Tuesday, September 14, 2010

विकास या जाति, कौन पड़ेगा भारी ? PART 3


बिहार चुनाव से पहले इस बार राजपूतों का समीकरण एकदम से बदलता नजर आ रहा है। वैसे तो आज की तारीख में कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। लेकिन आनंद मोहन, प्रभुनाथ सिंह और दिग्विजय सिंह अब नीतीश कुमार के साथ नहीं हैं। इन तीनों नेताओं का अपने अपने इलाके में बड़ा दबदबा है। राजपूत समाज में इनकी पूछ है। दिग्विजय सिंह तो अब इस दुनिया में नहीं रहे। लेकिन जाने से पहले उन्होंने नीतीश के खिलाफ राजपूतों का एक बड़ा प्लेटफॉर्म तैयार कर दिया। भागलपुर, बांका, जमुई, मुंगेर के इलाके में दिग्विजय सिंह की बड़ी पकड़ थी। बिहार में जब से नीतीश मुख्यमंत्री बने जॉर्ज खेमे के नेता दिग्विजय सिंह को साइड करके ही चले। सरकार बनने के बाद प्रभुनाथ सिंह की भी कोई पूछ नहीं रह गई थी। इलाका का अफसर इस बाहुबली नेता की बात नहीं सुनता था, लिहाजा समर्थकों में मार्केट खराब होता गया। आनंद मोहन को तो खैर इनके कार्यकाल में कोर्ट ने फांसी की सजा दी है। पिछली बार इन तीनों की ताकत नीतीश के साथ थी। नतीजा देखिये प्रभुनाथ सिंह के प्रभाव वाले छपरा की 10 सीटों में से 5 पर जेडीयू ने कब्जा किया। 2 सीट बीजेपी के खाते में।(छपरा लालू का गढ़ तो था ही), सीवान में भी 8 में से 3 जेडीयू और 2 बीजेपी को मिली थी। 2000 के चुनाव में इन दोनों जिले से सिर्फ एक सीट पर समता पार्टी को कामयाबी मिली थी।
आनंद मोहन की बात करें तो 2005 फरवरी के चुनाव में पत्नी लवली जेडीयू के टिकट पर बाढ़ से चुनाव जीती थी। नवंबर का चुनाव लवली नहीं लड़ी थीं। वैसे आनंद मोहन के प्रभाव वाले कोसी के इलाके में जेडीयू को जबरदस्त सफलता मिली। लालू जिस मधेपुरा से सांसद थे उस जिले की पांच में से 5 सीटें जेडीयू को। सहरसा में कुल 4 सीटों में से 2 जेडीयू को, सुपौल की 5 में से 5 सीटें जेडीयू को मिली थी। इन इलाके में आरजेडी का खाता तक नहीं खुला था। लेकिन परिस्थितियां कैसे बदली वो भी देख लीजिए। सहरसा की जिस सिमरी बख्तियारपुर सीट से दिनेश चंद्र यादव विधायक थे। लोकसभा चुनाव जीतकर दिल्ली पहुंचे लेकिन विधानसभा उपचुनाव में पार्टी को सीट नहीं दिलवा सके। आनंद मोहन की पत्नी लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस में चली गई थी। आनंद मोहन के समर्थन से महबूब अली कैसर उपचुनाव में कांग्रेस के टिकट पर इस सीट से जीत गए।
वैसे एक सच्चाई ये भी है आनंद मोहन के जेल में होने की वजह से उनका पुराना वाला जलवा कायम नहीं रह गया है। इसी का नतीजा हुआ कि पत्नी को शिवहर से लोकसभा चुनाव में हार मिली। नीतीश कुमार एक शादी समारोह में जब सहरसा गये थे तो आनंद मोहन की मां से मिले थे। चर्चा हो चली थी कि आनंद मोहन नीतीश का साथ देंगे। खुद पूर्व सांसद अरुण कुमार सिंह भी संपर्क में थे। लेकिन आनंद मोहन ने कांग्रेस का हाथ नहीं छोड़ने का फैसला किया है। तभी तो राहुल गांधी की सहरसा वाली रैली में लवली ने मंच पर आकर धुंधली तस्वीर साफ कर दी। आनंद मोहन को आरजेडी में भी लाने की कोशिश हो रही थी
विधानसभा चुनाव में तालमेल के तहत सहरसा की सोनबरसा सीट पासवान किशोर कुमार मुन्ना के लिए एलजेपी के खाते से चाहते थे लेकिन लालू ने मना कर दिया। अटकलें थी कि लवली शायद इस सीट पर आरजेडी से लड़े। कहने का मतलब अगर आनंद मोहन-लवली आनंद का खूंटा उखड़ गया(ऐसा कुछ लोगों का मानना है) तो ये लोग उनके पीछे क्यों लगे थे। अब चूंकीं तस्वीर साफ हो चुकी है तो हो सकता है किशोर कुमार मुन्ना ही आरजेडी के टिकट पर यहां से लड़ जाए। मुन्ना भी राजपूत बिरादरी के हैं। आनंद मोहन की जब बीपीपा बनी थी तो मुन्ना स्टूडेंट पीपुल्स के अध्यक्ष थे। बाद में आनंद मोहन से संपर्क खराब हुआ तो अलग राजनीति करने लगे। दिग्विजय सिंह ने भी नीतीश कुमार को लोकसभा चुनाव में अपनी ताकत का इजहार करा दिया। नीतीश ने नजरअंदाज किया तो लोकसभा चुनाव में निर्दलीय लड़े और जीत गये। अब वो नहीं हैं तो उनकी पत्नी पुतुल सिंह को लोकसभा टिकट देने की पेशकश की जा रही है, जेडीयू की ओर से ऐसा सुना जा रहा है। मतलब कहने का ये है कि राजपूतों के 5 फीसदी वोट को लेकर विकास पुरुष चिंतित तो हैं ही। वैसे भी उनके पास इस वक्त राजपूतों का कोई बड़ा नाम उनके साथ नहीं है। पूर्व विदेश राज्य मंत्री हरिकिशोर सिंह को खोज खाजकर नीतीश बाहर निकाल तो लाएं हैं.. लेकिन अब हरिकिशोर सिंह बहुत पुराने नेता हो गये। राजपूत वोटरों पर डोरा डालने के लिए ही पार्टी की बैठकों में इन दिनों पहली पंक्ति में उनको जगह दी जा रही है। राजगीर सम्मेलन जो 17-18 अगस्त के आसपास हुआ था उसमें देख लीजिए। मैनेज करने के लिए इनको योजना आयोग का बिहार में उपाध्यक्ष बनाया गया है। एक पीढ़ी को हरिकिशोर सिंह का नाम याद नहीं होगा, दूसरी पीढ़ी चेहरा देखने के बाद नाम पूछेगी.. इनको पहचानते हैं क्या नाम हैं इनका... टाइप से.... । और सांसद सुशील कुमार, मीना सिंह टाइप सांसद राजपूत के नाम पर नहीं वोट बैंक के नाम पर सांसद हैं। आरजेडी छोड़ जेडीयू में आए विजय कृष्ण जेल में ही हैं। लालू के पास चार सांसद हैं। चार में से तीन राजपूत हैं। रघुवंश सिंह पुराने सांसद हैं। वैशाली, मुजफ्फरपुर, मोतिहारी के राजपूतों में इनका प्रभाव है। आरा, बक्सर के राजपूतों में जगतानंद सिंह का प्रभाव है। उधर छपरा सीवान में उमाशंकर सिंह पहले से थे अब तो प्रभुनाथ सिंह भी साथ हो लिए हैं लालू के। बीजेपी के पास राजपूत के नाम पर मोतिहारी के सांसद राधामोहन सिंह(पूर्व अध्यक्ष), उदय सिंह उर्फ पप्पू सिंह, राजीव प्रताप रूडी हैं ये लोग भी प्रभावी नेता हैं । कांग्रेस में तो मान लीजिए आनंद मोहन जेल में हैं, तो लवली है। निखिल कुमार की पत्नी श्यामा सिंह हैं। लोजपा में हरसिद्धि वाले महेश्वर सिंह हैं लेकिन उनका सीट सुरक्षित हो गया है केसरिया से लड़ने की तैयारी में हैं। लेकिन तालमेल वाला कंट्रोवर्सी कहीं समीकरण का माचो न कर दे। कुल मिलाकर साफ मामला ये है कि राजपूत वोटों के लिए चिंतित हर पार्टी है। बिहार में 5 फीसदी वोट लेकिन दबंग वोट। वैसे इतिहास देख लीजिए राजपूतों के वोट का बड़ा हिस्सा 2005 के चुनाव से पहले तक लालू को मिलता रहा। 2005 में लालू विरोधी लहर में एग्रेसिव होकर नीतीश को साथ दिया था लोगों ने।
वैसे राजनीतिक जानकार कहते हैं कि राजपूत वोटर पार्टी को नहीं जाति के उम्मीदवार को प्राथमिकता देते हैं.. चाहे पार्टी कोई हो। सच्चाई भी है इसमें। लेकिन प्रचार और हवा बनाने के लिए बड़ा नाम तो चाहिए ही नहीं तो विरोधियों को कहने के लिए हो जाता है कि ये पार्टी में फलनवां जाति के कोई नेता न हई, बाहरो से कोई प्रचारे करे न अलई...

1 comment:

ओशो रजनीश said...

बढ़िया प्रस्तुति .... आभार

हिंदी दिवस की शुभ कामनाएं

एक बार पढ़कर अपनी राय दे :-
(आप कभी सोचा है कि यंत्र क्या होता है ..... ?)
http://oshotheone.blogspot.com/2010/09/blog-post_13.html