Friday, December 9, 2011

'फिलहाल' छुट्टी वाले दिन की हकीकत!


ये जो हफ्ते में एक दिन की छुट्टी मिलती है उसके फायदे कम घाटा ज्यादा है। आपके लिए तो मैं बिल्कुल ही नहीं कह रहा ये सिर्फ मैं अपने बारे में कह रहा हूं। महीने में 4-5 साप्ताहिक छुट्टियां मिलती हैं। पहला हफ्ता वाला तो मान लीजिए कभी बैंक तो कभी बिजली बिल या दिस दैट करके बारह एक बजे तक का टाइम निकल जाता है। यहां के बाद अब शुरू होती है समय बीताने के रास्ते खोजने की परीक्षा। अभी फिलहाल तीन-चार दोस्त हैं जिनके साथ होने पर छुट्टी का मतलब छुट्टी हो पाता है। लेकिन ये भी कब महीने की पहली छुट्टी के दिन । वो भी दोपहर बाद। किसी तरह से खा-पीकर, कुछ खरीदारी करके, सिनेमा देखकर टाइम निकाल लिया। लेकिन फिर छे दिन बाद सब कुछ ठीक रहने पर छुट्टी का दिन आ धमकता है। अब क्या... न बिजली बिल बचा...न किराया का...राशन और सब्जी तो समझिए रोज टाइप आइटम है । उसका तो साप्ताहिक मामलों से कोई लेना देना ही नहीं । अब ऐसा भी नहीं कि छुट्टी का दिन है तो ज्यादा देर तक सोते रहिए। नींद तो अपने टाइम पर ही खुलेगी । दफ्तर के दिन हड़बड़ी में सब कुछ करके निकल जाना पड़ता है लेकिन छुट्टी है तो इत्मीनान से करते रहिए...टाइम भी धीरे धीरे बीतता है।
 अब आइए बुनियादी मुद्दे पर। चूंकी दिल्ली में दोस्त हो गए हैं कम। जो थे पुराने साथी-सहपाठी सबकी अपनी टाइमिंग है। सबकी अपनी गृहस्थी है। सो उधर से हाथ निकल गया। बचे अब तीन-चार करीबी वाले। अब छुट्टी असल में यही खलती है । अब चूंकि ज्यादा लोगों के साथ तो उठना-बैठना है नहीं.. जो लोग होते हैं साथ में उनकी भी अपनी दुनिया है। अपनी जान पहचान है तो उसमें दखल देना किसी सूरत में मुनासिब नहीं है। क्योंकि उसके पास भी वही महीने में 4-5 छुट्टी है। उसी में सबको अपनी अपनी प्लानिंग करनी होती है। किसी को शादी में जाना तो किसी को पुराने दोस्त के पास तो किसी को कहीं. किसी को कहीं...कहने का मतलब सीधा और साफ शब्दों में ये है कि आपकी दुनिया छोटी है इसलिए आपको दिक्कत होती है और होती रहेगी। फिलहाल...!!! बहुत कम लोग जानते हैं कि कई बार तो कमरे में अकेले बोर हो जाने पर मार्केट जाकर पान खाकर टाइम बीताना पड़ता है ताकि पान खाने के दौरान उसी में कुछ देर उलझा रहूं...और फिर उसके बाद उसके असर में कुछ देर। कई बार यूं ही गाड़ी लेकर निकल जाना पड़ता है ताकि शरीर में थोड़ा बहुत धूप वगैरह भी लग जाए और कुछ समय भी...वैसे टीवी पर साउथ इंडियन फिल्में देखना और किताब पढ़ना भी रूटीन में शामिल होता है लेकिन कुछ देर बाद इससे भी मन उचट जाता है। चार-पांच छुट्टियों में से एक-दो तो ऐसी भी होती है जब पुराने पंद्रह बीस अखबारों को पलट पलट कर कुछ खास लेख, खबरें खोजने और फिर उसको पढ़ने का भी सहारा लेना पड़ता है। लेकिन इसमें भी उतना समय नहीं लगता। जिस वक्त ये लिख रहा हूं उस वक्त मैं घर में गैस सिलेंडर वाले का इंतजार कर रहा हूं। पान खाने के लिए बाहर जाने का मन था लेकिन गैस सिलेंडर वाले को फोन किया तो बोला कि मैं आ रहा हूं। तो इसी दौरान इसे छाप रहा हूं।
एक दिन की छुट्टी होने की वजह से भी शायद ऐसा है अगर दफ्तर में दो दिन की छुट्टी होती.. तो कहीं घूमने-फिरने भी निकल जाया जाता तो उसमें भी मन लगता...हो सकता है दो दिन की छुट्रटी का कुछ ज्यादा ही घाटा होता। वैसे परिचित लोग तो छुट्टी लेकर घूम फिर भी आते हैं यहां कहां मौका मिलता है। छे साल के दौरान इसी साल दो दो दिन के लिए शिमला और नैनीताल जाने का मौका मिला। वो भी तब जब साल में एक बार सिर्फ घर जाने की छुट्टी ली। इस महीने तो पार्टनर भी घर गया है। उसका भी टाइम टेबल अपना है। दूसरे मूड का है सो उसका समय ज्यादातर तो निकल जाता है। कभी कभी उसको भी उलझन होती है। जब 2006-2007 के दौरान दो दिन की छुट्टी मिलती थी उस वक्त मेरे बड़े भाई भी नॉर्थ में रहते थे... उस दौरान हर छुट्टियों में वहीं चला जाया करता था। लेकिन अब वो बिहार में ही हैं सो नॉर्थ कनेक्शन भी कट गया । एक रायजी मित्र हैं तो वो बिहार में ही हैं । बालक भी परिवार वाला आदमी है। धीरे-धीरे लोग कम होते गए न...जैसे जैसे नए लोग जुड़ना शुरू होते हैं तो पुराने अपने आप कम होने लगते हैं...लेकिन यहां नया पुराना सब माइनस में ही है। अब आज का रूटीन पता ही नहीं है करना क्या है....गैस वाला अब भी नहीं आया । आता तो इसको रोकता...अब कल तो ठीक रहा...मैच भी था... सब थे भी...लेकिन कल तो छुट्टी नहीं थी न... छुट्टी तो आज है...चलिए देखिए....क्या कर सकते हैं....कोई बात नहीं !!!  थोड़ा यूपी चुनाव पर टाइम देना है। अब वही देखने जा रहा हूं। चलिए। आपको छुट्टी मिले तो फोन कीजिएगा। मैसेज कीजिएगा। हो सके तो बताकर मिलने भी आ सकते हैं। बुला भी सकते हैं। 

Thursday, September 29, 2011

यात्राओं के दौर में देश


एक बार फिर से देश में यात्राओं का दौर शुरू हो गया है। बाबा रामदेव स्वाभिमान यात्रा पर निकल चुके हैं। अगले महीने से आडवाणी अपने राजनीतिक जीवन की एक और यात्रा शुरू कर रहे हैं। उसके बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी सेवा यात्रा शुरू करने वाले हैं। इन यात्राओं से फायदा लेने की होड़ में हर नेता लगा हुआ है। बाबा रामदेव का मुद्दा काला धन है तो आडवाणी भ्रष्टाचार के खिलाफ यात्रा करने वाले हैं। नीतीश की यात्रा सुशासन का सच जानने के लिए हो रही है। सवाल ये है कि क्या इन यात्राओं से देश की जनता का भी कोई भला होने वाला है?
जो भी शख्स राजनीतिक रूप से थोड़ा भी जागरूक है उनको इन यात्राओं के फायदे और नुकसान की समझ है। लेकिन इसमें समझने वाली बात ये है कि आखिर कांग्रेस नेतृत्व के गठबंधन वाली सरकार को इसका कोई नुकसान भी होगा। लोकसभा चुनाव वैसे तो दो हजार चौदह में होने हैं। लेकिन भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ देश में जो माहौल बना है उसने कहीं न कहीं मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार की सूरत को बिगाड़ जरूर दिया है। कुछ लोग आज के हालात की तुलना चौहत्तर-पचहत्तर के हालात से कर रहे हैं। उस वक्त इंदिरा गांधी के नेतृत्व की सत्ता को जेपी के आंदोलन ने चुनौती दी थी। नतीजा दुनिया ने देखा था जब कांग्रेस का देश से सफाया हो गया था। सच्चाई के चश्मे से आज के हालात को देखे तो कमोबेश सूरत तो वैसी नहीं है लेकिन हालात उसी ओर के इशारे जरूर कर रहे हैं।
इन दिनों देश में अनायास ही जेपी चर्चा के विषय बन चुके हैं। जेपी की चर्चा हर ओर हो रही है। चाहे बाबा रामदेव के समर्थकों की पिटाई का मुद्दा हो या फिर अन्ना के आंदोलन का। किसी ने रामदेव पर लाठीचार्ज की तुलना जेपी मूवमेंट के वक्त के हालात से की है तो कोई अन्ना के आंदोलन में जेपी की तस्वीर देखता है। शायद इसी का फायदा उठाने के लिए आडवाणी भी जेपी जयंती के मौके पर रथयात्रा की शुरुआत कर रहे हैं। 11 अक्टूबर को जेपी की जयंती है और जेपी की जन्मस्थली बिहार के सिताब दियारा से आडवाणी भ्रष्टाचार के खिलाफ यात्रा शुरू कर रहे हैं। कहीं न कहीं जेपी एक बार फिर से नेताओं के लिए प्रेरणा बन गये हैं। बीच के दिनों को याद करें तो जेपी के शिष्य कहे जाने वाले नेता जेपी के अरमानों को अपने हाथों से कुचल चुके हैं। लेकिन जेपी इन सबके बीच जीवंत हैं।
बिहार से यात्रा को लेकर आडवाणी की सोच चाहे जो कुछ भी हो लेकिन एक सच ये भी है कि आडवाणी ने उस बिहार को अपनी यात्रा के लिए चुना है जिस बिहार में कभी लालू ने उनकी रथयात्रा रोक दी थी। 1990 का वो साल था जब समस्तीपुर में आडवाणी की यात्रा को लालू ने ये कहकर रोक दिया था कि देश में इस यात्रा से माहौल बिगड़ रहा है। कुछ लोग मानते हैं कि आडवाणी उस टीस को भूल नहीं पाए हैं। और उसी को पाटने के लिए बिहार के छपरा से यात्रा की शुरुआत कर रहे हैं। जेपी छपरा से निकलकर बिहार के कुछ जिलों का सफर तय करने के बाद झारखंड और फिर यूपी में दाखिल होंगे। उस यूपी में जहां अगले साल चुनाव होने हैं। और यूपी की लड़ाई में दम दिखाने के लिए बीजेपी को पसीना बहाना ही पड़ेगा क्योंकि बीजेपी आज यूपी में प्रासंगिक नहीं है। आडवाणी इस चीज को समझते हैं और इसिलिए मौके की नजाकत का फायदा उठाने की फिराक में हैं। इस बीच एक नया विवाद उठा है कि नरेंद्र मोदी को मोदी की ये यात्रा पसंद नहीं है। कारण जो भी हो लेकिन पीएम पद की दावेदारी को लेकर बीजेपी में उठे विवाद को जानकार इसकी वजह मान रहे हैं। 11 अक्टूबर को शायद ये भी साफ हो जाए। संघ के सूत्रों ने संकेत दिये हैं कि आडवाणी उस दिन शायद पीएम पद की दावेदारी छोड़ने का एलान कर दें। यहां ये बताना जरूरी है कि आडवाणी पहले गुजरात के सोमनाथ से यात्रा शुरू करने वाले थे लेकिन किन्हीं कारणों से उन्हें बिहार से शुरू करने का फैसला करना पड़ा। अब ये कहा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी के विरोध के चलते उन्हें बिहार जाना पड़ा है। वैसे एक बात और दिलचस्प है कि मोदी की काट के लिए आडवाणी ने उस बिहार की धरती से यात्रा शुरू करने का फैसला किया जहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को नरेंद्र मोदी का सार्वजनिक मंचों पर साथ दिखने का विरोधी माना जाता है। 18 राज्य और तीन केंद्र शासित प्रदेशों की यात्रा करने के बाद आडवाणी 20 नवंबर को दिल्ली पहुंचेंगे जहां एक रैली होगी। अब इस रैली में मोदी रहेंगे या नहीं ये नहीं मालूम। नीतीश रहेंगे या नहीं ये भी नहीं मालूम। इंतजार बीस नवंबर का करना होगा जब आडवाणी अपनी यात्रा खत्म करेंगे तो उस दिन दिल्ली के मंच की क्या तस्वीर होगी। क्या नीतीश और मोदी आडवाणी के इस समापन समारोह के साक्षी बनेंगे या फिर कोई एक आएगा और दूसरा दूर से ही ताली बजाएगा?
यात्रा पर इन दिनों यूपी में मायावती भी ही हैं जो नए जिले बनाने में जुटी हैं। समाजवादी पार्टी के युवराज अखिलेश यादव भी यूपी में क्रांति का अलख जगाते फिर रहे हैं। गुजरात में कांग्रेस के वाघेला भी चुनावी यात्रा पर मोदी के खिलाफ मोर्चा बनाकर निकल चुके हैं। कुल मिलाकर सच्चाई ये है कि सब कोई अपने फायदे की यात्रा में जुटा है।

Monday, August 22, 2011

अन्ना की 'शांतिपूर्ण क्रांति'



अन्ना एक आंदोलन
 हिन्दुस्तान में हवा का रुख इस वक्त रामलीला मैदान से शुरू होकर देश भर में फैल रहा है। इस वक्त मैं जब लिख रहा हूं मेरे पीछे जिन्दाबाद के नारे लगाए जा रहे हैं। रोड पर छोटे छोटे बच्चों से लेकर बड़े तक सब हाथों में मोमबत्ती लिए भारत माता की जय के नारे बुलंद कर रहे हैं। देश भर की गलियों में पिछले पांच-छे दिनों से ये आवाज गूंज रही है। आज की इस पीढ़ी ने इतना बड़ा जनआंदोलन जो बिना किसी बवाल के सात दिनों से हिन्दुस्तान की सड़कों पर चल रहा है नहीं देखा। अतीत के पन्ने को पलटे तो इस पीढ़ी को याद है तो मंदिर आंदोलन और वीपी सिंह की लगाई आरक्षण की आग वाला हिंसक आंदोलन। बीते पच्चीस तीस सालों में कई तरह के आंदोलन भले ही देश में हुए लेकिन आज का ये आंदोलन कई मामलों में अलग है। पुराने आंदलोनों में मीडिया का ये हुजूम नहीं था। आज देश के कोने कोने की तस्वीरें इस कोने से लेकर उस कोने तक जा रही है। देश का एक बड़ा तबका जो देश की तकदीर और तस्वीर को बदलने में अहम भूमिका निभाता है वो आज सड़कों पर है। अपनी आगे की पीढ़ी को संस्कार और शिक्षा देने के लिए। जिन लोगों ने बदलते हिन्दुस्कान की तस्वीरें नहीं देखी वो एक बार रामलीला मैदान जरूर हो आएं। क्योंकि आंदोलन जब अतीत बन जाएगा तो खुद को गुनहगार मानने के अलावा कुछ न कर सकेंगे। आज के इस आंदोलन में हर वो रंग है हर वो तस्वीर है हर वो लोग है जिसे देखना सुनना और समझना चाहता है सवा सौ करोड़ का हिन्दुस्तान। मंच से जब अन्ना हजारे की आवाज नहीं सुनाई देती तो लगता है देश में मातमी सन्नाटा पसरा हुआ है। 74 साल का नौजवान तीस साल के नौजवानों के लिए प्रेरण बनकर सात दिनों से भूखा है। सात घंटे में इन लोगों को पसीना आ जाए। आखिर रामलीला मैदान के मंच पर बैठा शख्स भी आपके और हमारे बीच का इंसान ही है। उसे भी खाना पसंद है शौक से कोई सात दिनों तक भूखा नहीं रहता। आप और हम सात घंटे भूखे रह जाएं तो पूरे खानदान को पता चल जाता है। लेकिन सात दिनों से एक शख्स भूखा है और आपके लिए लड़ रहा है। सिर्फ आपके लिए। सब कुछ ठीक भी रहा तो पांच साल से दस साल और इससे ज्यादा उनकी उम्र नहीं होगी। लेकिन आज हिन्दुस्तान उनके दीर्घायु होने की कामना कर रहा है। देश भर में जन्माष्टमी का उत्सव आज इस आंदोलन के आगे फीका पड़ गया। मुंबई में दही हांडी फोड़ने की तस्वीरें आज के दिन स्कीन से हटती नहीं थी लेकिन शायद ही आज देश ने मुंबई के उत्सव को देखा होगा। सिर्फ इसलिए कि आंदोलन के रंग के आगे उत्सव का रंग फीका पड़ गया, सेना का सिपाही जनता का जनरल बनकर दिलों पर राज कर रहा है।
मैं भी अन्ना हजारे
आज भी इस देश में मध्यमवर्गीय परिवार राजनीति को गंदी नजरों से देखता है। परिवार का कोई बच्चा राजनीति में चला जाए। झंडा बैनर और भाषण की बात करने लगे तो घरवालों से उसे न जाने क्या क्या सुनना पड़ता है। लेकिन आज तस्वीर बदली हुई है। रामलीला मैदान में एक साथ तीन तीन पीढ़ी के लोग पहुंच रहे हैं। ताकत को बढ़ाने के लिए। मुझे नहीं लगता कि जिसे लोग गली मोहल्ले में नेता कहते हैं, या फिर जो राजनीतिक दलों का कार्यकर्ता है वो किसी आंदोलन, धरना, प्रदर्शन, बंदी में अपने बच्चों, बीवी और बेटा-बेटियों को लेकर सड़क पर जिन्दाबाद मुर्दाबाद के नारे लगाने के लिए उतरता है। लेकिन इस आंदोलन में नेता नहीं हर कोई नायक बनकर सड़क पर उतरा है। तीन महीने की बच्ची से लेकर तिहत्तर साल के बुर्जग तक में वही जोश है जो मंच से दिखता है।

एक आदमी की आवाज के पीछे लोग भाग रहे हैं। फिर भी अंधे और बहरे लोगों को न तो दिखाई दे रहा है और ना ही कुछ सुनाई दे रहा है। वक्त हमेशा एक जैसा नहीं होता। लीबिया, सीरिया, ट्यूनिशिया और मिस्र जैसा आइटम गवाह है जहां तीस साल-चालीस साल तक पके पकाए जमींदारों को जमीन में लिटा दिया गया। यहां तो फिर भी सब कुछ सामान्य है। खामोश है हिन्दुस्तान। मन में चिंगारी है लेकिन दबी हुई। लोग उसे हवा नहीं दे रहे। लेकिन सन्नाटा तो कभी भी मजबूर कर सकता है।
19 अगस्त, दिल्ली की सड़कों पर जनसैलाब

चालीस साल
बाद टीम इंडिया की ऐसी शर्मनाक हार हुई है । वो भी उस कप्तान की कप्तानी में जिसने इस टीम को नंबर वन बनाया था। उसी कप्तान की कप्तानी में टीम की नैया डूब गई। टीवी पर कुछ देर के लिए माहौल बनाने की कोशिश भी हुई लेकिन रामलीला मैदान के मंच पर छाए सन्नाटे ने इन्हें आज बख्श दिया। जिस कप्तान की तारीफ में कसीदे पढ़ पढ़ करके थकते नहीं थे उसे भी हार का सामना करना पड़ा है। संयोग है कि आज कल में वापस नहीं लौटना है नहीं तो उनको भी माफी मांगने के लिए रामलीला मैदान जाना होता। कहने के मतलब ये कि आज हिन्दुस्तान रामलीला मैदान की ओर देख रहा है। आज की ये पीढ़ी पहली बार दिल्ली की सड़कों पर लाखों की भीड़ देख रही है। छुट्टी लेकर लोग रामलीला मैदान का रुख कर रहे हैं। लड़ाई है। जो लड़ी जा रही है। अन्ना इस लड़ाई में जनता के जनरल हैं और सड़क पर उतरी ये सेना इस लड़ाई में उनका साथ दे रही है। और इतिहास गवाह है कि शासन को झुकना ही पड़ा है। शांति अहिंसा और सदाचार के नारे के साथ जो शांतिपूर्ण क्रांति की शुरुआत हुई है उसका असर सिर्फ इस पीढ़ी को नहीं कई पीढ़ियों पर पड़ने वाला है। बात सिर्फ अब कानून बनने और न बनने को लेकर नहीं हो रही । बात अब सच और झूठ की है। धोखे में रखने की है। सच को छिपाने की है। 



Friday, June 24, 2011

तलाश कीजिए... शायद मिल जाए।

जिंदगी में खुशियां जो हैं वो तो खोजने से मिलती है लेकिन परेशानी जो है वो तो कदम कदम पर है। आदमी रोज खुशियों की तलाश करता है। बहाने खोजता है खुश रहने के। लेकिन खुशियां इंतजार कराती हैं। बहुत कम लोग होते हैं जिनपे आप भरोसा करते हैं या फिर बहुत कम लोग होते हैं जो आप पर भरोसा करते हैं। लोग कहते हैं कि भरोसा बहुत बड़ी चीज है, मुझे भी ऐसा लगता है। खुशियां बांटने के वक्त बहुत से लोग आपके करीबी हो जाते हैं। लेकिन परेशानी में शायद ही कोई साथ देने वाला मिलता है। मेरे कहने का ये मतलब ये नहीं है कि अपकी हर खुशी में हर कोई आपके जितना ही खुश होता है। इस संदर्भ में कुछ खुशी दिखाने की होती है तो कुछ लोगों की खुशी मजबूरी में। लेकिन जो आपके साथ वाकई में खुश होता है या फिर आपकी खुशी में आपसे ज्यादा उसे खुशी मिलती है तो वो आपका परिवार होता है। परिवार का मतलब सिर्फ मां-बाप, भाई-बहन ही नहीं है।

करोगे याद....

परिवार का मतलब वो साथी जो आपके साथ हर वक्त खड़ा है, आपके दुख-सुख में, सपनों में, हकीकत में, खाने में, पीने में। असल में आपके जीने का असली साथी, असली दोस्त, असली भाई, असली परिवार यही है। जो लोग इस मौके पर आपके साथ हैं वो लोग आपकी परेशानी में भी आपके सहभागी बनने के काबिल हैं। घर से कोसों दूर भागमभाग भरी जिंदगी में रोज लड़ाई होती है, कभी अपने से कभी अपने काम से तो कभी अपनों से। लेकिन इस भागमभाग में आपको अपनों की कमी खलती है। घर से कोसों दूर घरवाले यानी मम्मी-पापा, भाई-भाभी आपकी रोज रोज की परेशानियों को बांट नहीं सकते। खुशियां तो बांट लेते हैं। लेकिन परेशानी आप घरवालों को नहीं बताना चाहते इसलिए कि आप अपने घरवालों से प्यार करते हैं। उनको आपकी परेशानियों के बारे में पता चलेगा तो वो आपसे ज्यादा परेशान हो जाएंगे। यही सोचकर हम में से ज्यादा लोग घरवालों से हर परेशानी पर परिचर्चा नहीं करते। ऐसी ही परेशानियों पर चर्चा के लिए आपको करीबी दोस्त, साथी, सहपाठी, सहयोगी की कमी महसूस होती है या जिनके पास इतने करीबी मौजूद हैं तो वो इनसे चर्चा कर लेते हैं। लेकिन जिनके पास इनमें से कोई नहीं है, उनको और ज्यादा परेशानी होती है। इसलिए ही परेशानी से बचने के लिए हमें बेहद करीबी की जरूरत महसूस होती है। यहां ये साफ करना जरूरी है कि बेहद करीबी का मतलब केवल आपकी प्रेमिका, प्रेमी या पत्नी, पति से ही नहीं है। कुछ दोस्त ऐसे भी होने चाहिए जिनकी अहमियत प्रेमी, प्रेमिका, पार्टनर, पति, पत्नी से ज्यादा हो। वैसे सच्चाई ये है कि बहुत कम लोग ऐसे किस्मत वाले हैं। कोशिश कीजिए शायद मेरी तरह कमी महसूस नहीं करेंगे। मैं भी बहाने खोज रहा हूं। धन्यवाद। बहुत दिन हो गये थे कुछ लिखा नहीं था। मेरे लिए भी ये कहानी पुरानी है लेकिन आज सोचा इसी से शुरुआत करूं।

Monday, February 21, 2011

सदी के 'सबसे बड़े कांड' पर फैसला


अब लोग गोधरा कांड के लिए जानते है...
 वैसे तो 9 साल पूरे होने में तकनीकी तौर पर पांच दिन कम है। लेकिन गिनती के जोड़-घटाव को छोड़ दें तो 9 साल पूरे मानिए। तो पूरे नौ साल बाद आ रहा है कल फैसला। वैसे तो हाल के दिनों में कई बड़े फैसले आए, लेकिन कल के फैसले का मतलब अलग है। कल जिस केस में फैसला आ रहा है उस घटना से पहले इस देश में एक अलग हिन्दुस्तान था और उस घटना के बाद अब इस देश में एक अलग हिन्दुस्तान है। 27 फरवरी 2002 बहुत लोगों को याद नहीं होगा, लेकिन लोग भूले भी नहीं होंगे। एक ट्रेन में कुछ उपद्रवी टाइप के लोग आग लगा देते हैं। आग लगना महज एक संयोग भी हो सकता है या फिर साजिश भी। तर्क और बहस अपनी जगह पर है। कुछ तो हुआ ही था तभी तो 58 लोग जिंदा जल गए। कई स्टिंग ऑपरेशन भी हो चुके, कई गवाह और कई तरह के लोग घटना के आगे और पीछे की कहानी कबूल चुके हैं। वैसे कोर्ट का फैसला कल आएगा, डिटेल में जानकारी मिल जाएगी।

गोधरा कांड के बाद का गुजरात

 9 साल पहले इस घटना के बाद जो घटना हुई उसने देश के एक बड़े प्रदेश की चरित्र का अलग चित्रण संपूर्ण ब्रह्मांड के सामने पेश किया। खैर, कारण जो भी रहा... कोशिश सब ने की। कहीं कोई. तो कहीं कोई... राजनीति करने वाले अपनी राजनीति करते रहे...सत्ता ने सत्ता का फायदा उठाया, तो विपक्ष उस फायदे पर अपना राग गाकर अपने फायदे की सियासत में जुटा रहा। देश में जब भी कोई चुनाव आता है “गोधरा और गोधरा के बाद” मुद्दा जरूर बनता है... वोट के लिए। बिहार हो तब चाहे यूपी हो तब।
सियासी फायदे के लिए मजबूरी का इस्तेमाल
ताया जाता है कि 27 फरवरी 2002 अयोध्या से लौट रहे कार सेवकों के जत्थे पर उपद्रवियों ने हमला किया था.. हमला इस शक्ल में था कि साबरमती एक्सप्रेस जब गोधरा में रुकी तो बोगी नंबर एस-6 में आग लगा दी गई। देखते ही देखते आग ने विकराल रूप लिया.. और उस बोगी में मौजूद 58 लोग मारे गये। बाद में इस घटना ने सांप्रदायिक रूप लिया और फिर गोधरा सिर्फ गोधरा नहीं.. गोधरा कांड के रूप में देश में जाना जाने लगा। बाद में नरोडा पाटिया, गुलबर्गा सोसायटी और न जाने क्या क्या नाम देश को सुनने को मिले...बाद में कई जांच कमेटियां बनीं... रिपोर्ट भी तरह तरह के। किसी ने कहा बाहर से किसी ने कहा अंदर से। किसी ने साजिश किसी ने संयोग। सत्य क्या है...सामने आएगा...वैसे रेल चलाने वाले नेताओं ने भी अपने अपने हिसाब से इन नौ सालों में मन भर सियासत की। वोट बैंक से जुड़ा मामला तो था ही। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाने पर रोक लगा दी थी...हालांकि फिर 26 अक्टूबर 2010 को  हरी झंडी दे दी थी । 94 आरोपी 2002 से ही जेल में बंद हैं। अब गोधरा कांड की हकीकत से कल पर्दा उठने वाला है। साबरमती सेंट्रल जेल में विशेष जज पी.आर. पटेल कल फैसला सुनाएंगे। मामला ज्यादा न बिगड़े इसके लिए गोधरा के ये  ट्रेन वाले वीडियो... नहीं दिखाने का आदेश जारी हो चुका है, सो वो तस्वीरें फिर से नहीं दिखेगी। 
यही है वो तस्वीर... जिसने....
बीते कुछ सालों में कई बड़े फैसले देश ने देखे और सुने हैं। चाहे मुंबई का 93 बम ब्लास्ट का मामला हो। या फिर अयोध्या की विवादित जमीन का मामला। देश अब दस साल पुरानी तस्वीरों से ऊपर उठ चुका है। अयोध्या के विवाद ने ही देश में कई ‘कांड’ कराए थे। लेकिन जब पिछले साल फैसला आया तो देश ने धैर्य और हिम्मत के साथ उसे स्वीकार किया... किसी ने भी कल्पना नहीं की थी। फैसले की नहीं, इस तरह स्वीकार करने की। अब कल भी इसी टाइप से जुड़े मामले में फैसला आ रहा है। न्यूज चैनलों पर कवरेज सुबह से ही लाइव रहने के आसार है...क्योंकि 21वीं सदी के ‘सबसे बड़े कांड’ पर फैसला जो आना है।










Friday, February 11, 2011

50 साल बाद कहां पहुंचे...


पहली भोजपुरी फिल्म

बुधवार यानी 16 तारीख को पचास साल का हो रहा है भोजपुरी फिल्मों का इतिहास। इन पचास सालों में भोजपुरी फिल्म कहां से शुरू होकर कहां तक पहुंचा है इसको लेकर बड़ी बहस हो सकती है। क्योंकि सवाल कई हैं। सवाल ये कि कल की भोजपुरी और आज की भोजपुरी के मिजाज में कितना फर्क आया है। जिस दिन भोजपुरी इंडस्ट्री की पटना में नींव रखी गई थी उस दिन भी उद्देश्य व्यवसायिक ही था और आज भी पचास साल बाद मतलब व्यवसायिक ही है। फर्क सिर्फ इतना है कि सिनेमा देखने और दिखाने वाले दोनों बदल गए हैं। उन दिनों लोग गांव-गांव से बैलगाड़ी, तांगा और साइकिल रिक्शा से सफर करके तीन घंटे का मनोरंजन करने ही सिर्फ लोग कोसों दूर नहीं जाते थे। ये तीन घंटे महीनों गांव के चौपाल और पनघट पर लोगों को जोड़ने का जरिया होता था। जिस सोच के साथ भोजपुरी इंडस्ट्री की शुरुआत हुई थी वो सोच क्या आज भी जिंदा है? क्या पचास साल बाद भी भोजपुरी सिनेमा की चर्चा गांव के चौपाल और पनघट पर उसी तरह होती है जैसे 60-70-80 के दशकों में होती थी। सवाल कई हैं। मैं ये नहीं कह रहा कि भोजपुरी फिल्मों का विकास नहीं हुआ है, लेकिन जिस दिशा में विकास होना चाहिए था क्या उस दिशा में उस रफ्तार से भोजपुरी का पहिया आगे बढ़ा है ? हिंदी फिल्मों के बाद सबसे बड़ा बाजार भोजपुरी इंडस्ट्री का कहा जाता है। सवाल ये कि क्यों इसे बड़ा बाजार माना जाए ? सिर्फ इसलिए की यहां हर हफ्ते फिल्में बनती हैं ?

भोजपुरी सिनेमा के बड़े चेहरे

क्या कारण है कि मनोज तिवारी और रवि किशन के अलावा किसी भी भोजपुरी हीरो-हीरोइनों की पहचान राष्ट्रीय स्तर पर नहीं है?  क्यों आज भी हिंदी फिल्मों की तरह भोजपुरी फिल्मों के गाने घर के भीतर नहीं सुने और सुनाए जाते ? सवाल बहुत सारे हैं। सच्चाई भी यही है कि जवाब किसी के पास नहीं है। एक उदाहरण देता हूं आपको पिछले दिनों भोजपुरी अभिनेत्री रानी चटर्जी से जुड़ी एक खबर राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बनी थीं। लेकिन रानी चटर्जी को मेरे दफ्तर के 95 फीसदी लोग नहीं जानते थे। जानने का मतलब कहीं से ये नहीं कि वो कौन हैं, कहां की रहने वाली है... मतलब ये कि भोजपुरी इंडस्ट्री की आप किस बात की बड़ी हीरोइन हो कि आपकी राष्ट्रीय स्तर पर कोई पहचान नहीं है। मनोज तिवारी और रवि किशन को जानने वाले भी बहुत लोग नहीं जानते कि वो किस जिले के रहने वाले हैं लेकिन उनके बारे में 95 फीसदी लोगों को बताने की जरूरत नहीं है।

16 फरवरी 1961 को पटना के शहीद स्मारक पर भोजपुरी इंडस्ट्री की नींव रखी गई । फिल्म गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो के मुहुर्त के साथ। अगले दिन शूटिंग शुरू हुई और फिर साल भर बाद भोजपुरी कला के क्षेत्र में एक बड़ी क्रांति की शुरुआत हुई। 1962 में पहली भोजपुरी फिल्म गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो रिलीज हुई । सोच, संस्कृति और माटी की खुशबू के साथ बनी इस पहली भोजपुरी फिल्म के बनने की कहानी भी दिलचस्प है। नाजीर हुसैन की इच्छाशक्ति, विश्वनाथ शाहबादी (निर्माता) का साथ और कुंदन का निर्देशन। राजेंद्र बाबू की प्रेरणा से इतिहास की शुरुआत इन्हीं तीनों ने की थी। पहली भोजपुरी फिल्म में हीरो बनने का सौभाग्य असीम कुमार और हीरोइन बनने का मौका कुमकुम को मिला। गीत का भार शैलेंद्र के कंधों पर तो संगीत की जिम्मेदारी संभाली चित्रगुप्त ने। बनारस के सिनेमाघर में जब फिल्म लगी तो आसपास के गांव में कहा जाने लगा कि गंगा नहा, विश्वनाथ जी के दर्शन कर, गंगा मइया देख तब घर जा। 50 साल हो गए है । गंगा मइया... से शुरुआत और फिर गंगा किनारे मोरा गांव, नदिया के पार, सजनवां बैरी भइले हमार, माई, बलम परदेसिया, पिया के गांव, दूल्हा गंगा पार के, और न जाने क्या-क्या। कितनी आईं और गईं । धीरे-धीरे तो माहौल ऐसा बन गया कि हिंदी फिल्मों में भी भोजपुरी गाने और संवाद फिट होने लगे। मैंने प्यार किया और हम आपके हैं कौन में शारदा सिन्हा के गाए गीत शायद ही कभी भूलाए जाएंगे। लेकिन अब क्या ? लहरिया लूट ए राजा जी.. देवरा बड़ा सतावेला... निरहुआ सटल रहे....

इन्हें क्यों नहीं जानते लोग...

इन पचास सालों में कहां से शुरू हुए और कहां पहुंचे। ना तो कोई इस पर चिंतन करने वाला है और ना ही किसी को चिंता है। आखिर व्यवसायिक सोच के सामने विरासत का कोई मतलब भी नहीं रह जाता। और आज के जमाने में पचास साल पीछे मुड़कर कोई क्यों देखेगा ? लेकिन मेरा सवाल अब भी वही है कि.. आखिर ऐसा क्या नहीं हो पाया है जिसने भोजपुरी फिल्मों के समाज को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने से रोके रखा है। व्यवसायिक फायदे के लिए ही न जिनको भगवान ने आवाज दी है गाने के लिए वो गाना छोड़कर कमर लचका रहे हैं...। मनोज तिवारी के गीत को सुने उनके प्रशंसकों को जमाने बीत गये होंगे। पवन सिंह, गुड्डू रंगीला, निरहुआ और न जाने क्या.. क्या...जिनको गाना चाहिए वो बजा रहे हैं... और जिनको बजाना चाहिए वो गा रहे हैं... ये तो है आज की स्थिति।
रिंकू घोष, रानी चटर्जी, पाखी हेगड़े, दिव्या देसाई... सब के सब बौरो प्लेयर। दूसरे टीम के खिलाड़ी को अपने साथ कब तक खेलाते रहेंगे ? अमिताभ बच्चन, अजय देवगन, भाग्यश्री, नगमा ने काम किया तो जोर जोर से बोलते हैं कि बॉलीवुड के बड़े सितारे भोजपुरी की तरफ रुख कर रहे हैं...बे काहे का रुख कर रहे हैं...तुम्हारे पास है नहीं प्लेयर तो बाहरी को खेलने के लिए बुला रहे हो...
चूंकि सोच सिर्फ व्यवसायिक है इसलिए कोई सोच को बदलना नहीं चाहता। और इन लोगों के लिए भोजपुरी इंडस्ट्री एक बाजार भर हैं और इस बाजार में सब के सब खुद को बेच रहे हैं। किसी को न तो भोजपुरी के अतीत, वर्तमान और भविष्य की कोई चिंता हैं और ना ही अपने पहचान की। कुएं से बाहर कोई निकलना नहीं चाहता और आरोप सामने वाले पर मढ़ता है।
सुन रह हैं कि पटना में तीन दिनों का कोई कार्यक्रम रखा गया है। भोजपुरी के नाम पर खुद की मार्केटिंग करने वाले उस कार्यक्रम में जरूर जाएंगे। बिना किसी सोच के, बिना किसी रूपरेखा के। इतिहास पर भाषण देंगे जो कि सबसे आसान है, चाय-नाश्ता, फोटे-शोटो खिंचवा के अपनी मार्केटिंग करेंगे। भाई मार्केटिंग करने में कोई बुराई नहीं मान रहा लेकिन मार्केटिंग भी ढंग की तो करो। क्या वजह है कि कमाल खान को देश जान जाता है और पवन सिंह....
बीते एक दशक में रही सही कसर आज के तथाकथित गायकों ने पूरी कर दी है। सुनिए "लगाइ दीही चोलिया के हुक राजा जी"... और "मोबाइल के जमाना बा चोलिये में गावत गाना बा"....इसी टाइप के गाने लिखे जा रहे हैं न... गाये भी जा रहे हैं...और सुने भी... लेकिन चौक चौराहे और जीप बस से ज्यादा इनकी उम्र नहीं है। इस बात को माननीय महोदय आपको समझना होगा, समझाना होगा। भोजपुरी सिनेमा और गाना सुनकर एक गैर भोजपुरी ही क्यों ? अब तो आपको भी एक मिनट के लिए लगता ही होगा कि इसके गाने कैसे हैं...? अश्लीलता से हटकर सार्थकता की बात अब कहीं नहीं होती। अब न तो "आरा हिले छपरा हिले" है... और ना ही "फुलौरी बिना चटनी कैसे बनी..." विवाह गीत, देवी गीत, छठ के गीत और शंकर भगवान के गीत के अलावा घर में बजाकर सुनने वाले कोई गीत शायद ही दस सालों में किसी ने गाया होगा...कहने का मतलब ये कि पचास साल पहले जिस मंजिल की तलाश में निकले थे मुझे नहीं पता कि कौन मंजिल तक पहुंचा। बेहतर होगा कि ये पता चले कि कोई तो मंजिल तक पहुंचा। रास्ता भटक चुके हो दोस्त, व्यवसायिक हितों के लिए विरासत से समझौता तो कर चुके हो लेकिन अभी और कितना गिरोगे...पचास साल बीत चुका है....

Friday, January 21, 2011

विश्व कप क्रिकेट टाइम टेबल


DATE TIME Match Details Venue

Feb 19,2011 14:30 Bangladesh vs India D/N Mirpur

Feb 20,2011 09:30 New Zealand vs Kenya Chennai

Feb 20,2011 14:30 Sri Lanka vs Canada D/N Hambantota

Feb 21,2011 14:30 Australia vs Zimbabwe D/N Ahmedabad

Feb 22,2011 14:30 England vs Netherlands D/N Nagpur

Feb 23,2011 14:30 Pakistan vs Kenya D/N Hambantota

Feb 24,2011 14:30 South Africa vs West Indies D/N Delhi

Feb 25,2011 09:30 Bangladesh vs Ireland Mirpur

Feb 25,2011 14:30 Australia vs New Zealand D/N Nagpur

Feb 26,2011 14:30 Pakistan vs Sri Lanka D/N Colombo

Feb 27,2011 14:30 India vs England D/N Kolkata

Feb 28,2011 09:30 Canada vs Zimbabwe Nagpur

Feb 28,2011 14:30 West Indies vs Netherlands D/N Delhi

Mar 1,2011 14:30 Sri Lanka vs Kenya D/N Colombo

Mar 2,2011 14:30 England vs Ireland D/N Bangalore

Mar 3,2011 09:30 South Africa vs Netherlands Mohali

Mar 3,2011 14:30 Pakistan vs Canada D/N Colombo

Mar 4,2011 09:30 New Zealand vs Zimbabwe Ahmedabad

Mar 4,2011 14:30 Bangladesh vs West Indies D/N Mirpur

Mar 5,2011 14:30 Australia vs Sri Lanka D/N Colombo

Mar 6,2011 09:30 South Africa vs England Chennai

Mar 6,2011 14:30 India vs Ireland D/N Bangalore

Mar 7,2011 14:30 Canada vs Kenya D/N Delhi

Mar 8,2011 14:30 Pakistan vs New Zealand D/N Kandy

Mar 9,2011 14:30 India vs Netherlands D/N Delhi

Mar 10,2011 14:30 Sri Lanka vs Zimbabwe D/N Kandy

Mar 11,2011 09:30 West Indies vs Ireland Mohali

Mar 11, 2011 14:30 Bangladesh vs England D/N Chittagong

Mar 12,2011 14:30 India vs South Africa D/N Nagpur

Mar 13,2011 09:30 New Zealand vs Canada Mumbai

Mar 13,2011 14:30 Australia vs Kenya D/N Bangalore

Mar 14,2011 09:30 Bangladesh vs Netherlands Chittagong

Mar 14,2011 14:30 Pakistan vs Zimbabwe D/N Kandy

Mar 15,2011 14:30 South Africa vs Ireland D/N Kolkata

Mar 16, 2011 14:30 Australia vs Canada D/N Bangalore

Mar 17,2011 14:30 England vs West Indies D/N Chennai

Mar 18,2011 09:30 Ireland vs Netherlands Kolkata

Mar 18,2011 14:30 Sri Lanka vs New Zealand D/N Mumbai

Mar 19,2011 09:30 Bangladesh vs South Africa Mirpur

Mar 19,2011 14:30 Pakistan vs Australia D/N Colombo

Mar 20,2011 09:30 Zimbabwe vs Kenya Kolkata

Mar 20,2011 14:30 India vs West Indies D/N Chennai

Mar 23,2011 14:30 1st Quarter Final D/N Mirpur

Mar 24,2011 14:30 2nd Quarter Final D/N Colombo

Mar 25,2011 14:30 3rd Quarter Final D/N Mirpur

Mar 26,2011 14:30 4th Quarter Final D/N Ahmedabad

Mar 29,2011 14:30 1st Semi Final D/N Colombo

Mar 30,2011 14:30 2nd Semi Final D/N Mohali

Apr 2,2011 14:30 Final D/N Mumbai

Monday, January 17, 2011

जगत जननी की जन्मकथा

भगवान राम के जन्म को लेकर आपने कई जगह पढ़ा होगा, सुना होगा, धारावाहिकों में देखा भी होगा । लेकिन सीता के जन्म को लेकर बहुत कम लोग वाकिफ होंगे। कुछ लोग जनकपुर सुनकर ही लौट आए होंगे कुछ कहानी में घुसे होंगे तो सीतामढ़ी से आगे नहीं बढ़े होंगे। (रिसर्च और दिलचस्पी रखने वालों को छोड़कर)। अभी दफ्तर में कल ही चर्चा हो रही थी, तो हमारे एक वरिष्ठ हैं शिवेंद्र जी, उनको और कुछ और मित्रों को मान्यताओं पर आधारित सीता जन्म की कहानी सुना रहा था। इसिलिए प्रसंगवश लगा कि इसे सार्वजनिक किया जा सकता है। वैसे कहानी में शिवेंद्र जी ने ज्यादा दिलचस्पी नहीं ली और इस कहानी को उन्होंने सन्नाटे में निपटवाते हुए संपन्न करवा दिया। खैर,  मान्यताओं पर आधारित कहानी का जिक्र कर देता हूं..

सुनाया जाता है कि उस युग में राजा जनक के राज में भारी अकाल पड़ा था। प्रजा परेशानी में जी रही थी। अकाल से निपटने के लिए पूजा-पाठ का दौर लगातार चल रहा था। पूजा- पाठ के दौरान ही एक दिन भविष्यवाणी हुई कि “राजा अकेले जहां कभी खेती नहीं हुई है वहां की बंजर भूमि पर हल चलाएंगे तो जनकपुर का भला होगा”। भविष्यवाणी में इस बात का भी जिक्र किया गया कि भगवान शंकर के जिस हल से राजा बंजर जमीन को जोतेंगे वो हल जनकपुर से दक्षिण-पश्चिम दिशा के जंगलों में मिलेगा। खैर भविष्यवाणी के बाद प्रजा का दबाव  बढ़ा और सुख- समृद्धि के लिए राजा बंजर जमीन जोतने की तैयारी में जुटे।
जनकपुर बड़ा राज्य हुआ करता था लिहाजा उस जगह की तलाश होने लगी जहां कि जमीन बिल्कुल ही बंजर थी। भविष्यवाणी में ये कहा गया था कि जनकपुर से दक्षिण-पश्चिम दिशा के जंगल में ही हल मिलेगा, लिहाजा उसी इलाके में बंजर भूमि की खोज हो रही थी। खोज खत्म हुई। भविष्यवाणी में जिस हल का जिक्र किया गया था वो हल मिला। बंजर जमीन जोतने के लिए जिस जगह की खोज हुई वो जगह आज के सीतामढ़ी शहर से पांच किलोमीटर पश्चिम में पड़ता है। कथा के मुताबिक इस जमीन के पश्चिम में तब घनघोर जंगल हुआ करता था।

सीतामढ़ी में जानकी स्थान

भविष्यवाणी के मुताबिक मिले आदेश को देखते हुए राजा रथ पर सवार होकर अपने राज की भलाई के लिए सिर्फ सारथी को लेकर उस जगह की ओर निकल पड़े। फिर तत्कालीन सीतामढ़ी शहर से पांच किलोमीटर पश्चिम जिसे आज पुनौरा कहा जाता है वहां की बंजर भूमि पर हल चलाना शुरू किया। हल चलाने के दौरान जमीन में गड़ा एक घड़ा हल से टकराया। मान्यताओं के मुताबिक तभी मौसम एकदम बदल गया। घड़ा और हल की टक्कर के बाद घड़ा फूट गया और घड़े से बच्चे के रोने की आवाज आई। राजा ने हल चलाना छोड़ दिया । फूट चुके घड़े से निकली बच्ची को गोद में उठाया और आसमान में बदलते मौसम को देखते हुए तुरंत जनकपुर लौटने का फैसला किया। राजा बच्ची को लेकर रथ की ओर बढ़े, सारथी तैयार बैठा था और राजा के रथ पर सवार होते ही सारथी जनकपुर की तरफ बढ़ चला। लेकिन चार किलोमीटर की ही यात्रा हुई थी कि बदलते मौसम ने अपना असर दिखाना शुरू किया। बारिश की प्रबल संभावना देख राजा जनक ने सारथी को सुरक्षित ठिकाने की तरफ रथ को बढ़ाने का आदेश दिया। राजा जिस इलाके से आए थे वहां की भूमि बंजर थी, पीछे जंगल था और राजा जिस इलाके से बढ़ रहे थे वहां आसपास कोई बस्ती भी नहीं थी। हालांकि कुछ और आगे बढ़ने के बाद जहां राजा का रथ पहुंचा था वहां परवल की खेती हुई थी। जिसे देख राजा ने तुरंत सारथी से कहा कि यहां खेती हुई है मतलब आसपास कोई बस्ती जरूर होगी। काफी खोजने के बाद सारथी को बस्ती तो नहीं मिला लेकिन फसल की देखभाल के लिए एक किसान ने झोपड़ी बना रखी थी, वो जरूर दिखा। तभी तेज बारिश होने लगी। राजा रथ छोड़कर पैदल ही बच्ची को गोद में लिए उस झोपड़ी में जा छिपे। मूसलाधार बारिश जब थमी तब जाकर कहीं राजा घर के लिए प्रस्थान कर पाए। मान्यताओं के मुताबिक तब जनकपुर में अजब खुशी का माहौल था। बारिश होने के बाद लोग खुश थे।

जनकपुर में जानकी मंदिर
 राजा बच्ची के साथ जनकपुर पहुंचे तो मिथिला की राजधानी में खुशी और दोगुनी हो गई। महल पहुंचने के बाद राजा ने पत्नी सुनयना सहित सभी शुभचिंतकों से पूरी घटना का जिक्र किया। पंडित बुलाए गए... नामाकरण की प्रक्रिया शुरू हुई, मामला राजा के परिवार का था लिहाजा तरह-तरह के नाम सुझाए जाने लगे। किसी ने सीता रखा तो किसी ने मैथिली, किसी ने जानकी नाम दिया तो किसी ने भूमिपुत्री रखा। हर नाम के मायने थे। सीता नाम इसलिए रखा गया कि संस्कृत में हल को सीत कहा जाता है। इनका जन्म भी हल के नोंक से हुआ लिहाजा नाम पड़ा सीता, मिथिला की राजा की पहली बेटी थीं लिहाजा मैथिली कहीं गईं। पिता का नाम जनक इसलिए जानकी और जमीन से जन्मी इसलिए भूमिपुत्री।
(उपरोक्त लेख मान्यताओं पर आधारित है)

पुनौरा में सीता जन्म स्थान

अब कहानी के कुछ पहलुओं को जानिए- जिस जंगल से राजा को भगवान शंकर का हल मिला अब वहां जंगल नहीं है। उस जगह का नाम आज शिवहर है जो बिहार में पड़ता है। शिव-हल की वजह से इस जगह का नाम शिवहल से होते होते शिवहर हो गया। राजा ने जिस जगह पर जमीन जोते थे वो  जगह आज पुनौरा के नाम से जाना जाता है। आज भी वहां  पौराणिक स्मृतियां मौजूद हैं।
(मान्यताओं के मुताबिक)।
जिस जगह परवल की खेती हो रही थी और जिस झोपड़ी में राजा जनक सीता को लेकर बारिश से बचने के लिए छिपे थे, उस जगह आज विशाल जानकी मंदिर है जहां देश प्रदेश से लोग रोज दर्शन के लिए पहुंचते हैं। परवल की खेती वाला इलाका खूबसूरत शहर सीतामढ़ी हो चुका है जो बिहार में पड़ता है। और मिथिला की राजधानी जनकपुर आज नेपाल में है।

नेपाल रेल की दुर्लभ तस्वीरें-जनकपुर में
 नेपाल में एक मात्र जगह जनकपुर ही है जहां रेल की सुविधा है। जनकपुर से कुछ दूर बाद उत्तर में पहाड़ शुरू हो जाता है। जनकपुर में एयरपोर्ट भी है। भारत से जनकपुर जाने के कुल तीन रास्ते हैं। मधुबनी के जयनगर से रेलमार्ग। सीतामढ़ी के भिट्ठामोड़ से बस सेवा। और मधुबनी के उमगांउ से बस सेवा। सीतामढ़ी आप पटना से सीधे बस से पहुंच सकते हैं। मुजफ्फरपुर से भी सीतामढ़ी बस से पहुंच सकते हैं , दूरी 55 किलोमीटर। सीतामढ़ी से जनकपुर की दूरी 60 किलोमीटर के आसपास है।
वैसे जानकारी के लिए ये भी बता दूं कि तमिल भाषा के रामायण में सीता को रावण की बेटी बताया गया है। मंदोद्री को सीता की मां। ये कहा गया है कि सीता के जन्म के साथ ही उनकी शक्ति और राक्षस कुल के लिए खतरे की जानकारी मिलने पर रावण को बिना बताये मंद्रोदी ने सीता को नदी में बहवाया दिया था। जो बहते-बहते राजा जनक के राज में पहुंची और फिर नदी किनारे पूजा करते वक्त उन्हें मिली।
(स्रोतों पर आधारित) अगली बार जनकपुर की विस्तार से चर्चा


Tuesday, January 4, 2011

कार और पहाड़ में नया साल 2011


ए साल में शिमला की यात्रा। पत्रकारिता के क्षेत्र में आने के बाद कहीं की यात्रा का ये मेरा पहला अनुभव था। करीब एक महीने से तैयारी चल रही थी। जाने को सब तैयार थे लेकिन कहां जाना है इसको लेकर असमंजस जाने-जाने के दिन तक रहा। वैसे छुट्टी मिलेगी या नहीं, मिलेगी तो सब को मिलेगी या नहीं इसको लेकर भी तस्वीर साफ नहीं हो पा रही थी। हालांकि जब मन बन गया और वरिष्ठों से राय लेने के बाद जगह की तस्वीर साफ हुई तो कैसे जाया जाए, इसको लेकर मामला फंस गया। हालांकि जल्द ही इसका भी तोड़ निकाला गया । इसके बाद एक दिन का ऑफ और एक दिन पुराना बाकी वाला ऑफ मिलाकर दो दिन की छुट्टी का समय निकला। तय समय से एक घंटे की देरी से हमलोग 31 दिसंबर की सुबह 7 बजे नाहन के लिए प्रस्थान किए। करीब 6-7 घंटे की यात्रा करने के बाद भी नाहन के रास्ते में पहाड़ की बात तो दूर नाहन का बोर्ड तक नहीं दिख रहा था। ऊपर से अंबाला में एक हाई-फाई चाय दुकान के मालिक से पूछा तो कहा कि नाहन कहां है ये पता नहीं। (लौटते वक्त ड्राइवर ने बताया कि चाय दुकानदार साउथ इंडियन है लिहाजा उसे यहां की भौगोलिक स्थिति की जानकारी नहीं है)

शंका हो रही थी कि कहीं गलत रास्ते पर तो नहीं जा रहे हैं ? किलोमीटर का बिल तो नहीं बढ़ रहा है ?कुछ कर भी नहीं सकते थे, सिवाए ड्राइवर के किसी को कोई जानकारी नहीं थी इस रूट की। खैर 2.15 बजे नाहन का बोर्ड दिखा और फिर दस मिनट बाद पहाड़। राहत मिली की रास्ता गलत नहीं है। 17 किलोमीटर पहाड़ पर का सफर तय कर 3 बजे के आसपास पहुंच भी गए। सर्किट हाउस में ठहरने का इंतजाम था सो वहां सब मामला सेट हो गया। लेकिन सबसे पहला झटका मित्रों को सर्किट हाउस में ही लगा जब वहां के केयर टेकर ने कहा कि यहां कुछ घूमने के लिए है ही नहीं।



वैसे मुझे भी लगा था कि कुछ तो देखने को मिलेगा, लेकिन मेरे सभी साथियों को नाहन को लेकर ज्यादा उम्मीद थी। मामला यहीं फेल हो गया, ऊपर से बाजार में कार लेकर पता करने निकले तो ऐसा लग रहा था जैसे पूरे नाहन में सिर्फ हम लोग ही थे जो घूमने आए थे। खैर मामला गड़बड़ा गया था। रश्मि कुछ ज्यादा ही दुखी हो गई थी, हम सब में से सबसे ज्यादा रश्मि ही थी जो यात्रा को लेकर उत्साहित थी। होटल में खाना खाते वक्त मुझे लगा कि कुछ तो करना होगा नहीं तो पैसा बेकार हो जाएगा। इतना खर्च हुआ तो नहीं कुछ और सही। तय कर लिया कि कल शिमला की तरफ जाएंगे। हालांकि किसी को बताया नहीं। नाहन में जो कुछ भी था देखने के लिए, वैसे था तो कुछ भी नहीं, लेकिन रानीताल, माल रोड, राजा का किला टाइप जो कुछ भी था सब घूम-घाम लिए। रात को सर्किट हाउस की तरफ लौट रहे थे तो हुआ कि कुछ खरीदा जाए। एक कपड़े की दुकान में गये और सब लोगों ने स्वेटर, जैकेट टाइप आइटम खरीदे।सर्किट हाउस लौटने के बाद सब ने मान की बात रखी, सब मन मसोस-मसोस कर बोल रहे थे। बिना वक्त जाया किए फैसला हो गया कि कल शिमला जाएंगे, लेकिन कल दो बजे ही यानी 1 जनवरी को 2 बजे तक शिमला छोड़ देंगे ताकि रात तक घर पहुंच जाए और सुबह समय से दफ्तर।
 नए साल की सुबह सुबह 6 बजे हम चारों शिमला यात्रा के लिए निकल पड़े। रास्ते में पहाड़ी रास्ते का आनंद लेते हुए 11.30 बजे हमारी गाड़ी शिमला पहुंची । जनता कुफरी जाने की जिद करने लगी। भावनाओं का सम्मान करते हुए हमलोग कुफरी की तरफ बढ़े।  रास्ते में बर्फबारी के दर्शन हुए और फिर शिमला आना सफल हो गया। डेडलाइड 2 बजे की ही थी कि 2 बजे लौटना भी है। हालांकि खाना खाने और गाड़ी पार्किंग के चक्कर में देर हुई लेकिन माल रोड, मिडल बाजार, लोअर बाजार टाइप जगह घूम घाम के 4 बजे से पहले फ्री हो गए। इस दौरान टॉयलेट खोजने के लिए 15 मिनट का समय बर्बाद हुआ। माल रोड से वापस पार्किग की तरफ लौटने में रास्ता भूले तो उसमें भी कुछ वक्त गया। बंडी, जूता, टोपी तीन चीजों की खरीदारी भी हुई। और 3 बजकर 56 मिनट पर सब लोग गाड़ी में बैठकर दिल्ली के लिए निकल पड़े। सोच रखे थे कि दिन-दिन में पहाड़ी रास्ता काट लेंगे। लेकिन रास्ते में परमाणु के पास 1 घंटा जाम में फंस गए। 1 घंटा लगभग रात को खाने में लगा। लौटने के दौरान 2 जगह चाय पी गई। और इस प्रकार रात 2 बजे के करीब दिल्ली में दाखिल हुए। हिसाब किताब करते और सब को छोड़ते हुए 3.30 बजे के करीब घर पहुंचे। और ऐसे साल का पहला दिन कार और पहाड़ में बीत गया। 2010 का आखिर दिन जितना उत्साह से शुरू हुआ था उतने उत्साह से खत्म नहीं हुआ लेकिन 2011 का पहला दिन उत्साह से शुरू हुआ और फिर उत्साह के थकान से खत्म भी।
अभिनित, रश्मि और यश ने यात्रा का आनंद तो लिया ही मैंने भी जमाने बाद कहीं की यात्रा की सो पूरा आनंद लिया। कुछ भी कहिए मजा आया, समय होता और और आता। बस निप्पू को सबने मिस किया। निप्पू क्यों नहीं गया इसके कारण का जो खुलासा उसने किया किसी को नहीं बता सकता। बेहतर होगा तुम तीनों में से कोई मुझसे या उससे पूछेगा भी नहीं। समय आने पर बता दूंगा। वैसे निप्पू ने कहा था कि मेरे लिए कुछ लेते आइएगा, लेकिन किसी ने कुछ लिया नहीं। मैं भी भूल गया। सॉरी निप्पू। अगली बार...साथ चलेंगे तो हिसाब बराबर करेंगे।