Monday, August 28, 2017

बिहार के लिए नीतीश-मोदी दोनों को एक दूसरे की जरूरत थी

बिहार ही नहीं देश की राजनीति में 26 जुलाई की तारीख को कोई भूल नहीं सकता। शाम करीब साढ़े छह बजे का वक्त था पटना में दो दिन बाद यानी 28 जुलाई से होने वाले विधानसभा सत्र से पहले नीतीश ने अपने घर विधायकों की बैठक बुलाई थी। बैठक चल ही रही थी तभी खबर आ गई कि नीतीश कुमार राजभवन जाकर इस्तीफा देंगे।
इससे पहले तक ये चर्चा थी कि नीतीश कुमार लालू के बेटे और डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव को बर्खास्त कर सकते हैं। लेकिन बैठक के अंदर से खबर ठीक उलट सामने आ गई। नीतीश कुमार शाम को छह बजकर पैतीस मिनट के आसपास राजभवन पहुंचे और प्रभारी राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी को इस्तीफा सौंप दिया। इस्तीफा देने के बाद करीब 6 बजकर 55 मिनट के आसपास नीतीश बाहर आए और मीडिया को बता दिया कि उन्होंने इस्तीफा दे दिया है। नीतीश ने अंतरात्मा की आवाज सुनने की बात कही और बताया कि अब काम करना मुश्किल हो गया था।

इतिहास के पन्नों से बिहार की राजनीति
नीतीश की ये दोस्ती लालू के साथ 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद हुई थी। थोड़ा पीछे आपको ले चलें तो लालू जब बिहार की राजनीति में पूरे शबाब पर थे तब नीतीश कुमार ने उनका साथ छोड़ा था। उस वक्त लालू सीएम थे और जॉर्ज फर्नांडीस के नेतृत्व में जनता दल के चौदह सांसदों ने पार्टी छोड़ी थी। नीतीश भी उनमें से एक थे। इसके बाद साल 1995 के विधानसभा चुनाव में नीतीश अपने दम पर विधानसभा चुनाव लड़े लेकिन उनकी समता पार्टी कोई कमाल नहीं कर सकी। 1996 में बीजेपी से समझौता हुआ और नीतीश का राजनीतिक कद दिन दूना और रात चौगुना बढ़ता गया।
इससे बाद साल 1999 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले जनता दल में विभाजन हुआ वाजपेयी के साथ जाने को लेकर। देवगौड़ा ने जनता दल सेक्यूलर बना लिया और शऱद यादव की पार्टी का नाम हुआ जद यू। 1999 के लोकसभा चुनाव से पहले जॉर्ज की समता पार्टी और शरद यादव के नेतृत्व वाले जनता दल यू का विलय हुआ। लोकसभा चुनाव सबसे जदयू के टिकट पर लड़ा। लेकिन साल भर में ही तलाक हो गया और साल 2000 का विधानसभा चुनाव एनडीए के तहत लड़ा तो गया लेकिन तब जद यू और समता पार्टी अलग अलग थी। तब रामविलास पासवान जनता दल यू के स्टार थे। चुनाव हुआ पार्टी नहीं जीती लेकिन नीतीश सात दिन के लिए सीएम बने। इसके बाद 2005 के नवंबर वाले चुनाव में नीतीश और बीजेपी गठबंधन को बहुमत मिला और सरकार बनी। 2010 के चुनाव में प्रचंड जीत मिली। तब तक मोदी की थाली छीनने वाला एपिसोड हो चुका था। नीतीश और बीजेपी ने मिलकर 243 में से 206 सीटें जीत ली थी। लालू 22 पर आ गये थे।

2013 से 2015 तक का सफर 
2010 में बहुमत के साथ दूसरी बार बनी बीजेपी और जेडीयू की सरकार तीन साल चली और मई 2013 में नीतीश ने रास्ते अलग कर लिए। नीतीश ने मोदी के नाम पर 17 साल पुराना रिश्ता बीजेपी से तोड़ लिया। 2014 के चुनाव में नीतीश लेफ्ट के साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़े। लेकिन पार्टी को महज दो सीटें मिली।
2014 के चुनाव का आंकड़ा ये था कि 40 में से बीजेपी को 22, एलजेपी को 6 और आरएलएसपी को 3 सीटें मिली। 30 सीट पर बीजेपी लड़ी थी जबकि एलजेपी 7 सीटों पर, आरएलएसपी 3 पर लड़ी थी।
लालू, कांग्रेस और एनसीपी का समझौता था। लालू 27 पर लड़े, कांग्रेस 12 और एनसीपी 1 सीट पर। लालू को 4, कांग्रेस को 2 और एक सीट एनसीपी को मिली। ओवर ऑल ये रहा कि बीजेपी गठबंधन 31 सीटें जीती, लालू गठबंधन 7 और नीतीश को 2 सीटें मिली।
हार के बाद नीतीश ने इस्तीफा दे दिया और मांझी को सीएम बनाया>
इसके बाद 2014 के अगस्त महीने में विधानसभा के उपचुनाव हुए। लालू और नीतीश ने गठबंधन कर चुनाव लड़ा और बीस साल की दुश्मनी दोस्ती में बदल गई। इसके बाद मांझी के हटने के बाद लालू के बाहरी समर्थन से नीतीश की सरकार साल भर चली और 2015 के चुनाव में लालू, नीतीश कांग्रेस का गठबंधन हो गया। इस गठबंधन में न तो एसपी थी और एनसीपी। लालू, नीतीश, कांग्रेस में 101, 101 और 41 सीटों का बंटवारा हुआ ।  पार्टी जबरदस्त तरीके से जीती। लालू को 80, नीतीश को 71 और कांग्रेस को 27 सीटें मिली । इसमें नुकसान नीतीश को हुआ और सबसे ज्यादा फायदा लालू और कांग्रेस को।

26 जुलाई 2017 को कैसे बदली बिहार की राजनीति
 26 जुलाई 2017 को नीतीश ने इस जनमत के फैसले को खारिज करते हुए बीजेपी से हाथ मिला लिया और रातों रात नई सरकार का रास्ता साफ कर दिया। राजभवन से रात को निकलकर जब नीतीश अपने घर पहुंचे तो बीजेपी ने समर्थन की पेशकश कर दी और नीतीश ने उसे फौरन स्वीकार कर लिया। रात को ही 10 बजे के आसपास दोनों दलों के विधायकों की बैठक हुई और नीतीश को नया नेता चुना गया। रात के अंधेरे में ही नीतीश बीजेपी विधायकों के साथ सरकार बनाने का दावा पेश करने पहुंच गये।
नीतीश के 71 विधायक, एनडीए के 58 और तीन निर्दलीय विधायकों ने समर्थन किया। बहुमत के 122 से दस सीट ज्यादा लेकर नीतीश ने दावा पेश किया। पहले खबर आई कि शाम पांच बजे अगले दिन यानी 27 को शपथ ग्रहण होगा । पटना का राजनीतिक माहौल गर्म था। लालू चारा घोटाले की सुनवाई के लिए रांची गए तो तेजस्वी ने राज्यपाल से मिलने का समय मांग लिया। सुबह 11 बजे का समय मिला तो नीतीश ने शपथ ग्रहण का समय चेंज कर लिया और सुबह 10 बजे ही शपथ का समय फिक्स किया। रात को तेजस्वी मार्च करते राजभवन गए लेकिन तब राज्यपाल से मिल नहीं पाए।
अगले दिन सुबह 10 बजे राजभवन में नीतीश और सुशील मोदी का शपथ ग्रहण हुआ और सोलह घंटे पहले जो  लालू की पार्टी सत्ता में थी वो पैदल हो गई और पैदल पार्टी वाली बीजेपी सत्ता में आ गई

बिहार की राजनीति को जो लोग जानते हैं वो ये भी जानते हैं कि नीतीश के पास अपना वोट बैंक लालू या दूसरे नेताओं की तुलना में कम है। लेकिन ये बात भी है कि नीतीश के कद का कोई नेता नहीं है। लालू का सूरज बिहार में अस्त हो चुका था लेकिन उनके बेटों का भविष्य बनना था इसलिए शायद नीतीश और लालू की दोस्ती हुई। वोट के लिहाज से देखें तो नीतीश जिस कुर्मी जाति से हैं उसकी आबादी 5 फीसदी के आसपास है। नीतीश अति पिछड़े और पिछड़े मुस्लिमों के नेता माने जाते रहे हैं। लेकिन भविष्य में मोदी के नाम की वजह से शायद अब मुस्लिम साथ न दे लेकिन अति पिछड़े और महादलित नीतीश के साथ रहेंगे।

नीतीश की राजनीतिक मजबूरी अभी कहिए या आगे भी कहिए कि बिना सहारे के नहीं चलने वाली। नीतीश को या तो बीजेपी का साथ चाहिए या फिर लालू का। आज बीजेपी और नीतीश एक दूसरे की जरूरत इसलिए भी हो गए हैं क्योंकि दोनों का एक दूसरे के बिना काम नहीं चल सकता । उसमें भी लालू इस वक्त सबसे मजबूत स्थिति में दिख रहे हैं। 

क्या कहता है वोटों का गणित

2014 और 2015 के पैटर्न को देखें तो नीतीश की पार्टी करीब 16 फीसदी वोट लाने में कामयाब रही है। 2015 में बीजेपी अकेले सबसे ज्यादा 157 पर लड़ी थी तो उसे 24.42 फीसदी वोट मिले। लालू की पार्टी को 18.35 और नीतीश की पार्टी को 16.8 फीसदी वोट मिले थे। कांग्रेस को 7 फीसदी वोट मिले।
बीजेपी के साथ लड़ी एलजेपी 42 पर लड़ी तो 5 और मांझी की पार्टी 21 पर लड़ी तो 2.27 फीसदी वोट मिले। आरएलएसपी 23 पर लड़कर 2.56 फीसदी वोट । यानी एनडीए को करीब 35 और महागठबंधन को 42 फीसदी वोट मिले। 

अब सामने 2019 का लोकसभा चुनाव है। माना जा रहा है कि लोकसभा के साथ ही नीतीश विधानसभा का चुनाव भी करवा सकते हैं। जहां तक सीटों के बंटवारे का सवाल है तो राजनीतिक भविष्य की बेहतर संभावना पासवान भी बीजेपी के साथ ही देख रहे हैं। क्योंकि उनका बिहार में सीएम बनने का सपना अब पूरा होने से रहा। इसलिए वो बीजेपी के साथ मिलकर ही चुनाव लड़ना चाहेंगे।
लोकसभा की चालीस में से बीजेपी तो 20 सीटों पर कम से कम जरूर लड़ेगी। पासवान के 6 सांसद हैं लेकिन उन्हें शायद 5 सीट से ज्यादा न मिले। कुशवाहा की पार्टी को भी इस बार तीन की जगह दो या फिर एक से काम चलाना पड़ सकता है। रही बात मांझी की तो बीजेपी की कोशिश उन्हें राजभवन में शिफ्ट कर पार्टी को बीजेपी या जेडीयू के साथ मर्ज करने की होगी। क्योंकि मांझी की पार्टी का कोई वैसा बेस नहीं है और पार्टी निकली भी तो नीतीश की पार्टी से ही है। ऐसा करने से ये होगा कि सीटों के बंटवारे में पेंच कम रहेगा।
रही बात नीतीश की पार्टी की तो आज भले उनके दो सांसद हैं लेकिन 15 से कम शायद नहीं मिलेगी लड़ने के लिए। कहा जा रहा है कि फॉर्मूला फिट हो चुका है। पहले जब बीजेपी जेडीयू का गठबंधन था तो बीजेपी 15 और जेडीयू 25 सीटों पर लड़ती थी। लेकिन 2014 के बंटवारे ने बीजेपी को हाई जंप का मौका दे दिया।
नए समीकरण में उपेंद्र कुशवाहा खुद काराकाट से नहीं लड़ना चाहेंगे। क्योंकि वहां उनकी छवि बहुत खराब हो चुकी है। वो खुद वैशाली से लड़ने की तैयारी में हैं। रामा सिंह का संबंध पासवान से ठीक नहीं है तो हो सकता है कि कुशवाहा को वैशाली सीट मिल जाए । लेकिन उनकी हार वहां से भी तय है। सीतामढ़ी में भी उनका सांसद फेल है। इसलिए वहां भी उनको सीट मिले गुंजाइश कम है। जहानाबाद में अरुण कुमार पार्टी से नाराज हैं अलग पार्टी बनाकर खेल रहे हैं। पता नहीं बीजेपी में जाएंगे या जेडीयू में। जहां भी जाएंगे उनका टिकट पक्का है।
पासवान की पार्टी को वैशाली के साथ ही नालंदा की कुर्बानी देनी पड़ेगी। इस हिसाब से उनके पास पांच सीट बचेगी। शायद डील भी यही है और इसी डील के हिसाब से पासवान के भाई बिना किसी सदन के सदस्य होते हुए मंत्री बने हैं। विधान परिषद भी वो नीतीश और बीजेपी के सहयोग से ही जाएंगे।
उपेंद्र कुशवाहा अगर मंत्रिमंडल से हटते हैं तो फिर उनकी दोस्ती लालू और शरद यादव से हो सकती है। ऐसे में वो ज्यादा कुछ असर तो नहीं डाल पाएंगे क्योंकि चुनाव आते आते उनकी पार्टी भी टूट जाएगी। लेकिन ऐन चुनाव से पहले वो क्या करते हैं देखने वाली बात होगी। उपेंद्र कुशवाहा भी अंतिम समय में गेम करने वाले नेता हैं। केंद्र में कुर्सी खतरे में दिखी तो उन्होंने फौरन पुरानी अदावत भूलाकर नीतीश कुमार को शॉल ओढाकर कुर्सी बचाने में जुट गए।

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