Thursday, July 14, 2016

विवादित चेहरों के दम पर कांग्रेस जीतेगी यूपी की जंग ?

शीला दीक्षित को कांग्रेस यूपी में मुख्यमंत्री का चेहरा बनाने जा रही है । कांग्रेस चाहे तो किसी को भी चेहरा बनाए ये पार्टी का मामला है । लेकिन जो नेता बीस पच्चीस साल से यूपी की राजनीति से दूर हो । जिसका यूपी की सियासत से अभी कोई वास्ता न हो उस पर दांव लगाकर कांग्रेस कौन सा तीर मार लेगी ? शीला दीक्षित दिल्ली में विकास का चेहरा मानी जाती थी लेकिन वो बात तब की थी अब तो उन्हें भ्रष्टाचार के प्रतीक के तौर पर पेश कर रहे हैं विरोधी । दिल्ली में टैंकर घोटाले को लेकर आज ही खबर आई है कि पुलिस उनसे पूछताछ करने वाली है । हफ्ते भर पहले ही वाटर मीटर घोटाला भी सामने आया है । कहने का मतलब ये कि सिर्फ 
 ब्राह्मणों के वोट के लिए ही शीला को चेहरा बनाया जा रहा है तब तो कांग्रेस की नाव भगवान के भरोसे है ।
शीला पर घोटाले का दाग लगा है तो पार्टी के उपाध्यक्ष बनाये गये इमरान मसूद हेट स्पीच के लिए मशहूर हैं। मसूद सहारनपुर से लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे तब उन्होंने नरेंद्र मोदी को लेकर बोटी बोटी काटने वाला विवादित बयान दिया था । बाद में माफी मांगी लेकिन इस बयान ने उन्हें फायदा भी दिलाया था । सहारनपुर में समाजवादी पार्टी का मुस्लिम उम्मीदवार चौथे नंबर चला गया और मसूद 4 लाख वोट पाकर दूसरे नंबर रहे । थोड़ा और जोड़ लगाते तो शायद जीत भी जाते । लेकिन इसका साइड इफेक्ट ये है कि मसूद सक्रिय हुए तो ब्राह्मण ही नहीं हिंदू वोटों का विरोध में ध्रुवीकरण हो सकता है । इसका नुकसान कांग्रेस को ही होगा । वैसे भी कांग्रेस के नेताओं पर भड़काऊ बातें बोलने का आरोप कम ही लगता है लेकिन मसूद जैसों का महत्व बढ़ना कांग्रेस की रणनीति में बदलाव के संकेत हैं ।

माननीय राज बब्बर भी दूध के धुले नहीं हैं । 2013 में 12 रुपये में भऱपेट खाना दिलवा रहे थे । बाद में लगा कि गलत बात मुंह से निकल गई तो माफी मांग लिए । लेकिन दामन में गरीब विरोधी होने का दाग लग गया जो कि बाद में कांग्रेस के वोट बैंक के नुकसान का बड़ा कारण साबित हुआ। राजब्बर पार्टी के प्रवक्ता रहते हुए कभी मोदी की तुलना हिटलर से कर चुके हैं । बाद में तो हिटलर से तुलना परिपाटी बन गई  । मीडिया में कहा जा रहा है कि प्रियंका गांधी की जिद की वजह से राजबब्बर को अध्यक्ष बनाया गया । जबकि पार्टी का कोई बड़ा नेता ऐसा नहीं चाहता था । यहां तक की राहुल गांधी भी । राज बब्बर जिस यूपी कांग्रेस के अध्यक्ष बने हैं उसी यूपी की गाजियाबाद लोकसभा सीट से 5 लाख 67 हजार वोटों से 2014 का लोकसभा चुनाव हारे हैं । इतने वाटों से हारना अपने आप में एक रिकॉर्ड है । 2014 के चुनाव में सबसे ज्यादा वोट से हारने वाले देश में दूसरे उम्मीदवार हैं राजब्बर ।
पार्टी राज्य में जिन संजय सिंह को प्रचार की जिम्मेदारी दे रही है वो संजय सिंह भी कम विवादित नहीं हैं । बेटे से महल को लेकर झगड़ा हो रहा है । महल को लेकर खून तक बह चुका है ।  संजय सिंह गांधी परिवार के लॉय़ल रहे हैं। संजय सिंह की दो शादियां हैं और पहली पत्नी और उनके बेटे से उनका विवाद हो रहा है । संजय सिंह का विवाद कभी अंतर्राष्ट्रीय बैडमिंटन खिलाड़ी सैय्यद मोदी की हत्या से भी जुड़ा था । इसमें उन्हें कई तरह की जांच से गुजरना पड़ा था । लेकिन राजपूत वोटों को लुभाने के लिए संजय सिंह को आगे लाया गया है । राजपूतों का नेता यूपी में कौन होगा । राजनाथ सिंह, अमर सिंह, संजय सिंह या कोई और सिंह । 2012 में 13 फीसदी राजपूतों के वोट कांग्रेस को मिले थे। सपा को 26 और बीजेपी को 29 फीसदी राजपूतों के वोट मिले थे तब ।
संजय सिंह को राजपूतों की गोलबंदी के लिए तो शीला को ब्राह्मणों की गोलबंदी के लिए लाया गया है । यूपी में कांग्रेस को 2012 में महज 13 फीसदी ब्राह्मणों के वोट मिले थे । तब दिल्ली में भी कांग्रेस का क्रेज था और सोनिया से लेकर राहुल गांधी तक खासे सक्रिय थे । इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस वक्त ब्राह्मण बीजेपी के साथ है । शीला के आने के बाद बीजेपी के ब्राह्मण वोट बैंक में सेंध लगना तय है ।

Monday, July 11, 2016

ब्राह्मण वोट के लिए क्यों व्याकुल हैं पार्टियां ?

ब्राह्मणों ने हर चुनाव में एक नया प्रयोग किया है। इस बार भी ब्राह्मण वोट क्या करेंगे इसको लेकर तमाम पार्टियों के अपने अपने दावे हैं। कोई भी हिम्मत के साथ ये कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा कि ब्राह्मणों का वोट उन्हीं की झोली में जाने वाला है।
यूपी में ब्राह्मण वोटरों की संख्या करीब 10 से 12 फीसदी के आसपास है। 80 में से 20 संसदीय क्षेत्र ऐसे हैं जहां ब्राह्मण वोटर जीत और हार की तस्वीर तय करते हैं। यही वजह है कि विधानसभा चुनाव में तमाम पार्टियां ब्राहमणों को लुभाने में जुटी है। कोई ब्राह्मण सीएम की बात कर रहा है तो कोई ज्यादा टिकट देने की। कोई सोशल इंजीनियरिंग के भरोसे है तो किसी को सम्मेलनों का सहारा है। कुल मिलाकर ब्राह्मणों के लिए यूपी के नेता व्याकुल हुए पड़े हैं।
कांग्रेस से होते हुए बीजेपी, बीएसपी और एसपी तक का सफर ब्राह्मण वोटर तय कर चुके हैं। कांग्रेस की राज्य में स्थिति वैसी नहीं है कि ये समाज उनपर भरोसा करके आगे बढ़ सके। बीजेपी को लोकसभा चुनाव में खुलकर इस जाति का समर्थन मिला था। लक्ष्मीकांत वाजपेयी पार्टी के अध्यक्ष हुआ करते थे। जब से वाजयेपी जी की छुट्टी हुई है पार्टी हिली हुई है। वाजपेयी जी भी कोप भवन में चले गये हैं। वोट के तौर पर कहीं ब्रह्मणों का श्राप न लग जाए इसी डर से पहले बीजेपी ने राज्यसभा की एकमात्र सीट से इस जाति के नेता शिव प्रताप शुक्ल को दिल्ली भेजा। फिर तमाम कायदे कानून और नियम फॉर्मूले कलराज मिश्र के सामने फेल हो गये। 75 पार वालों को मंत्रिमंडल से बाहर करने का विचार था लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाई पार्टी। कलराज मिश्र तो बने ही रहे। चंदौली से सांसद महेंद्र पांडे को भी मंत्री बनाया गया। इतना ही नहीं मुरली मनोहर जोशी के नाम को राष्ट्रपति की रेस में लाया गया और अब खबर है कि लक्ष्मीकांत वाजपेयी को पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया जाएगा। कहने का मतलब ये कि बीजेपी हिली हुई है। पार्टी के सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला फेल हो जाएगा अगर ब्राह्मणों ने खेल कर दिया तो।
कांग्रेस है तो कही नहीं लेकिन उसे भी ब्राह्मणों से ही उम्मीद है। कभी प्रियंका गांधी का नाम तो कभी शीला दीक्षित का नाम। पार्टी के रणनीतिकार प्रशांत किशोर के हवाले से खबरें रोज आती हैं कि ब्राह्मण चेहरा लाओ। प्रियंका लाओ, राहुल लाओ, वरुण लाओ और अगर इनमें से कोई नहीं तो फिर शीला दीक्षित ही लाओ। अभी पिछले दिनों खबर आई कि गुलाम नबी ने शीला को नेतृत्व करने का ऑफर दिया है। शीला दीक्षित इसके लिए तैयार भी है।
15 साल तक दिल्ली की मुख्यमंत्री, केरल की राज्यपाल और केंद्र में मंत्री रह चुकी शीला दीक्षित पच्चीस तीस साल से यूपी की सियासत से दूर हैं। लेकिन पार्टी को लगता है कि ब्राह्मण इनके नाम पर भी मान जाएंगे। शीला दीक्षित कन्नौज से सांसद रही हैं। शीला की ससुराल यूपी में है और इसी के दम पर कांग्रेस उनको आगे करने की तैयारी में है। इतना ही नहीं पार्टी ने जितिन प्रसाद जैसे युवा ब्राह्मण चेहरे को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की तैयारी कर रखी है। जितिन पहले सांसद और केंद्र में मंत्री रहे हैं और राहुल की टीम का हिस्सा हैं। प्रमोद तिवारी जैसे ब्राह्मण नेता को पिछली बार राज्यसभा भेजने की रणनीति भी इसी का हिस्सा था।
बीएसपी को उम्मीद है कि ब्राह्मण सम्मेलन कराकर 2007 वाला सोशल इंजीनियरिंग का फ़र्मूला फिर से चल जाएगा। हाल के दिनों तक हाशिये पर चल रहे सतीश चंद्र मिश्र की पूछ फिर से बढ़ गई है। 2007 की जीत के हीरो मायावती से ज्यादा मिश्रा जी ही माने जाते हैं। अभी मिश्रा जी का कार्यकाल राज्यसभा में पूरा हुआ तो तुरंत उनको रिपीट किया। टिकट देने में भी खास ख्याल रखा जा रहा है। हाल ही में एक नेता ने सोशल मीडिया पर ब्राह्मणों के बारे में टिप्पणी कर दी तो उसे तुरंत पार्टी से बाहर कर दिया गया। ये वही बीएसपी है जिसका उदय ही तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार नारे के साथ हुआ था। लेकिन आज पार्टी कहां खड़ी है सबके सामने है।
समाजवादी पार्टी की पिछली जीत में इस समाज का अहम योगदान था। कागज पर सपा की जीत में ब्राह्मणों की चर्चा नहीं होती लेकिन आंकड़े बताते हैं कि ब्राह्मणों ने मायावती के साथ खेल करके साइकिल की सवारी कर दी और हाथी की हवा निकल गई। स्वर्गीय जनेश्वर मिश्रा के बहाने पार्टी ब्राह्मणों को याद दिला रही है कि सत्ता में सबसे ज्यादा सम्मान इसी समाज को मिला है। समाजवादी पार्टी के राज में ही परशुराम जयंती के मौके पर सरकारी छुटटी का एलान हुआ था। 2012 में जब फिर सरकार बनी तो अखिलेश इस जाति के 13 लोगों को मंत्री बनाया था। आगरा में हाल ही में कई घोषित नेताओं का टिकट काटकर ब्राह्मण उम्मीदवार को टिकट दिया गया् है। आगरा के एक ब्राह्मण नेता को राज्यमंत्री का दर्जा दिया गया है।
आंकड़ों के मुताबिक 2012 के चुनाव में 19 फीसदी ब्राह्मणों ने सपा और 19 फीसदी ने ही बसपा को वोट दिया था। जबकि 2010 में सपा को सिर्फ 10 फीसदी वोट मिले थे इस समाज के। 2007 के मुकाबले 2012 में बीएसपी को 3 फीसदी ज्यादा ब्राह्मणों का वोट तो मिला लेकिन जीत में बदल नहीं पाया। जबकि 2002 में 50 फीसदी ब्राह्मणों ने बीजेपी को वोट किया था। 2007 में घटकर 44 और 2012 में 38 रह गया। 2014 में ये ग्राफ जरूर बेहतर हुआ। कांग्रेस को 2007 में 19 फीसदी और 2012 में महज 13 फीसदी वोट ब्राह्मणों के मिले थे।
2012 के चुनाव में सबसे ज्यादा बीएसपी ने 74 ब्राह्मण उतारे थे। बीजेपी ने 73, सपा ने 50 और कांग्रेस ने 42 उम्मीदवारों को टिकट दिया। सपा के 50 में से 21 ब्राह्मण उम्मीदवार जीत गए। जबकि 2007 में बीएसपी ने 86 ब्राह्मणों को उतारा था और 43 जीते थे। 2012 में इनमें से 20 को टिकट नहीं देने का खामियाजा भी मायावती को भुगतना पड़ा था। 

2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 15 ब्राह्मणों को टिकट दिया और सभी जीते। जबकि कांग्रेस के 11 में से सिर्फ 2 को जीत मिली। बीएसपी ने 21 को टिकट दिया और कोई नहीं जीता।  

Saturday, July 9, 2016

सम्राट सुहेलदेव पार कराएंगे पूर्वांचल में बीजेपी की नाव ?


राजा सुहेलदेव की प्रतिकात्म तस्वीर
वैसे देश की राजनीति में इस पार्टी का न तो नाम चर्चा में रहा है औ ना ही इस पार्टी के किसी नेता को ज्यादा लोग जानते हैं। सीमित दायरे में रहकर राजनीति करने वाली सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी की स्थापना साल 2002 में हुई थी। मायावती का साथ छोड़कर ओम प्रकाश राजभर ने अपनी पार्टी बनाई । मकसद था राजभर जाति को सत्ता में भागीदार बनाना।
12 साल बाद राजभर जाति की राजनीति करने वाली इस पार्टी की अहमियत को उभार देने का आइ़डिया बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को आया है। पूर्वांचल के मऊ में आयोजित रैली में ये तय हो गया है कि बीजेपी पूर्वांचल में राजभर की पार्टी के साथ तालमेल करके चुनाव लड़ेगी। वैसे इतिहास के पन्नों को पलटे तो ओम प्रकाश राजभर की पार्टी बीते दो विधानसभा चुनावों में कोई गुल नहीं खिला सकी है। पार्टी का प्रदर्शन बेहद ही सीमित रहा है। 2012 के चुनाव में मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल के साथ तालमेल करके भी ओम प्रकाश राजभर विधानसभा नहीं पहुंच पाए थे।
राजभर को एक ऐसे साथी की तलाश थी जो उनकी इच्छाओं को पंख लगा सके। लखनऊ की लड़ाई जीतने के लिए बीजेपी को भी दलित और पिछड़े वोट बैंक में सेंध लगाने वाले नेताओं की जरूरत है। लोकसभा चुनाव के वक्त इसकी जरूरत महसूस नहीं हुई थी लेकिन विधानसभा चुनाव में हजार पांच सौ वोटों से हार जीत की कहानी लिखी जाती है। लिहाजा बीजेपी पूर्वांचल की कम से कम पचास सीटों पर हजार पांच सौ वोटों से हार नहीं चाहती। यही वजह है कि यूपी की राजनीति में हाशिये पर खड़ी एक पार्टी को बीजेपी ने 20 से 22 सीटें देने का फैसला किया है। बीजेपी राजभर की पार्टी को उन सीटों पर चुनाव लड़ाएगी जहां मुख्तार अंसारी की पार्टी का दबदबा है। 
राजभर की राजनीति 
बहराइच, मऊ, गाजीपुर, श्रावस्ती के इलाकों में ओम प्रकाश राजभर के उम्मीदवार चुनाव लड़ेंगे। राजभर वोटों की संख्या राज्यभर में तो 3 फीसदी के आसपास ही है लेकिन इन इलाकों में 8 फीसदी के आसपास। पार्टी के दावे को माने तो करीब सौ सीटों पर 20 हजार से लेकर 1 लाख तक वोट हैं।
2007 के विधानसभा चुनाव में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने 97 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे। इनमें से 94 पर पार्टी की जमानत जब्त हो गई । कुल वोट 4 लाख 91 हजार मिले। यानी कुल वोटों का एक फीसदी से भी कम। 2012 में राजभर नें 52 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे। 48 की जमानत जब्त हुई। कुल वोट मिले 4 लाख 77 हजार 330। 
गाजीपुर की जहूराबाद सीट से लड़ने वाले ओम प्रकाश राजभर 2012 के चुनाव में तीसरे नंबर पर रहे थे। जीतने वाले को 67 हजार, दूसरे नंबर पर बीएसपी को 56 हजार और राजभर को 48 हजार वोट मिले थे। यहां बीजेपी के उम्मीदवार को 5600 वोट मिले थे
हिंदू राजा के नाम पर राजनीति 
राजभर की पार्टी से नाता जोड़ने के पीछे बीजेपी का मकसद सिर्फ इस वर्ग के वोट पाना नहीं नहीं है। बल्कि राजा सुहेलदेव के जरिये बीजेपी हिंदू वोटों की गोलबंदी की राजनीति भी करना चाहती है। श्रावस्ती सम्राट राजा सुहेलदेव को हिंदुओं का राजा कहा जाता है। महज 18 साल में ही सुहेलदेव राजा बने थे। 17 बार भारत को लूटने के बाद महमूद गजनवी का भांजा सालार मसूद गाजी 1034 में भारत को मुस्लिम राष्ट्र बनाने की नीयत से हमला करते हुए आगे बढ़ रहा था। हजारों हिंदुओं की हत्या के बाद बहराइच की सीमा में उसका सामना सुहेलदेव से हुआ। सुहेलदेव की सेना इस स्थिति में नहीं थी कि अकेले गाजी का मुकाबला किया जा सके। इसलिए राजा सुहेलदेव नें 21 हिंदू राजाओं को अपने साथ मिलाया और उनका नेतृत्व करते हुए गाजी पर टूट पड़े।
कहा जाता है कि गाजी बहुत की शातिर था । सुहेलदेव को मात देने के लिए वो अपनी सेना के आगे गायों को बांध कर खड़ा कर देता था। क्योंकि सुहेलदेव गायों पर आक्रमण नहीं करते। पहली बार में ही सुहेलदेव को इसकी भनक लगी और रात को ही उन्होंने गायों की रस्सियां कटवा दी। बाद में लड़ाई में सुहेलदेव के हाथों गाजी मारा गया। और उसकी मंशा पूरी नहीं हुई। 

उन्ही राजा सुहेलदेव के नाम पर ओमप्रकाश राजभर नें अपनी पार्टी बनाई है। वैसे इतिहास में राजा की जाति को लेकर स्पष्ट मत नहीं मिलने की बात कही जाति है। लेकिन राजभर समाज सुहेलदेव को अपनी जाति का मानते हैं। सुहेलदेव के बहाने राजभर वोटों को साधने के लिए ही फरवरी महीने में गाजीपुर से दिल्ली के बीच सुहेलदेव एक्सप्रेस ट्रेन शुरू की गई। राजा सुहेलदेव की आज की सेना ने बीजेपी का साथ दिया तो पूर्वांचल के आधा दर्जन जिलों का राजनीतिक समीकरण प्रभावित हो सकता है। क्योंकि इस जाति के वोटरों को अभी तक कोई स्पष्ट भविष्य नहीं दिख रहा था। राजभर के मायावती का साथ छोड़ने के बाद समाज बिखर सा गया था। लेकिन गठबंधन दोनों के लिए संजीवनी का काम कर सकता है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि तमाम राजभर समाज इन्हीं के साथ है। राजभर की अहमियत को समझते हुए ही मायावती ने अपनी पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष राम अचल राजभर को बना रखा है। 

Tuesday, July 5, 2016

जाति के जोड़तोड़ से यूपी जीतेगी बीजेपी ?

तय समय पर चुनाव हुआ तो यूपी में वोटिंग अगले साल ही होगी। लेकिन तमाम राजनीतिक पार्टियां अपने अपने सेनापति और सिपाहियों को फिट करने में जुटे हैं। मोदी मंत्रिमंडल का विस्तार इसी कड़ी का एक हिस्सा है। यूपी से जिन तीन मंत्रियों को शामिल किया गया है उनमें से एक सवर्ण हैं दूसरे पिछड़ी जाति से हैं और तीसरी दलित हैं। जिन जातियों को बीजेपी ने मंत्रिमंडल में जगह दी है उन जातियों के वोट बैंक पर बीजेपी की नजर है। लोकसभा चुनाव में इन जातियों ने बीजेपी को झोली भर भरकर वोट किया था।
चंदौली के सांसद महेंद्र नाथ पांडे पूर्वांचल में किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर निखरकर अभी ही सामने आए हैं। माना जा रहा था कि पांडे को मंत्री बनाकर कलराज मिश्र को कल्टी कराया जाएगा। लेकिन कलराज भी 70 का बैरियर पास करने के बाद बने हुए हैं। कलराज जी का क्षेत्र और पांडे जी का इलाका ज्यादा दूर नहीं है। लेकिन मंत्री बनाने के पीछे ब्राह्मण वोट का हिसाब किताब ही है। 2002 के चुनाव में बीजेपी को 50 फीसदी ब्राह्मणों का वोट मिला था लेकिन 2012 में घटकर 38 फीसदी रह गया। जबकि 2007 में ब्राह्मणों ने हाथी की सवारी की थी ।  2007 में मायावती ने 86 ब्राह्मणों को टिकट दिया था। लोकसभा चुनाव से पहले तक ब्राह्मण समाज का बड़ा हिस्सा बीएसपी के साथ था। लेकिन अमित शाह की सोशल इंजीनियरिंग के कमाल का नतीजा था कि लोकसभा चुनाव में ब्राह्मण बनिये के साथ गैर यादव-मुस्लिम वोट बैंक का बड़ा चंक जुड़ गया। अपने आप में ये समीकरण यूपी के लिए चौंकाने वाला था। लेकिन हिस्सा मिल गया और 80 में से 73 सीट झोली में आ गई।
बीजेपी के सामने इस परिणाम को विधानसभा में दोहराने की चुनौती है। लेकिन न तो मोदी जैसा चेहरा है और ना ही यूपी चुनाव में कोई बड़ा मु्द्दा। लिहाजा जातिय गणित को ही जोड़ने तोड़ने का काम जारी है। 10 से 12 फीसदी आबादी वाला ब्राह्मण जो कि सवर्णों में सबसे बड़ा वर्ग है वो अगर साथ बना रहा तो बीजेपी को 25 से 50 सीट इसी के दम पर निकालने में दिक्कत नहीं होगी। लेकिन कांग्रेस भी ब्राह्मण के भरोसे ही है। कभी शीला दीक्षित का नाम सीएम के लिए तो कभी जितिन प्रसाद का नाम प्रदेश अध्यक्ष के लिए पेश किया जा रहा है। बीएसपी में मायावती को भी सतीशचंद्र मिश्र के सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला दोहराने का इंतजार है। हालांकि बीएसपी से ब्राह्मणों की दूरी इसलिए बढ़ती जा रही है क्योंकि हाल ही में देवरिया के एक बीएसपी नेता ने सोशल मीडिया पर ब्राह्मणों के बारे में विवादित टिप्पणी कर दी थी। हाल ही में कैराना कांड के बाद समाजवादी पार्टी की सरकार ने ब्राह्मण जाति के साधु संतों की टीम को कैराना भेजकर संदेश देने की कोशिश की है।
शायद यही वजह है कि पूर्वांचल से दो दो ब्राह्मणों को मंत्रिमंडल में मौका दिया गया है।  अगर ऐसा नहीं होता तो फिर कलराज मिश्र की छुट्टी हो जाती। पश्चिम में ब्राह्मण चेहरे के तौर पर नोएडा के सांसद महेश शर्मा मंत्री हैं। यानी लोकसभा के हिसाब से देखें तो 10 फीसदी वोट वाले ब्राह्मण जाति के 3 सांसद मंत्री हो गये हैं। जबकि ब्राह्मण जाति के रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर भी यूपी से ही राज्यसभा सांसद हैं। इनको जोड़ लेंगे तो 4 ब्राह्मण मंत्री हो जाएंगे। अभी इसमें मेनका गांधी को शामिल नहीं कर रहा हूं।
लक्ष्मीकांत वाजपेयी बीजेपी के यूपी अध्यक्ष थे। उनको हटाकर केशव मौर्य को अध्यक्ष बनाया। वाजपेयी को हटाने से ब्राह्मणों में संदेश गलत गया था। इसी संदेश को सुधारने के लिए पहले ब्राह्मण जाति के शिव प्रताप शुक्ल को राज्यसभा भेजा फिर पांडे जी को मंत्री बनाया गया और मिश्रा जी को बरकरार रखा गया।
अब बात करते हैं कुर्मी वोट की। अनुप्रिया पटेल जो कि अपना दल से जीती हुई हैं उनको इसलिए जगह दी गई है ताकि पिछड़ों में यादवों के बाद जो सबसे बड़ा वोट बैंक है उसको अपने साथ रखा जाए। अनुप्रिया भी पूर्वांचल की मिर्जापुर सीट से सांसद हैं। कुर्मियों के बड़े नेता रहे सोनेलाल पटेल की बेटी अनुप्रिया पटेल पहली बार सांसद बनीं हैं। उनको मंत्री बनाकर पूर्वांचल में बेनी प्रसाद वर्मा के कद को कम करने की कोशिश है। बेनी प्रसाद वर्मा भी पूर्वांचल के इसी इलाके में कुर्मियों के नेता माने जाते हैं। बेनी प्रसाद वर्मा कांग्रेस छोड़कर समाजवादी पार्टी में शामिल होकर राज्यसभा पहुंच चुके हैं। कुर्मी वोट पर नीतीश कुमार की भी नजर है। कांग्रेस के कुर्मी नेता आरपीएन सिंह पूर्वांचल से ही आते हैं।
लेकिन असल लड़ाई अनुप्रिया पटेल के घर में ही है। अनुप्रिया की मां कृष्णा पटेल बेटी के मंत्री बनने से खुश नहीं हैं। कृष्णा ही अभी पार्टी की अध्यक्ष हैं। कहा जाता है कि दोनों मां-बेटी में पार्टी पर कब्जे के लिए संघर्ष चल रहा है। मां बड़ी बेटी पल्लवी का कद बढ़ाना चाहती हैं लेकिन अनुप्रिया को शायद इससे खतरा महसूस होता है। पल्लवी को पार्टी का महासचिव बनाने के बाद से ही अनुप्रिया की बात बिगड़ी थी। अब अगर इस घर के झगड़े को शांत नहीं किया गया तो थोड़ा बहुत असर कुर्मी वोटर पर जरूर पडेगा। वैसे भी कुर्मी बहुल जिस रोहनिया सीट पर सोनेलाल पटेल के परिवार का कब्जा होता था उस सीट पर पिछले साल अनुप्रिया की मां हार गईं थीं। जबकि बीजेपी का समर्थन था उनको। ऐसे में घर के झगड़े का असर 8 फीसदी वोट वाले कुर्मी वोटर पर दिख जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।  अभी कुर्मी समाज से आने वाले संतोष गंगवार ही यूपी से एकमात्र मंत्री हैं जो मध्य यूपी से आते हैं।
मंत्रिमंडल का तीसरा चेहरा है कृष्णा राज का। पासी समाज से आने वाली कृष्णा राज दो बार की विधायक हैं और शाहजहांपुर से पहली बार सांसद बनी हैं। पहली बार में ही मंत्री बनाने के पीछे मकसद है पासी वोट को अपने पाले में लाना। पासी वोट बैंक करीब 3 से 4 फीसदी है। जाटव जाति के बाद पासी ही दलित में आबादी और दबदवे वाली जाति है। पिछले दिनों इसी जाति के आरके चौधरी ने मायावती का साथ छोडा था। बीजेपी जान रही है कि जाटव को उनके पास आने से रहा थोड़ा बहुत पासी को तोड़ लें तो बहन जी को ज्यादा नुकसान हो जाएगा। इसी को लेकर कृष्णा राज को पासी समाज का चेहरा पेश किया गया है।