है। भूमिहारों के नाम पर इनकी नेतागीरी है। कुछ पुराने नेता भी है जो अब बिल्कुल ही पुराने पड़ चुके हैं।

Sunday, September 12, 2010

विकास या जाति, कौन पड़ेगा भारी PART- 2


1931 की जनगणना के मुताबिक बिहार में 4.7 प्रतिशत ब्राह्मण, 4.2 प्रतिशत राजपूत एवं 2.9 प्रतिशत भूमिहार है। अगड़ों में 1.2 प्रतिशत ही कायस्थ है। इस तरह राज्य में चारों अगड़ी जातियों की संख्या 13 प्रतिशत के आसपास है। अब सवाल उठता है कि लालू के जंगल राज वाले शासन काल में तो भूमिहार वोटर लालू के साथ नहीं थे उस वक्त भी ये वोट बैंक लालू के खिलाफ था फिर लालू को क्यों नहीं हरा सके। इसके लिए समझना पड़ेगा बिहार का सियासी समीकरण। लालू राज के खात्मे की कहानी भले ही नीतीश रूपी कलम से सवर्ण वोटरों ने लिखी लेकिन इसके लिए पिछड़ों को स्याही बनाया गया। मतलब पिछड़ों का एक बड़ा वोट बैंक( कुर्मी, कोयरी के अलावा) जिसमें यादव का भी एक हिस्सा शामिल है उसने लालू के सिंहासन को हिलाया, और सालों से खार खाए सवर्ण वोटरों ने इसे धक्का दिया। जंमाने बाद दो दर्जन से ज्यादा भूमिहार विधायक बने, इतने ही राजपूत भी। लेकिन इस साल नया खेल है। नीतीश ने पिछड़ा, दलित वाला आधार भले ही मजबूत किया है लेकिन उस आधार को बूथ तक पहुंचाने वाला समाज इस बार अब तक खुल के साथ नहीं आया है। मतलब बात यहां भूमिहार, राजपूतों की कर रहे है। बंटाईदारी बिल का बवंडर, ललन सिंह की रुखसती, लालू के जंगलराज के सिपाहियों को गले लगाना, सवर्ण जाति के बाहुबलियों को जेल में डलवाना, ये वो मुद्दे हैं जिनकी वजह से नीतीश की डगर को आसान नहीं माना जा रहा। बंटाईदारी बिल को तो गलत बताने में जुट गये हैं नीतीश कुमार। ललन सिंह की भरपाई के लिए अरुण कुमार सिंह को वापस लाए, विजय चौधरी को अध्यक्ष बनाया, जगदीश शर्मा को फिर से गले लगाया, बाहुबलियों के खिलाफ शांत हो गये। लेकिन तस्लीमु्ददीन, रमई राम, श्याम रजक, विजय कृष्ण, रामदेव महतो, अवधेश मंडल की पत्नी बीमा भारती जैसे जंगल राज के सिपाहियों को अपने साथ लाकर सुशासन के नाम पर बट्टा लगाने का काम किया है उसका जवाब अभी उनके पास कुछ नहीं है। राजपूत समाज पिछली बार खुलकर उनके साथ खड़ा था। राजपूतों के दिग्गज दिग्विजय सिंह, प्रभुनाथ सिंह, आनंद मोहन सपरिवार नीतीश के लिए ललकार रहे थे। आज की तारीख में साथ कोई नहीं है। बांका वाले दिग्विजय सिंह अब दुनिया में नहीं रहे। प्रभुनाथ सिंह नाराज होकर लालू के साथ हो लिए, जेल में बंद आनंद मोहन ने पत्नी लवली को कांग्रेस में भेज दिया। सवाल ये कि भूमिहार अग्रेसिव होकर साथ दे भी दे तो राजपूत बहुल इलाकों में क्या होगा। वैसे भी लालू के पास लोकसभा में चार सांसद हैं खुद लालू और बाकी तीन राजपूत जाति से। नीतीश के पास जो लोग हैं औरंगाबाद वाले सुशील सिंह, आरा में मीना सिंह तो ये लोग सांसद हैं लेकिन ज्यादा आधार वाले नेता नहीं है। राजपूत वोट लेने में नीतीश को परेशानी होगी। कहीं ललन सिंह कांग्रेस में चले गए चुनाव से पहले तो भूमिहारों का बेगूसराय, लखीसराय, शेखपुरा, नवादा, पटना का समीकरण बदल सकता है। इंतजार कीजिए धीरे धीरे तस्वीर सब साफ हो जाएगी।

Tuesday, August 31, 2010

भोजपुरी तब से लेकर अब तक...

भोजपुरी एक ऐसी भाषा जिसमें मिठास है, रस है और अपनापन भी। दुनिया भर में भोजपुरी बोलने वालों की आबादी अठारह करोड़ से ज्यादा है। बिहार, पूर्वांचल और झारखंड ही नहीं बंगाल, असम, महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली पंजाब और हरियाणा में भी लाखों लोग बोलचाल में अपनी इस मिठास वाली भाषा का प्रयोग करते हैं। दिल्ली, कोलकाता, और मुंबई जैसे महानगरों में भले ही नौकरी पेशा लोग दफ्तर में हिंदी, अंग्रेजी में बात करते हैं.. लेकिन यहां भी जब अपने इलाके के लोगों से मिलते हैं तो अपनी भोजपुरी को ही अहमियत देते हैं। अगर इतिहास की बात करें तो भोजपुरी का अपना इतिहास एक हजार साल से भी पुराना है। कहते हैं कि बिहार के पुराने आरा जिले(बंटकर अब बक्सर अलग हो चुका है) में नया भोजपुर और पुराना भोजपुर नाम से दो गांव है..जिसको बसाया था मध्य काल में। कहते हैं कि मध्य प्रदेश के उज्जैन से आए भोजवंशी परमार राजाओं ने इस जगह को बसाया था। अपने पूर्वज राजा भोज के नाम पर इस जगह का नाम भोजपुर रखा। तब से यहां के आसपास बोली जाने वाली भाषा भोजपुरी कहलाने लगी। भौगोलिक हिसाब किताब को देखे तो इस जगह के आसपास ही इस भाषा का गढ़ है। बिहार के भोजपुर, बक्सर, सासाराम, कैमूर, छपरा, सीवान, गोपालगंज, मोतिहारी, बेतिया के साथ ही यूपी का बलिया, वाराणसी, गोरखपुर, बस्ती, बाराबंकी, देवरिया, प्रतापगढ़, गाजीपुर के साथ इन इलाकों से सटा नेपाल का इलाका और झारखंड के इलाके की ये अपनी भाषा है। अंग्रेजों के जमाने में इसका विस्तार दुनिया भर में हो गया। मॉरीशस, सूरीनाम, फिजी, त्रिनिदाद तो सिर्फ नक्शे में अलग है बाकी सब कुछ इसी इलाके जैसा। आजादी के आंदोलन में संपूर्ण भोजपुर का अपना अहम योगदान है। मंगल पांडे से लेकर, चंद्रशेखर आजाद और वीरकुंवर सिंह इसी मिट्टी पर जन्मे थे। देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद, पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह, चंद्रशेखर भी भोजपुरी माटी में ही जन्मे थे। हालांकि इस इलाके से इतने बड़े लोगों के जुड़े होने के बावजूद भी भोजपुरी का जो सपना था वो सपना भी बना है। भोजपुरी के प्रचार प्रसार और विकास में सबसे ज्यादा किसी का योगदान है तो वो है कला संस्कृति के क्षेत्र से जुड़े कलाकारों का। भिखारी ठाकुर के बगैर भोजपुरी की बात तो की ही नहीं जा सकती। बॉलीवुड में भोजपुरी को पहली पहचान मिली फिल्म गंगा मैया तोहे पियरी चढैबो से। 1962 में आई इस फिल्म ने भोजपुरी समाज को देश भर में एक साथ तो जोड़ा ही, भोजपुरी की एक अलग पहचान पेश की। इस फिल्म के जो गीत थे वो खुद मो. रफी, लता मंगेशकर, उषा मंगेशकर ने गये थे। कलाकार भी अच्छे और अनुभवी थे। इसके बाद फिर बिदेसिया, बलम परदेसिया, धरती मैया जैसी फिल्मों ने भोजपुरी को बॉलीवुड में अलग पहचान दिलाई। 60 का दशक भोजपुरी सिनेमा के लिए उदय का दशक था। धीरे धीरे कई कलाकार भोजपुरी गीत संगीत अभिनय के क्षेत्र में अपनी किस्मत आजमाने पहुंचे... । शत्रुघ्न सिन्हा की इस वक्त बॉलीवुड में एंट्री हो चुकी थी। बाद में शेखर सुमन और मनोज वाजपेयी जैसे कलाकारों ने भी अपने अभिनय का लोहा मनवाकर भोजपुरिया झंडा बुलंद किया। लेकिन 70 का दशक भोजपुरी सिनेमा के लिए उतना शानदार नहीं रहा। अस्सी के दशक भोजपुरी इंडस्ट्री के लिए स्वर्णिम समय था। एक से बढ़कर एक गायक कलाकार और एक से बढ़कर एक गीत। अस्सी के दशक में ही बिहार की लता मंगेशकर शारदा सिन्हा ने भोजपुरी का वो रंग जमाया जो कभी भी फीका नहीं पड़ सकता। आज भी बिहार, यूपी में शादी तो बिना शारदा सिन्हा के गीत बजे संपूर्ण हो ही नहीं सकती। बेटी की शादी में हरियर बांस कटइह हो बाबा.. ऊंचे उंच मड़ौवा छबइह हो..., और चाची चुमाबहू मंगल गावहू दिअहू अशीष रघुनंदन के....बगैर तो शादियां अधूरी सी लगती है। यही वो वक्त था जब राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म नदिया के पार रिलीज हुई थी। जिसने भी नदिया के पार देखी है चंदन और गूंजा के चरित्र को वो जिंदगी भर नहीं भूल सकता। शायद ही कोई दर्शक रहा हो जो सिनेमा के दृ्श्यों को देखकर रोया न हो। उस समय के लोग बताते हैं महिलाएं तो घर लौटकर चर्चा करती थी कि कौन कितना रोया। जिस वक्त नदिया के पार रिलीज हुई बॉम्बे में भारी बारिश हो रही थी, बड़े बैनर का बड़ा भोजपुरी प्रयोग था लेकिन बिहार और यूपी ने पहले ही हफ्ते में वो कमाई दे दी कि मुंबई में सिनेमा रिलीज को निर्माता-निर्देशक भूल गये.. हालांकि दो तीन हफ्ते बाद मुंबई में फिल्म रिलीज हो गई और खूब चली। इस फिल्म का एक एक गीत चाहे कौने दिशा में लेके चला रे....हो या फिर गूंजा रे.. चंदन...आज भी सुनने के बाद लोग गुनगुनाने लगते हैं। इसी फिल्म में शारदा सिन्हा ने शादी के मौके पर जब तक फेरे न हो पूरे सात तब तक दुल्हिन नहीं दुल्हा के....गीत गाये हैं.. आज भी शादियों में दबाकर इस गीत को बजाया जाता है। 1982 में रिलीज हुई नदिया के पार में हीरो सचिन थे जबकि हीरोइन थी वाराणसी में जन्मी साधना सिंह। साधना ने बाद में फिल्मों में काम नहीं किया.. लेकिन उनकी एक ही फिल्म दर्शकों के दिलो-दिमाग पर छा गई। साधना सिंह उसी विश्वनाथ प्रसाद शाहबादी की बहू हैं जिन्होंने पहली भोजपुरी फिल्म गंगा मैया तोहे पियरी चढैबो बनाई थी। अस्सी के दशक की शुरुआत भोजपुरी सिनेमा के लिए धमाकेदार हुई थी। उत्तर भारत के घर घर में भोजपुरी का क्रेज बढ रहा था। तभी भोजपुरी गीत संगीत के क्षेत्र में एंट्री मारी कंचन और बवला की जोड़ी ने। फुलौरी बिना चटनी कैसे बनी....पच्चीस साल बाद भी कंचन के गाये गीत आप सुनेंगे तो वही खनक और वही मिठास, कहीं से कोई द्विअर्थी संवाद नहीं। इसके बाद हाथ में मेहंदी मांग सेनुरवा वाला गाना जब मार्केट में आया तो लोग इस आवाज के दीवाने हो गये। गली-गली चौक चौराहे, शादी समारोहों में कंचन के गीत पर लोग नाचते और झूमते। कंचन उत्तर प्रदेश और बिहार की स्टार हो गई थी। उस जमाने में कंचन और बावला की जोड़ी इतनी हिट हो चुकी थी कि रोज दोनों कभी बिहार, कभी यूपी तो कभी मॉरीशस, सूरीनाम और न जाने कहां कहां स्टेज शो करने निकल जाते थे। इस दौर के गीत हम न जइबे ससुर घर में बाबा, आरा हिले छपरा हिला... और साढ़े तीन बजे मुन्नी जरूर मिलना लोगों के लिए पुराने नहीं पड़े हैं। अस्सी के दशक में ही 1989 में आई राजश्री प्रोडक्शन की एक और फिल्म, मैंने प्यार किया। मैंने प्यार किया पर्दे पर बड़ी ब्लॉक बास्टर साबित हुई। इस फिल्म में कहे तोहसे सजना ये तोहरी सजनिया... शारदा सिन्हा ने गाये थे..वैसे तो फिल्म के सब गाने हिट थे लेकिन शारदा सिन्हा के इस भोजपुरी गीत ने तड़का डालने का काम किया। पेशे से प्रोफेसर शारदा सिन्हा इस वक्त भोजपुरी की आवाज बन चुकी थी। भोजपुरी सिनेमा का ये वो सुनहरा दौर था जब शारदा सिन्हा की आवाज में गाए गए लोक आस्था के महापर्व छठ के पारंपरिक गीतों को इस समय लोगों ने हाथों हाथ लेना शुरू कर दिया। नतीजा हुआ कि जो भोजपुरी घर और मुहल्ले की भाषा थी, अब तीज त्योहारों में देश के बड़े शहरों की फिजां में शारदा सिन्हा की आवाज के रूप में तैरने लगी थी। शारदा सिन्हा ने सुपरहिट हिंदी फिल्म हम आपके है कौन के गानों में भी अपनी आवाज दी है। गायक बालेश्वर भी इस दौरान हिट हो गये थे। लेकिन जैसे जैसे राजनीतिक रूप से देश में भोजपुरी मजबूत हो रहा था। सिनेमा, संस्कृति के क्षेत्र में कमजोर पड़ रहा था। वीपी सिंह, चंद्रशेखर, लालू यादव जैसे नेता देश के शिखर पर थे। लेकिन भोजपुरी का मामला गड़बड़ा रहा था। शारदा सिन्हा की आवाज में खनक तो थी लेकिन उन्होंने गाना कम कर दिया था। बॉलीवुड में कोई भोजपुरी फिल्मों पर दांव नहीं लगा रहा था। लेकिन इस दौरान भी अपने आवाज की जादू से लोगों को लुभाने के लिए भोजपुरिया माटी के कलाकार जुटे हुए थे। भोजपुरियां जुबान पर इस वक्त भरत शर्मा की आवाज थी। विरह गीतों को गाकर भरत शर्मा ने भोजपुरी इंडस्ट्री में अपनी अलग पहचान बनाई। लेकिन 1993-1994 से भोजपुरी गीतों के लिए बेहद ही बुरा दौर शुरू हुआ। ये वो वक्त था भोजपुरी की मिठास पर द्विअर्थी संवाद भारी पड़ने लगा था। मुन्ना तिवारी के नथुनिये पर गोली मारे या फिर बथता बथता वाला गीत...हालात ऐसे हो गये कि भोजपुरी गीतों को लोगों ने घर से बाहर निकाल दिया। अब ये गीत सिर्फ चाय और पान की दुकानों पर बजने लगे थे। जो भोजपुरी गीत चंद दिन पहले तक बिहार और यूपी की शान मानी जाती थी. अब उसका मतलब अश्लील और गंदा हो गया था। धीरे धीरे अश्लीलता का ये विष भोजपुरी गानों में फैलता गया और अब होड़ इस बात की होने लगी थी कि कौन कितना अश्लील गा सकता है। खा लू तिंरगा गोरिया हो फाड़ के जा झाड़ के.....1998 में जब ये गीत बिहार की गलियों में बजता था कहीं न कहीं से मारपीट और गाली गलौज की खबरें जरूर अखबार में पढ़ने को मिलती थी। गुड्डा रंगीला के इस गीत पर कई जिलों में प्रशासन ने बजाने पर प्रतिबंध तक लगा दिया। लेकिन इसके बाद भी अश्लीलता के इस काले अध्याय पर अंकुश नहीं लगाया जा सका। हालात ऐसे हो गये कि लोग इस तरह के गीतों के आदि होते चले गए। गुड्डा रंगीला के साथ राधे श्याम रसिया, छोटू छलिया और न जाने कौन कौन से गायक हुए कुछ चर्चा में आए कुछ गुमनामी के अंधेरे में खो गये। लेकिन इस दौरान बिहार में एक गायक ऐसा भी था जो बिहार, यूपी और भोजपुरिया समाज की नब्ज को पकडने की कोशिश में लगा था। बगल वाली जान मारे ली जब बाजार में बजना शुरू हुआ तो फिर कभी मनोज तिवारी मृदुल ने पीछे पलटकर नहीं देखा। भोजपुरी संगीत के क्षेत्र में जो कमी हुई थी उस कमी को मनोज तिवारी ने भरना शुरू कर दिया। बिहार और यूपी ने मनोज तिवारी को हाथों हाथ लिया। एक के बाद एक एलबम हिट होते चले गए। गीत संगीत के क्षेत्र से मनोज तिवारी ने अभिनय के क्षेत्र में कदम रखा। दो हजार के दशक में मनोज तिवारी हिट हो गये। फिल्मों में अभिनय करने लगे। भोजपुरी फिल्में फिर से बनने लगी। रवि किशन और मनोज तिवारी जैसे कलाकारों की भोजपुरी फिल्में हिट होने लगी। लेकिन पिछले दो तीन सालों से मनोज तिवारी ने गाना बंद कर दिया। अब उनका नया एलबम भी नहीं आता। इस दौरान भोजपुरी को विस्तार देने के अभियान में कई गायक शामिल हुए लेकिन इनमें से कई अश्लीलता की भेंट चढ़ गए। इस बीच बिहार को एक नई बड़ी आवाज जो मिली वो कल्पना, देवी, मालिनी अवस्थी,पवन सिंह की आवाज। कल्पना वैसे तो असम की रहने वाली हैं लेकिन आवाज की खनक को सुनकर आपको नहीं लगेगा कि उनका भोजपुरी से कोई रिश्ता नहीं रहा होगा। गा तो सब लेती हैं लेकिन शुद्द द्विअर्थी गीत इनकी पहचान है। 2003 में जब देवी की एंट्री हुई तो लोग उन्हें दूसरी शारदा सिन्हा तक कहने लगे। विशुद्द पारंपरिक गीत गाने वाली देवी अपने प्रशंसकों को ज्यादा दिन तक संभाल नहीं सकी। हालांकि अब भी कभी कभी गा लेती हैं। मालिन अवस्थी टीवी की गायिका है। एलबम वैसे मैंने तो नहीं देखा और ना सुना है लेकिन अच्छा गा लेती हैं। पवन सिंह के गीत सिंगल अर्थी कभी नहीं होते... लेकिन फिलहाल कोई ऑप्शन नहीं है तो पवन सिंह का बाजार गर्म है। गायकी के साथ अभिनय भी कर रहे हैं। लॉलीपॉप लागेलू...इनका बड़ा हिट रहा। वैसे दिनशे लाल यादव निरहुआ, छैला बिहारी, तृप्ति शाक्या जैसे कलाकार भी है जो अपनी जगह पर बने हुए है। रिंकू घोस, रानी चटर्जी, पाखी, सरीखे गैर भोजपुरिया हीरोइनों की बदौलत भोजपुरी सिनेमा का बाजार हिट है तो इसकी वजह भोजपुरी की मिठास ही है। बंगाली लड़की रिंकू घोस और रानी भोजपुरी निर्माता निर्देशकों की पहली पसंद है। वैसे अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा, अजय देवगन, राजबब्बर, नगमा, भाग्यश्री जैसे बड़े कलाकार भी इन दिनों बॉलीवुड के भोजपुरी संस्करण में शामिल है। लेकिन साल दो साल से भोजपुरी इंडस्ट्री में एक नया ट्रेंड शुरू हुआ है। छोटे छोटे बच्चे जिनके दूध के दांत भी नहीं टूटे वो गीत गा रहे हैं.... बात तो अच्छी है लेकिन उनसे अच्छे गीत गवाए नहीं जा रहे। अब अरविंद अकेला उर्फ कलुआ को ही ले लीजिए, है तो अभी हॉट प्रॉपर्टी लेकिन उसके गीतों को आप घर में नहीं सुन सकते। फिलहाल इन उतार चढ़ावों के बीच बॉलीवुड में भोजपुरी अपनी जगह बनाने में कामयाब है। और इन कलाकारों की कोशिशों से भोजपुरी का प्रचार और प्रसार भी हो दुनिया भर में हो रहा है।