Wednesday, April 17, 2013

नीतीश और बीजेपी की दोस्ती की कहानी


                    बिहार में नीतीश और बीजेपी का साथ 17 साल पुराना है। 1996 में जब लोकसभा का चुनाव हो रहा था चुनाव से ठीक पहले जॉर्ज और नीतीश ने बीजेपी से हाथ मिलाया था। जॉर्ज और नीतीश उस वक्त समता पार्टी में हुआ करते थे। तब शरद यादव इन लोगों के साथ नहीं थे। 1994 में जॉर्ज और नीतीश ने जनता दल का साथ छोड़कर समता पार्टी बनाई थी। 1996 के चुनाव में बीजेपी और जेडीयू ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा। 1996 के चुनाव में 54 सीटों में से बीजेपी को 18 और जेडीयू को 6 सीटें मिली थी। केंद्र में देवेगौड़ा के नेतृत्व में सरकार बनी। और फिर 1998 तक संयुक्त मोर्चे की सरकार रही। बीच में देवेगौड़ा के बाद गुजराल प्रधानमंत्री भी बने। इसी बीच 1997 में अध्यक्ष पद को लेकर विवाद में जनता दल टूट गया और लालू के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनता दल बना।            
 1998 में फिर से बिहार में चुनाव हुआ। 54 में से 
समता पार्टी को 10 और बीजेपी को 20 सीटें मिली।

1999 के चुनाव से पहले जनता दल टूटा और फिर शरद यादव के नेतृत्व वाले जनता दल यू, समता पार्टी का आपस में विलय हो गया। पार्टी का नाम जनता दल यू हुआ और जॉर्ज अध्यक्ष ।  1999 के चुनाव में फिर से बीजेपी के साथ मिलकर जेडीयू ने चुनाव लड़ा।  1999 के चुनाव में एनडीए को बिहार में 54 में से 41 सीटों पर जीत मिली थी। तब झारखंड साथ था। अकेले बिहार की 40 में से 30 सीटों पर दोनों दलों को जीत मिली थी। जेडीयू को 18 और बीजेपी को 12 सीटें ।
                                 लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद अध्यक्ष पद को लेकर हुए विवाद में जनता दल यू और समता पार्टी को फिर से अलग कर दिया। समता पार्टी के 12 और जेडीयू के पास 6 सांसद बचे। हालांकि 2000 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी, जेडीयू, समता पार्टी और बिहार पीपुल्स पार्टी ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा। नतीजों के बाद नीतीश सात दिनों के लिए मुख्यमंत्री बने। इसी साल झारखंड बिहार से अलग हुआ और जेडीयू-बीजेपी के बीच पहला विवाद हुआ बिहार में नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी को लेकर। तब तक सुशील मोदी बिहार में विपक्ष के नेता थे लेकिन झारखंड बंटने के बाद जब बीजेपी की सीटें घटी और फिर नंबर के हिसाब से समता पार्टी बड़ी पार्टी हो गई। और उपेंद्र कुशवाहा विपक्ष के नेता बने।
लेकिन इस चुनाव के बाद जनता दल यू में अध्यक्ष पद को लेकर विवाद हुआ और पासवान ने 2000 में 4 सांसदों के साथ अपनी नई पार्टी बना ली । (पासवान रामकृष्ण हेगड़े को अध्यक्ष बनाने के पक्ष में थे, बिहार चुनाव में नीतीश को सीएम प्रोजेक्ट करने से भी नाराज थे ) नई पार्टी का नाम रखा लोक जनशक्ति पार्टी। नई पार्टी के साथ करीब 1 साल तक पासवान वाजपेयी सरकार में संचार से कोयला मंत्री तक रहे। 27 अप्रैल 2002 को रामविलास पासवान ने वाजपेयी सरकार से इस्तीफा दे दिया। पासवान ने इस्तीफे का आधार गुजरात दंगे को बनाया लेकिन हकीकत ये है कि पासवान इस बात से नाराज थे कि बीजेपी यूपी में मायावती से हाथ मिलाने जा रही थी और पासवान का मंत्रालय भी बदल दिया गया था । दलित राजनीति में हाशिये पर जाने का डर की वजह से पासवान ने वाजपेयी सरकार का साथ छोड़ दिया।  लेकिन जनता में ये मैसेज गया कि गुजरात दंगों की वजह से उन्होंने सरकार का साथ छोड़ा है। हालांकि 2002 में गुजरात दंगों के वक्त वाजपेयी सरकार में नीतीश रेल मंत्री बने रहे
अक्टूबर 2003 में फिर से जनता दल यू और समता पार्टी का विलय हो गया। पार्टी का नाम जनता दल यू रहा। जॉर्ज अध्यक्ष, शरद यादव संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष बने। 2004 में जेडीयू और बीजेपी ने मिलकर चुनाव लड़ा। बीजेपी को बिहार में 6 और जेडीयू को 5 सीटें मिली।
(2004 में जेडीयू को 1 सीट लक्षद्वीप, 1 यूपी में आंवला भी मिली थी)
नीतीश दो सीटों से लड़ रहे थे जिसमें से बाढ़ की सीट से वो हार गए। जॉर्ज ने मुजफ्फरपुर से चुनाव लड़ा और वो जीते। इस चुनाव में एनडीए ने वाजपेयी को पीएम प्रोजेक्ट किया था।
          इसके बाद 2005 के फऱवरी में जो विधानसभा चुनाव हुआ उसमें किसी दल को बहुमत नहीं मिला। जेडीयू को 55, बीजेपी को 38, आरजेडी को 75, एलजेपी को 29 सीटें मिलीं। लेकिन रामविलास पासवान ने मुस्लिम मुख्यमंत्री बनाने का कार्ड खेला जो कामयाब नहीं हुआ और फिर बिहार एक साल में दूसरी बार चुनाव में गया। इसके बाद 2005 के नवंबर में फिर बिहार विधानसभा का चुनाव हुआ। नीतीश सीएम प्रोजेक्ट हुए। 
                        बीजेपी और जेडीयू को मिलाकर 143 सीटें मिलीं। 88 जेडीयू और 55 बीजेपी। इस चुनाव में पासवान को सिर्फ 10 सीटें ही मिली। बहुमत के साथ नीतीश मुख्यमंत्री बने और सुशील मोदी उप मुख्यमंत्री।

लेकिन इसी चुनाव के बाद शुरू हुआ नीतीश का जनाधार बढ़ाने का खेल। नीतीश ने अल्पसंख्यक वोटरों में अपनी पैठ बनाने के लिए जी तोड़ मेहनत शुरू की। मुस्लिमों को अगड़े-पिछड़े में बांट दिया। पसमांदा समाज (पिछड़ा मुसलमान) से अली अनवर को नेता बनाया। लालू को इस बात का डर सताने लगा कि कहीं मुस्लिम वोट उनसे अलग न हो जाए।
             2006 में पार्टी अध्यक्ष पद के चुनाव को लेकर हुए विवाद में जॉर्ज फर्नांडिस को नीतीश ने हाशिये पर डाल दिया। जॉर्ज को नीतीश के सहयोग से शरद यादव ने हरा दिया। अब जॉर्ज अपनी बनाई पार्टी के लिए बेगाने हो गये ।
                     
गुजरात दंगे का पोस्टप
  इसके बाद 2009 के चुनाव से ठीक पहले नीतीश के खिलाफ मुस्लिम वोट भड़काने के लिए लालू के कार्यकर्ताओं ने बिहार में जगह जगह गुजरात दंगों के भड़काऊ पोस्टर लगाए। लोकसभा चुनाव में गुजरात दंगा अगर मुद्दा बनता तो नीतीश को परेशानी होती। लिहाजा नीतीश ने मुस्लिम सहानुभूति के लिए मोदी के खिलाफ बयानबाजी शुरू की। अपनी ओर से संदेश देने की कोशिश की वो मोदी के साथ खड़े नहीं हैं। लेकिन 2009 में बिहार में वोटिंग खत्म होने के बाद लुधियाना में हुई एनडीए की रैली में मंच पर नीतीश और मोदी ने हाथ मिलाए। कहते हैं कि नीतीश की इच्छा नहीं थी लेकिन मोदी ने मजबूर कर दिया।
 (इस चुनाव में जॉर्ज को टिकट नहीं दिया, ज़ॉर्ज मुजफ्फरपुर से निर्दलीय लड़कर हार गए)
2009 में बिहार की 40 में से नीतीश की पार्टी को 20 और बीजेपी को 12 सीटें मिली। नीतीश की पार्टी 25 और बीजेपी 15 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। इस चुनाव में जेडीयू को 24.04 और बीजेपी को 13.93 फीसदी वोट मिले थे। यानी कुल वोटों का 37.97 फीसदी वोट। जबकि आरजेडी को 19.30 और कांग्रेस को 10.26 फीसदी वोट मिले।
                                         केंद्र में सरकार यूपीए की बनी। और उधर एनडीए में नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की दूरी बढ़ती गई।
     
लुधियाना रैली- 2009
 इसके बाद 2010 में बिहार में विधानसभा चुनाव के ठीक पहले बड़ा विवाद हुआ। 12-13 जून 2010 को बीजेपी की पटना में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक थी। नीतीश के घर रात को भोज का निमंत्रण था अगले दिन बीजेपी की साझा रैली को नीतीश संबोधित करने वाले थे। लेकिन 12 जून की सुबह बिहार के अखबारों में नीतीश और मोदी के हाथ मिलाने वाले बड़े बड़े पोस्टर छप गये। नाराज नीतीश ने न सिर्फ रात्रि भोज रद्द किया बल्कि रैली में शामिल होने का कार्यक्रम भी। जिस पीआर कंपनी ने पोस्टर छपवाये थे उसके यहां छापे मारे गए कानून कार्रवाई की बात तक कही गई। इस विवाद ने मोदी और नीतीश के रिश्तों में चल रही खटास की खाई चौड़ी कर दी।
   चुनाव प्रचार में नीतीश ने बिहार में मोदी को नहीं आने दिया। कोसी बाढ पीड़ितों के लिए मोदी ने बिहार सरकार को 5 करोड़ का चेक भेजा था उसे नीतीश ने वापस कर दिया। नीतीश का ये पैतरा काम आया और बिहार के चुनाव में पार्टी को बहुत बड़ी जीत मिली। कुल 243 में से 140 पर लड़कर 115 पर जेडीयू और 103 में से 91 पर बीजेपी को जीत मिली।
         इस चुनाव में एनडीए को 39.1 फीसदी वोट मिले। जो 2005 की तुलना में 2.9 फीसदी ज्यादा थे। आरजेडी-एलजेपी को 25.6 वोट मिले जो 2005 की तुलना में 13.5 फीसदी कम था।
मतलब संदेश साफ हो गया था बिहार में मोदी की जरूरत नहीं है। इस जीत ने नीतीश को ताकत दी और उनकी पार्टी के नेता पीएम की दावेदारी पर मोदी के दावे को खारिज करने में जुट गए। पिछले साल इकनॉमिक टाइम्स को दिये इंटरव्यू में नीतीश ने चुनाव से पहले पीएम पद का नाम घोषित करने की मांग की। उनकी पार्टी के नेता भी चुनाव से पहले जल्द नाम घोषित करने का दबाव बनाते रहे। लेकिन 13-14 अप्रैल 2013 को दिल्ली में हुई पार्टी कार्यकारिणी की बैठक में जेडीयू ने बीजेपी को दिसंबर तक की मोहलत तो दी लेकिन अपने भाषण में नीतीश ने मोदी पर जबरदस्त हमला किया। नतीजा हुआ कि रिश्ते सुधरने की जगह और बिगड़ते गये। 

Friday, April 12, 2013

..तो सवर्णों का वोट नहीं मिलेगा?


2009 के चुनाव में नीतीश और बीजेपी को मिलाकर करीब 38 फीसदी वोट मिले थे और 40 में से 32 सीटों पर दोनों को जीत मिली थी। इस चुनाव में लालू और पासवान तो साथ थे लेकिन 10 फीसदी वोट काटने वाली कांग्रेस अलग होकर चुनाव लड़ रही थी। 2004 के चुनाव के नतीजे इससे अलग थे। तब बीजेपी और जेडीयू को मिलाकर 11 सीटों पर जीत मिली थी और लालू-पासवान-कांग्रेस की झोली में 29 सीटें गई थी।
अब 2014 में क्या होगा ये तो कोई नहीं जानता। लेकिन जिस तरीके से नीतीश बीजेपी पर दबाव बना रहे हैं उससे बिहार में नुकसान बीजेपी-जेडीयू को ज्यादा होगा या फिर लालू गठबंधन को ज्यादा फायदा। इस पर जानकारों की अभी अलग- अलग राय हो सकती है।
बिहार की राजनीति को समझने वाले इस बात को जानते हैं कि 15-16 फीसदी जो सवर्णों का वोट है उसपर ज्यादा पकड़ बीजेपी की है। विधानसभा के चुनाव में सवर्णों का थोक वोट नीतीश को मिलता रहा है। 11 फीसदी कुर्मी-कोयरी के अलावा पिछड़े मुलसमान और दलितों का एक तबका विधानसभा चुनाव में नीतीश की पार्टी का शुद्ध वोटर है। वैश्य वोटबैंक बिहार में बंटा हुआ है। वो इसलिए क्योंकि बिहार में बैकवार्ड-फॉरवार्ड का विवाद सालों से चल रहा है। और वैश्यों का शहरी तबका जहां बीजेपी का वोटर है वहीं गांवों में वैश्य वोटरों का बड़ा तबका आरजेडी को परंपरागत तरीके से वोट करता है।  
लेकिन सवाल इस बार विधानसभा चुनाव का नहीं। सवाल लोकसभा चुनाव का है। बात नीतीश को मुख्यमंत्री बनाने की नहीं है। चुनाव दिल्ली में पीएम किसको बनाना है इसको लेकर है। अगर बिहार में जेडीयू-बीजेपी का गठबंधन टूटता है तो फिर नीतीश फायदे में रहेंगे, इस तरह की भविष्यवाणी कोई जानकार शायद नहीं कर सकता। लेकिन एक बात ये भी है कि बीजेपी को नुकसान ही होगा ये भी नहीं कहा जा सकता। बिहार में नरेंद्र मोदी को लेकर लोगों में खास क्रेज है। यही वजह है कि बिहार के गांवों में नरेंद्र मोदी के नाम को लेकर चर्चा हो रही है।
नीतीश को चिंता पिछड़े मुस्लिम वोटरों की है जो विधानसभा चुनाव में नीतीश का साथ देते रहे हैं। नीतीश को डर है कि मोदी के नाम पर पिछड़ा मुस्लिम वोट छिटक सकता है। लेकिन डर इस बात का भी है कि अगर बाजेपी का साथ छूटता है तो फिर सवर्ण और वैश्य वोट भी थोक के भाव में बीजेपी को मिल जाएगा। इस हालत में पिछड़ों और दलितों का थोक वोट लालू और पासवान की झोली में भी जा सकता है।
नीतीश के रणनीतिकार इसी से डर रहे हैं। और अभी से ही पीएम को लेकर पत्ते खोलने का दबाव बीजेपी पर बना रहे हैं। ताकि अगर मोदी के नाम पर बीजेपी नहीं मानती तो फिर क्षेत्र में एक साल का समय अपनी जमीन बनाने के लिए मिल जाए। लेकिन बीजेपी की रणनीति नीतीश को उलझा कर रखने की है।
बिहार में अगर नीतीश और बीजेपी अलग होकर चुनाव लड़ते हैं और लालू-पासवान के साथ कांग्रेस भी चुनाव लड़ती है। तो लड़ाई बड़ी दिलचस्प हो सकती है। बिहार में बैकवार्ड क्लास में बड़ा तबका इस बात से नाराज है कि नीतीश के राज में सवर्णों (कुछ खास लोगों) को ज्यादा तरजीह दी जा रही है। यादव वोटर इस बात से नाराज है कि उनका सबसे बड़ा नेता लालू 5 साल से दिल्ली और 10 साल से बिहार की सत्ता से दूर है। पासवान की हार को दलित वोटरों का एक बड़ा खेमा अब तक पचा नहीं पाया है क्योंकि पासवान के कद का कोई बड़ा नेता बिहार में है नहीं। और नीतीश दलित-महादलित के विवाद से बाहर निकले नहीं है। 
भूमिहार, ब्राह्ण और कायस्थ के थोक वोट बीजेपी के खाते में जाएंगे इसको लेकर जानकारों में एकमत है। राजपूत वोट को लेकर कहीं-कहीं दुविधा की स्थिति हो सकती है। क्योंकि राजपूत का थोक वोट तो बीजेपी को मिल सकता है लेकिन लालू की पार्टी को भी राजपूत वोट करते रहे हैं। लेकिन नीतीश के पास वैसा कोई चेहरा नहीं है जिससे वो इस वोट को लुभा सके। ऐसे में नीतीश को सवर्णों के बहुमत से हाथ धोना पड़ सकता है। फिर बचे कुर्मी-कोइरी वोटर। इनके 11 फीसदी वोट में ज्यादा वोट नीतीश को मिलेंगे। लेकिन मुसलमान का वोट सिर्फ इसलिए नीतीश को मिल जाएगा कि बीजेपी से अलग हो रहे हैं ये कहना गलत होगा। क्योंकि मुसलमानों का वोट कुछ हद तक लालू और कांग्रेस को भी मिलेगा ही।
नीतीश के लिए परेशानी इसी बात की है। बिहार की राजनीति के लिए नीतीश चाहे कितने भी बड़े नेता हो जाए लेकिन बीजेपी की बैसाखी उनके लिए जरूरी है। नीतीश का उदय ही बीजेपी के साथ हुआ है। 1995 में नीतीश कुर्मी-कोइरी के नाम पर वोट मांगने बिहार में उतरे थे तो 325 में 7 सीटों पर जीत मिली थी। इसके बाद 1996 से बीजेपी और उनका तालमेल हुआ। बीच में पासवान साथ जुड़े गए...आनंद मोहन आए गए...लेकिन बीजेपी और नीतीश का संबंध बना रहा। सिर्फ मुसलमान वोट के लिए नीतीश इतना बड़ा जुआ खेल लेंगे। ये कहा नहीं जा सकता।
एक बात और क्या बिहार को स्पेशल स्टेट की बात कह कहके नीतीश सवर्ण वोटरों का ध्यान भटकाने की कोशिश कर रहे है? कोई बड़ी बात नहीं है। क्योंकि मोदी को बैलेंस करने के लिए नीतीश स्पेशल स्टेट की बात कहके हवा बनाने में लग जाते हैं। कांग्रेस भी लॉलीपॉप दिखाने लगती है। कुछ खास अखबारों में खबरें छपने होने लगती है। ऐसा नहीं है कि बिहार में जो कुछ हो रहा है उसपर बिहार के अंदर या बाहर के लोगों की नजर नहीं है।
वैसे भी लोगों को पता है कि बिहार के वोट से नीतीश को पीएम तो बनना नहीं है। और चुनाव सीएम का है। लिहाजा नया सियासी समीकरण दिल्ली की सियासत को लेकर नीतीश पर भारी पड़ जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए।