Tuesday, April 6, 2010

फिर टूटेगा जनता दल!

समाजवादी जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी, लोकदल, राष्ट्रीय लोकदल, समता पार्टी, आरजेडी, एलजेपी, जेडीयू, जेडीएस और न जाने क्या.. क्या.. आज की पीढ़ी को याद भी नहीं... पुराने लोग भी भूल गये...इन दलों के नेता कभी एक दल में हुआ करते थे... और वो था जनता दल। जनता दल की चर्चा जनता पार्टी के बगैर नहीं हो सकती। जेपी के मार्गदर्शन में जनता पार्टी को 77 में पहली बार कांग्रेस राज खत्म करने का अवसर मिला। जनता पार्टी के नेतृत्व में साझा सरकार भी बनी लेकिन ढाई साल बाद सरकार जाती रही। कांग्रेस का राज आया। इधर जनता पार्टी और सहयोगियों के बीच मनमुटाव बढ़ने लगा था। इसके बाद बहुत कोशिश हुई परिस्थितियां ऐसी बनती चली गई कि चाह के भी जनता परिवार देश में कोई माहौल नहीं बना सका। मौका मिला 1989 में एक बार फिर जनता दल और बीजेपी(जनसंघ बदल चुका था 80 में)ने मिलकर चुनाव लड़ा और दोनों को फायदा हुआ। देश ने वी पी सिंह को सत्ता सौंप दी। कांग्रेस की सियासत से समाजवादियों की धारा में शामिल होने वाले वीपी सिंह इंदिरा गांधी के बेहद करीबी हुआ करते थे। चंद्रशेखर उनसे सीनियर थे। वी पी सिंह को लोग राजा साहब के नाम से पुकारते थे। इंदिरा गांधी ने ही पहली बार इन्हें अपनी कैबिनेट में जगह दी। आपातकाल के दौरान जब जगजीवन राम, हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे वरिष्ठ कांग्रेस नेता गांधी का साथ छोड़कर चले गए थे तब उस समय वी पी सिंह इंदिरा गांधी के साथ डटकर खड़े रहे। इसका फायदा भी मिला। इंदिरा जब सत्ता में लौटी तो वीपी सिंह यूपी के सीएम बने। एक दुखद घटना हुई वीपी सिंह के कार्यकाल में ही उनके भाई जो कि जज थे डाकुओं ने हत्या कर दी। कानून व्यवस्थी की जिम्मेदारी लेकर वीपी सिंह ने इस्तीफा दे दिया. बाद में फिर दिल्ली की राजनीति में पहुंचे। इंदिरा जी की हत्या के बाद राजीव गांधी कैबिनेट में पहले वित्त मंत्री बने, बाद में राजीव गांधी ने वित्त मंत्री का पद ले लिया और रक्षा मंत्री बना दिया। इसी वक्त बोफोर्स घोटाला उजागर हुआ और वीपी सिंह ने मंत्री, सांसद और कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। राजीव गांधी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाने में उस समय वीपी सिंह का साथ दिया मुफ्ती मोहम्मद सईद, अरुण नेहरु व आरिंफ मोहम्मद खान जैसे बड़े कांग्रेसियों ने। इन लोगों के साथ मिलकर 1988 में वीपी सिंह ने जनमोर्चा का गठन किया।

देश की राजनीति के लिए 1988 का साल एक ऐतिहासिक साल था। इस वक्त चंद्रशेखर जनता पार्टी का नेतृत्व कर रहे थे।
चंद्रशेखर भी कांग्रेस की राजनीति करके लौटे थे। चंद्रशेखर के बारे में कहा जाता है कि प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की सियासत करने के बाद जब चंद्रशेखर कांग्रेस में आए और पहली बार इनका इंदिरा गांधी से सामना हुआ तो बड़ा ही दिलचस्प नजारा था। उस वक्त इंदिरा गांधी से सवाल-जवाब करने की कोई हिम्मत क्या कल्पना भी नहीं कर सकता था। लेकिन चंद्रशेखर कांग्रेस को समाजवादी विचारधारा से जोड़ने की मुहिम में लगे थे। इंदिरा जी ने पूछा चंद्रशेखर अगर कांग्रेस का समाजवादीकरण नहीं हुआ तो क्या करोगे.... चंद्रशेखर जी ने बेबाक तरीके से जवाब दिया पार्टी को तोड़ने की कोशिश करूंगा। सवाल पूछा क्यूं... चंद्रशेखर जी ने उत्तर दिया कि कांग्रेस आज की तारीख में ऐसा बरगद बन गया है जिसके नीचे कोई पौधा उग नहीं पा रहा.. लिहाजा इसकी टहनियों को काटने की जरूरत पड़ेगी। सोचिये. चंद्रशेखर की हिम्मत। यही बेबाक अंदाज था कि कांग्रेस में चंद्रशेखर को युवा तुर्क के नाम से जाना जाने लगा। लेकिन उनका यहां मन कहां लगने वाला था। जेपी और इंदिरा की राजनीति में चुनने की बारी आई तो चंद्रशेखर ने जेपी का साथ दिया। नतीजा हुआ जेल गये। 77 में सरकार बनी तो मंत्री पद का ऑफर मिला जिसे ठुकरा दिया इसलिए कि मोरारजी देसाई से इनके विचार मेल नहीं खाते थे। बाद में परिस्थितियां बदली और जनता पार्टी के मुखिया बने। पार्टी को सजाने संवारने का काम शुरू किया। देश भर में पैदल यात्रा शुरू की। समापन समारोह के दिन रामलीला मैदान में अब तक कगी सबसे बड़ी रैली हुई। कहा जाता है कि चंद्रशेखर इस रैली का फायदा नहीं उठा पाया। ये वक्त था 86-87 का।

( 1987 की एक घटना का जिक्र करते चलूं , ये वो दौर था जब राजीव गांधी और वीपी सिंह में मतभेद बढ़ चुके थे। वित्त मंत्री रहते अंबानी परिवार और अमिताभ के खिलाफ आयकर के छापे मारे जा चुके थे। वीपी सिंह से वित्त मंत्रालय ले लिया गया था। अब वो रक्षा मंत्री थे। भ्रष्ट्राचार के खिलाफ मुहिंम शुरू हो चुकी थी। चंद्रशेखर जी जैसे अनुभवी नेता ने वीपी सिंह की प्रतिभा को भांप लिया था। अपने एक करीबी से उन्होंने कहा था कि इसी के आसपास आने वाले दिनों में देश की राजनीति घूमने वाली है।चंद्रशेखर जी ने वीपी सिंह को संदेशा भिजवाया.. वीपी सिंह को जैसे ही ये बात बताई गई। वो मारुति कार में बैठकर हरियाणा के सोहाना पहुंचे, जहां चंद्रशेखर जी का भारत यात्रा केंद्र चल रहा था। दोनों एक दूसरे के गले मिले और करीब दो घंटे तक बातचीत हुई, देश की स्थिति और परिस्थिति के बारे में। वीपी सिंह के बड़े भाई चंद्रशेखर मित्र थे, इसलिए वीपी सिंह को वो छोटे भाई की तरह समझते थे)


11 अक्टूबर 1988 की वो तारीख थी। कांग्रेस से नाराज नेताओं ने जो कि समाजवादी सियासत की उपज थे और समाजवादी सोच से वास्ता रखते थे। जनता पार्टी, जनमोर्चा, लोकदल (अजीत सिंह)का विलय हुआ। और फिर बना जनता दल। वीपी सिंह अध्यक्ष बने। इतनी बड़ी पार्टी और इतने बड़े बड़े लोग थे की 150 सदस्यों की कार्यकारिणी बनाई गई। 1977 की जनता पार्टी और 1988 के जनता दल में बड़ा फर्क आ चुका था। और वो फर्क था पीढ़ी का। नेतृ्त बुजुर्ग के हाथ में नहीं रह गया था। सोच की दिशा बदल चुकी थी। जेपी से शिष्य भरे-पड़े थे। एक बार फिर से संपूर्ण क्रांति के नारे को सतह पर लाने की कोशिश शुरू हुई। चुनाव का वक्त आया। 1989 में जनता दल के टिकट पर दिग्गज लोग मैदान में उतरे। बीजेपी के साथ लड़ने का फायदा दोनों को हुआ। लेकिन समाजवादियों के बारे में जो कहावत है उसे गलत साबित करने का माद्दा किसी में नहीं था। वीपी सिंह को संसदीय दल का नेता बनने में पापड़ बेलने पड़े। चंद्रशेखर खुद दावेदार थे। लेकिन देवीलाल को आगे कर वीपी सिंह ने चाल चली। देवीलाल को संसदीय दल के नेता का प्रस्ताव खुद वीपी सिंह ने रखा। लेकिन देवीलाल ने पलटी मार दी और वीपी सिंह का नाम प्रस्तावित कर दिया। नाराज होकर चंद्रशेखर बैठक से चले गये। नतीजा हुआ कि सरकार ज्यादा दिन तक नहीं चली। बीजेपी के सहयोग से राष्टीय मोर्चे की सरकार में वीपी सिंह पीएम बने थे। लेकिन आडवाणी गिरफ्तारी प्रकरण ने बीजेपी को नाराज कर दिया। इसी दौरान देवीलाल से भी सरकार के अच्छे संबंध नहीं रहे। वीपी सिंह के बाद जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने एसआर बोम्मई ने देवीलाल को 1 अगस्त 1990 को जनता दल से निकाल दिया। चंद दिनों बाद सरकार ही गिर गई। 1990 के अंत में चंद्रशेखर और देवीलाल 54 सांसदों के साथ जनता दल से अलग हो गये। 5 नवंबर 1990 को नई पार्टी बनी समाजवादी जनता पार्टी। (देवेगौड़ा भी सजपा में आए थे)कांग्रेस की मदद से चंद्रशेखर देश के पीएम बने और देवीलाल डिप्टी पीएम। लेकिन चालीस सला बनाम चार महीने वाला नारा यहां मुसीबत का कारण बन गया। कांग्रेस ने कहा कि राजीव गांधी के पीछे सरकार जासूस लगा रही है। क्या था, समर्थन वापस और सरकार साफ।
4 अक्टूबर 1992 को चंद्रशेखर की पार्टी में भी सेंध लग गई। उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता और तब के जमाने में धरतीपुत्र के नाम से मशहूर मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी के नाम से अपनी अलग पार्टी बना ली।
21 जून 1994 को फिर एक बार जनता दल में विभाजन हुआ। पार्टी के 14 सांसद जॉर्ज फर्नांडींस के नेतृत्व में जनता दल से अलग हो गये। नाम पड़ा जनता दल (ज),31 अक्टूबर 1994 को जनता दल (ज) का नाम समता पार्टी रख दिया गया।

इस बीच पार्टी को एक बार फिर सत्ता में आने का मौका मिला। कांग्रेस के सहयोग से 1996 में पहले देवेगौंड़ा और फिर गुजराल देश के पीएम बने। पार्टी के नेता वीपी सिंह के पास पीएम बनने का प्रस्ताव ले के गये थे.. लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। कहा जाता है कि वीपी सिंह के घर पार्टी के नेता मिलने पहुंचे थे और सिंह उस दिन दिन भर कार में बैठ कर रिंग रोड पर घूमते रहे। वीपी सिंह के कहने पर ही देवेगौड़ा को पीएम बनाया गया।
(जबकि उस समय भी शरद यादव, लालू यादव और मुलायम सिंह उसी जनता परिवार के देवेगौड़ा और गुजराल से कहीं ज्यादा कद्दावर नेता थे। लेकिन उनके आपसी अहं के टकराव ने एक बार फिर जनता सरकार अपनी मियाद पूरी किए बिना सिधार गई। )

सत्ता में रहते ही 5 जुलाई 1997 को जनता दल में एक और विभाजन हुआ, 3 जुलाई 97 को हुए अध्यक्ष के चुनाव को लेकर लालू यादव खेमा नाराज हो गया, और 5 जुलाई में लालू की अध्यक्षता में आरजेडी अस्तित्व में आया।

1997 में बीजेपी से तालमेल को लेकर पार्टी उड़ीसा में भी टूट गई। उड़ीसा के नेता बीजेपी से तालमेल के पक्ष में थे, लेकिन शरद यादव खेमा राजी नहीं था. नतीजा बीजू जनता दल अस्तित्व में आया और उड़ीसा से पार्टी खत्म हो गई।
1997 में ही कर्नाटक में भी पार्टी को झटका लगा। पार्टी के सबसे पुराने नेताओं में से एक रामकृष्ण हेगडे ने लोक शक्ति के नाम से नई पार्टी बना ली। 1998 में लोक शक्ति ने बीजेपी से मिलकर लोकसभा का चुनाव लड़ा।
पार्टी को सबसे बड़ा घाटा हुआ 1999 में। जब बीजेपी से तालमेल को लेकर पार्टी दो खेमे में बंट गया। नतीजा हुआ कि बीजेपी के साथ नहीं जाने वाले नेताओं ने देवगौड़ा के साथ मिलकर जनता दल सेक्यूलर नाम से नई पार्टी बना ली। हालांकि विभाजन के बाद देवगौड़ा असली जनता दल का दावा करते रहे। मामला चुनाव आयोग में गया और फिर आयोग ने चुनाव चिन्ह चक्र को जब्त कर लिया। इसी विवाद के साथ जनता दल का अंत हो गया। न नाम रहा और न पार्टी। शरद यादव की पार्टी का नाम जनता दल यूनाइटेड पड़ा और देवगौड़ा की पार्टी का जनता दल सेक्यूलर।

1999 में जनता दल यू और समता पार्टी का विलय हो गया। दोनों दल के नेताओं ने तीर चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ा। लेकिन नतीजों के बाद एकता नहीं रही। अध्यक्ष के सवाल पर पार्टी फिर से जनता दल यू और समता पार्टी में बंट गई।
हालांकि वाजपेयी सरकार में दोनों दलों के नेता मंत्री बने रहे। 2000 के बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए में बीजेपी, समता पार्टी, जेडीयू और बीपीपा नाम के चार दल थे। चुनाव नतीजों के बाद नीतीश कुमार 7 दिनों के लिए सीएम बने। लेकिन मामला जमा नहीं। इसी साल जनता दल यू में एक और विभाजन हो गया। राम विलास पासवान चार सांसदों के साथ अलग हो गये। नई पार्टी बनी लोक जनशक्ति पार्टी।
2004 के चुनाव से पहले एक बार फिर जनता दल यू और समता पार्टी का विलय हो गया। जॉर्ज अध्यक्ष बने। शरद संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष, पार्टी का झंडा समता पार्टी के रंग का। लेकिन निशान जेडीयू का तीर। 2004 में लोकसभा चुनाव साथ लड़ा गया। नवंबर 2005 में पार्टी बिहार में सत्ता में आ गई। इस बीच जॉर्ज को साइड लाइन किया जाने लगा। अध्यक्ष पद के चुनाव में शरद यादव ने जॉर्ज को हरा दिया। जॉर्ज दरकिनार हो गये। 2009 के लोकसभा चुनाव में जॉर्ज को टिकट तक नहीं दिया गया। पार्टी संगठन पर शरद यादव की पकड़ मजबूत होती चली गई, नीतीश सरकार में मशरूफ रहे. संगठन का फायदा
शरद यादव को हुआ 2009 के संसदीय चुनाव में शरद यादव ने अपने समर्थकों को टिकट दिया और वो जीतकर आए। 22 सांसदों वाली इस पार्टी में 15-16 सांसद शरद यादव खेमे के हैं।
लेकिन अहं का टकराव एक बार फिर शुरू हो चुका है। महिला आरक्षण विधेयक का मतभेद तो लोगों ने देख लिया। ललन सिंह जो कभी नीतीश की परछाई माने जाते थे. नीतीश के खिलाफ बोल रहे हैं। नए चेहरे (विजय चौधरी) को नीतीश के कहने पर बिहार का अध्यक्ष बनाया गया है। ललन सिंह, प्रभुनाथ सिंह खुलकर खिलाफ में हैं। पार्टी के सांसद जगदीश शर्मा, पूर्णमासी राम पहले से निलंबित चल रहे हैं। उपेंद्र कुशवाहा की वापसी, लालू के पुराने दरबारियों की नीतीश के दरबार में बढती इज्जत से पार्टी का एक बड़ा तबका नाराज है। अभी तो कोई बोल नहीं रहा लेकिन कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर दो-तीन महीने बाद लोग जोर जोर से बोलने लगे। पार्टी के भीतर के लक्षणों को देखे तो नीतीश की कार्यशैली से कार्यकर्ता खुश नहीं हैं। उसमें भी टिकट को लेकर खेल तो शुरू हो गया है। नीतीश और शरद यादव के बीच अब सीधी लड़ाई होने वाली है। वैसे समाजवादियों के चरित्र और इतिहास को देखे तो बंटवारा हमेशा अहं को लेकर हुआ है.... और संगठन पर कब्जा इसकी एक बड़ी वजह है।

कभी बिहार, यूपी, कर्नाटक, उड़ीसा, गुजरात, हरियाणा जैसे प्रदेशों में सबसे ताकतवर रही इस पार्टी का बंटवारे के बाद क्या हाल है देख लीजिए। आने वाले दिनों में अगर अपने अहं को छोड़कर ये पुराने समाजवादी एक झेडे और एक निशान के साथ आ जाए तो देश की राजनीति की दिशा क्या होगी आकलन लगाने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए।

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