Monday, August 9, 2010

बिहार में सियासी पारी के 10 साल

1994 में कॉलेज में आ गया था। 1995 में बिहार में विधानसभा के चुनाव होने थे। जनवरी का महीना था। मुजफ्फरपुर में उस वक्त मैं सतपुरा में रहता था। पास में ही आनंद मोहन का कार्यक्रम चल रहा था। शाम के वक्त टहलते फिरते वहां पहुंच गया। किसी से कोई जान पहचान नहीं थी, गायघाट से आनंद मोहन नामांकन भरके लौटे थे। कुछ लोगों ने उन्हें शिवहर से चुनाव लड़ने को कहा। उन लोगों में मैं भी शामिल था। आनंद मोहन राजी हो गये और शिवहर से नामांकन भरने की हामी भर दी। उसी समय मेरा राजनीति से रिश्ता जुड़ गया। धीरे-धीरे मैं राजनीति के करीब होता चला गया। प्लेटफॉर्म की तलाश हो रही थी। आनंद मोहन चुनाव हार गये सो संपर्क गहरा नहीं हो पाया। अब सतपुरा से मैं दामूचक में रहने आ गया था। जिस घर में रहता था उसी के बगल के घर में आलोक भारती रहते थे। आलोक भैया उस समय समता पार्टी की छात्र इकाई के विश्वविद्यालय संयोजक थे। कैंपस में उनकी चलती थी। नेता से लेकर अपराधी और ठेकेदार सब उनके संपर्क में थे। विश्वविद्यालय कैंपस में उनका राज था। नवंबर दिसंबर 1995 का महीना था। विश्विद्यालय में छात्र समता का प्रांतीय सम्मेलन था, प्रदेश अध्यक्ष राघवेन्द्र सिंह तैयारियों का जायजा ले रहे थे, पहली बार मैं किसी पार्टी की बैठक में शामिल हो रहा था। परिचय का दौर चला तो मैंने अपना नाम मनोज कुमार मुक्ला बताया। (बाद में मैं राजनीति में इसी नाम से मशहूर हो गया।) टाइटल सुनने के बाद लोगों को आश्चर्य हुआ। खैर उसके बाद राज्यस्तरीय सम्मेलन खत्म हुआ। आलोक भारती अध्यक्ष हो गए। मैं उनकी कमेटी में कोषाध्यक्ष बना। (मेरे पास कोई कोष नहीं था)। राजनीति में सक्रिय होने का एक तमगा मिल गया था। धीरे धीरे राजनीति से रिश्ता गहरा होता गया। पढ़ाई-लिखाई से संपर्क कम होता चला गया। लेकिन छूटा नहीं था।
1996 में लोकसभा का चुनाव हुआ। जॉर्ज को चुनाव लड़ना था, लेकिन जॉर्ज को नीतीश मुजफ्फरपुर से नालंदा ले गए। मुजफ्फरपुर नेतृत्वविहीन हो गया था। जॉर्ज को मनाने के लिए पार्टी के नेता, कार्यकर्ता पटना गए। मैं पहली बार बस की छत पर बैठकर पटना गया था। शकुनी चौधरी के घर पर जॉर्ज को आना था। उस दिन नालंदा से नामांकन भरके वो लौटे थे। रात में शकुनी चौधरी के घर पर हमलोगों ने खूब हंगामा किया। एक सज्जन ने मुझे पेट्रोल का गैलन पकड़ा दिया।( तय ये हुआ था कि जॉर्ज मुजफ्फरपुर से लड़ने को राजी नहीं होंगे तो हमलोग विद्रोह करके पार्टी दफ्तर फूंक देंगे)हालांकि राजनीति में इतना कच्चा था कि पेट्रोल का गैलन थाम लिया.. थोड़ी देर बाद एहसास हुआ कि ये मैं क्या कर रहा हूं.. तो एक जगह मौके देखकर रोड पर ही गैलन छोड़ दिया। खैर....जॉर्ज तैयार नहीं हुए... कहा मुजफ्फरपुर अपना नेता चुन लें। बाद में हरेंद्र जी को टिकट मिला। हरेंद्र जी को हमलोग सर कहके बुलाते थे। हमलोग(नौजवानों की टोली) मुजफ्फरपुर की राजनीति में हरेंद्र जी
के लोग कहलाते थे। हरेंद्र जी मुजफ्फरपुर से और आनंद मोहन(जेल से) शिवहर से लोकसभा चुनाव लड़े। हरेंद्र जी हार गए। आनंद मोहन की जीत हुई। तब तक मुजफ्फरपुर की राजनीति में नेता, कार्यकर्ता, मीडिया की बीच पहचान बनने लगी थी...
आनंद मोहन से जेल में मुलाकात हुई और फिर संपर्क बहाल हुआ। तब तक मैं विश्वविद्यालय की राजनीति का फायदा उठाते हुए शिवहर जिला छात्र समता का स्वयंभू अध्यक्ष बन गया था। प्रदेश कमेटी ने मंजूरी भी दे दी। लेकिन आनंद मोहन ने भूमिहार कैसे अध्यक्ष हो सकता है शिवहर जिले का मेरा मनोनयन रद्द करवा दिया। इस वक्त मुझे राजनीति में जाति की अहमियत का एहसास हुआ। खैर कुछ दिन तक मामला चलता था। मैंने खुद को मुजफ्फरपुर की राजनीति पर केंद्रित कर दिया।
तब तक 1998 का चुनाव आ गया। हरेंद्र जी को इस बार डायरेक्ट उम्मीदवारी मिली। हमलोगों ने पूरी ताकत लगा दी। लेकिन परिणाम पक्ष में नहीं रहा। तब तक आनंद मोहन समता पार्टी से बाहर हो गये थे। आलोक भारती छात्र राजनीति से अलग हो गए। ठाकुर आलोक अब अध्यक्ष बनाये गए। ठाकुर आलोक की कमेटी में मैं प्रवक्ता बना। मीडिया के लोगों से रिश्ते बेहतर हुए।
ठाकुर आलोक ने संगठन की पूरी जिम्मेदारी मुझे सौंप दी थी। उनके हिस्से का सारा काम मैं देखने लगा था। अब मैं संगठन का उपाध्यक्ष हो गया। तब तक एक बार फिर से चुनाव की घोषणा हो गई। 1999 के लोकसभा चुनाव में हरेंद्र जी को टिकट नहीं मिला। इस वक्त समता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड का विलय हो गया था। हम लोग बिना पद के हो गये थे। कैप्टन निषाद को टिकट मिला और वो जीत गए। इस समय हमलोगों ने एक निर्दलीय उम्मीदवार का साथ दिया था। चुनाव बाद फिर जनता दल यूनाईटेड और समता पार्टी का बंटवारा हो गया। हमलोग समता पार्टी के साथ में ही थे। 2000 में बिहार विधानसभा का चुनाव होने वाला था। संगठन ने मुझे पहले कार्यकारी अध्यक्ष बनाया और एक महीने बाद विश्वविद्यालय अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंप दी। पांच साल में कोषाध्यक्ष से अध्यक्ष तक की कुर्सी तक पहुंचने में बड़ा कठिन संघर्ष करना पड़ा। तब तक पढ़ाई लिखाई भी हो रही थी। कांटी से हरेंद्र जी को विधानसभा का टिकट मिला लेकिन फिर से हमलोग हार गए। संगठन को मजबूत करने का कार्यक्रम चलता रहा। नए-नए साथी जुड़ते रहे। बहुत लोगों को सक्रिय राजनीति से जोड़ा। विश्वविद्यालय के साथ ही जिले की राजनीति में भी दिलचस्पी बढ़ती गई। चूंकी जिले के सबसे बड़े नेता का करीबी था सो जिम्मेदारी ज्यादा मिलने लगी थी। धीरे धीरे राजनीति का दायरा फैलने लगा। इस बीच कई साथी राजनीति और अपराध के गठजोड़ का शिकार हो गए। संघर्ष का दौर चलता रहा। इसी दौरान पटना में एक बड़ा कार्यक्रम था। तब भूमिपाल (विधान पार्षद है अभी) अध्यक्ष हुआ करते थे हमारे संगठन के। मेरा एक सहयोगी था.. उसने कुछ घालमेल कर दिया। उसकी महत्वकांक्षाएं हिलोरी मार रही थी। पटना वाला कार्यक्रम संपन्न हो गया। लेकिन छात्र राजनीति से मेरी दिलचस्पी कम होने लगी। एक दिन मैंने बिना किसी को बताए अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।( हमारे संगठन में तब अध्यक्ष के लिए मारपीट और ताकत का प्रदर्शन होता था) अखबारों में खबर नहीं छपी। क्योंकि इस्तीफा मैंने गोपनीय तरीके से दिया था। एक महीने बाद फिर संगठन में वही शख्स मेरा उत्तराधिकारी बना, जिसने घालमेल किया था। मैंने छात्र राजनीति से खुद को अलग कर लिया। इस दौरान मैं यूथ विंग की राजनीति में सक्रिय हो गया। हरिओम कुशवाहा उस वक्त मुजफ्फरपुर के अध्यक्ष थे। उनकी कमेटी में मैं प्रधान महासतचिव बना। जो की अध्यक्ष के बाद सबसे ताकतवर पद होता है। जिले की राजनीति में दखल बढ़ती गई। बड़े बड़े कार्यक्रम होने लगे। उस वक्त भगवान सिंह कुशवाहा बिहार युवा समता के अध्यक्ष थे।(अभी ग्रामीण विकास मंत्री हैं) भगवान सिंह से भी ट्यूनिंग ठीक हो गई। सीढ़ी दर सीढी चढ़ते चढ़ते यहां तक पहुंचा.. इस बीच कई लोगों की आंखों की किरकिरी भी बन गया था। अखबारों में विवादित खबरें छपने लगी। मुझे घरवालों ने दिल्ली भेज दिया पढ़ने के लिए, साल 2002 था। एक महीना रहने के बाद फिर मैं चला गया। छे महीने बाद फिर आया। मई 2003 में। 4 महीने रहने के बाद फिर लौट गया। इस बीच मैंने दिल्ली में बिहारी छात्रों का एक संगठन बनाया। बिहारी छात्र युवा संघर्ष मोर्चा। दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव में एबीवीपी के उम्मीदवार अनुभव सप्रा(उपाध्य़क्ष) को समर्थन दिया। हालांकि सप्रा की हार हुई, लेकिन मेरी और संगठन की पहचान कैंपस में स्थापित हो गई। उस साल रोहित शर्मा अध्यक्ष बना था और नरेंद्र टोकस उपाध्यक्ष। रागिनी सचिव बनीं थी। सिर्फ उपाध्यक्ष के लिए मेरे संगठन ने वोट मांगे थे। बाकी पदों के लिए टोकस और रागिनी को समर्थन दिया था।
इसी बीच असम में बिहारी छात्रों पर हमला हुआ था। मैं मुजफ्फरपुर गया और पप्पू यादव के संगठन के साथ मिलकर बिहार बंद का एलान किया। एक बार फिर से नए मंच के साथ बिहार की राजनीति में वापसी हो गई थी। तब तक कुछ दिनों बाद लोकसभा का चुनाव होने वाला था 2004 का। मैं अपने संगठन के साथ जनता दल यूनाईटेड में शामिल हो गया। इस बार गणेश भारती (अभी एमएलसी )को पार्टी ने मुजफ्फरपुर जिला पार्टी का अध्यक्ष बनाया। गणेश भारती की कमेटी में मुझे महासचिव बनाया गया। मतलब पार्टी की जिला स्तर की सबसे बड़ी इकाई में महासचिव का पद दिया गया। हालांकि गणेश भारती पहले हमलोगों के खेमे में ही थे... नीतीश कुमार के करीबी हैं गणेश भारती कुछ स्थनीय राजनीति को लेकर हमलोग उनके साथ नहीं थे। विवाद हुआ मैंने इस्तीफा दिया। बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके। हमारे खेमे की यही मंशा थी। तब तक चुनाव में टिकट बंटवारे का मसला सामने आया। नीतीश नालंदा से लड़ना चाहते थे। बाढ़ से उन्हें हारने का डर था। बाद में हुआ भी ऐसा ही। नीतीश नालंदा से लड़े, जॉर्ज मुजफ्फरपुर से।(नीतीश बाढ़ से हार गए)। जॉर्ज मुजफ्फरपुर से लड़ने आए तो
हरेंद्र जी को वैशाली से टिकट दे दिया।(2004 के चुनाव से पहले फिर समता पार्टी और जेडीयू का विलय हो गया था) नीतीश, शरद यादव, पासवान राजी नहीं थे। हरेंद्र जी के प्रचार में कोई नेता नहीं गया। चुनाव हरेंद्र जी हार गए। मैं अभी मुजफ्फरपुर में ही था। संगठन के फेरबदल में चंद्रभूषण राय बिहार छात्र जेडीयू के अध्यक्ष बने और मुझे उन्होंने अपनी कमेटी में तिरहुत प्रमंडल से इकलौता महासचिव बनाया। पद बड़ा था, जिम्मेदारी ज्यादा दी गई। लेकिन मैं कमेटी की पहली बैठक में जा पाता उससे पहले ही मैं इस लाइन में आ गया। लेकिन यहां आने के बाद भी राजनीति का सिलसिला थमा नहीं। अब जेडीयू की राजनीति दिल्ली से होने लगी। मुजफ्फरपुर की छात्र राजनीति में मैंने जो जगह खाली की थी उसकी जगह मैंने अपने करीबियों को स्थापित करवाया। और दिल्ली से संगठन को कंट्रोल करने लगा। मुजफ्फरपुर के अखबारों में ये बात छपने लगी कि उत्तर बिहार की छात्र राजनीति इन दिनों जेएनयू कैंपस से डील हो रही है। साल-डेढ़ साल ये डीलिंग जारी रही। दिल्ली से मैं मुंबई चला गया.. लेकिन राजनीति का सिलसिला जारी रहा। बिहार में सरकार बन चुकी थी... लोग कुर्सी हथियाने में लगे थे। सत्ताधारी दल के संगठन में पद के लिए लोग खून के प्यासे हो जाते हैं। लेकिन मुंबई से ही मैंने अपने संबंधों और प्रभाव का इस्तेमाल कर अपने करीबियों को एक बार फिर संगठन में अच्छे ओहदे पर स्थापित किया। लेकिन दिन, महीने गुजरते गए..मैंने दिलचस्पी कम कर दी... नतीजा हुआ मेरे कई साथी अकेले हो गए तो कई मंत्री, विधायक और सांसद तक। पढ़कर आश्चर्य मत कीजिएगा। लेकिन कुछ गायब भी हो गए... इनमें से आज कौन कहां है... पता भी नहीं चलता। कई लोगों का तो फोन नंबर तक नहीं है। बात कहां से होगी और मुलाकात की बात छोड़ दीजिए। जिनका नाम है वो बड़े आदमी हो गए...सोचता हूं मैं भी एक बार फिर से शुरू कर दूं क्या????? लेकिन डर है कि शुरू से न शुरू करना पड़ा।

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