Tuesday, December 5, 2017

बिहार में अबकी बार, दिग्गज होंगे :बेकार'


बिहार में टिकट का बंटवारा बीजेपी नेताओं की नींद हराम कर देगा। बिहार में लोकसभा की चालीस सीट है। बीजेपी 22 पर जीती थी। इनमें से इस बार कई सांसदों का टिकट कटना तय है। पटना साहिब से शत्रुघन सिन्हा बागी हैं इसलिए उन्हें इस बार टिकट नहीं मिलेगा। दरभंगा के सांसद कीर्ति आजाद पार्टी से बाहर हैं उनकी पत्नी दिल्ली में कांग्रेस की राजनीति कर रहीं हैं । इस बार इनको भी बीजेपी नहीं उतारने वाली। इन दोनों के अलावा बागी तेवर दिख चुके भोला सिंह बुजुर्ग की श्रेणी में हैं इसलिए इनका भी टिकट कट चुका हुआ समझिये । सासाराम के सांसद छेदी पासवान की सदस्यता जा चुकी है इसलिए इनको इस बार घर बैठना होगा।
इनके अलावा पार्टी परफॉर्मेन्स के आधार पर भी कुछ लोगों को बेटिकट करेगी। इनमें सुनी सुनाई बात ये है कि उत्तर बिहार से बेतियाशिवहर,मुजफ्फरपुरझंझारपुर के सांसदों का नाम आ सकता है। बेतिया सीट बीजेपी की पुरानी सीट है लेकिन बीजेपी इस सीट को जेडीयू को दे सकती है। अगर बीजेपी ही लड़ी तो पार्टी साबिर अली या देवेश चंद्र ठाकुर को उतार सकती है। वैसे स्थानीय समीकरण संजय जायसवाल को बेटिकट करने की इजाजत नहीं देते। अगर संजय को ही पार्टी बेतिया से लड़वाती है तो फिर शिवहर से रमा देवी का टिकट कट सकता है। अगर ऐसा हुआ तो पार्टी पूर्व एमएलए रत्नाकर राणा को उतार सकती है। रत्नाकर के अलावा लवली आनंद भी बीजेपी से टिकट की दावेदार बन सकती हैं। राजपूत में ये दोनों ही मजबूत उम्मीदवार होंगे। लेकिन उपेंद्र कुशवाहा के एनडीए में बने रहने की सूरत में ये सीट लोजपा को जा सकती है और वैशाली के सांसद रामा सिंह यहां से उम्मीदवार बनाये जा सकते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि चर्चा है कि उपेंद्र कुशवाहा खुद वैशाली से लड़ने का मन बना रहे हैं।
शिवहर से अगर एनडीए ने राजपूत उम्मीदवार नहीं उतारा तो फिर वैश्य समाज से पवन जायसवाल और वैद्यनाथ प्रसाद के नाम पर पार्टी विचार कर सकती है। दरभंगा सीट जदयू को दी जा सकती है। यहां से नीतीश कुमार अपने करीबी संजय झा को उतार सकते हैं। लेकिन दिक्कत ये है कि संजय झा के सामने लालू गठबंधन ने कीर्ति झा को उतार दिया तो फिर जदयू के लिए सीट निकालना मुश्किल हो जाएगा। कीर्ति झा को टिकट देने के बाद लालू के लिए अली अशरफ फातमी सिरदर्द बन सकते हैं। ऐसे में उन्हें दरभंगा से मधुबनी भी लालू नहीं भेजना चाहेंगे। क्योंकि लालू की कोशिश अब्दुल बारी सिद्दीकी को बिहार से दूर करने की होगी। लालू चाहेंगे कि सिद्दीकी मधुबनी से लड़कर जीते ताकि तेजस्वी की राह का रोड़ा हमेशा के लिए बिहार की राजनीति से बाहर हो जाये।
मधुबनी से सिद्दीकी और दरभंगा से फातमी के उम्मीदवार बनने पर फिर से ध्रुवीकरण की संभावना बन सकती है जिसका फायदा संजय झा उठा सकते हैं। अगर संजयकीर्ति और फातमी तीनों लड़े तब भी फायदे में संजय झा होंगे। संजय झा अभी जेडीयू के महासचिव हैं पहले बीजेपी में थे लेकिन साथ रहने के दौरान ही संजय को नीतीश अपने साथ ले आये थे।

बेगूसराय में टिकट की बाजी कौन मारेगा ?

चर्चा है कि केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह अपनी सीट बदल सकते हैं। गिरिराज पिछली बार ही बेगूसराय से लड़ना चाहते थे लेकिन उन्हें नवादा भेज दिया। इसके लिए तब रोना धोना भी हुआ था। इस बार बेगूसराय का मैदान साफ है और दिल्ली में उनकी हैसियत भी मजबूत हो चुकी है । ऐसे में संभव है कि पार्टी उनकी सीट बदल दे और उन्हें बेगूसराय लड़ने के लिए भेज दिया जाए । इस स्थिति में नवादा सीट से भूमिहार जाति के हिसुआ से विधायक अनिल सिंह की दावेदारी मजबूत हो सकती है । उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा से बागी होकर अपनी अलग रालोसपा बनाने वाले जहानाबाद के सांसद अरुण कुमार भी नवादा से दावेदार हो सकते हैं । अरुण कुमार इन दिनों अलग पार्टी बनाकर घूम रहे हैं और उनकी मुहिम को बीजेपी का साथ मिल रहा है । ऐसे में उनका बीजेपी में जाना तय लग रहा है और अगर उनकी बात सुनी गई तो वो जहानाबाद की जगह नवादा को चुनना पसंद करेंगे ।
अगर अरुण कुमार जहानाबाद से ही लड़ते हैं तो फिर सूरजभान सिंह की पत्नी वीणा देवी (एलजेपी) को नवादा भेजा जा सकता है । तब बिहार में मंत्री ललन सिंह मुंगेर से जेडीयू के उम्मीदवार होंगे । अगर इतना सब कुछ संभव नहीं हुआ तो फिर सब कुछ पहले जैसा होगा नवादा से गिरिराज,जहानाबाद से अरुण और मुंगेर से वीणा सिंह । बेगूसराय की सीट जेडीयू के ललन सिंह के लिए छोडी जा सकती है । टीवी पर बराबर दिखने वाले आरएसएस विचारक राकेश सिन्हा के भी बीजेपी के टिकट पर बेगूसराय से लड़ने की चर्चा राजनीतिक गलियारों में है । ऐसा सुना जा रहा है कि लेफ्ट से टिकट के लिए जेएनयू वाले कन्हैया कुमार भी कोशिश कर रहे हैं ।
पटना साहिब में शत्रुघन सिन्हा की जगह बीजेपी किसी बड़े चेहरे को आउटसोर्स कर सकती है या फिर केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद भी दावेदार हो सकते हैं ।

नीतीश - मोदी की दोस्ती की गाड़ी यहां आकर रुक जाएगी क्या ?

बिहार में लोकसभा की कुल 40 सीटें हैं । 2014 के चुनाव के वक्त एनडीए में तीन पार्टियां ही थी । लेकिन आज पांच पार्टियां सीधे तौर पर एनडीए में शामिल है । जबकि छठी पार्टी भी चुनाव के वक्त हिस्सा बन सकती है । ऐसे में टिकट का बंटवारा कैसे होगा ये बड़ा सवाल है ?

2014 लोकसभा चुनाव के नतीजों को देखें तो 40 सीटों में से 22 बीजेपी को,  6एलजेपी को और 3 सीटें आरएलएसपी को मिली थी । यानी 40 में से कुल 31 सीटें । तब बीजेपी 30, एलजेपी  7 और आरएलएसपी 3 सीटों पर लड़ी थी । उस वक्त जेडीयू ने अलग चुनाव लड़ा था और पार्टी को 2 सीटों पर जीत मिली थी । यूपीए में शामिल आरजेडी को 4, कांग्रेस को 2, एनसीपी को 1 सीट मिली थी ।
अब जेडीयू और मांझी की पार्टी हम (हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा )एनडीए का हिस्सा है । दोनों साथ रहे तो इनको भी इन्हीं सीटों में से हिस्सा देना होगा । जेडीयू का साथ रहना तो पक्का है मांझी को लेकर अभी कुछ पक्का कहा नहीं जा सकता । वैसे आरएलएसपी के लक्षण भी एनडीए के साथ बने रहने के दिख नहीं रहे हैं ।

आरएलएसपी को हटा दें तो बीजेपी के 22 सांसद और एलजेपी के 6 सांसद मिलाकर 28 होते हैं । यानी जेडीयू के लिए अधिकतम 12 की गुंजाइश बनती है ।
अब ऐसा भी नहीं कि सभी बारह सीटें जेडीयू को ही दी जाएगी क्योंकि बीजेपी के जो उम्मीदवार कम मतों से हारे हैं वो आसानी से दावा नहीं छोड़ेंगे । हारने वालों में शाहनवाज जैसे दिग्गज भी हैं । )

मांझी अगर राज्यपाल नहीं बने और राज्यसभा भी नहीं गये इस स्थिति में साथ रखने के लिए उनको भी खुद के लिए एक और प्रदेश अध्यक्ष वृषण पटेल के लिए एक यानी दो सीटें देनी होगी । इस लिहाज से अधिकतम 10 सीटें ही जेडीयू के लिए दिख रही है । इसमें भी पप्पू यादव साथ आ गए तो एक सीट उनके खाते में जाएगी । यानी नौ ही बचती है जिस पर जेडीयू दावा कर पाएगा या बीजेपी थोड़ा बहुत सोचेगी भी ।
(इतना भी तब जब उपेंद्र कुशवाहा अलग हो जाएंगे)

य़ानी सीट का बंटवारा सिरदर्दी ही साबित होने वाला है । जमीन पर हैसियत टटोलने और अपना संगठन मजबूत करने के लिए कार्यकर्ता सम्मेलन शुरू कर दिया है । थोड़ी देर के लिए अगर इसी को फॉर्मूला मान लें तो अब सवाल ये है कि क्या जेडीयू सिर्फ 10 सीटों पर ही चुनाव लड़ेगा । मुझे तो ऐसा नहीं लग रहा । लेकिन और रास्ता क्या है एक फॉर्मूला ये बन सकता है कि जेडीयू लोकसभा में कम सीटों पर लड़े और विधानसभा में उसे ज्यादा सीट मिले । लेकिन इसकी गुंजाइश इसलिए कम है क्योंकि बाकी पार्टनर भी हैं । उनका क्या होगा ?

नीतीश पैर पीछे करेंगे ?

2015 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू के पास 115 विधायक थे । लेकिन लालू और कांग्रेस से समझौता कर अपनी जमीन बचाने के लिए नीतीश ने 14 सीटों की कुर्बानी दे दी और 101 सीटों पर उम्मीदवार लड़ाया । यानी नीतीश का पैर पीछे खींचने का रिकॉर्ड पुराना है । इसलिए संभव है कि मौजूदा राजनीतिक स्थिति को देखते हुए नीतीश अपने पैर पीछे खींच लें और लोकसभा के लिए दस बारह सीट पर समझौता करके मान जाएं ।
2014 के पहले तक के लोकसभा चुनाव में जेडीयू और बीजेपी का गठबंधन हुआ करता था । तब जेडीयू 25 और बीजेपी 15 सीटों पर चुनाव लड़ती थी । लेकिन2014 से समीकरण उल्टा हो गया है ।

2014 का रिजल्ट दोहराया तो ?

2014 में बिहार में कुल 6 करोड़ 38 लाख वोटर थे । इनमें से 3 करोड़ 53 लाख 4हजार वोट पड़े थे । 22 सीटें जीतने वाली बीजेपी को 1 करोड़ 5 लाख 43 हजार वोट मिले थे । प्रतिशत में कहें तो 29.86 फीसदी । बीजेपी की सहयोगी एलजेपी को22 लाख 95 हजार यानी 6.5 फीसदी । जेडीयू को 56 लाख 62 हजार वोट मिले यानी 16.04 फीसदी । आरजेडी को 72 लाख 24 हजार वोट यानी 20.46 फीसदी । कांग्रेस को 30 लाख 21 हजार यानी 8.56 फीसदी वोट मिले । एनडीए में बीजेपी+एलजेपी+जेडीयू के वोट जोड़ दें तो कुल 52 फीसदी होता है । यानी आधे से भी ज्यादा । यही समीकरण बना रहा तो फिर लालू और कांग्रेस कहीं टक्कर में नहीं दिखेगी ।

अभी अररिया में लोकसभा उपचुनाव होना है । 2014 में यहां आरजेडी के तस्लीमुद्दीन जीते थे । तस्लीमुद्दीन को उस चुनाव में लाख वोट मिले थे । दूसरे नंबर पर बीजेपी थी जिसे लाख 61 हजार वोट और तीसरे नंबर रहे जेडीयू को लाख21 हजार वोट मिले थे । इस लिहाज से सीट पर दावा तो बीजेपी का ज्यादा बनता है । अब देखना होगा कि किशनगंज की सीट के बदले दोनों दलों में सौदा क्या होता है ।

Monday, August 28, 2017

बिहार के लिए नीतीश-मोदी दोनों को एक दूसरे की जरूरत थी

बिहार ही नहीं देश की राजनीति में 26 जुलाई की तारीख को कोई भूल नहीं सकता। शाम करीब साढ़े छह बजे का वक्त था पटना में दो दिन बाद यानी 28 जुलाई से होने वाले विधानसभा सत्र से पहले नीतीश ने अपने घर विधायकों की बैठक बुलाई थी। बैठक चल ही रही थी तभी खबर आ गई कि नीतीश कुमार राजभवन जाकर इस्तीफा देंगे।
इससे पहले तक ये चर्चा थी कि नीतीश कुमार लालू के बेटे और डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव को बर्खास्त कर सकते हैं। लेकिन बैठक के अंदर से खबर ठीक उलट सामने आ गई। नीतीश कुमार शाम को छह बजकर पैतीस मिनट के आसपास राजभवन पहुंचे और प्रभारी राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी को इस्तीफा सौंप दिया। इस्तीफा देने के बाद करीब 6 बजकर 55 मिनट के आसपास नीतीश बाहर आए और मीडिया को बता दिया कि उन्होंने इस्तीफा दे दिया है। नीतीश ने अंतरात्मा की आवाज सुनने की बात कही और बताया कि अब काम करना मुश्किल हो गया था।

इतिहास के पन्नों से बिहार की राजनीति
नीतीश की ये दोस्ती लालू के साथ 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद हुई थी। थोड़ा पीछे आपको ले चलें तो लालू जब बिहार की राजनीति में पूरे शबाब पर थे तब नीतीश कुमार ने उनका साथ छोड़ा था। उस वक्त लालू सीएम थे और जॉर्ज फर्नांडीस के नेतृत्व में जनता दल के चौदह सांसदों ने पार्टी छोड़ी थी। नीतीश भी उनमें से एक थे। इसके बाद साल 1995 के विधानसभा चुनाव में नीतीश अपने दम पर विधानसभा चुनाव लड़े लेकिन उनकी समता पार्टी कोई कमाल नहीं कर सकी। 1996 में बीजेपी से समझौता हुआ और नीतीश का राजनीतिक कद दिन दूना और रात चौगुना बढ़ता गया।
इससे बाद साल 1999 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले जनता दल में विभाजन हुआ वाजपेयी के साथ जाने को लेकर। देवगौड़ा ने जनता दल सेक्यूलर बना लिया और शऱद यादव की पार्टी का नाम हुआ जद यू। 1999 के लोकसभा चुनाव से पहले जॉर्ज की समता पार्टी और शरद यादव के नेतृत्व वाले जनता दल यू का विलय हुआ। लोकसभा चुनाव सबसे जदयू के टिकट पर लड़ा। लेकिन साल भर में ही तलाक हो गया और साल 2000 का विधानसभा चुनाव एनडीए के तहत लड़ा तो गया लेकिन तब जद यू और समता पार्टी अलग अलग थी। तब रामविलास पासवान जनता दल यू के स्टार थे। चुनाव हुआ पार्टी नहीं जीती लेकिन नीतीश सात दिन के लिए सीएम बने। इसके बाद 2005 के नवंबर वाले चुनाव में नीतीश और बीजेपी गठबंधन को बहुमत मिला और सरकार बनी। 2010 के चुनाव में प्रचंड जीत मिली। तब तक मोदी की थाली छीनने वाला एपिसोड हो चुका था। नीतीश और बीजेपी ने मिलकर 243 में से 206 सीटें जीत ली थी। लालू 22 पर आ गये थे।

2013 से 2015 तक का सफर 
2010 में बहुमत के साथ दूसरी बार बनी बीजेपी और जेडीयू की सरकार तीन साल चली और मई 2013 में नीतीश ने रास्ते अलग कर लिए। नीतीश ने मोदी के नाम पर 17 साल पुराना रिश्ता बीजेपी से तोड़ लिया। 2014 के चुनाव में नीतीश लेफ्ट के साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़े। लेकिन पार्टी को महज दो सीटें मिली।
2014 के चुनाव का आंकड़ा ये था कि 40 में से बीजेपी को 22, एलजेपी को 6 और आरएलएसपी को 3 सीटें मिली। 30 सीट पर बीजेपी लड़ी थी जबकि एलजेपी 7 सीटों पर, आरएलएसपी 3 पर लड़ी थी।
लालू, कांग्रेस और एनसीपी का समझौता था। लालू 27 पर लड़े, कांग्रेस 12 और एनसीपी 1 सीट पर। लालू को 4, कांग्रेस को 2 और एक सीट एनसीपी को मिली। ओवर ऑल ये रहा कि बीजेपी गठबंधन 31 सीटें जीती, लालू गठबंधन 7 और नीतीश को 2 सीटें मिली।
हार के बाद नीतीश ने इस्तीफा दे दिया और मांझी को सीएम बनाया>
इसके बाद 2014 के अगस्त महीने में विधानसभा के उपचुनाव हुए। लालू और नीतीश ने गठबंधन कर चुनाव लड़ा और बीस साल की दुश्मनी दोस्ती में बदल गई। इसके बाद मांझी के हटने के बाद लालू के बाहरी समर्थन से नीतीश की सरकार साल भर चली और 2015 के चुनाव में लालू, नीतीश कांग्रेस का गठबंधन हो गया। इस गठबंधन में न तो एसपी थी और एनसीपी। लालू, नीतीश, कांग्रेस में 101, 101 और 41 सीटों का बंटवारा हुआ ।  पार्टी जबरदस्त तरीके से जीती। लालू को 80, नीतीश को 71 और कांग्रेस को 27 सीटें मिली । इसमें नुकसान नीतीश को हुआ और सबसे ज्यादा फायदा लालू और कांग्रेस को।

26 जुलाई 2017 को कैसे बदली बिहार की राजनीति
 26 जुलाई 2017 को नीतीश ने इस जनमत के फैसले को खारिज करते हुए बीजेपी से हाथ मिला लिया और रातों रात नई सरकार का रास्ता साफ कर दिया। राजभवन से रात को निकलकर जब नीतीश अपने घर पहुंचे तो बीजेपी ने समर्थन की पेशकश कर दी और नीतीश ने उसे फौरन स्वीकार कर लिया। रात को ही 10 बजे के आसपास दोनों दलों के विधायकों की बैठक हुई और नीतीश को नया नेता चुना गया। रात के अंधेरे में ही नीतीश बीजेपी विधायकों के साथ सरकार बनाने का दावा पेश करने पहुंच गये।
नीतीश के 71 विधायक, एनडीए के 58 और तीन निर्दलीय विधायकों ने समर्थन किया। बहुमत के 122 से दस सीट ज्यादा लेकर नीतीश ने दावा पेश किया। पहले खबर आई कि शाम पांच बजे अगले दिन यानी 27 को शपथ ग्रहण होगा । पटना का राजनीतिक माहौल गर्म था। लालू चारा घोटाले की सुनवाई के लिए रांची गए तो तेजस्वी ने राज्यपाल से मिलने का समय मांग लिया। सुबह 11 बजे का समय मिला तो नीतीश ने शपथ ग्रहण का समय चेंज कर लिया और सुबह 10 बजे ही शपथ का समय फिक्स किया। रात को तेजस्वी मार्च करते राजभवन गए लेकिन तब राज्यपाल से मिल नहीं पाए।
अगले दिन सुबह 10 बजे राजभवन में नीतीश और सुशील मोदी का शपथ ग्रहण हुआ और सोलह घंटे पहले जो  लालू की पार्टी सत्ता में थी वो पैदल हो गई और पैदल पार्टी वाली बीजेपी सत्ता में आ गई

बिहार की राजनीति को जो लोग जानते हैं वो ये भी जानते हैं कि नीतीश के पास अपना वोट बैंक लालू या दूसरे नेताओं की तुलना में कम है। लेकिन ये बात भी है कि नीतीश के कद का कोई नेता नहीं है। लालू का सूरज बिहार में अस्त हो चुका था लेकिन उनके बेटों का भविष्य बनना था इसलिए शायद नीतीश और लालू की दोस्ती हुई। वोट के लिहाज से देखें तो नीतीश जिस कुर्मी जाति से हैं उसकी आबादी 5 फीसदी के आसपास है। नीतीश अति पिछड़े और पिछड़े मुस्लिमों के नेता माने जाते रहे हैं। लेकिन भविष्य में मोदी के नाम की वजह से शायद अब मुस्लिम साथ न दे लेकिन अति पिछड़े और महादलित नीतीश के साथ रहेंगे।

नीतीश की राजनीतिक मजबूरी अभी कहिए या आगे भी कहिए कि बिना सहारे के नहीं चलने वाली। नीतीश को या तो बीजेपी का साथ चाहिए या फिर लालू का। आज बीजेपी और नीतीश एक दूसरे की जरूरत इसलिए भी हो गए हैं क्योंकि दोनों का एक दूसरे के बिना काम नहीं चल सकता । उसमें भी लालू इस वक्त सबसे मजबूत स्थिति में दिख रहे हैं। 

क्या कहता है वोटों का गणित

2014 और 2015 के पैटर्न को देखें तो नीतीश की पार्टी करीब 16 फीसदी वोट लाने में कामयाब रही है। 2015 में बीजेपी अकेले सबसे ज्यादा 157 पर लड़ी थी तो उसे 24.42 फीसदी वोट मिले। लालू की पार्टी को 18.35 और नीतीश की पार्टी को 16.8 फीसदी वोट मिले थे। कांग्रेस को 7 फीसदी वोट मिले।
बीजेपी के साथ लड़ी एलजेपी 42 पर लड़ी तो 5 और मांझी की पार्टी 21 पर लड़ी तो 2.27 फीसदी वोट मिले। आरएलएसपी 23 पर लड़कर 2.56 फीसदी वोट । यानी एनडीए को करीब 35 और महागठबंधन को 42 फीसदी वोट मिले। 

अब सामने 2019 का लोकसभा चुनाव है। माना जा रहा है कि लोकसभा के साथ ही नीतीश विधानसभा का चुनाव भी करवा सकते हैं। जहां तक सीटों के बंटवारे का सवाल है तो राजनीतिक भविष्य की बेहतर संभावना पासवान भी बीजेपी के साथ ही देख रहे हैं। क्योंकि उनका बिहार में सीएम बनने का सपना अब पूरा होने से रहा। इसलिए वो बीजेपी के साथ मिलकर ही चुनाव लड़ना चाहेंगे।
लोकसभा की चालीस में से बीजेपी तो 20 सीटों पर कम से कम जरूर लड़ेगी। पासवान के 6 सांसद हैं लेकिन उन्हें शायद 5 सीट से ज्यादा न मिले। कुशवाहा की पार्टी को भी इस बार तीन की जगह दो या फिर एक से काम चलाना पड़ सकता है। रही बात मांझी की तो बीजेपी की कोशिश उन्हें राजभवन में शिफ्ट कर पार्टी को बीजेपी या जेडीयू के साथ मर्ज करने की होगी। क्योंकि मांझी की पार्टी का कोई वैसा बेस नहीं है और पार्टी निकली भी तो नीतीश की पार्टी से ही है। ऐसा करने से ये होगा कि सीटों के बंटवारे में पेंच कम रहेगा।
रही बात नीतीश की पार्टी की तो आज भले उनके दो सांसद हैं लेकिन 15 से कम शायद नहीं मिलेगी लड़ने के लिए। कहा जा रहा है कि फॉर्मूला फिट हो चुका है। पहले जब बीजेपी जेडीयू का गठबंधन था तो बीजेपी 15 और जेडीयू 25 सीटों पर लड़ती थी। लेकिन 2014 के बंटवारे ने बीजेपी को हाई जंप का मौका दे दिया।
नए समीकरण में उपेंद्र कुशवाहा खुद काराकाट से नहीं लड़ना चाहेंगे। क्योंकि वहां उनकी छवि बहुत खराब हो चुकी है। वो खुद वैशाली से लड़ने की तैयारी में हैं। रामा सिंह का संबंध पासवान से ठीक नहीं है तो हो सकता है कि कुशवाहा को वैशाली सीट मिल जाए । लेकिन उनकी हार वहां से भी तय है। सीतामढ़ी में भी उनका सांसद फेल है। इसलिए वहां भी उनको सीट मिले गुंजाइश कम है। जहानाबाद में अरुण कुमार पार्टी से नाराज हैं अलग पार्टी बनाकर खेल रहे हैं। पता नहीं बीजेपी में जाएंगे या जेडीयू में। जहां भी जाएंगे उनका टिकट पक्का है।
पासवान की पार्टी को वैशाली के साथ ही नालंदा की कुर्बानी देनी पड़ेगी। इस हिसाब से उनके पास पांच सीट बचेगी। शायद डील भी यही है और इसी डील के हिसाब से पासवान के भाई बिना किसी सदन के सदस्य होते हुए मंत्री बने हैं। विधान परिषद भी वो नीतीश और बीजेपी के सहयोग से ही जाएंगे।
उपेंद्र कुशवाहा अगर मंत्रिमंडल से हटते हैं तो फिर उनकी दोस्ती लालू और शरद यादव से हो सकती है। ऐसे में वो ज्यादा कुछ असर तो नहीं डाल पाएंगे क्योंकि चुनाव आते आते उनकी पार्टी भी टूट जाएगी। लेकिन ऐन चुनाव से पहले वो क्या करते हैं देखने वाली बात होगी। उपेंद्र कुशवाहा भी अंतिम समय में गेम करने वाले नेता हैं। केंद्र में कुर्सी खतरे में दिखी तो उन्होंने फौरन पुरानी अदावत भूलाकर नीतीश कुमार को शॉल ओढाकर कुर्सी बचाने में जुट गए।