बिहार
में फिर एक बार नीतीश कुमार क्यों ? बिहार की जमीनी
हकीकत से वाकिफ लोगों से इस बारे में आप और बेहतर तरीके से जान सकते हैं। बिहार से
बाहर रह रहे लोग खासकर दिल्ली जैसे शहरों में एक ऐसा वर्ग है जो बिना जमीनी हकीकत
जाने विश्लेषण में जुटा है। लोकसभा चुनाव के वक्त दिल्ली में बैठे बैठे ये लोग
बिहार की हवा बता रहे थे। लेकिन नतीजों ने तमाम हवा की हवा निकाल दी ।

सवाल ये
कि क्या नीतीश लालू से हाथ मिलाकर जिस जातिवादी राजनीति की राह पर बढ़ रहे हैं वो
बिहार की उम्मीदों को तोड़ तो नहीं देगा ? बिहार का आम अवाम अब
भी नीतीश में विकास पुरुष की छवि देखता है। लेकिन लालू के जंगल राज और आतंक से
इतना त्रस्त रह चुका है कि उसे इस दोस्ती में फिर वही पुराना दिन नजर आता है ।
नीतीश गारंटी तो देते हैं लेकिन जिस तरीके से लालू के जंगल राज का वो बचाव करते
दिखते हैं उससे लोगों की उम्मीद पर ग्रहण लगता दिखता है। इन सवालों के बीच अच्छी बात ये है कि नीतीश रुक
नहीं रहे। अपनी राह पर वो चलते ही दिख रहे हैं। मांझी को मुख्यमंत्री बनाने को
लेकर उनकी मंशा साफ थी लेकिन मांझी के गलत बयान और विचारों को उन्होंने बर्दाश्त
नहीं किया। लालू नहीं चाहते थे कि मांझी हटे और नीतीश सीएम बनें। लेकिन लालू की
सलाह को नीतीश ने नजरअंदाज कर दिया।
हां
लेकिन इस चुनावी साल में जो भी उठापटक हुआ है उससे नीतीश सहमे जरूर हैं। राजनीतिक
वनवास का डर उन्हें लालू के साथ खड़े होने को मजबूर कर देता है। इन सबके बाद भी
नीतीश बिहार में मुख्यमंत्री के लिए सबसे
पहली पसंद हैं। इसका कारण है उनकी छवि। जिद, कुछ करने का जुनून, विकास की सोच और
ईमानदार नेता की पहचान नीतीश को बाकियों से अलग कर देता है। दस साल के कार्यकाल
में नीतीश ने बिहार को नई दिशा दी। नई पहचान दी। बीजेपी वाले बिहार में लाख हल्ला
करे लेकिन जो हकीकत है उससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। हां चापलूसी और चरणवंदना तो
नेताओं की फितरत में शामिल होती है सो नीतीश भी इससे अछूते नहीं हैं।
भूकंप
के दौरान नीतीश ने जिस तरीके से तेजी दिखाई उसने चुनावी साल में उनकी छवि को
चमकाने का काम किया है। बिहार में तमाम नेता खौफ के मारे जहां दिख नहीं रहे थे।
वहीं नीतीश बिहार से लेकर नेपाल तक के लोगों की मदद पहुंचाने में जुटे थे। विरोधी
ये प्रचार करने में जुटे थे कि नीतीश बिहार की चिंता छोड़ नेपाल में जुटे हैं तो
इसके पीछे भी वजह थी। बॉर्डर इलाके में ज्यादातर वैसे लोग रहते हैं जिनकी
रिश्तेदारी नेपाल में है। ऐसे में उन्हें नेपाल के हाल पर छोड़ा नहीं जा सकता था।
नीतीश ने मानवीय हित और वोट का भी ख्याल रखते हुए ऐसा किया। राहत के काम में रमई
राम जैसे मंत्री ने आनाकानी की तो हटाने में उन्हें एक मिनट की देरी नहीं दिखाई।
लालू जैसे नेता तो भूकंप के दौरान कहीं दिखे भी नहीं। बिहार बीजेपी वाले भी किसी भूकंप
प्रभावित इलाके में रात बीताते नहीं पाए गए।
नीतीश
के कार्यकाल में सड़कों का जाल जो बिहार ने देखा है वो पहले कभी नहीं देखा गया।
ऐसा नहीं कि काम पूरा हो चुका है और अब करने की जरूरत नहीं है । लेकिन जितना पिछले
50-55 साल में नहीं उससे बहुत ज्यादा बिहार में काम इनके कार्यकाल में हुआ है।
एक
पूरी पीढ़ी है जो नीतीश और बिहार के विकास की गवाह है। हमारी उम्र के लोग जब से
राजनीति को समझ रहे हैं तब से सिर्फ लालू और नीतीश के आसपास ही बिहार की राजनीति
घूम रही है।
नीतीश
कुमार ने जिस दौर में लालू का साथ छोड़ा था उस दौर में लालू एक ब्रांड के तौर पर
स्थापित हो चुके थे। बिहार की राजनीति पर लालू का एकछत्र राज हुआ करता था। नीतीश
की तब उतनी राजनितिक हैसियत नहीं थी कि वो लालू को चुनौती दे सके। लेकिन जॉर्ज
फर्नांडिस के सानिध्य में नीतीश कुमार ने हिम्मत दिखाई और लालू का साथ छोड़कर अपनी
स्वतंत्र और अलग पहचान स्थापित की ।
1994
में जब नीतीश अलग हुए थे तब जनता दल (ज) नाम से पार्टी बनी। अक्टूबर महीने में नाम
समता पार्टी रखा गया। अगले साल यानी 1995 में विधानसभा का चुनाव हुआ। नीतीश की
पार्टी सभी 324 सीटों (तब झारखंड साथ था ) पर लड़ी थी । टीएन शेषण के कार्यकाल में
तब टाइट चुनाव हुआ था । फिर भी लालू के मुकाबले नीतीश को बिहार ने नकार दिया।
नीतीश को तब कुल 7 सीटें मिली थी। इसमें खुद नीतीश दो जगहों से जीते थे। लेकिन
नीतीश ने हिम्मत नहीं हारी। जॉर्ज ने
नीतीश को बिहार का नेता बनाने के लिए बीजेपी से हाथ मिलाया और फिर पांच साल में ही
ऐसा मौका आ गया कि नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री बन गए।
साल
2000 में निर्दलीयों के साथ मिलकर नीतीश मुख्यमंत्री बनने में तो कामयाब रहे लेकिन
समर्थन नहीं जुटा पाए। नतीजा हुआ कि राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बन गई और नीतीश
केंद्र में मंत्री बन गए। तब ही तय हो गया था कि बिहार में नेता नीतीश कुमार होंगे
और बीजेपी नीतीश के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ेगी।
नीतीश
आज जिस मुकाम पर हैं शायद यहां तक पहुंच नहीं पाते अगर 2005 में पासवान ने
राजनीतिक करियर की सबसे बड़ी भूल नहीं की होती। 2005 के फरवरी महीने में त्रिशंकू
विधानसभा में सत्ता की चाबी पासवान के पास थी। लालू को 75 सीटें मिली थी और
जेडीयू-बीजेपी को 93 । 29 सीटों वाले पासवान चाहते तो मोल तोल करके किसी की भी
सरकार बनवा सकते थे। लेकिन पासवान ने मुस्लिम मुख्यमंत्री की जिद करके बिहार में
राष्ट्रपति शासन लगवा दिया। इसके बाद नवंबर 2005 में जो चुनाव हुआ उसने नीतीश
कुमार को बिहार में स्थापित कर दिया।
बीजेपी
के साथ मिलकर नीतीश ने लोकसभा के 5 और विधानसभा के 4 चुनाव लड़े। पहली बार 2014
में नीतीश ने अपने दम पर चुनाव लड़ा और दो सीटों पर रह गये। 40 में से 38
सीटों पर लड़ने वाले नीतीश की पार्टी
ज्यादातर सीटों पर तीसरे नंबर पर चली गई। जानकार इसमें कहीं न कहीं नीतीश के
राजनीतिक अहंकार को भी जिम्मेदार मानते हैं।
यही
से नीतीश की राजनीति का टर्निंग प्वाइंट शुरू हुआ और नीतीश को लालू से हाथ मिलाने
पर मजबूर होना पड़ा। जिस मुस्लिम वोटों के लिए नीतीश ने बीजेपी का साथ छोड़ा था उस
मुस्लिम वोट बैंक ने लालू पर ज्यादा भरोसा किया। जिस कुर्मी कोइरी के 11-12 फीसदी
वोट बैंक को नीतीश का आधार माना जाता था उस वोट बैंक में से कोइरी के वोट नीतीश से
दूर चले गए। संदेश साफ था कि नीतीश बिहार में सिर्फ विकास के नाम पर चुनाव नहीं
जीत सकते। जाति का गणित उनके लिए जरूरी है। जाति और धर्म बिहार की राजनीतिक जरूरत है। नीतीश
के रणनीतिकार इस मजबूरी को समझ गये थे और उनके सामने कांग्रेस और लालू की दोस्ती
के अलावा कोई चारा नहीं रह गया था। कांग्रेस का साथ होना मतलब मुस्लिमों का ज्यादा
भरोसा। लालू का साथ लेना मतलब पिछड़ों का मजबूत मोर्चा। वैसे नीतीश की रणनीति सबको
साथ लेकर चलने की है।
नीतीश
की जातीय रणनीति भी देखिए। उनके बगल में एक तरफ भूमिहार जाति के विजय चौधरी और पीके
शाही होते हैं तो दूसरी ओर विजेंद्र यादव। मतलब अगड़ा भी
साथ और पिछड़ा भी। मेरा मानना है कि
टिकट बंटवारे में नीतीश की पार्टी पिछड़ो की तुलना में सवर्णों को ज्यादा टिकट
देने की रणनीति अपनाएगी। बीजेपी और नीतीश के गठबंधन के दौरान जो रोल बीजेपी निभाया
करती थी अब लालू-नीतीश गठबंधन में वो रोल नीतीश की पार्टी निभाएगी । लेकिन नीतीश के लोग ये
सोच रहे हैं कि मुख्यमंत्री के नाम का एलान हो गया इसका मतलब सब हो गया ऐसा नहीं
है। लालू की पार्टी अगर नीतीश से ज्यादा सीटें जीतती है तो फिर एक बार इस पर विवाद
होना तय है। तब अगर बीजेपी के साथ नीतीश को सरकार बनाने की जरूरत पड़ी तो फिर
दोनों साथ भी आ सकते है। क्योंकि राजनीति में रिश्ते बदलते देर नहीं लगती।
1 comment:
Real and very cretical analysis done by you. Good Manoj, keep it up.
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