Sunday, June 28, 2015

बिहार में ‘गोप का पोप’ कौन बनेगा ?

 अनंत सिंह वाले एपिसोड में असल लड़ाई यादव वोटों पर पकड़ की मानी जा रही है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि बिहार में लालू यादव ही यादवों के सबसे बड़े नेता हैं। लेकिन लालू यादव की पार्टी को ही सिर्फ यादवों का वोट मिलेगा ऐसा अब संभव नहीं है। नब्बे के दशक का एक वो दौर था जब बिहार में हर यादव वोटर खुद को लालू यादव मानता था। लेकिन अब वक्त बदल चुका है। यादवों में भी कई क्षत्रप हो गए हैं।
बाढ़ वाले कांड में पुलिस के मुताबिक छेड़खानी के आरोपी एक यादव जाति के युवक की हत्या हुई। नाम अनंत सिंह का आया और पप्पू यादव पहले दिन से ही हत्याकांड पर राजनीति करने लगे। पप्पू इस घटना पर राजनीति करके कहीं यादवों के बड़े नेता न बन जाए इसका डर लालू ने नीतीश को दिखाया और दबाव डालकर अनंत सिंह को जेल भिजवा दिया। खुद लालू ने मीडिया से कहा है कि उन्होंने अनंत सिंह की गिरफ्तारी के लिए दबाव डाला। अनंत सिंह बाहुबली हैं। कई मामलों के पहले से आरोपी हैं। इस केस में भी नाम आया है। इस लिहाज से अनंत सिंह की गिरफ्तारी बिल्कुल साधारण बात लगती है। लेकिन बिहार की राजनीति में नीतीश की राजनीति को करीब से जानने वाले जानते हैं कि अनंत सिंह से दुश्मनी व्यक्तिगत रूप से नीतीश को कितना नुकसान पहुंचा सकती है। लेकिन इस पूरे एपिसोड में अनंत सिंह के वोट से ज्यादा महत्वपूर्ण यादवों का वोट था और इसी दबाव में अनंत सिंह को जेल जाना पड़ा ।     
आज बिहार में सबसे ज्यादा जिस वोटबैंक को लेकर नेता आशंकित हैं वो है यादवों का वोट। एक वक्त में लालू सबसे बड़े नेता थे। लेकिन जब से लालू की पत्नी, बेटी लोकसभा और विधानसभा का चुनाव हारी हैं तब से लालू के नेतृत्व पर सवाल उठ रहे हैं। कभी लालू की परछाई रहे रामकृपाल यादव अब बीजेपी में हैं। लालू के साले साधु यादव खुद की पार्टी बनाकर अलग मोर्चा तैयार करने में जुटे हैं। कभी लालू के प्यारे रहे पप्पू यादव फिर से अपनी पार्टी बना चुके हैं। जेडीयू में शरद यादव से लेकर विजेंद्र यादव और नरेंद्र नारायण यादव जैसे नेता हैं। लालू के कभी हाथ रहे रंजन यादव लालू का साथ छोड़कर अभी तक जेडीयू में थे लेकिन अब वहां से भी उन्होंने इस्तीफा दे दिया है।
कुल मिलाकर हाल ये है कि अब लालू ही एकमात्र नेता नहीं रह गए हैं। इस बार बीजेपी से ही लोकसभा में चार यादव सांसद बने हैं। लालू की पार्टी से जो चार सांसद जीते थे उसमें भी दो ही यादव थे। इनमें से एक पप्पू अब अलग रास्ते पर हैं। बीजेपी से रामकृपाल यादव, हुकुमदेव नारायण यादव, नित्यानंद राय और ओम प्रकाश यादव जीते हैं। हुकुमदेव और नित्यानंद तो पुराने भाजपाई हैं लेकिन रामकृपाल और ओमप्रकाश मोदी लहर में भाजपाई बने हैं। हुकुमदेव और नित्यानंद भले ही अपने अपने क्षेत्रों में यादव वोटरों पर ज्यादा प्रभाव न दिखा पाए लेकिन बाकी दोनों नए भाजपाई लालू के वोट बैंक पर असर जरूर डालेंगे। पटना में तो रामकृपाल के पहले से नंद किशोर यादव भी हैं । सीवान में जहां शहाबुद्दीन का सिक्का चला करता था वहां से ओम प्रकाश यादव सांसद हैं। मतलब यहां का MY समीकरण अब खत्म हो चुका है। हुकुमदेव के इलाके में लोकसभा चुनाव के वक्त हिंदू-मुस्लिम वाला फैक्टर प्रभावी था। विधानसभा में भी इसका असर दिख सकता है। जिसका नुकसान लालू को ही उठाना होगा।
कोसी इलाके में पप्पू यादव जो भी नुकसान करेंगे वो नुकसान लालू के वोट बैंक का ही होगा। हां पप्पू अब पहले जितना प्रभावी नहीं रहे लेकिन उनका प्रभाव बहुत कम भी नहीं हुआ है। अलग अलग पार्टियों से पति-पत्नी दोनों सांसद हैं। पत्नी रंजीत रंजन की राजनीतिक मजबूरी कांग्रेस के साथ रहने की है। लेकिन चुनाव में पारिवारिक मजबूरी पप्पू के साथ रहने की होगी।
कोसी और पूर्णिया के इलाके में विधानसभा की कुल 37 सीटें हैं। इन 37 सीटों में से जेडीयू और बीजेपी के पास 2010 में 14-14 सीटें थी। आरजेडी को 3, कांग्रेस को 3 और एलजेपी को 2 सीटें मिली थी। एक सीट निर्दलीय के खाते में गई थी।
रोम पोप का और मधेपुरा गोप का। इस इलाके में ये कहावत प्रचलित है। लेकिन कोसी की जिन 13 सीटों में से 5 सीटों पर यादव उम्मीदवारों की जीत हुई थी उनमें से 4 जेडीयू के खाते में गई थी। वहीं पूर्णिया प्रमंडल की 24 सीटों में से 3 सीट यादव उम्मीदवारों ने जीती थी । और तीनों की तीनों बीजेपी के खाते में थी। यानी लालू का यादवी तिलस्म इस इलाके में कोई जादू नहीं कर पाया था। इस इलाके में कई ऐसी सीटें हैं जहां यादव वोटर और नीतीश के समर्थकों के बीच हिंसक राजनीतिक रिश्ता रहा है। ऐसी सीटों पर कौन किसके साथ रहेगा कह पाना मुश्किल है।
पप्पू यादव तब भी लालू के साथ नहीं थे और अब भी नहीं हैं। लेकिन फर्क इतना है कि तब पप्पू हत्या के दोषी होकर जेल में बंद थे। अब बरी होकर सांसद बन चुके हैं। पप्पू और लालू का जो रिश्ता टूटा है उसकी राजनीतिक वजह भी है और व्यक्तिगत भी। पप्पू अब जन क्रांति अधिकार मोर्चा बनाकर राजनीति कर रहे हैं। पप्पू की महत्वकांक्षा भी हिलोरे मार रही है। पप्पू चाहते थे कि लालू उन्हें बिहार चुनाव में अपना राजनीतिक वारिस बनाकर पेश करें। लेकिन लालू इसके लिए राजी नहीं थे। लालू पार्टी को पारिवारिक पार्टी बनाकर रखना चाहते हैं। पप्पू को लग गया कि राजनीतिक महत्वकांक्षा यहां पूरी नहीं हो सकती तो समय रहते उन्होंने रास्ता अलग कर लिया। नीतीश के खिलाफ बोलना उनकी व्यक्तिगत मजबूरी भी है। लालू के राज में पूर्णिया, मधेपुरा में विपक्षी नेताओं की जितनी भी राजनीतिक हत्याएं हुई किसी न किसी रूप में उसमें पप्पू यादव का नाम जरूर उछला। पप्पू यादव ने ही मधेपुरा में नीतीश की पार्टी के अध्यक्ष शरद यादव को हराकर चुनाव जीता है।
पप्पू यादव एकमात्र विरोधी बाहुबली नेता हैं जो नीतीश के कार्यकाल में खत्म होकर फिर से उठ खड़े हुए हैं। पप्पू यादव के साथ उस दौर में जिन बाहुबलियों ने राजनीति में कदम रखा था ज्यादातर बाहुबली नेताओ का राजनीतिक अंत हो चुका है। बीते साल लोकसभा चुनाव में वही बाहुबली नेता या उनके परिवार वाले जीतकर पहुंचे हैं जो समय रहते मोदी लहर पर सवार हो गये थे। लेकिन खिलाफ में रहकर भी पप्पू यादव न सिर्फ खुद चुनाव जीते बल्कि कांग्रेस के टिकट पर पत्नी को भी संसद पहुंचाया।
लालू-राबड़ी के कार्यकाल में बिहार की राजनीति पर यादवों का साम्राज्य कायम था। लालू जब पहली बार 1990 में सीएम बने थे तब बिहार में यादव विधायकों की संख्या 63 थी। लालू जब पीक पर थे तब 1995 में संख्या 86 हो गई। 2000 में 64 रही। लेकिन 2005 के बाद ये आंकड़ा घटने लगा। 2005 में 54 और 2010 में महज 39 यादव विधायक जीते थे। जानकर आश्चर्य होगा कि अभी जो 39 विधायक हैं उनमें से 16 जेडीयू और 10 बीजेपी के हैं।  
बिहार की राजनीति में विरोधी लालू को आज जिस जंगल राज का प्रतीक मानते हैं । उस जंगल राज तक लालू को पहुंचाने में उनके सालों का अहम योगदान रहा है। खासकर छोटे साले साधु यादव का। अब तो कहावत बन चुकी है कि लालू की बड़ी बेटी की शादी में साधु ने पटना के शो रूम से कार से लेकर सोफा तक उठवा लाए थे। सीवान में छात्र नेता चंद्रशेखर की जब हत्या हुई थी तब दिल्ली में बिहार निवास के बाहर प्रदर्शन कपने वाले वामपंथी छात्र संगठन के कार्यकर्ताओं रॉड दिखाकर भगा दिया था। और न जाने कई तरह के विवादित मामलों में इनके नाम की चर्चा होती रहती है। एक फिल्म में किरदार का नाम इनके नाम पर रखा गया तो खूब बवाल हुआ था। 2005 में जब लालू की सत्ता चली गई तो आग पर पड़े पानी की तरह साधु यादव भी शांत हो गए। पर उनकी राजनीतिक महत्वकांक्षा कम नहीं हुई है। जीजा लालू के सहारे सांसद बन चुके साधु यादव 2009 में कांग्रेस के टिकट पर लड़कर हार गए। 2014 के चुनाव से पहले गुजरात जाकर मोदी के घर चाय नाश्ता कर आए। हंगामा मचा तो बीजेपी ने दरवाजा बंद कर लिया। अब कोई दरबार बाकी नहीं रह गया था तो अपनी पार्टी बनाकर ही किस्मत आजमाने उतर गए हैं। गरीब जनता दल सेक्यूलर के जरिये तीसरा मोर्चा तैयार कर रहे हैं। साधु यादव भले ही किसी उम्मीदवार को जिता नहीं पाए लेकिन जो पांच सौ- हजार वोटों का नुकसान करेंगे वो अपने जीजा के खजाने से ही करेंगे।  
साधु यादव, पप्पू यादव और कोइरी नेता नागमणि के मिलकर एक तीसरा मोर्चा बनाने की चर्चा चल रही है। तीनों साथ आएंगे तो फिर कहीं कहीं अच्छा प्रभाव डाल सकते हैं। वैसे इस चुनाव के लिए इनका भविष्य उज्ज्वल नहीं दिख रहा है।
लालू यादव के साथ दिक्कत ये है कि वो खुद चुनाव लड़ नहीं सकते। परिवार में अभी बेटे राजनीतिक दांव पेंच के लिए परिपक्व नहीं हुए हैं। पत्नी और बेटियां आज के राजनीतिक वातावरण में नेतृत्व के लिए फिट नहीं हैं। इसीलिए मुख्यमंत्री के लिए उन्हें नीतीश के नाम पर राजी होना पड़ा।
जहां तक बीजेपी का सवाल है तो फिलहाल बीजेपी से यादव मुख्यमंत्री का सपना अभी दूर की कौड़ी है। नंद किशोर यादव इस जाति से सबसे प्रबल दावेदार हैं। लेकिन इस वोट बैंक पर बीजेपी को भरोसा नहीं है सो नंद किशोर का नंबर इस बार तो नहीं लगता है।
बिहार में यादव वोटरों की संख्या करीब 13 फीसदी है। बीते साल लोकसभा चुनाव में करीब 20 फीसदी यादवों ने बीजेपी को वोट दिया था। बीजेपी से 4, आरजेडी से 2, कांग्रेस से 1 यादव जाति के सांसद बने।
इस बार बिहार में कोई यादव नेता मुख्यमंत्री की रेस में नहीं है। नीतीश के सीएम उम्मीदवार बनाने के साथ ही पप्पू, साधु सहित और भी कई कारण हैं जो यादव वोटरों को साथ नहीं रहने पर मजबूर कर रहा है। सबसे बडी दिक्कत वोट ट्रांसफर की है। नीतीश का वोट लालू की पार्टी को ट्रांसफर हो जाएगा। लेकिन लालू के लिए यादवों का वोट नीतीश के उम्मीदवार को पूरी तरह से ट्रांसफर हो सकेगा इसमें शक है। मतलब गोप का कोई एक पोप बनेगा इसमें शक की गुंजाइश ज्यादा है। बाढ़ वाले एपिसोड में गोप का पोप बनने की लड़ाई खुलकर सामने आ चुकी है। सभी पार्टियों से सिर्फ यादव नेताओं ने बयान दिए । चाहे वो पप्पू यादव हों या मुंद्रिका यादव, लालू यादव और नंद किशोर यादव ।


Saturday, June 20, 2015

नीतीश के मुकाबले क्यों सॉलिड नहीं हैं सुशील मोदी ?

जहर का घूंट पीकर ही सही लालू ने नीतीश को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार मान लिया। लेकिन एनडीए का मुख्यमंत्री उम्मीदवार कौन होगा ? होगा भी या नहीं ?  ये बड़ा सवाल है। लोकसभा चुनाव के वक्त जब नरेंद्र मोदी को बीजेपी ने पीएम उम्मीदवार घोषित कर दिया था तब बीजेपी वाले कांग्रेस और यूपीए से उनका उम्मीदवार पूछा करते थे। बिहार में अब यही स्थिति उलट गई है। बीजेपी को जवाब देना है। लेकिन एक अनार और सौ बीमार होने की वजह से बीजेपी कोई रिस्क लेने की हिम्मत नहीं जुटा रही।
महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड में भी बीजेपी ने नरेंद्र मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ा था और नतीजा पक्ष में आया। दिल्ली में केजरीवाल के खिलाफ किरन बेदी को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बताकर पार्टी हाल देख चुकी है। दिल्ली में भी केजरीवाल के कद के लायक नेता की कमी थी और बिहार में भी कमोबेश वही हाल है। ऐसा नहीं कि बीजेपी में नेता की कोई कमी है। लेकिन उम्मीदवार इतने ज्यादा हैं कि फायदे से अधिक नुकसान का खतरा नजर आ रहा है ।
आज की तारीख में सुशील कुमार मोदी सबसे अहम और स्वभाविक दावेदार हैं। लेकिन सुशील मोदी में नीतीश के मुकाबले करिश्मा करने की काबिलियत नहीं है। बिहार बीजेपी में जितने बड़े नेता हैं उसमें सुशील मोदी को पसंद करने वाले कम और नापसंद करने वाले ज्यादा हैं। सुशील मोदी का कद बीजेपी के बाकी नेताओं से इसलिए बड़ा है क्योंकि
इनके पास अनुभव लंबा है। सरकार का भी संगठन का भी। आरएसएस के स्वंयसेवक से सियासी सफर शुरू करने वाले सुशील मोदी 1995 से लेकर 2004 तक विपक्ष के नेता रहे। यानी जब तक बीजेपी विपक्ष में थी तब तक पटना से विधायक रहे सुशील मोदी विपक्ष के नेता थे। और जब तक सत्ता में रही यानी 2005 से 2013 तक उपमुख्यमंत्री रहे। लालू के साथ पटना विश्वविद्यालय में छात्र संघ के सचिव हुआ करते थे। बिहार बीजेपी के भीष्म पितामह कहे जाने वाले कैलाशपति मिश्र अगर जिंदा होते तो शायद सुशील मोदी को सीएम उम्मीदवार बनने के लिए किसी का मुंह नहीं देखना होता। लेकिन आज की तारीख में माहौल सुशील मोदी के पक्ष में एकतरफा नहीं है।
सुशील मोदी के अलावा इस पद की रेस में नंद किशोर यादव, प्रेम कुमार, एसएन आर्य जैसे बिहार की राजनीति करने वाले नेता तो हैं ही । केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद (कायस्थ), राजीव प्रताप रूडी(राजपूत), राधामोहन सिंह(राजपूत), गिरिराज सिंह(भूमिहार), सांसद अश्विनी चौबे(ब्राह्ण), पार्टी प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन जैसे लोगों के नाम की हवा भी उड़ रही है। गिरिराज सिंह और अश्विनी चौबे जैसे नेताओं को लोकसभा भेजकर सुशील मोदी ने इनकी दावेदारी को कम कर तो दिया है लेकिन इनकी सलाह को नजरअंदाज करना पार्टी के लिए आसान नहीं रहने वाला।
बीजेपी कोटे से केंद्र में जो पांच मंत्री हैं उनमें से 4 तो सवर्ण हैं। केवल रामकृपाल यादव ही पिछड़ी जाति के हैं। इस लिहाज से सीएम की कुर्सी के लिए सवर्ण नेताओं का दावा भी कमजोर पड़ता है। वैसे भी पार्टी ने इन दिनों विधायकों को ही सीएम बनाने की परंपरा शुरू कर रखी है।
सुशील मोदी का विरोध इसलिए होता है क्योंकि जब तक वो बिहार में डिप्टी सीएम रहे बाकी नेताओं को भाव नहीं देते थे । सुशील मोदी को नीतीश कुमार का कट्टर समर्थक माना जाता था । नीतीश के दरबार में भी सुशील मोदी के अलावा बाकी बीजेपी के किसी नेता की कोई पूछ नहीं थी । सुशील मोदी नीतीश से रिश्ता तोड़ने के पक्ष में भी नहीं थे । पार्टी में मौजूद सुशील मोदी के विरोधी आरोप लगाते हैं कि कोई भी पद और अहम जिम्मेदारी सुशील मोदी और नंदकिशोर आपस में बांट लेते हैं । और बाकी नेता देखते रह जाते हैं ।
रविशंकर, राधामोहन जैसे बड़े नेता सीएम के लिए सुशील मोदी के नाम पर आसानी से मान जाएंगे। लेकिन बाकी को मनाना होगा। यही वजह है कि पार्टी बिहार में नेता प्रोजेक्ट कर चुनाव लड़ने की रणनीति नहीं अपनाने की तैयारी में है। नीतीश कुमार के सामने नरेंद्र मोदी का चेहरा रखकर बीजेपी लड़ती है तो विवाद भी नहीं होगा और नरेंद्र मोदी नाम का प्रभाव भी ज्यादा पड़ेगा। इसमें भी कोई दो राय नहीं है टिकट बंटवारे में सुशील मोदी और बिहार संगठन की ही ज्यादा चलनी है। और बिहार संगठन पर वैसे भी सुशील मोदी का ही कब्जा है। यानी बहुमत मिलता है तो विधायकों का ज्यादा समर्थन सुशील मोदी को ही मिलने का चांस रहेगा। वैसे भी 25 साल से (मांझी के कार्यकाल को छोड़ दें तो ) ओबीसी मुख्यमंत्री ही हैं।
सुशील मोदी का दावा पार्टी में बाकियों पर भारी इसलिए भी है क्योंकि सवर्णों के बाद वैश्य वोटर ही हैं जो बीजेपी को सबसे ज्यादा वोट करते हैं। शहरी इलाकों के तो वैश्य वोटर बीजेपी को ही वोट करते हैं। मोतिहारी, बेतिया, सीतामढ़ी. मुजफ्फरपुर, हाजीपुर, मधुबनी, कटिहार, सहरसा, दरभंगा, बेगूसराय, पटना, गया, आरा, बक्सर जैसे बड़े शहरों पर बीजेपी का ही कब्जा है।
ये तो बात रही सिर्फ बीजेपी की। लेकिन बिहार में बीजेपी अकेले नहीं है। रामविलास पासवान की पार्टी एलजेपी, उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी और जीतन राम मांझी की पार्टी भी एनडीए का हिस्सा है। सीएम के लिए पासवान के नाम की चर्चा खुद उनके भाई चला चुके हैं। पासवान की सीएम बनने की महत्वकांक्षा भी पंद्रह साल पुरानी है। उपेंद्र कुशवाहा और मांझी भी आसानी से लाइन पर आ जाएंगे कहा नहीं जा सकता। सीट भले ही इन लोगों को कम मिले लेकिन नखरा तो इनका होने वाला ही है।

बिहार की राजनीति में राक्षस वॉर

बिहार की राजनीति में राम कौन और रावण कौन, अब इस बात को लेकर बहस छिड़ी हुई है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पिछले दिनों जीतन राम मांझी को बिहार की राजनीति का विभीषण करार दिया था।  इसी बयान के बाद से राक्षस वॉर जारी है । लालू ने बीजेपी नेताओं को छोटा छोटा राक्षस कहा है तो बीजेपी के सांसद अश्विनी चौबे ने सोनिया गांधी को पुतना । इससे पहले बीजेपी के तमाम नेता नीतीश को रावण बता चुके हैं ।
बिहार में राम कौन और रावण कौन ? इसको जानने के लिए पहले विवाद की शुरुआत करने वाले किरदार विभीषण के रोल को समझना जरूरी है। विभीषण लंका के राजा रावण का सबसे छोटा भाई था। सीता माता को लेकर जब वानरों की सेना के साथ भगवान राम ने लंका पर चढ़ाई की तो विभीषण ने रावण का साथ न देकर राम का साथ दिया था। अंत में सबके सब मारे गए और सिर्फ विभीषण ही जिंदा बचे थे।
अब बिहार की राजनीति में नीतीश मांझी को विभीषण बताकर क्या कहना चाहते हैं ये तो वहीं जाने लेकिन कथा कहानियों में सत्य यही है कि रावण का साथ छोड़कर विभीषण राम के खेमे में आए थे। और बिहार का सत्य ये है कि कल तक नीतीश के भरोसेमंद रहे मांझी अब नीतीश का साथ छोड़कर बीजेपी के साथ खड़े हैं। नीतीश कुमार ने लोकसभा चुनाव में हार के बाद इस्तीफा देकर पिछले साल मांझी को सीएम बनाया था। उस वक्त पार्टी में किसी ने कल्पना नहीं की थी कि नीतीश मांझी को अपना उत्तराधिकारी बनाएंगे। लेकिन ऐसा हुआ। लेकिन 10 महीने बाद ही इस साल फरवरी में मांझी से मोहभंग हो गया। अब उन्हीं मांझी को विभीषण बताकर निशाना साध रहे हैं।
नीतीश ने मांझी को विभीषण कहा तो बीजेपी के तमाम नेता राशन पानी के साथ नीतीश पर चढ़ गए। ये बताने के लिए कि मांझी विभीषण हैं तो नीतीश बिहार की राजनीति के रावण। सुशील कुमार मोदी से लेकर केंद्रीय मंत्री रामकृपाल यादव तक सबने नीतीश को बारी बारी से रावण बताया। और बीजेपी खेमे को राम। मांझी खुद भी चुप नहीं हैं। मुजफ्फरपुर गए तो पत्रकारों से कह दिया कि वो विभीषण हैं और नीतीश की लंका को चुनाव में जलाकर दिखाएंगे। ऐसा नहीं कि बिहार के इस ‘राजनीतिक रामायण’ में विरोधियों ने लालू को अलग रखा है। जीतन राम मांझी की पार्टी लालू को कुंभकर्ण (रावण का मंझला भाई) बता रही है।
रावण बताने की ये लड़ाई पुरानी है। पिछले साल लोकसभा चुनाव के बाद जब विधानसभा के उपचुनाव में लालू-नीतीश की जोड़ी को जीत मिली थी तब नीतीश ने बीजेपी की तुलना रावण से की थी। नीतीश ने तब केंद्र सरकार पर हमला बोलते हुए कहा था कि जब रावण का घमंड नहीं रहा तो फिर बीजेपी क्या चीज है ?  तब बीजेपी हारी हुई थी और उनके पास हमले के जवाब का मौका नहीं था। अब बीजेपी को मौका मिला है तो नीतीश के बयान के जरिए ही पार्टी उन्हें रावण बताने में जुटी है।
असल में इस राजनीतिक रामायण की लड़ाई के पीछे भी वोट बैंक का ही गणित है। मांझी बिहार की राजनीति के केंद्र में इसलिए हैं क्योंकि नीतीश कुमार मांझी को राजनीति से आउट बताने में जुटे हैं और बीजेपी मांझी के सहारे महादलित वोट बैंक पर पकड़ और मजबूत करना चाहती है। बिहार में करीब 16 फीसदी महादलित वोट हैं। जब मांझी मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने महादलित समुदाय में अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी। बीजेपी को उम्मीद है कि मांझी के सहारे वो नीतीश के भरोसेमंद महादलित वोट बैंक में सेंध लगाकर उन्हें नुकसान पहुंचा सकते हैं। बीजेपी इसीलिए मांझी को भरपूर भाव दे रही है। लेकिन नीतीश मांझी को बिहार में आज कोई फैक्टर नहीं बताकर उनका कद कम करना चाहते हैं।
लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या वाकई में बीजेपी के लिए मांझी विभीषण साबित हो पाएंगे ?  मांझी बिहार में आज जाति विशेष के प्रतीक भर बनकर रह गए हैं। विवादित बयानों की वजह से भी मांझी की छवि विवादित बन चुकी है। आज की राजनीतिक परिस्थिति में इस बात को लेकर शक है कि वो किसी का भविष्य बना सकते हैं। लेकिन बिगाड़ने की स्थिति में कमोबेश जरूर हैं। नीतीश से बागी होकर जो विधायक मांझी के साथ खड़े थे उनमें से ज्यादा बीजेपी के साथ जाने को तैयार खड़े हैं। मुट्टी भर लोग मांझी के साथ बचे हैं। ये वो लोग हैं जो अपने वोट बैंक और स्थानीय कारणों से बीजेपी के टिकट पर नहीं लड़ना चाहते। लेकिन जिनकी राजनितिक मजबूरी नहीं हैं वो सीधे सीधे बीजेपी के टिकट पर लड़ने को तैयार हैं। जो राजनीति परिस्थिति बन रही है उसमें मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा को बीजेपी अधिकतम 10-12 सीटें लड़ने को दे सकती है। बीजेपी की कोशिश है कि मांझी खुद चुनाव न लड़ें और एनडीए उम्मीदवारों का प्रचार करें। ऐसा उसी परिस्थिति में संभव है जब मांझी के परिवार से किसी को चुनाव का टिकट मिलेगा। अब देखना पड़ेगा कि नीतीश के लिए विभीषण बन चुके मांझी बीजेपी खेमे के लिए विभीषण साबित हो पाते हैं या नहीं ।

Friday, June 12, 2015

फिर एक बार नीतीश कुमार क्यों ?



बिहार में फिर एक बार नीतीश कुमार क्यों ?  बिहार की जमीनी हकीकत से वाकिफ लोगों से इस बारे में आप और बेहतर तरीके से जान सकते हैं। बिहार से बाहर रह रहे लोग खासकर दिल्ली जैसे शहरों में एक ऐसा वर्ग है जो बिना जमीनी हकीकत जाने विश्लेषण में जुटा है। लोकसभा चुनाव के वक्त दिल्ली में बैठे बैठे ये लोग बिहार की हवा बता रहे थे। लेकिन नतीजों ने तमाम हवा की हवा निकाल दी ।
असल में आज के दौर में बिहार दोराहे पर खड़ा है। एक रास्ता पुश्तैनी है जो जातिवाद के जंजाल की ओर बिहार को ले जाता है । जबकि दूसरा रास्ता उम्मीदों का है जिस पर बिहार आगे बढ़कर विकास के सपने देख रहा है। नीतीश ने दस साल के कार्यकाल में इन दोनों को बराबर साध कर रखा था। जिसका नतीजा हुआ कि जातिवाद की राह पर चलकर भी बिहार विकास की कहानी लिखता रहा। लेकिन राजनीतिक परिस्थितियां जब से बदली हैं तब से लोगों के मन में सैकड़ों सवाल हैं।
सवाल ये कि क्या नीतीश लालू से हाथ मिलाकर जिस जातिवादी राजनीति की राह पर बढ़ रहे हैं वो बिहार की उम्मीदों को तोड़ तो नहीं देगा ? बिहार का आम अवाम अब भी नीतीश में विकास पुरुष की छवि देखता है। लेकिन लालू के जंगल राज और आतंक से इतना त्रस्त रह चुका है कि उसे इस दोस्ती में फिर वही पुराना दिन नजर आता है । नीतीश गारंटी तो देते हैं लेकिन जिस तरीके से लालू के जंगल राज का वो बचाव करते दिखते हैं उससे लोगों की उम्मीद पर ग्रहण लगता दिखता है।  इन सवालों के बीच अच्छी बात ये है कि नीतीश रुक नहीं रहे। अपनी राह पर वो चलते ही दिख रहे हैं। मांझी को मुख्यमंत्री बनाने को लेकर उनकी मंशा साफ थी लेकिन मांझी के गलत बयान और विचारों को उन्होंने बर्दाश्त नहीं किया। लालू नहीं चाहते थे कि मांझी हटे और नीतीश सीएम बनें। लेकिन लालू की सलाह को नीतीश ने नजरअंदाज कर दिया।

हां लेकिन इस चुनावी साल में जो भी उठापटक हुआ है उससे नीतीश सहमे जरूर हैं। राजनीतिक वनवास का डर उन्हें लालू के साथ खड़े होने को मजबूर कर देता है। इन सबके बाद भी नीतीश  बिहार में मुख्यमंत्री के लिए सबसे पहली पसंद हैं। इसका कारण है उनकी छवि। जिद, कुछ करने का जुनून, विकास की सोच और ईमानदार नेता की पहचान नीतीश को बाकियों से अलग कर देता है। दस साल के कार्यकाल में नीतीश ने बिहार को नई दिशा दी। नई पहचान दी। बीजेपी वाले बिहार में लाख हल्ला करे लेकिन जो हकीकत है उससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। हां चापलूसी और चरणवंदना तो नेताओं की फितरत में शामिल होती है सो नीतीश भी इससे अछूते नहीं हैं।
भूकंप के दौरान नीतीश ने जिस तरीके से तेजी दिखाई उसने चुनावी साल में उनकी छवि को चमकाने का काम किया है। बिहार में तमाम नेता खौफ के मारे जहां दिख नहीं रहे थे। वहीं नीतीश बिहार से लेकर नेपाल तक के लोगों की मदद पहुंचाने में जुटे थे। विरोधी ये प्रचार करने में जुटे थे कि नीतीश बिहार की चिंता छोड़ नेपाल में जुटे हैं तो इसके पीछे भी वजह थी। बॉर्डर इलाके में ज्यादातर वैसे लोग रहते हैं जिनकी रिश्तेदारी नेपाल में है। ऐसे में उन्हें नेपाल के हाल पर छोड़ा नहीं जा सकता था। नीतीश ने मानवीय हित और वोट का भी ख्याल रखते हुए ऐसा किया। राहत के काम में रमई राम जैसे मंत्री ने आनाकानी की तो हटाने में उन्हें एक मिनट की देरी नहीं दिखाई। लालू जैसे नेता तो भूकंप के दौरान कहीं दिखे भी नहीं। बिहार बीजेपी वाले भी किसी भूकंप प्रभावित इलाके में रात बीताते नहीं पाए गए।
नीतीश के कार्यकाल में सड़कों का जाल जो बिहार ने देखा है वो पहले कभी नहीं देखा गया। ऐसा नहीं कि काम पूरा हो चुका है और अब करने की जरूरत नहीं है । लेकिन जितना पिछले 50-55 साल में नहीं उससे बहुत ज्यादा बिहार में काम इनके कार्यकाल में हुआ है।
एक पूरी पीढ़ी है जो नीतीश और बिहार के विकास की गवाह है। हमारी उम्र के लोग जब से राजनीति को समझ रहे हैं तब से सिर्फ लालू और नीतीश के आसपास ही बिहार की राजनीति घूम रही है।
नीतीश कुमार ने जिस दौर में लालू का साथ छोड़ा था उस दौर में लालू एक ब्रांड के तौर पर स्थापित हो चुके थे। बिहार की राजनीति पर लालू का एकछत्र राज हुआ करता था। नीतीश की तब उतनी राजनितिक हैसियत नहीं थी कि वो लालू को चुनौती दे सके। लेकिन जॉर्ज फर्नांडिस के सानिध्य में नीतीश कुमार ने हिम्मत दिखाई और लालू का साथ छोड़कर अपनी स्वतंत्र और अलग पहचान स्थापित की ।
1994 में जब नीतीश अलग हुए थे तब जनता दल (ज) नाम से पार्टी बनी। अक्टूबर महीने में नाम समता पार्टी रखा गया। अगले साल यानी 1995 में विधानसभा का चुनाव हुआ। नीतीश की पार्टी सभी 324 सीटों (तब झारखंड साथ था ) पर लड़ी थी । टीएन शेषण के कार्यकाल में तब टाइट चुनाव हुआ था । फिर भी लालू के मुकाबले नीतीश को बिहार ने नकार दिया। नीतीश को तब कुल 7 सीटें मिली थी। इसमें खुद नीतीश दो जगहों से जीते थे। लेकिन नीतीश ने हिम्मत नहीं हारी।  जॉर्ज ने नीतीश को बिहार का नेता बनाने के लिए बीजेपी से हाथ मिलाया और फिर पांच साल में ही ऐसा मौका आ गया कि नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री बन गए।
साल 2000 में निर्दलीयों के साथ मिलकर नीतीश मुख्यमंत्री बनने में तो कामयाब रहे लेकिन समर्थन नहीं जुटा पाए। नतीजा हुआ कि राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बन गई और नीतीश केंद्र में मंत्री बन गए। तब ही तय हो गया था कि बिहार में नेता नीतीश कुमार होंगे और बीजेपी नीतीश के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ेगी।
नीतीश आज जिस मुकाम पर हैं शायद यहां तक पहुंच नहीं पाते अगर 2005 में पासवान ने राजनीतिक करियर की सबसे बड़ी भूल नहीं की होती। 2005 के फरवरी महीने में त्रिशंकू विधानसभा में सत्ता की चाबी पासवान के पास थी। लालू को 75 सीटें मिली थी और जेडीयू-बीजेपी को 93 । 29 सीटों वाले पासवान चाहते तो मोल तोल करके किसी की भी सरकार बनवा सकते थे। लेकिन पासवान ने मुस्लिम मुख्यमंत्री की जिद करके बिहार में राष्ट्रपति शासन लगवा दिया। इसके बाद नवंबर 2005 में जो चुनाव हुआ उसने नीतीश कुमार को बिहार में स्थापित कर दिया।
बीजेपी के साथ मिलकर नीतीश ने लोकसभा के 5 और विधानसभा के 4 चुनाव लड़े। पहली बार 2014 में नीतीश ने अपने दम पर चुनाव लड़ा और दो सीटों पर रह गये। 40 में से 38 सीटों  पर लड़ने वाले नीतीश की पार्टी ज्यादातर सीटों पर तीसरे नंबर पर चली गई। जानकार इसमें कहीं न कहीं नीतीश के राजनीतिक अहंकार को भी जिम्मेदार मानते हैं।
यही से नीतीश की राजनीति का टर्निंग प्वाइंट शुरू हुआ और नीतीश को लालू से हाथ मिलाने पर मजबूर होना पड़ा। जिस मुस्लिम वोटों के लिए नीतीश ने बीजेपी का साथ छोड़ा था उस मुस्लिम वोट बैंक ने लालू पर ज्यादा भरोसा किया। जिस कुर्मी कोइरी के 11-12 फीसदी वोट बैंक को नीतीश का आधार माना जाता था उस वोट बैंक में से कोइरी के वोट नीतीश से दूर चले गए। संदेश साफ था कि नीतीश बिहार में सिर्फ विकास के नाम पर चुनाव नहीं जीत सकते। जाति का गणित उनके लिए जरूरी है।  जाति और धर्म बिहार की राजनीतिक जरूरत है। नीतीश के रणनीतिकार इस मजबूरी को समझ गये थे और उनके सामने कांग्रेस और लालू की दोस्ती के अलावा कोई चारा नहीं रह गया था। कांग्रेस का साथ होना मतलब मुस्लिमों का ज्यादा भरोसा। लालू का साथ लेना मतलब पिछड़ों का मजबूत मोर्चा। वैसे नीतीश की रणनीति सबको साथ लेकर चलने की है।
नीतीश की जातीय रणनीति भी देखिए। उनके बगल में एक तरफ भूमिहार जाति के विजय चौधरी और पीके शाही होते हैं तो दूसरी ओर विजेंद्र यादव। मतलब अगड़ा भी साथ और पिछड़ा भी। मेरा मानना है कि टिकट बंटवारे में नीतीश की पार्टी पिछड़ो की तुलना में सवर्णों को ज्यादा टिकट देने की रणनीति अपनाएगी। बीजेपी और नीतीश के गठबंधन के दौरान जो रोल बीजेपी निभाया करती थी अब लालू-नीतीश गठबंधन में वो रोल नीतीश की पार्टी निभाएगी । लेकिन नीतीश के लोग ये सोच रहे हैं कि मुख्यमंत्री के नाम का एलान हो गया इसका मतलब सब हो गया ऐसा नहीं है। लालू की पार्टी अगर नीतीश से ज्यादा सीटें जीतती है तो फिर एक बार इस पर विवाद होना तय है। तब अगर बीजेपी के साथ नीतीश को सरकार बनाने की जरूरत पड़ी तो फिर दोनों साथ भी आ सकते है। क्योंकि राजनीति में रिश्ते बदलते देर नहीं लगती।