Friday, November 14, 2014

मांझी के बयानों के पीछे नीतीश की चुनावी चाल ?

मांझी के साथ नीतीश
(पीछे शाहिद अली, श्याम रजक, नीतीश मिश्रा)
 साल भर बाद बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं। नीतीश कुमार तीसरी बार पार्टी को सत्ता दिलाने के लिए रात दिन एक किए हुए हैं। लोकसभा चुनाव में हार के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़कर नीतीश ने पार्टी को मजबूत करने का अभियान शुरू किया। लेकिन नीतीश ने अपनी जगह जिन जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया उनके बयानों की वजह से उनके अभियान को धक्का लगता दिख रहा है। पार्टी के अंदर मांझी के बयानों की वजह से भारी नाराजगी है। मांग मांझी को मुख्यमंत्री के पद से हटाने तक की हो रही है। लेकिन क्या मांझी जो बोल रहे हैं वो सब अपने मन से ही बोल रहे हैं?
बिहार की राजनीति और नीतीश कुमार को करीब से समझने वाले ये मान रहे हैं कि मांझी के इन विवादित बयानों को नीतीश का आशीर्वाद मिला हुआ है। (वैसे नीतीश को लेकर सीधे तौर पर तो नहीं लेकिन अगले चुनाव में नेतृत्व को लेकर उन पर भी हमला बोल चुके हैं ) मांझी जब से सीएम बने हैं तब से ही वो रोज कोई न कोई ऐसा बयान दे देते हैं जिसका बचाव करना पार्टी के लिए संभव नहीं हो पाता। बहुत दिनों से नीतीश और मांझी के बीच विवाद की खबर चल रही थी। लेकिन पिछले हफ्ते मांझी नीतीश के घर गए और करीब दो घंटे तक दोनों के बीच बातचीत हुई। अटकलें लग रही थी कि कथित तौर पर नाराज नीतीश ने मांझी को फटकार लगाई और ऐसे विवादित बयान नहीं देने को कहा। सरकार के कामकाज को लेकर भी दोनों में चर्चा हुई। लेकिन इस बैठक के बाद लोगों को जो दिख रहा है उसमें मांझी के न तो बयान पर लगाम लगी है और ना ही सरकार के कामकाज के तरीकों में कोई सुधार दिख रहा है। उल्टे मांझी और ज्यादा जितना उनसे हो सकता है उतना आक्रमक तरीके से जातीय राजनीति को उभार देने में जुटे हैं।
कहा जा रहा है कि नीतीश ने मांझी को मिशन दलित वोट बैंक पर लगा रखा है। और नीतीश के इशारे पर ही ऐसा बयान मांझी दे रहे हैं। 12 नवंबर को वाल्मिकीनगर की सभा में सवर्ण विदेशी वाला जो बयान उन्होंने दिया था उस पर नीतीश ने एक लाइन की सफाई नहीं दी। नीतीश ने पत्रकारों से कहा कि उन्हें अपना काम करने दीजिए। मांझी के इस बयान को लेकर जेडीयू के सवर्ण विधायकों में भारी नाराजगी देखी जा रही है। अनंत सिंह, सुनील पांडे, नीरज कुमार सिंह, संजय झा जैसे नेता मांझी के खिलाफ खुलकर मीडिया में बोलने लगे हैं । लेकिन मांझी कैबिनेट की शोभा बढ़ा रहे एक भी सवर्ण मंत्री ने एक शब्द कुछ नहीं कहा है। सोशल मीडिया पर ललन सिंह, महाचंद्र सिंह, पीके शाही, नरेंद्र सिंह, रामधनी सिंह जैसे सवर्ण मंत्रियों की चुप्पी के पीछे नीतीश का दिमाग बताया जा रहा है। सोशल मीडिया पर ये लिखा जा रहा है कि नीतीश के कहने पर ही मंत्री मांझी के खिलाफ इस मसले पर बोल नहीं रहे हैं। क्योंकि नीतीश बिहार की राजनीति को एक बार फिर से बैकवार्ड-फॉरवार्ड में बांटना चाहते हैं।
अगर इसमें सच्चाई है तो फिर कहा जा सकता है कि नीतीश बिहार की राजनीति को नब्बे के दशक में ले जाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। तब लालू और नीतीश साथ हुआ करते थे। दलित चेहरे के तौर पर जनता दल के पास रामविलास पासवान थे। मंडल की राजनीति को लालू और नीतीश ने तब खूब भुनाया था। इसी राजनीति के तहत लालू पंद्रह साल तक बिहार की सत्ता में बने रहे। नीतीश और लालू साथ आकर एक बार फिर उसी राजनीति की ओर लौटने की तैयारी कर रहे हैं। अब तक सवर्ण वोट बीजेपी की वजह से नीतीश को मिलता रहा है। नीतीश को बखूबी मालूम है कि भूमिहार, ब्राह्मण और कायस्थ वोट उसे थोक भाव में नहीं मिलने वाले। राजपूत वोट को लेकर शुरू से बिहार में तस्वीर साफ नहीं रही है। राजपूत लालू को भी उतनी ही ताकत से वोट करते हैं जितना की एनडीए को। वैश्य वोट बीजेपी के साथ है। कोइरी वोट भी नीतीश से दूर जा चुका है। दलित राजनीति को जगाकर उन्हें अपने पक्ष में चट्टान की तरह जोड़ने की नीति पर नीतीश आगे बढ़ रहे हैं। लोकसभा चुनाव में बिहार में हिंदू-मुस्लिम का ध्रुवीकऱण होने से नीतीश को नुकसान हुआ था। इसलिए माना जा सकता है कि नीतीश अभी से ही बिहार में जातीय राजनीति को उभारना चाहते हैं। ताकि मुस्लिम और बैकवार्ड-दलित वोट के जरिए मोदी की राजनीति को मात दिया जा सके।
लोकसभा चुनाव में हार के बाद लालू और नीतीश जब साथ आ रहे थे तब उन्होंने मंडल का नारा बुलंद किया था। लालू ने कहा था कि एक बार फिर मंडल की राजनीति को कमंडल के खिलाफ आगे बढ़ाएंगे। लालू और नीतीश मांझी के जरिए शायद उसी राजनीति को आगे बढ़ाने में जुटे हैं।
लेकिन बिहार की राजनीति को लेकर एक हकीकत और भी है। नीतीश अब भी लोगों के जेहन में हैं। नीतीश के कामकाज और प्रशासनिक क्षमता की हर वर्ग में तारीफ होती है। नीतीश अगर लालू से हाथ नहीं मिलाते तो सवर्ण समुदाय का एक बड़ा हिस्सा उनके पक्ष में वोट कर सकता था। लेकिन नीतीश को शायद इस राजनीति पर यकीन नहीं है। नीतीश को ये मालूम है कि मांझी के खिलाफ बोलने वाले सवर्ण नेता अपने दम पर चुनाव जीतते हैं इसलिए उनके खिलाफ कुछ बोलने की जरूरत नहीं है। नीतीश ये भी मान कर चल रहे हैं कि सवर्ण समाज में उनकी स्थिति पहले वाली नहीं रह गई है। फॉरवार्ड वोटर चुनाव में एनडीए को वोट करेंगे। हां जिन सीटों पर उनकी पार्टी सवर्ण उम्मीदवारों को उतारेगी वहां सवर्ण वोटर दुविधा में रहेंगे। इसका फायदा उन सीटों पर जेडीयू को हो सकता है।
नीतीश को राजनीति का चाणक्य कहा जाता है। जोड़ तोड़ और गुणा गणित में वो माहिर माने जाते हैं। लोकसभा चुनाव में उनके बस का कुछ नहीं था ये वो जानते थे। मोदी से राजनीतिक विवाद को उन्होंने व्यक्तिगत विवाद में बदल दिया। मांझी को सीएम बनाकर उन्होंने बड़ी ही बारीकी से अपनी अगली चाल चली। कहा जा रहा है कि एक तरफ मांझी के बयानों के जरिये वो विवाद खड़ा करवा रहे हैं तो दूसरी ओर ये कहलवा रहे हैं कि उनके और मांझी के रिश्ते ठीक नहीं है। एक चाल से नीतीश दो जगह आगे बढ़ रहे हैं। अपनी पार्टी के सवर्ण नेताओं और कार्यकर्ताओं को ये संदेश दे रहे हैं कि उनके बयानों से उनका कोई लेना देना नहीं है तो दूसरी ओर बंद कमरे में दो घंटे तक मांझी को आगे की प्लानिंग समझा रहे हैं। बयानों की वजह से विवाद अब इतना ज्यादा हो चुका है कि शरद यादव को सार्वजनिक तौर पर कहना पड़ रहा है कि बयान देने से बचें। विधायक दल में विवाद बढ़ा तो बहुत मुमकिन है कि मांझी को हटना पड़े। हालांकि इसका नुकसान नीतीश को होगा ये सबको पता है ।
सरकार को मांझी के बयानों के हवाले कर नीतीश अभी संपर्क यात्रा पर हैं। सभाओं में नरेंद्र मोदी ही नीतीश के निशाने पर है। कैबिनेट विस्तार को लेकर भी नीतीश ने मोतिहारी में बीजेपी पर हमला बोला। नीतीश ने कल ब्राह्मण और वैश्य समुदाय को उकसाने के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल में इन दोनों जाति के नेताओं को प्रतिनिधित्व नहीं दिये जाने का मुद्दा उछाल दिया। हालांकि अश्विनी चौबे का नाम वो भूल गये और बार बार दुबे जी दुबे जी कहते रहे। अपनी ओर से नीतीश मजबूती के लिए हर तरह की कोशिश कर रहे हैं। इस रणनीति से एक ओर जहां नीतीश दलित-पिछड़ों की गोलबंदी करना चाह रहे हैं वहीं अपनी छवि की बदौलत सवर्ण वोटरों को भी अपना शुभचिंतक बनाये रखना चाहते हैं।
लेकिन इन बातों में अगर सच्चाई नहीं है तो फिर सवाल ये है कि क्या मांझी नीतीश के गले ही हड्डी बन गये हैं। मांझी सीएम के लिए नीतीश कुमार की ही पसंद थे। अगली बार के विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी ने पहले ही तय कर ऱखा था कि नीतीश ही नेता होंगे। लेकिन मांझी कभी कभी नेतृत्व को लेकर भी विवादित बयान देते रहे हैं। एक बार उन्होंने गया में कहा था कि अगला सीएम भी गया का ही होगा। नीतीश पटना के हैं ऐसे में सीधी सी बात ये है कि नीतीश के नेतृत्व को लेकर उन्होंने सवाल उठाये थे। दलितों की सभा में उन्होंने एक बार ये भी कहा था कि आप एकजुट रहे तो अगला सीएम भी आपके समाज का ही होगा। हो सकता है कि इस तरह के बयानों के जरिये वो दलित समुदाय को पार्टी के साथ जो़ड़ने का काम क रहे थे लेकिन इन बयानों का दूसरा मतलब उनकी महत्वकांक्षा से भी जोड़ा जा सकता है। पार्टी में मांझी को लेकर बड़ी नाराजगी है। नीतीश कब तक ये नाराजगी झेल पाएंगे कहा नहीं जा सकता, क्योंकि बयानों की वजह से नीतीश को पार्टी टूटने का खतरा भी उठाना पड़ सकता है। शरद यादव खेमा मांझी से पहले से ही नाराज है। अब मांझी कब तक सीएम की कुर्सी पर हैं देखिए।  



Monday, November 10, 2014

लालू-नीतीश को चुनौती दे पाएंगे मोदी के महारथी?

बिहार चुनाव से ठीक साल भर पहले मोदी सरकार ने बिहार में अपने जातीय आधार वाले वोट बैंक को साधने की कोशिश तो की है लेकिन ये कोशिश कारगर हो पाएगी कह पाना मुश्किल है । पहले से चार मंत्री थे । इस बार तीन नए मंत्रियों को जगह देकर मोदी ने राजपूत, भूमिहार और यादव वोटरों को साधने की कोशिश की है । इन तीनों को मंत्री मूल रूप से चुनावी फायदे के लिए बनाया गया है । लेकिन तीनों को ऐसे विभाग नहीं दिये गये हैं जिसका फायदा चुनाव में वोट के तौर पर होने की उम्मीद हैं ।
गिरिराज, रूडी, रामकृपाल यादव

 राजपूत जाति के राजीव प्रताप रूडी वाजपेयी सरकार में स्वतंत्र प्रभार के राज्यमंत्री हुआ करते थे । दस साल बाद भी रूडी को राज्यमंत्री ही बनाया गया है । विभाग ऐसा दिया गया है जिसे कम अहमियत वाला कहा जा सकता है । स्किल डेवलपमेंट मंत्री बनाकर रूडी को मोदी ने अपने मेक इन इंडिया वाले मिशन से जोड़ा तो जरूर है लेकिन इसका वोट के तौर पर कैसे फायदा उठाया जाएगा इसको लेकर सवाल उठ सकते हैं । राजपूत जाति के राधामोहन सिंह पहले से कृषि मंत्री के तौर पर कैबिनेट में हैं । बिहार में राजपूत वोटरों की संख्या करीब 5 फीसदी हैं। लेकिन दबंग जाति होने की वजह से इस समुदाय के लोग करीब आठ से दस फीसदी वोट पर प्रभाव रखते हैं । बिहार की राजनीति को जानने वाले जानते हैं कि राजपूत वोट जितना एनडीए को मिलता है उससे कम लालू को भी नहीं मिलता । ऐसे में मोदी की कोशिश कतनी कारगर होगी देखने वाली बात होगी ।
 भूमिहार जाति के गिरिराज सिंह पहली बार नवादा से सांसद बने हैं । मोदी के पक्ष में खुलकर बोलने और मुखर होने का उन्हें फायदा तो जरूर मिला है । लेकिन लघु उद्योग जैसा मंत्रालय देकर मानो उन्हें सेट कर दिया गया है । गिरिराज सिंह से बड़े कद के भी भूमिहार नेता बिहार में हैं । लेकिन गिरिराज को आगे करके एक दबंग छवि पेश करने की कोशिश की गई है । बिहार में
करीब 4 फीसदी भूमिहार वोटर हैं । इस समुदाय के लोग एनडीए के परंपरागत वोटर रहे हैं । लेकिन पिछले दिनों हुए विधानसभा उपचुनाव में नीतीश ने इस जाति के उम्मीदवार को टिकट देकर बीजेपी के आधार वोट में सेंध लगा दिया था । माना जाता है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में पहली बार मोदी ने बिहार के किसी भूमिहार नेता को मंत्री नहीं बनाया जिसका नुकसान उपचुनाव में हुआ था । उस चुनाव में पार्टी ने गिरिराज सिंह या फिर बाकी भूमिहार नेताओं का ,सही इस्तेमाल भी नहीं किया था । अब गिरिराज को मंत्री बनाकर बिहार-झारखंड के भूमिहारों को खुश करने की कोशिश भले ही की गई हो लेकिन कम महत्व वाले मंत्रालय का अपना साइड इफेक्ट भी है । इससे पहले वाजपेयी सरकार में भूमिहार कोटे से सीपी ठाकुर मंत्री बनाये गये थे । उस वक्त भी पहली बार में किसी भूमिहार को मंत्री नहीं बनाने की गलती वाजपेयी ने की थी जिसका नुकसान उन्हें तब के उपचुनाव में उठाना पड़ा था . बाद में हुए विस्तार में सीपी ठाकुर को स्वास्थ्य मंत्री की जिम्मेदारी दी गई ।
 रामकृपाल यादव को स्वच्छता और पेयजल राज्यमंत्री बनाय़ा गया है । रामकृपाल वही नेता हैं जो कभी लालू के साथ साये की तरह रहते थे । चार बार सांसद बने लेकिन लालू ने कभी उन्हें मंत्री नहीं बनने दिया । इस बार बीजेपी ने उन्हें मंत्री बनाकर लालू के प्रभाव वाले यादव वोटरों को तोड़ने का जिम्मा दिया है । हालांकि इन्हें भी वैसा मंत्रालय नहीं दिया गया है जिसे वोटरों के बीच भुनाया जा सके । रामकृपाल यादव पटना, हाजीपुर और आसपास के यादवों पर अच्छा प्रभाव रखते हैं । बिहार के 13-14 फीसदी यादव वोटरों में रामकृपाल जितना सेंध लगा पाएंगे बीजेपी के लिए वो बोनस ही होगा । वाजपेयी सरकार में हुकुमदेव नारायण यादव राज्यमंत्री और शरद यादव जेडीयू कोटे से कैबिनेट मंत्री हुआ करते थे ।
 
पासवान- रविशंकर
इन तीन मंत्रियों के अलावा कायस्थ जाति के रविशंकर प्रसाद, राजपूत जाति के राधामोहन सिंह, दलित कोटे से सहयोगी लोकजनशक्ति पार्टी के रामविलास पासवान और पिछड़े कोटे से सहयोगी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के उपेंद्र कुशवाहा सरकार बनने के समय ही मंत्री बन गये थे । उपेंद्र कुशवाहा को बिहार में नीतीश का विकल्प बनाने के लिए बीजेपी उन्हें आगे कर रही है । कुशवाहा उस कोइरी जाति के नेता हैं जिस पर अब तक नीतीश की पकड़ मानी जाती रही है । कहने के लिए राज्यसभा सांसद धर्मेंद्र प्रधान भी बिहार से ही मंत्री है हालांकि वो हैं ओडिशा के रहने वाले ।
 नीतीश की पार्टी छोड़कर राजनीतिक और स्थानीय कारणों से जो नेता बीजेपी में नहीं जा सकते वो विधानसभा चुनाव से पहले उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी में जा सकते हैं । ऐसे करीब तीन दर्जन विधायक तो अभी ही तैयार बताये जाते हैं । चुनाव आते आते ये संख्या 50 से ज्यादा भी हो सकती है । कुशवाहा की पार्टी का जन्म उसी समता पार्टी और जनता दल यू से हुआ है जिसके  संस्थापक जॉर्ज फर्नांडिस रहे हैं ।
 वाजपेयी सरकार के वक्त बिहार (झारखंड नहीं) से सीपी ठाकुर (भूमिहार), शत्रुघन सिन्हा(कायस्थ) राजीव प्रताप रूडी (राजपूत), रविशंकर प्रसाद (कायस्थ ), शाहनवाज हुसैन, हुकुमदेव नारायण यादव, मुनिलाल (दलित )जेडीयू-समता कोटे से जॉर्ज फर्नांडीस, नीतीश कुमार(कुर्मी ), शरद यादव, रामविलास पासवान (बाद में अलग हुए ), दिग्विजय सिंह (राजपूत)मंत्री हुआ करते थे ।  2004 में जब सरकार चली गई तो ये तमाम नेता बिहार में जाकर टिक गये । नतीजा हुआ कि 2005 में पार्टी विधानसभा का चुनाव जीत गई और सरकार भी बनी । अब एक बार फिर बीजेपी ने जातीय दांव चला है ये दांव कितना कारगर हो पाता है वो तो आने वाला वक्त बताएगा ।

फिर एक होगा जनता परिवार

कहते हैं कि समाजवादी कभी एक साथ नहीं रह सकते लेकिन इन दिनों मोदी के खिलाफ जो मुहिम चल रही है उसमें तमाम समाजवादी अस्तित्व बचाने के लिए एक झंडे के नीचे आने को तैयार दिख रहे हैं। 1989 में जिस बीजेपी के सहयोग से जनता दल की सरकार बनी थी अब टुकड़ों में बंट चुके वही जनता दल के नेता बीजेपी के खिलाफ एक होने की तैयारी कर रहे हैं। असल में मोदी के लहर ने इन समाजवादियों को सड़क पर ला दिया है । अब इनको लगने लगा है कि मोदी के बढ़ते प्रभाव को इस वक्त साथ आकर न रोका गया तो फिर सदा के लिए सत्ता की दुकानदारी बंद हो जाएगी।
मुलायम के घर बैठक
बिहार में अगले साल विधानसभा के चुनाव होने हैं इसलिए नीतीश कुमार की बेचैनी समझी जा सकती है। लोकसभा में सिर्फ 2 सीटों से संतोष करने और ज्यादातर सीटों पर जमानत गंवाने के बाद नीतीश विधानसभा के लिए कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। पार्टी के भीतर अपनों से ही घिर चुके नीतीश नहीं चाहते कि किसी भी कारण से लालू उनसे छिटके। क्योंकि बगैर लालू के नीतीश का बिहार में अब गुजारा नहीं होने वाला। जिस तरीके से बिहार में सीट समझौते को लेकर आरजेडी और जेडीयू में अभी से विवाद चल रहा है उससे आने वाले दिनों में दोनों दलों की परेशानी और बढ़ सकती है। शायद यही वजह है कि नीतीश जनता परिवार को एकजुट करने की रणनीति पर आगे बढ़ रहे हैं। ताकि लालू पर साथ रहने का दबाव बना रहे।
मुलायम के घर जो भी नेता जुटे थे वो सब जनता दल के जमाने में साथ रह चुके हैं। सभी अपने अपने इलाके के दिग्गज हैं। लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद सभी की हालत पतली हो चुकी है। मुलायम जहां सिर्फ परिवार के पांच सदस्यों को संसद भेज सके वही नीतीश बिहार में दो सीटों पर सिमट गए। लालू भी चार के आंकड़े पर अटके तो देवगौड़ा भी दो से ऊपर नहीं उठ पाए। इन नेताओं का अपने अपने इलाके में प्रभाव अब भी है लेकिन दूसरे के इलाके में कोई कुछ नहीं कह सकता । ऐसे में साथ आकर भी ये लोग कुछ बहुत बड़ा कर लेंगे ऐसा लगता नहीं है । सवाल ये भी है कि इनकी ये एकता कब तक टिकी रहेगी ।
असल में समाजवादी नेताओं में इगो इतना ज्यादा होता है कि कभी वो एक साथ ज्यादा वक्त तक रह ही नहीं सकते। यहां तो हर कोई क्षत्रप ही है। इतिहास को देखे तो समाजवादियों के साथ रहने का इतिहास ज्यादा लंबा नहीं रहा है।
1988 में जनता दल बना था और चंद्रशेखर, वीपी सिंह, देवीलाल साथ आए थे। अगले साल 1989 में बीजेपी के सहयोग से देश में सरकार भी बनी । लेकिन कुछ महीने बाद ही देवीलाल से तत्कालीन अध्यक्ष एस आर बोम्मई का विवाद हुआ और देवीलाल चंद्रशेखर ने 54 सांसदों के साथ मिलकर जनता दल को तोड़ दिया
5 नवंबर 1990 को चंद्रशेखर ने देवीलाल के साथ मिलकर समाजवादी जनता पार्टी बना। इसके बाद कांग्रेस के सहयोग से चंद्रशेखर पीएम भी बन गये। तब देवगौड़ा, मुलायम भी चंद्रशेखर के साथ थे।
इसके बाद फिर 4 अक्टूबर 1992 को चंद्रशेखर की पार्टी में भी सेंध लग गई।  मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी के नाम से अपनी अलग पार्टी बना ली।
21 जून 1994 को फिर एक बार जनता दल में विभाजन हुआ। पार्टी के 14 सांसद जॉर्ज फर्नांडींस के नेतृत्व में जनता दल से अलग हो गये। नाम पड़ा जनता दल (ज),31 अक्टूबर 1994 को जनता दल (ज) का नाम समता पार्टी रख दिया गया।
1996 में जब केंद्र में जनता दल के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चे की सरकार थी तब अध्यक्ष के सवाल पर लालू और शरद आमने सामने आ गए। 5 जुलाई 1997 को जनता दल में एक और विभाजन हुआ और लालू के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनता दल का गठन हुआ
1997 में बीजेपी से तालमेल को लेकर पार्टी ओडिशा में भी टूट गई। ओडिशा के नेता बीजेपी से तालमेल के पक्ष में थे, लेकिन शरद यादव खेमा राजी नहीं था. नतीजा पार्टी टूटी और बीजू जनता दल बना।
1997 में ही कर्नाटक में भी पार्टी को झटका लगा। पार्टी के बडे नेता रामकृष्ण हेगडे ने लोक शक्ति के नाम से नई पार्टी बना ली।
1998 में समता पार्टी से अलग होकर ओम प्रकाश चौटाला ने अपनी नई पार्टी आईएनएलडी का गठन कर लिया। 1991 से 1998 तक चौटाला जनता दल, समाजवादी पार्टी जनता पार्टी होते हुए समता पार्टी के दरवाजे तक पहुंचे थे।
1999 के लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी से तालमेल को लेकर जनता दल फिर दो खेमों में बंटा । नतीजा हुआ कि बीजेपी के साथ नहीं जाने वाले नेताओं ने देवगौड़ा के साथ मिलकर जनता दल सेक्यूलर नाम से नई पार्टी बना ली। पार्टी तोड़ने के बाद देवगौड़ा असली जनता दल का दावा करते रहे। मामला  चुनाव आयोग में गया और फिर आयोग ने चुनाव चिन्ह चक्र को जब्त कर लिया। इसी विवाद के साथ जनता दल खत्म हो गया। न नाम बचा और न पार्टी। शरद यादव की पार्टी का नाम जनता दल यूनाइटेड पड़ा और देवगौड़ा की पार्टी का जनता दल सेक्यूलर।
1999 में जनता दल यू और समता पार्टी का विलय हो गया। दोनों दल के नेताओं ने तीर चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ा। लेकिन नतीजों के बाद एकता नहीं रही। अध्यक्ष के सवाल पर पार्टी फिर से जनता दल यू और समता पार्टी में बंट गई।
साल 2000 में जनता दल यू में एक और विभाजन हो गया। राम विलास पासवान चार सांसदों के साथ अलग हुए और लोक जनशक्ति पार्टी बनी।
2004 के चुनाव से पहले एक बार फिर जनता दल यू और समता पार्टी का विलय हो गया। जॉर्ज अध्यक्ष बने। शरद संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष, पार्टी का झंडा समता पार्टी के रंग का। लेकिन निशान जेडीयू का तीर। 2004 में लोकसभा चुनाव साथ लड़ा गया। नवंबर 2005 में पार्टी बिहार में सत्ता में आ गई। इस बीच जॉर्ज को साइड लाइन किया जाने लगा। अध्यक्ष पद के चुनाव में शरद यादव ने जॉर्ज को हरा दिया। जॉर्ज दरकिनार हो गये ।
 लेकिन अब यही तमाम नेता एक होने को तैयार दिख रहे हैं। लेकिन इतिहास गवाह है कि पद के लिए समाजवादी नेता साथ छोड़ने में मिनट भर की देरी नहीं करते।
आज भी जब जनता परिवार को एक करने की बात हो रही है तो रामविलास पासवान जैसे बड़े नेता बीजेपी के साथ हैं और सरकार में मंत्री हैं। उपेंद्र कुशवाहा भी खुद को जॉर्ज का असली उत्तराधिकारी मानते हुए बीजेपी के साथ हैं। ओडिशा में बीजू जनता दल सबसे मजबूत स्थिति में है लिहाजा उसके साथ आने के संकेत नहीं दिख रहे। अब अगर लालू-नीतीश-मुलायम-देवगौड़ा-चौटाला मिल जाते हैं तो इतने सारे सूरमा खुद को कैसे एडजस्ट करेंगे देखने वाली बात होगी।