बाढ़ वाले कांड में पुलिस के
मुताबिक छेड़खानी के आरोपी एक यादव जाति के युवक की हत्या हुई। नाम अनंत सिंह का
आया और पप्पू यादव पहले दिन से ही हत्याकांड पर राजनीति करने लगे। पप्पू इस घटना
पर राजनीति करके कहीं यादवों के बड़े नेता न बन जाए इसका डर लालू ने नीतीश को
दिखाया और दबाव डालकर अनंत सिंह को जेल भिजवा दिया। खुद लालू ने मीडिया से कहा है
कि उन्होंने अनंत सिंह की गिरफ्तारी के लिए दबाव डाला। अनंत सिंह बाहुबली हैं। कई
मामलों के पहले से आरोपी हैं। इस केस में भी नाम आया है। इस लिहाज से अनंत सिंह की
गिरफ्तारी बिल्कुल साधारण बात लगती है। लेकिन बिहार की राजनीति में नीतीश की
राजनीति को करीब से जानने वाले जानते हैं कि अनंत सिंह से दुश्मनी व्यक्तिगत रूप
से नीतीश को कितना नुकसान पहुंचा सकती है। लेकिन इस पूरे एपिसोड में अनंत सिंह के
वोट से ज्यादा महत्वपूर्ण यादवों का वोट था और इसी दबाव में अनंत सिंह को जेल जाना
पड़ा ।
आज बिहार में सबसे ज्यादा जिस
वोटबैंक को लेकर नेता आशंकित हैं वो है यादवों का वोट। एक वक्त में लालू सबसे बड़े
नेता थे। लेकिन जब से लालू की पत्नी, बेटी लोकसभा और विधानसभा का चुनाव हारी हैं
तब से लालू के नेतृत्व पर सवाल उठ रहे हैं। कभी लालू की परछाई रहे रामकृपाल यादव
अब बीजेपी में हैं। लालू के साले साधु यादव खुद की पार्टी बनाकर अलग मोर्चा तैयार
करने में जुटे हैं। कभी लालू के प्यारे रहे पप्पू यादव फिर से अपनी पार्टी बना
चुके हैं। जेडीयू में शरद यादव से लेकर विजेंद्र यादव और नरेंद्र नारायण यादव जैसे
नेता हैं। लालू के कभी हाथ रहे रंजन यादव लालू का साथ छोड़कर अभी तक जेडीयू में थे
लेकिन अब वहां से भी उन्होंने इस्तीफा दे दिया है।
कुल मिलाकर हाल ये है कि अब लालू
ही एकमात्र नेता नहीं रह गए हैं। इस बार बीजेपी से ही लोकसभा में चार यादव सांसद
बने हैं। लालू की पार्टी से जो चार सांसद जीते थे उसमें भी दो ही यादव थे। इनमें
से एक पप्पू अब अलग रास्ते पर हैं। बीजेपी से रामकृपाल यादव, हुकुमदेव नारायण
यादव, नित्यानंद राय और ओम प्रकाश यादव जीते हैं। हुकुमदेव और नित्यानंद तो पुराने
भाजपाई हैं लेकिन रामकृपाल और ओमप्रकाश मोदी लहर में भाजपाई बने हैं। हुकुमदेव और
नित्यानंद भले ही अपने अपने क्षेत्रों में यादव वोटरों पर ज्यादा प्रभाव न दिखा
पाए लेकिन बाकी दोनों नए भाजपाई लालू के वोट बैंक पर असर जरूर डालेंगे। पटना में
तो रामकृपाल के पहले से नंद किशोर यादव भी हैं । सीवान में जहां शहाबुद्दीन का
सिक्का चला करता था वहां से ओम प्रकाश यादव सांसद हैं। मतलब यहां का MY समीकरण
अब खत्म हो चुका है। हुकुमदेव के इलाके में लोकसभा चुनाव के वक्त हिंदू-मुस्लिम
वाला फैक्टर प्रभावी था। विधानसभा में भी इसका असर दिख सकता है। जिसका नुकसान लालू
को ही उठाना होगा।
कोसी इलाके में पप्पू यादव जो भी
नुकसान करेंगे वो नुकसान लालू के वोट बैंक का ही होगा। हां पप्पू अब पहले जितना
प्रभावी नहीं रहे लेकिन उनका प्रभाव बहुत कम भी नहीं हुआ है। अलग अलग पार्टियों से
पति-पत्नी दोनों सांसद हैं। पत्नी रंजीत रंजन की राजनीतिक मजबूरी कांग्रेस के साथ
रहने की है। लेकिन चुनाव में पारिवारिक मजबूरी पप्पू के साथ रहने की होगी।
कोसी और पूर्णिया के इलाके में
विधानसभा की कुल 37 सीटें हैं। इन 37 सीटों में से जेडीयू और बीजेपी के पास 2010
में 14-14 सीटें थी। आरजेडी को 3, कांग्रेस को 3 और एलजेपी को 2 सीटें मिली थी। एक
सीट निर्दलीय के खाते में गई थी।
रोम पोप का और मधेपुरा गोप का।
इस इलाके में ये कहावत प्रचलित है। लेकिन कोसी की जिन 13 सीटों में से 5 सीटों पर
यादव उम्मीदवारों की जीत हुई थी उनमें से 4 जेडीयू के खाते में गई थी। वहीं पूर्णिया
प्रमंडल की 24 सीटों में से 3 सीट यादव उम्मीदवारों ने जीती थी । और तीनों की
तीनों बीजेपी के खाते में थी। यानी लालू का यादवी तिलस्म इस इलाके में कोई जादू
नहीं कर पाया था। इस इलाके में कई ऐसी सीटें हैं जहां यादव वोटर और नीतीश के
समर्थकों के बीच हिंसक राजनीतिक रिश्ता रहा है। ऐसी सीटों पर कौन किसके साथ रहेगा
कह पाना मुश्किल है।
पप्पू यादव तब भी लालू के साथ
नहीं थे और अब भी नहीं हैं। लेकिन फर्क इतना है कि तब पप्पू हत्या के दोषी होकर
जेल में बंद थे। अब बरी होकर सांसद बन चुके हैं। पप्पू और लालू का जो रिश्ता टूटा
है उसकी राजनीतिक वजह भी है और व्यक्तिगत भी। पप्पू अब जन क्रांति अधिकार मोर्चा
बनाकर राजनीति कर रहे हैं। पप्पू की महत्वकांक्षा भी हिलोरे मार रही है। पप्पू
चाहते थे कि लालू उन्हें बिहार चुनाव में अपना राजनीतिक वारिस बनाकर पेश करें।
लेकिन लालू इसके लिए राजी नहीं थे। लालू पार्टी को पारिवारिक पार्टी बनाकर रखना
चाहते हैं। पप्पू को लग गया कि राजनीतिक महत्वकांक्षा यहां पूरी नहीं हो सकती तो
समय रहते उन्होंने रास्ता अलग कर लिया। नीतीश के खिलाफ बोलना उनकी व्यक्तिगत
मजबूरी भी है। लालू के राज में पूर्णिया, मधेपुरा में विपक्षी नेताओं की जितनी भी
राजनीतिक हत्याएं हुई किसी न किसी रूप में उसमें पप्पू यादव का नाम जरूर उछला।
पप्पू यादव ने ही मधेपुरा में नीतीश की पार्टी के अध्यक्ष शरद यादव को हराकर चुनाव
जीता है।
पप्पू यादव एकमात्र विरोधी बाहुबली
नेता हैं जो नीतीश के कार्यकाल में खत्म होकर फिर से उठ खड़े हुए हैं। पप्पू यादव
के साथ उस दौर में जिन बाहुबलियों ने राजनीति में कदम रखा था ज्यादातर बाहुबली
नेताओ का राजनीतिक अंत हो चुका है। बीते साल लोकसभा चुनाव में वही बाहुबली नेता या
उनके परिवार वाले जीतकर पहुंचे हैं जो समय रहते मोदी लहर पर सवार हो गये थे। लेकिन
खिलाफ में रहकर भी पप्पू यादव न सिर्फ खुद चुनाव जीते बल्कि कांग्रेस के टिकट पर
पत्नी को भी संसद पहुंचाया।
लालू-राबड़ी के कार्यकाल में
बिहार की राजनीति पर यादवों का साम्राज्य कायम था। लालू जब पहली बार 1990 में सीएम
बने थे तब बिहार में यादव विधायकों की संख्या 63 थी। लालू जब पीक पर थे तब 1995
में संख्या 86 हो गई। 2000 में 64 रही। लेकिन 2005 के बाद ये आंकड़ा घटने लगा।
2005 में 54 और 2010 में महज 39 यादव विधायक जीते थे। जानकर आश्चर्य होगा कि अभी
जो 39 विधायक हैं उनमें से 16 जेडीयू और 10 बीजेपी के हैं।
बिहार की राजनीति में विरोधी
लालू को आज जिस जंगल राज का प्रतीक मानते हैं । उस जंगल राज तक लालू को पहुंचाने
में उनके सालों का अहम योगदान रहा है। खासकर छोटे साले साधु यादव का। अब तो कहावत
बन चुकी है कि लालू की बड़ी बेटी की शादी में साधु ने पटना के शो रूम से कार से
लेकर सोफा तक उठवा लाए थे। सीवान में छात्र नेता चंद्रशेखर की जब हत्या हुई थी तब
दिल्ली में बिहार निवास के बाहर प्रदर्शन कपने वाले वामपंथी छात्र संगठन के
कार्यकर्ताओं रॉड दिखाकर भगा दिया था। और न जाने कई तरह के विवादित मामलों में
इनके नाम की चर्चा होती रहती है। एक फिल्म में किरदार का नाम इनके नाम पर रखा गया
तो खूब बवाल हुआ था। 2005 में जब लालू की सत्ता चली गई तो आग पर पड़े पानी की तरह
साधु यादव भी शांत हो गए। पर उनकी राजनीतिक महत्वकांक्षा कम नहीं हुई है। जीजा
लालू के सहारे सांसद बन चुके साधु यादव 2009 में कांग्रेस के टिकट पर लड़कर हार
गए। 2014 के चुनाव से पहले गुजरात जाकर मोदी के घर चाय नाश्ता कर आए। हंगामा मचा
तो बीजेपी ने दरवाजा बंद कर लिया। अब कोई दरबार बाकी नहीं रह गया था तो अपनी
पार्टी बनाकर ही किस्मत आजमाने उतर गए हैं। गरीब जनता दल सेक्यूलर के जरिये तीसरा
मोर्चा तैयार कर रहे हैं। साधु यादव भले ही किसी उम्मीदवार को जिता नहीं पाए लेकिन
जो पांच सौ- हजार वोटों का नुकसान करेंगे वो अपने जीजा के खजाने से ही करेंगे।
साधु यादव, पप्पू यादव और कोइरी
नेता नागमणि के मिलकर एक तीसरा मोर्चा बनाने की चर्चा चल रही है। तीनों साथ आएंगे
तो फिर कहीं कहीं अच्छा प्रभाव डाल सकते हैं। वैसे इस चुनाव के लिए इनका भविष्य
उज्ज्वल नहीं दिख रहा है।
लालू यादव के साथ दिक्कत ये है
कि वो खुद चुनाव लड़ नहीं सकते। परिवार में अभी बेटे राजनीतिक दांव पेंच के लिए
परिपक्व नहीं हुए हैं। पत्नी और बेटियां आज के राजनीतिक वातावरण में नेतृत्व के
लिए फिट नहीं हैं। इसीलिए मुख्यमंत्री के लिए उन्हें नीतीश के नाम पर राजी होना
पड़ा।
जहां तक बीजेपी का सवाल है तो
फिलहाल बीजेपी से यादव मुख्यमंत्री का सपना अभी दूर की कौड़ी है। नंद किशोर यादव
इस जाति से सबसे प्रबल दावेदार हैं। लेकिन इस वोट बैंक पर बीजेपी को भरोसा नहीं है
सो नंद किशोर का नंबर इस बार तो नहीं लगता है।
बिहार में यादव वोटरों की संख्या
करीब 13 फीसदी है। बीते साल लोकसभा चुनाव में करीब 20 फीसदी यादवों ने बीजेपी को
वोट दिया था। बीजेपी से 4, आरजेडी से 2, कांग्रेस से 1 यादव जाति के सांसद बने।
इस बार बिहार में कोई यादव नेता
मुख्यमंत्री की रेस में नहीं है। नीतीश के सीएम उम्मीदवार बनाने के साथ ही पप्पू,
साधु सहित और भी कई कारण हैं जो यादव वोटरों को साथ नहीं रहने पर मजबूर कर रहा है।
सबसे बडी दिक्कत वोट ट्रांसफर की है। नीतीश का वोट लालू की पार्टी को ट्रांसफर हो
जाएगा। लेकिन लालू के लिए यादवों का वोट नीतीश के उम्मीदवार को पूरी तरह से
ट्रांसफर हो सकेगा इसमें शक है। मतलब गोप का कोई एक पोप बनेगा इसमें शक की गुंजाइश
ज्यादा है। बाढ़ वाले एपिसोड में गोप का पोप बनने की लड़ाई खुलकर सामने आ चुकी है।
सभी पार्टियों से सिर्फ यादव नेताओं ने बयान दिए । चाहे वो पप्पू यादव हों या
मुंद्रिका यादव, लालू यादव और नंद किशोर यादव ।
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