जहर का घूंट पीकर ही सही लालू ने नीतीश को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार मान लिया। लेकिन एनडीए का मुख्यमंत्री उम्मीदवार कौन
होगा ? होगा भी या नहीं ?
ये बड़ा
सवाल है। लोकसभा चुनाव के वक्त जब नरेंद्र मोदी को बीजेपी ने पीएम
उम्मीदवार घोषित कर दिया था तब बीजेपी वाले कांग्रेस और यूपीए से उनका
उम्मीदवार पूछा करते थे। बिहार में अब यही स्थिति उलट गई
है। बीजेपी को जवाब देना है। लेकिन एक अनार और सौ बीमार होने की वजह से
बीजेपी कोई रिस्क लेने की हिम्मत नहीं जुटा रही।

आज
की तारीख में सुशील कुमार मोदी सबसे अहम और स्वभाविक दावेदार हैं। लेकिन
सुशील मोदी में नीतीश के मुकाबले करिश्मा करने
की काबिलियत नहीं है। बिहार बीजेपी में जितने बड़े नेता हैं उसमें सुशील
मोदी को पसंद करने वाले कम और नापसंद करने वाले ज्यादा हैं। सुशील मोदी का
कद बीजेपी के बाकी नेताओं से इसलिए बड़ा है क्योंकि
इनके पास अनुभव लंबा है। सरकार का भी संगठन का भी।
आरएसएस के स्वंयसेवक से सियासी सफर शुरू करने वाले सुशील मोदी
1995 से
लेकर 2004 तक विपक्ष के नेता रहे। यानी जब तक बीजेपी विपक्ष में थी तब तक
पटना से विधायक रहे सुशील मोदी विपक्ष के नेता थे। और जब तक सत्ता में रही
यानी 2005 से 2013 तक उपमुख्यमंत्री
रहे। लालू के साथ पटना विश्वविद्यालय में छात्र संघ के सचिव हुआ करते थे।
बिहार बीजेपी के भीष्म पितामह कहे जाने वाले कैलाशपति मिश्र अगर जिंदा होते
तो शायद सुशील मोदी को सीएम उम्मीदवार बनने के लिए किसी का मुंह नहीं
देखना होता। लेकिन आज की तारीख में माहौल सुशील
मोदी के पक्ष में एकतरफा नहीं है।
सुशील
मोदी के अलावा इस पद की रेस में नंद किशोर यादव, प्रेम कुमार, एसएन आर्य
जैसे बिहार की राजनीति करने वाले नेता तो हैं
ही । केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद (कायस्थ), राजीव प्रताप
रूडी(राजपूत), राधामोहन सिंह(राजपूत), गिरिराज सिंह(भूमिहार), सांसद
अश्विनी चौबे(ब्राह्ण), पार्टी प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन जैसे लोगों के नाम
की हवा भी उड़ रही है। गिरिराज सिंह और अश्विनी चौबे जैसे नेताओं
को लोकसभा भेजकर सुशील मोदी ने इनकी दावेदारी को कम कर तो दिया है लेकिन
इनकी सलाह को नजरअंदाज करना पार्टी के लिए आसान नहीं रहने वाला।
बीजेपी
कोटे से केंद्र में जो पांच मंत्री हैं उनमें से 4 तो सवर्ण हैं। केवल
रामकृपाल यादव ही पिछड़ी जाति के हैं। इस लिहाज
से सीएम की कुर्सी के लिए सवर्ण नेताओं का दावा भी कमजोर पड़ता है। वैसे
भी पार्टी ने इन दिनों विधायकों को ही सीएम बनाने की परंपरा शुरू कर रखी
है।
सुशील
मोदी का विरोध इसलिए होता है क्योंकि जब तक वो बिहार में डिप्टी सीएम रहे
बाकी नेताओं को भाव नहीं देते थे । सुशील
मोदी को नीतीश कुमार का कट्टर समर्थक माना जाता था । नीतीश के दरबार में
भी सुशील मोदी के अलावा बाकी बीजेपी के किसी नेता की कोई पूछ नहीं थी ।
सुशील मोदी नीतीश से रिश्ता तोड़ने के पक्ष में भी नहीं थे । पार्टी में
मौजूद सुशील मोदी के विरोधी आरोप लगाते हैं कि कोई
भी पद और अहम जिम्मेदारी सुशील मोदी और नंदकिशोर आपस में बांट लेते हैं ।
और बाकी नेता देखते रह जाते हैं ।
रविशंकर,
राधामोहन जैसे बड़े नेता सीएम के लिए सुशील मोदी के नाम पर आसानी से मान
जाएंगे। लेकिन बाकी को मनाना होगा। यही
वजह है कि पार्टी बिहार में नेता प्रोजेक्ट कर चुनाव लड़ने की रणनीति नहीं
अपनाने की तैयारी में है। नीतीश कुमार के सामने नरेंद्र मोदी का चेहरा
रखकर बीजेपी लड़ती है तो विवाद भी नहीं होगा और नरेंद्र मोदी नाम का प्रभाव
भी ज्यादा पड़ेगा। इसमें भी कोई दो राय नहीं
है टिकट बंटवारे में सुशील मोदी और बिहार संगठन की ही ज्यादा चलनी है। और
बिहार संगठन पर वैसे भी सुशील मोदी का ही कब्जा है। यानी बहुमत मिलता है तो
विधायकों का ज्यादा समर्थन सुशील मोदी को ही मिलने का चांस रहेगा। वैसे भी
25 साल से (मांझी के कार्यकाल को छोड़ दें
तो ) ओबीसी मुख्यमंत्री ही हैं।
सुशील
मोदी का दावा पार्टी में बाकियों पर भारी इसलिए भी है क्योंकि सवर्णों के
बाद वैश्य वोटर ही हैं जो बीजेपी को सबसे
ज्यादा वोट करते हैं। शहरी इलाकों के तो वैश्य वोटर बीजेपी को ही वोट करते
हैं। मोतिहारी, बेतिया, सीतामढ़ी. मुजफ्फरपुर, हाजीपुर, मधुबनी, कटिहार,
सहरसा, दरभंगा, बेगूसराय, पटना, गया, आरा, बक्सर जैसे बड़े शहरों पर बीजेपी
का ही कब्जा है।
ये
तो बात रही सिर्फ बीजेपी की। लेकिन बिहार में बीजेपी अकेले नहीं है।
रामविलास पासवान की पार्टी एलजेपी, उपेंद्र कुशवाहा
की पार्टी आरएलएसपी और जीतन राम मांझी की पार्टी भी एनडीए का हिस्सा है।
सीएम के लिए पासवान के नाम की चर्चा खुद उनके भाई चला चुके हैं। पासवान की
सीएम बनने की महत्वकांक्षा भी पंद्रह साल पुरानी है। उपेंद्र कुशवाहा और
मांझी भी आसानी से लाइन पर आ जाएंगे कहा नहीं
जा सकता। सीट भले ही इन लोगों को कम मिले लेकिन नखरा तो इनका होने वाला ही
है।
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