एक बार फिर से देश में यात्राओं का दौर शुरू हो गया है। बाबा रामदेव स्वाभिमान यात्रा पर निकल चुके हैं। अगले महीने से आडवाणी अपने राजनीतिक जीवन की एक और यात्रा शुरू कर रहे हैं। उसके बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी सेवा यात्रा शुरू करने वाले हैं। इन यात्राओं से फायदा लेने की होड़ में हर नेता लगा हुआ है। बाबा रामदेव का मुद्दा काला धन है तो आडवाणी भ्रष्टाचार के खिलाफ यात्रा करने वाले हैं। नीतीश की यात्रा सुशासन का सच जानने के लिए हो रही है। सवाल ये है कि क्या इन यात्राओं से देश की जनता का भी कोई भला होने वाला है?
जो भी शख्स राजनीतिक रूप से थोड़ा भी जागरूक है उनको इन यात्राओं के फायदे और नुकसान की समझ है। लेकिन इसमें समझने वाली बात ये है कि आखिर कांग्रेस नेतृत्व के गठबंधन वाली सरकार को इसका कोई नुकसान भी होगा। लोकसभा चुनाव वैसे तो दो हजार चौदह में होने हैं। लेकिन भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ देश में जो माहौल बना है उसने कहीं न कहीं मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार की सूरत को बिगाड़ जरूर दिया है। कुछ लोग आज के हालात की तुलना चौहत्तर-पचहत्तर के हालात से कर रहे हैं। उस वक्त इंदिरा गांधी के नेतृत्व की सत्ता को जेपी के आंदोलन ने चुनौती दी थी। नतीजा दुनिया ने देखा था जब कांग्रेस का देश से सफाया हो गया था। सच्चाई के चश्मे से आज के हालात को देखे तो कमोबेश सूरत तो वैसी नहीं है लेकिन हालात उसी ओर के इशारे जरूर कर रहे हैं।
इन दिनों देश में अनायास ही जेपी चर्चा के विषय बन चुके हैं। जेपी की चर्चा हर ओर हो रही है। चाहे बाबा रामदेव के समर्थकों की पिटाई का मुद्दा हो या फिर अन्ना के आंदोलन का। किसी ने रामदेव पर लाठीचार्ज की तुलना जेपी मूवमेंट के वक्त के हालात से की है तो कोई अन्ना के आंदोलन में जेपी की तस्वीर देखता है। शायद इसी का फायदा उठाने के लिए आडवाणी भी जेपी जयंती के मौके पर रथयात्रा की शुरुआत कर रहे हैं। 11 अक्टूबर को जेपी की जयंती है और जेपी की जन्मस्थली बिहार के सिताब दियारा से आडवाणी भ्रष्टाचार के खिलाफ यात्रा शुरू कर रहे हैं। कहीं न कहीं जेपी एक बार फिर से नेताओं के लिए प्रेरणा बन गये हैं। बीच के दिनों को याद करें तो जेपी के शिष्य कहे जाने वाले नेता जेपी के अरमानों को अपने हाथों से कुचल चुके हैं। लेकिन जेपी इन सबके बीच जीवंत हैं।
बिहार से यात्रा को लेकर आडवाणी की सोच चाहे जो कुछ भी हो लेकिन एक सच ये भी है कि आडवाणी ने उस बिहार को अपनी यात्रा के लिए चुना है जिस बिहार में कभी लालू ने उनकी रथयात्रा रोक दी थी। 1990 का वो साल था जब समस्तीपुर में आडवाणी की यात्रा को लालू ने ये कहकर रोक दिया था कि देश में इस यात्रा से माहौल बिगड़ रहा है। कुछ लोग मानते हैं कि आडवाणी उस टीस को भूल नहीं पाए हैं। और उसी को पाटने के लिए बिहार के छपरा से यात्रा की शुरुआत कर रहे हैं। जेपी छपरा से निकलकर बिहार के कुछ जिलों का सफर तय करने के बाद झारखंड और फिर यूपी में दाखिल होंगे। उस यूपी में जहां अगले साल चुनाव होने हैं। और यूपी की लड़ाई में दम दिखाने के लिए बीजेपी को पसीना बहाना ही पड़ेगा क्योंकि बीजेपी आज यूपी में प्रासंगिक नहीं है। आडवाणी इस चीज को समझते हैं और इसिलिए मौके की नजाकत का फायदा उठाने की फिराक में हैं। इस बीच एक नया विवाद उठा है कि नरेंद्र मोदी को मोदी की ये यात्रा पसंद नहीं है। कारण जो भी हो लेकिन पीएम पद की दावेदारी को लेकर बीजेपी में उठे विवाद को जानकार इसकी वजह मान रहे हैं। 11 अक्टूबर को शायद ये भी साफ हो जाए। संघ के सूत्रों ने संकेत दिये हैं कि आडवाणी उस दिन शायद पीएम पद की दावेदारी छोड़ने का एलान कर दें। यहां ये बताना जरूरी है कि आडवाणी पहले गुजरात के सोमनाथ से यात्रा शुरू करने वाले थे लेकिन किन्हीं कारणों से उन्हें बिहार से शुरू करने का फैसला करना पड़ा। अब ये कहा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी के विरोध के चलते उन्हें बिहार जाना पड़ा है। वैसे एक बात और दिलचस्प है कि मोदी की काट के लिए आडवाणी ने उस बिहार की धरती से यात्रा शुरू करने का फैसला किया जहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को नरेंद्र मोदी का सार्वजनिक मंचों पर साथ दिखने का विरोधी माना जाता है। 18 राज्य और तीन केंद्र शासित प्रदेशों की यात्रा करने के बाद आडवाणी 20 नवंबर को दिल्ली पहुंचेंगे जहां एक रैली होगी। अब इस रैली में मोदी रहेंगे या नहीं ये नहीं मालूम। नीतीश रहेंगे या नहीं ये भी नहीं मालूम। इंतजार बीस नवंबर का करना होगा जब आडवाणी अपनी यात्रा खत्म करेंगे तो उस दिन दिल्ली के मंच की क्या तस्वीर होगी। क्या नीतीश और मोदी आडवाणी के इस समापन समारोह के साक्षी बनेंगे या फिर कोई एक आएगा और दूसरा दूर से ही ताली बजाएगा?
यात्रा पर इन दिनों यूपी में मायावती भी ही हैं जो नए जिले बनाने में जुटी हैं। समाजवादी पार्टी के युवराज अखिलेश यादव भी यूपी में क्रांति का अलख जगाते फिर रहे हैं। गुजरात में कांग्रेस के वाघेला भी चुनावी यात्रा पर मोदी के खिलाफ मोर्चा बनाकर निकल चुके हैं। कुल मिलाकर सच्चाई ये है कि सब कोई अपने फायदे की यात्रा में जुटा है।
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