Wednesday, December 22, 2010

तेरी कमी तो खलती रहेगी...



 
ये जो तस्वीर है अपने आप में एक न्यूज चैनल है। निप्पू ने जो कहा है कि ये टीम जिस काम को भी ले लें इनसे बेहतर आउटपुट कोई दे नहीं सकता। इससे मैं भी इत्तेफाक रखता हूं। पहले ये सब लोग एक साथ एक जगह पर काम करते थे। लेकिन अब लोग एक दूसरे से दूर होते जा रहे हैं। पहले निखिल जी गए, अब निप्पू और यश । कल कोई और जाएगा। कहने का मतलब ये कि ये एक सिलसिला है जो अनंत काल तक चलता रहेगा। ऐसा नहीं कि इस टीम से बेहतर टीम इंडस्ट्री में नहीं है या नहीं होगी। लेकिन अभिनित और रश्मि, जो की इन तस्वीरों में नहीं हैं उनको शामिल करके देखें तो अपने आप में एक संपूर्ण व्यवस्था है। ऊपर खाली टोपी पहनाने के लिए एक चाहिए, बाकी सब फिट है। ये तो भूमिका बांध रहा हूं, जो लगता है ज्यादा हो गया।
खैर लिखना ये चाह रह हूं कि निप्पू और यश अब पुरानी कंपनी के लिए अतीत के अंग हो गये। स्वभाविक प्रक्रिया है कि कोई करीबी जब आपसे दूर जाता है तो आपको दुख होता है। जिसके साथ आप चौबीस घंटे में से 10 घंटे रोज बीताते हो वो अगर आपसे दूर होता है तो दुख होगा ही। उसमें भी निप्पू और यश जैसे सहयोगी और करीबी हो तो मामला कुछ ज्यादा करीब का हो जाता है। कोई खानदानी परिचय तो था नहीं, यहीं आकर इनसे जान पहचान हुई, जाने बुझे तो संबंध बेहतर बना और फिर एक सिलसिला चल पड़ा। कभी दोनों से व्यक्तिगत शिकायत नहीं रही मेरी, मैं कभी नाराज हुआ भी तो मुझसे ज्यादा तापमान इन लोगों का बढ़ जाता था। काम के दौरान निप्पू के बार-बार सिगरेट पीने को लेकर मेरी नाराजगी रहती थी, एक बार नाइट शिफ्ट थी उस दौरान तो सिगरेट को गोली मारिए, वो दो-दो घंटे किसी और चक्कर में लगा रहता था फोन पर, कई बार डांट खाया लेकिन अपनी आदत से बाज नहीं आया। एक बार तो मुझे महाशय को मनाने के लिए बड़ा जोर लगाना पड़ा था। मुझे कहता है कि आपको समझना बड़ा मुश्किल है, मैं आपको पौने चार साल में समझ नहीं पाया। पर ये नहीं बताता कि क्या नहीं समझ पाया। निप्पू बार बार आरोप लगाता है कि आपका कौन अपना है कौन पराया ये आपको आज तक पता नहीं चला। निप्पू, मेरे दोस्त क्या करना जानकर, कौन अपना है कौन पराया। तुम अपने हो ये काफी है। वैसे एक बात साफ कर दूं नहीं तो नाराजगी तो तय है। निप्पू और यश दोनों व्यक्तिगत रूप से मेरे काफी करीबी हैं। मैं ये मानता हूं उन लोगों का नहीं पता। प्रोफेशनल रूप से एक को अपना दायां हाथ मानता था तो दूसरे को बायां। बाकी बाद में। वैसे निप्पू दिखने में जितना भोला लगता है उतना है नहीं। मुझे पता है इस लाइन पर बवाल तय है। अबे मजाक कर रहा हूं ...।
दफ्तर में ये दोनों काम करने के मामले में भूत हैं। वक्त की जरूरत कहिये या फिर किस्मत का कनेक्शन, पहले टर्म में साथ काम करने का इतना ही वक्त तय हुआ था सो अच्छी जिंदगी की तलाश में दोनों जा रहे हैं। क्या पता कल मुझे भी कहीं जाना पड़े। यशजी तो गाय हैं। बर्दाश्त करते हैं तो खूब करते हैं उखड़ते हैं तो पता नहीं कब किसको क्या कर (बोल) दें। वैसे दोनों उन बेटियां की तरह हैं, जो जिस घर में जाएंगे उनको संवार देंगे,  बशर्तें भरोसा करके देखना होगा। यहां के लोगों को समझ में नहीं आया ये यहां का दुर्भाग्य है लेकिन कुछ महापुरुषों ने ये जो कहा है कि इतने पैसे में लड़के तैयार हैं किसी के जाने आने से फर्क नहीं पड़ता, ऐसे लोगों का अपना दुर्भाग्य हैं जिनका भगवान मालिक है। अभी देखिए एक खेल हो गया, कल ये तय हुआ था कि दोनों को भव्य विदाई दी जाएगी। इंतजाम बाकी लोग करेंगे। अभी ये जानकारी मिली कि दोनों में से एक इधर के लोगों के लिए ही इंतजाम में लगा है। अद्भूत है...

Monday, December 20, 2010

आतंकवाद पर नया नजरिया



अपुन सियासत के लिए कुछ भी बोलेगा...

आतंकवाद को लेकर देश में इस वक्त बहस छिड़ी हुई है। अब तक आतंकवाद को जाति, धर्म, संप्रदाय वगैरह-वगैरह के चश्मे से देखने से देश का प्रबुद्ध समाज बचता रहा था। जानते सब थे लेकिन खुली जुबान में बोलने और लिखने से परहेज करते थे। ‘आतंक का कोई धर्म नहीं होता’ इस जुमले में अब से पहले शायद राजनीति करने वाले हर दल के लोग यकीन करते थे। लेकिन अमेरिका की नाक में दम कर रखने वाले विकीलीक्स वेबसाइट ने बीते 17 दिसंबर को जो खुलासे किए उसने देश में आतंकवाद के लिए नए शब्द की रचना कर दी । भगवा आतंकवाद, हिंदू आतंकवाद, मुस्लिम आतंकवाद, सिख आतंकवाद और जितने भी नाम हो सकते हैं उन सब नामों को लेकर जो बातें दबी जुबान में ऑफ द रिकॉर्ड होती थी वो बातें विकीलीक्स के खुलासे के बाद ऑन रिकॉर्ड होने लगी। न्यूज चैनलों और अखबारों में आतंकवाद को आतंकवाद के नाम से ही लिखा या बोला जाता था लेकिन 17 दिसंबर को देश के सभी न्यूज चैनल से लेकर अगले दिन अखबारों तक ने मर्यादा की परिभाषा को लांघते हुए आतंकवाद शब्द को हिन्दुस्तान के पारंपरिक परिदृश्य से हटाकर दो धड़ों में बांट दिया। साफ-साफ लिखा गया ‘इस्लामिक आतंकवाद’ ।


मुंबई पर हमला किसने किया?

(आपको अगर याद हो तो याद कीजिए मुंबई पर हमले के वक्त किसी ने नहीं कहा कि ये इस्लामिक आतंकवाद है, दिल्ली ब्लास्ट के वक्त किसी ने नहीं कहा कि हमला मुसलमानों ने किया है, क्योंकि तब आतंक को धर्म के चश्मे से देखने की परंपरा शुरू नहीं की हुई थी, मीडिया ने शुरुआत भी की और कांग्रेस को और आगे बढ़कर कहने का मंच भी दिया।)

आगे बढ़िए, बात यही तक होती तो काम चल जाता लेकिन मामला देश के सबसे बड़े राजनीतिक घराने से जुड़ा था लिहाजा इस पर पानी डालने के बजाए कांग्रेस के लोगों ने आक्रमक होने की रणनीति पर अमल करना बेहतर समझा। 19 दिसंबर को कांग्रेस महाधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने आतंकवाद को जिन दो शब्दों में बांट कर रखा उसे देश ने इससे पहले न तो सुना था और ना ही किसी किताब में पढ़ा था। सोनिया के मुंह से निकले थे दो शब्द अल्पसंख्यक आतंकवाद और बहुसंख्यक आतंकवाद। मतलब दूध की तरफ साफ है। अल्पसंख्यक आतंकवाद की जगह वो इस्लामिक आतंकवाद, मुस्लिम आतंकवाद और बहुसंख्यक आतंकवाद की जगह हिंदू आतंकवाद जैसे शब्द भी बोल सकती थी। लेकिन सियासत में डर हर किसी को लगता है। लिहाजा अपने पूरे भाषण के दौरान सोनिया ने इन दोनों शब्दों का दोबारा इस्तेमाल तो नहीं ही किया ना ही इसका वर्णन करना उचित समझा। इन दो शब्दों ने कांग्रेस की सियासी आक्रमकता के मतलब तो बताये ही ये भी साफ करने की कोशिश की गई कि राहुल गांधी ने पिछले साल अमेरिकी राजदूत से जो कुछ कहा उसके लिए सफाई की जगह देश को तेवर दिखाने की जरूरत है। सोनिया के बयान को समझने के लिए राहुल के उस बयान को जानना जरूरी है जो उन्होंने अमेरिकी राजदूत को कहा था। पिछले साल यानी 2009 के जुलाई महीने में अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन भारत दौरे पर थीं, और पीएम के घर भोज के दौरान अमेरिका के राजदूत टिमोथी रोमर ने राहुल से सवाल किया कि “देश को लश्कर से कितना बड़ा खतरा है। जवाब में राहुल ने कहा कि देश को इस्लामिक आतंकवाद से ज्यादा हिंदू कट्टरपंथियों से खतरा है।"


अब क्यों चुप रह गए युवराज?

संघ और उससे जुड़े संगठनों के खिलाफ राहुल बोलते रहे हैं, ये उनका अधिकार भी है और विचारधारा के स्तर पर इनके खिलाफ बोलना कर्तव्य भी। लेकिन जिस तरह के शब्दों का इस्तेमाल उन्होंने रोमर के सामने किया वाकई में देश को इसकी उम्मीद नहीं हो सकती थी। और शायद देश में कभी भी किसी जगह जाकर खुद इस तरह के शब्दों को बोलने की हिम्मत वो नहीं जुटा सकते थे। लेकिन पर्दे के पीछे हुई बातचीत विकीलीक्स के विस्फोट के बाद दुनिया के सामने हैं। और डैमेज कंट्रोल के लिए रुख को और ज्यादा आक्रमक बनाया जा रहा है। 19 दिसंबर को दिल्ली के अधिवेशन में सोनिया के साथ ही संघ और उससे जुड़े संगठनों के खिलाफ आक्रमक अंदाज में बोलने वाले कोई और था तो वो थे दिग्विजय सिंह। दिग्विजय सिंह ने तो न जाने क्या क्या कहा...लेकिन बारी जब राहुल गांधी की आई तो देश उनके मुंह से विकीलीक्स के दावे की सच्चाई जानना चाहता था पर राहुल विकास, संगठन और भ्रष्टाचार पर बोलकर चलते बने। जिस बहस की शुरुआत उन्होंने की उसको छूने तक की जरूरत या यूं कहिए हिम्मत नहीं जुटा पाए।

एक बात जो समझ से परे नहीं है वो ये कि अगर विकीलीक्स का खुलासा नहीं होता तो शायद इस वक्त कमजोर हो चुके विपक्ष पर एक साथ कांग्रेस का पूरा कुनबा वार नहीं करता और देश में आतंकवाद की परिभाषा को लेकर बहस नहीं शुरू हुई होती। बहस की शुरुआत इसलिए ही हुई कि कांग्रेस के युवराज ने दुनिया के मंच पर देश के बहुसंख्यक समुदाय की छवि को आतंक से सीधे सीधे जोड़ दिया। संघ का आतंक से रिश्ता है या नहीं ये मामला सियासत के लिए सही हो सकता है। लेकिन हिन्दुस्तान को लश्कर, जैश, हूजी, आईएम की जगह हिंदू कट्टरपंथ से ज्यादा खतरा है ये कहना आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को दुनिया के मंच पर कमजोर करने की दिशा में दिया गया बयान ही माना जाएगा। क्योंकि देश क्योंकि देश 26/11 के कसाब से लेकर मुंबई सीरियल ट्रेन ब्लास्ट, दिल्ली सीरियल ब्लास्ट, जयपुर ब्लास्ट, अहमदाबाद ब्लास्ट, संसद हमला, लाल किला हमला और न जाने कितने हमलों की तारीख भले ही भूल गया है दर्द को नहीं भूला पाया है। और विकीलीक्स का दावा इसी दर्द पर मरहम नहीं नमक के समान है।

Saturday, December 11, 2010

बिहार के बाहुबलियों का हाल जानिए...


इस साल विकास के नाम पर बिहार के लोगों ने जो जनमत दिया उसमें नीतीश के बाहुबलियों की बल्ले बल्ले रही। जेडीयू और बीजेपी के सभी बाहुबली जीतकर विधानसभा पहुंचे। लेकिन दूसरी पार्टियों के बाहुबली धरती पकड़ लिए। एक भी जो कोई जीत
पाता। नामी-नामी दिग्गज बाहुबली जो नीतीश के खिलाफ खड़े थे सब के सब हवा हो गए। यहां तक के अपने न लड़ के रिश्तेदारों को लड़वा रहे थे लेकिन उनको भी नहीं जीतवा पाए। चाहे एलजेपी के सूरजभान हो तब या फिर रामा सिंह। कांग्रेस के आनंद मोहन या फिर साधु यादव। जितने भी पुराने यदुवंशी बाहुबली क्षत्रप थे जो लालू की टिकट पर उतरे सब के सब हवा हो गए। लेकिन नीतीश की पार्टी से अनंत सिंह, सुनील पांडे, धूमल सिंह, लेसी सिंह, बीमा भारती, जगमातो देवी, गुड्डी चौधरी, अन्नू शुक्ला, गुलजार देवी, पूर्णिमा यादव, मीना द्विवेदी, सरफराज आलम, प्रभाकर चौधरी, अमरेंद्र पांडे, कौशल यादव, प्रदीप कुमार, बोगो सिंह, हो या फिर बीजेपी के टिकट पर उतरे चितरंजन सिंह, सतीश दूबे, अवनीश कुमार जैसे बाहुबली नेता या उनके रिश्तेदार, सब के सब जीत गए। उधर कांग्रेस के टिकट पर मैदान में ताल ठोकने वाली बाहुबली आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद, पप्पू यादव की पत्नी रंजीता रंजन, लालू के साले साधु और सुभाष यादव, बाहबली अखिलेश सिंह की पत्नी अरुणा देवी, बाहुबली आदित्य सिंह की बहू नीतू कुमारी या फिर एलजेपी के टिकट पर ताल ठोंकने वाली बाहुबली ललन सिंह(सूरजभान के करीबी) की पत्नी सोनम देवी, सूरजभान के बहनोई रमेश कुमार सब हार गए।
अब थोड़ा इनके जीत हार का अंतर भी देख लीजिए जिस आनंद मोहन ने साल 1995 में अपनी पार्टी बनाकर पूरे बिहार में उम्मीदवार खड़े किए थे, तब झारखंड भी साथ था। उस आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद को आलम नगर में मात्र 22 हजार वोट मिले, जबकि जानते हैं जीतने वाले उम्मीदवार जेडीयू के नरेंद्र यादव को 64 हजार वोट मिले। आगे बढ़े उससे पहले लवली के बारे में थोड़ा अपडेट करते चलें आपको, लवली की सियासी पारी तब शुरू हुई जब 1994 में वैशाली लोकसभा सीट के लिए उपचुनाव हो रहा था। आनंद मोहन ने लवली को पहली बार पार्टी फोरम पर लाकर चुनाव लड़ाने का एलान किया। इस चुनाव में राजपूत-भूमिहार बहुल वैशाली सीट पर इन दोनों जाति के वोटरों ने विरोध की पुरानी परंपराओं को तोड़ते हुए लवली का साथ दिया। नतीजा हुआ कि लवली जीत गई। 1995 में आनंद मोहन ने बिहार की 324 सीटों पर उम्मीदवार खड़ा कर दिया। एक सीट छोड़ सब सीट हार गए। खुद लड़ रहे तीन सीटों से आनंद मोहन हार गए। 94-96 तक सांसद रहने के बाद लवली फिर कभी लोकसभा नहीं पहुंचीं। 96 में नवीनगर से उपचुनाव में विधायक बनीं। 2005 के फरवरी वाले चुनाव में बाढ़ से जेडीयू के टिकट पर विधायक बनीं थी। सवर्ण वोटों की सियासत करने वाले आनंद मोहन ने जब 1998 में लालू से हाथ मिलाया उसके बाद इनका मार्केट डाउन हुआ, और राजपूत नेता की जो प्रभावशाली छवि बनी थी वो खत्म होने लगी। फिलहाल कलेक्टर मर्डर केस में आनंद मोहन को फांसी की सजा मिली हुई है। पत्नी लवली के भरोसे सियासत में बने रहने की कोशिश कर रहे थे जिसको जनता ने नकार दिया।
बड़ी चर्चा हुई थी रंजीता रंजन को लेकर, बाहुबली पप्पू यादव की पत्नी हैं। बिहारीगंज से लड़ने गई थी कांग्रेस के टिकट पर हार गई। वोट मिला 27 हजार। जीतने वाली रेणु कुमारी को मिला 79 हजार। रंजीता यहां तीन नंबर पर रहीं। अंतर देख लीजिए। रंजीता का भी थोड़ा छोटा परिचय कराते हुए आगे बढ़ते हैं,पप्पू यादव की पत्नी होने के साथ राजनीतिक परिचय ये है कि सहरसा से 2004 में एलजेपी के टिकट पर सांसद चुनी गई थी। 2009 में हार गई। पप्पू यादव अभी विधायक अजीत सरकार की हत्या के दोषी है सो जेल में हैं। पप्पू का राजनीतिक उदय 1990 में हुआ था जब वो सिंहेश्वर सीट से पहली बार जनता दल के टिकट पर एमएलए बने थे। आपराधिक छवि के पप्पू यादव पर लूट, हत्या,रंगदारी,अपहरण के दर्जनों केस हैं।
राजनीतिक रूप से जागरूक कोई भी शख्स साधु यादव के नाम से तो अंजान नहीं ही होगा। लालू के साले होने के अलावा शायद कोई और परिचय पहले रहा होगा, अब ये है कि लालू के साथ नहीं हैं और कांग्रेस के टिकट पर गोपालगंज से चुनाव लड़ने गए थे। घर भी गोपालगंज ही पड़ता है। वोट कितना मिला जानिएगा तो हैरान रह जाइएगा। यहां से जीतने वाले सुभाष सिंह को मिला 58 हजार और इनको मिला कुल जमा 8 हजार 488 वोट। तीसरे नंबर पर रहे। अंतर देखते चलिएगा। इ भी बाहुबली थे अपने जमाने के। इनके एक दूसरे भाई जो अब लालू के साथ नहीं हैं। सुभाष यादव विक्रम से निर्दलीय लड़ने गए थे। 9994 वोट मिला इनको। लेकिन चौथे नंबर पर आ गए। वारसलीगंज में मुकाबला बाहुबलियों के बीच था। प्रदीप महतो के दाहिना हाथ प्रदीप कुमार के सामने थीं अखिलेश सिंह की पत्नी अरुणा देवी। प्रदीप जेडीयू के टिकट पर जीते लेकिन अरुणा को कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में 36953 वोट यानी प्रदीप से 5 हजार कम वोट मिले। बाहुबलियों के बीच ही मुकाबला मोकामा में भी था। जेडीयू के टिकट पर अनंत सिंह जीत गए। एलजेपी के टिकट पर ललन सिंह की पत्नी सोनम हार गईं। अनंत सिंह को 51 हजार और सोनम को 42 हजार वोट मिले। विभूतिपुर में बाहुबली सूरजभान अपने बहनोई रमेश कुमार को लाख कोशिशों के बाद भी नहीं जीतवा पाए। जेडीयू के जीते उम्मीदवार को यहां मिला 46 हजार वोट और रमेश कुमार को मिला 23 हजार। लेकिन दूसरे नंबर पर रहा सीपीआई का उम्मीदवार। रमेश को तीसरे नंबर से संतोष करना पड़ा। हिसुआ में आदित्य सिंह की बहू हो तब या फिर मधुबन में बाहुबली बबलू देव। कांग्रेस के टिकट पर इन लोगों की भी हार हुई। रामा सिंह का नाम तो सुने ही होइएगा। आधा दर्जन से ज्यादा राज्यों में इनके खिलाफ मामले बताये जाते हैं। वैसे कई साल से माननीय थे। लेकिन इस बार इनके सामने इनके पुराने परिचित अच्युतानंद सिंह आ गए। महनार में रामा सिंह का तंबू उखड़ गया और बीजेपी उम्मीदवार के हाथों 25 सौ वोट से हार गए। अब थोड़ा जीतने वाले बाहुबलियों का भी बायोडाटा देख लीजिए। तरारी में सुनील पांडे तीसरी बार विधायक बने। बतौर जेडीयू उम्मीदवार इनको 42 हजार वोट मिले। जबकि आरजेडी को 34 हजार। यहां लेफ्ट के उ्म्मीदवार को जो 30 हजार वोट मिले वहीं उनकी जीत का रास्ता खोला। नहीं तो 34 और 30 जोड़के कुछ घटा भी दे तो मामला गोल था। क्षेत्र बदलके धूमल सिंह इस बार गए एकमा, हारने वाले दूसरे नंबर के उम्मीदवार से दोगुना वोट मिला। धूमल सिंह को 55 हजार वोट मिले। यहां धूमल सिंह को छोड़कर बाकी सारे उम्मीदवारों के वोट को जोड़ दे न..तो भी धूमल सिंह को मिले वोट से कम है। बाहुबली बूटन सिंह जो अब इस दुनिया में नहीं हैं उनकी पत्नी लेसी सिंह इस बार भी जीती। अवधेश मंडल की पत्नी चुनाव से पहले पाला बदलकर नीतीश के साथ हो गई, किस्मत अच्छी रही और जीत गई। रूपौली में वैसे भी अवधेश मंडल की पत्नी बीमा भारती का मुकाबला बाहुबली शंकर सिंह से था। लेकिन शंकर सिंह को बतौर एलजेपी उम्मीदवार 27 हजार वोट मिले और बीमा भारती को 64 हजार। बाहुबली अजय सिंह की मां जगमातो देवी दरौंधा से,बाहुबली देवनाथ यादव की पत्नी गुलजार देवी फुलपरास से और बाहुबली राजेश चौधरी की पत्नी गुड्डी चौधरी रून्नी सैदपुर से जीतकर विधायक बन गई हैं। उधर बाहुबली देवेंद्र दूबे की भाभी मीना दूबे का मुकाबला बाहुबली राजन तिवारी के भाई राजू तिवारी से था। लेकिन एलजेपी के टिकट पर उतरे राजू तिवारी हार गए और जेडीयू की टिकट पर उतरी मीना गोविंदगंज की लड़ाई 8 हजार वोट से जीत गई। कुचाय कोट सीट से बाहुबली सतीश पांडे के भाई अमरेंद्र कुमार पांडे जीत गए और हार गए बाहुबली काली पांडे के भाई आदित्य नारायण पांडे। जेडीयू के अमरेंद्र को 51 हजार और आरजेडी के आदित्य को 32 हजार वोट मिले।
बाहुबली मुन्ना शुक्ला की पत्नी अन्नू शुक्ला पहली बार विधायक बनीं हैं। लालगंज में अन्नू शुक्ला को 58 हजार वोट मिले। लड़ाई में आरजेडी गठबंधन का उम्मीदवार नहीं था। दूसरे नंबर पर रहे राज कुमार साह जो कि निर्दलीय उम्मीदवार थे उनको 34हजार वोट मिले। अब थोड़ा अन्नू शुक्ला का परिचय भी जान लीजिए। सत्य और अहिंसा का पैगाम देने वाले महावीर और बुद्ध की धरती वैशाली की लालगंज सीट से बाहुबली मुन्ना शुक्ला की पत्नी अन्नू शुक्ला जीती हैं। राजनीतिक पहचान यही है कि मुन्ना शुक्ला की पत्नी हैं। विजय कुमार शुक्ला उर्फ मुन्ना शुक्ला को अपराध की दुनिया में पहचान विरासत में मिली है। 1999 में मुन्ना शुक्ला ने राजनीति में कदम बढ़ाया। उस वक्त लोकसभा चुनाव हो रहा था और मुन्ना शुक्ला ने जेल में रहकर मुजफ्फरपुर से चुनाव लड़ गये। उसी वक्त उनकी पत्नी अन्नू शुक्ला ने चुनाव प्रचार की कमान संभाली थी। हालांकि स्वजातीय नेताओं के समर्थन के बाद भी मुन्ना शुक्ला कैप्टन जयनारायण निषाद को हरा नहीं सके थे। अगले ही साल 2000 में अपने पैतृक विधानसभा क्षेत्र लालगंज से निर्दलीय चुनाव लड़े और जीत गये। 2004 के लोकसभा चुनाव में वैशाली से निर्दलीय मैदान में उतरे लेकिन हार गये। इसके बाद 2005 में पहले लोजपा से फिर नवंबर 2005 में जेडीयू के टिकट पर चुनाव लड़कर विधायक बने। 2009 के लोकसभा चुनाव में वैशाली से पार्टी ने उम्मीदवार बनाया था लेकिन हार गए। पूर्व मंत्री बृजबिहारी प्रसाद की हत्या के केस में सजा मिली है। सो जेल में बंद हैं।
ये रहा बिहार के नामी बाहुबलियों(रिश्तेदारों)के जीत हार का रिपोर्ट कार्ड। सब नामों को समेटने का वक्त अभी नहीं मिल रहा। वक्त निकालकर जो नाम छूट गए हैं उनकी भी चर्चा करूंगा।

Thursday, December 9, 2010

नीतीश का 'न्याय' अभी आधा है...


नीतीश कुमार- मुख्यमंत्री (गृह, सामान्य प्रशासन)
सुशील कुमार मोदी (उप मुख्यमंत्री, वित्त, वाणिज्य, पर्यावरण, वन)

जनता दल यूनाइटेड-
विजय कुमार चौधरी (सरायरंजन)- जल संसाधान
विजेंद्र यादव- (सुपौल) ऊर्जा,संसदीय कार्य, उत्पाद
नरेंद्र सिंह---कृषि मंत्री
वृषण पटेल- (वैशाली) परिवहन और सूचना जनसंपर्क

नरेंद्र नारायण यादव-(आलमनगर) विधि, योजना विकास
रेणु कुमारी-(बिहारीगंज) उद्योग, आपदा प्रबंधन
जीतन राम मांझी(मखदुमपुर)- अनुसूचित जाति, जनजाति
शाहिद अली खान(सुरसंड) अल्पसंख्यक कल्याण, सूचना प्रौद्योगिकी
दामोदर रावत(झाझा)- भवन निर्माण
हरिप्रसाद साह(लौकहा)- पंचायती राज
गौतम सिंह(मांझी)- विज्ञान प्रौद्योगिकी
नीतीश मिश्रा(झंझारपुर)- ग्रामीण विकास
पीके शाही- मानव संसाधन
श्याम रजक (फुलवारी)- खाद्य आपूर्ति
रमई राम-(बोचहां) राजस्व और भूमि सुधार
परवीन अमानुल्लाह- (साहेबपुर कमाल)समाज कल्याण
भीम सिंह- ग्रामीण कार्य विभाग
अवधेश कुशवाहा(पीपरा)- लघु सिंचाई


बीजेपी के मंत्री---
नंद किशोर यादव(पटना साहिब)- पथ निर्माण
अश्विनी कुमार चौबे (भागलपुर)-स्वास्थ्य
प्रेम कुमार (गया टाउन)- शहरी विकास
गिरिराज सिंह- पशु एवं मत्स्य
जनार्दन सिंह सिग्रीवाल(छपरा)- श्रम संसाधन
चंद्र मोहन राय(चनपटिया)- पीएचईडी
सुखदा पांडे (बक्सर)- कला संस्कृति, युवा
एस एन आर्या (राजगीर)- खान एवं भूतत्व
रामाधार सिंह (औरंगाबाद)- सहकारिता
सुनील कुमार पिंटू (सीतामढ़ी)- पर्यटन

बीजेपी कोटे से मंत्री बनने वाले ज्यादातर विधायक शहरी क्षेत्र से चुने गए हैं। चनपटिया और राजगीर का अपना महत्व है, नहीं तो बाकी सब जिला मुख्यालय वाले ही विधायक जी मंत्री बने हैं।
और उसमें भी जानते चलिए कि बिहार में कुल 38 जिले हैं। 19 जिलों को ही अभी नीतीश के कुनबे में जगह मिली है। बाकी के 19 जिले के एनडीए विधायक फिलहाल 'बेरोजगार'हैं। कब तक रहेंगे ये मुझे नहीं पता।
जिलेवार आंकड़ों पर गौर फरमाए तो
जिला--------कुल सीट------एनडीए-----कितने मंत्री
मधुबनी--------10--------7---------------2
मधेपुरा--------04--------3---------------2
सीतामढ़ी------ 08--------8---------------2
छपरा---------10--------8---------------2
पटना --------14--------11--------------2
गया---------10--------09--------------1
जहानाबाद-----3---------03--------------1
बक्सर ------4---------04--------------1
औरंगाबाद----- 6--------05--------------1
सुपौल ----- -5--------05--------------1
मोतिहारी---- 12--------11-------------1
मुजफ्फरपुर-- 11--------10--------------1
समस्तीपुर--- 10-------08--------------1
बेतिया----- 09-------07---------------1
वैशाली --- -08-------08---------------1
बेगूसराय--- 07-------06---------------1
भागलपुर-- 07-------06---------------1
नालंदा--- 07--------06---------------1
जमुई---- 4--------03----------------1
इसके अलावा बाकी के 19 जिलों का खाता फिलहाल खाली है।
सीमांचल के इलाके में अररिया की कुल 6 में से 5 सीट एनडीए के पास है, पूर्णिया की 7 में से 6 सीट कटिहार में 7 में से 6 सीट लेकिन कोई मंत्री नहीं बना।
दरभंगा 10 में से 8 सीट, गोपालगंज 6 में से 6 सीट, सीवान 8 में से 8 सीट, नवादा की 5 में से 5 सीट, मुंगेर की 3 में से 3 सीट, भोजपुर की 7 में से 5 सीट एनडीए के खाते में है लेकिन कोई मंत्री नहीं है।
बाकी के बचे जिले के हालात भी मिलते जुलते हैं। सिर्फ किशनगंज जिला ऐसा है जहां एनडीए का खाता नहीं खुला 4 की सभी 4 सीट एनडीए हार गई।
कुल मामला ये है कि जिन जिलों से एनडीए के 77 विधायक जीत कर आए हैं वहां से कोई मंत्री नहीं है। कुल 129 जीते विधायकों वाले जिले से 28 मंत्री बनाए गए हैं।

रमेश की नई दुनिया


मृणाल पांडे की खोज नवरत्न में से एक रमेश रंजन सिंह ने हिन्दुस्तान दिल्ली को बाय बोल दिया है। रमेश ने पटना में सीएनईबी के ब्यूरो हेड के रूप में कार्यभार भी संभाल लिया है। रमेश हिन्दुस्तान दिल्ली में सेंट्रल डेस्क पर थे। हिन्दुस्तान के लिए खेल और फिल्म रिपोर्टिंग कर चुके रमेश अगस्त 2008 से हिन्दुस्तान में थे। हिन्दुस्तान में ही लखनऊ, पटना, रांची होते हुए दिल्ली पहुंचे और अब एक बार फिर अखबार छोड़ टीवी की दुनिया में पटना पहुंच गए हैं। रमेश ने करियर की शुरुआत सहारा से की थी। लंबे समय तक सहारा अखबार के लिए रिपोर्टिंग करने वाले रमेश आईआईएमएसी के छात्र रहे हैं। 2004-2005 बैच के छात्र रहे रमेश शांत स्वभाव के गंभीर पत्रकार माने जाते हैं। रमेश के लिए टीवी का ये जिम्मेदारी वाला पहला बड़ा अनुभव है। रमेश बिहार के छपरा के रहने वाले है।

Sunday, December 5, 2010

कांग्रेस का टाइम ही खराब है...


राहुल गांधी ने कहा है कि बिहार के चुनाव नतीजों से वो हताश नहीं हैं। हालांकि ये भी नहीं कहा कि वो खुश हैं। वैसे कहने लायक बिहार ने छोड़ा ही कहां हैं । खैर बिहार चुनाव के नतीजे कांग्रेस के लिए प्रत्याशित तो कतई ही नहीं थे। जिस तामझाम के साथ फिर से खुद के दम पर खड़े होने की तैयारी हुई थी उसमें पलीता लग गया। टिकट का बंटवारा कहिए या फिर बड़े नेताओं का घालमेल, उम्मीदों पर नहीं उतरे खड़े तो नहीं उतरे। वैसे कांग्रेस के लिए समय ही शुभ नहीं चल रहा है। अक्टूबर, नवंबर और दिसंबर का जो महीना है वो कांग्रेस के लिए ठीक नहीं है। आदर्श सोसायटी घोटाला, स्पेक्ट्रम घोटाला, बिहार में
बर्बादी, जगन मोहन का विद्रोह, सुप्रीम कोर्ट से रोज डांट । भाई इतने मुश्किल दौर से मनमोहन सिंह का तो पहला कार्यकाल भी नहीं गुजरा था। यूपीए वन में तो परमाणु करार पर लेफ्ट ने हाथ खींचा तो हाथ बढ़ाने कई लोग आगे आ गए। लेकिन
इस बार सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह बड़े बुरे दौर से गुजर रहे हैं। जिसको देखिए वही उनके खिलाफ बोल कर कट ले रहा है। सुप्रीम कोर्ट हो या फिर सुब्रमण्यम स्वामी, परसों ये भी सुनने में मिला कि ए राजा की तरफ से भी पीएम की चिट्ठी को लेकर अनाप शनाप कहा गया था। वैसे कहने वाले सब कहते भी हैं कि पीएम साहब की ईमानदारी पर कोई शक नहीं है। लेकिन खाली कहने भर से क्या होता है। अक्टूबर लास्ट में आदर्श सोसायटी फ्लैट घोटाला वाला मामला लाइट में आया। अब समय खराब ही कहिएगा न कि जिस अशोक चव्हाण को मुंबई हमले जैसे विकट हालात में सीएम बनाया वो इतने पुराने मामले में नप गए। जमी जमाई दुकानदारी उखड़ गई। अशोक चव्हाण के बारे में एक और मजेदार बात पढ़ते हुए बढ़िए,
अशोक चव्हाण का नाम अक्टूबर से पहले तक अशोक चव्हाण ही हुआ करता था लेकिन अक्टूबर शुरू में ही उन्होंने अपने नाव को वजन देने के लिए राव जोड़वा लिया और हो गए अशोक राव चव्हाण। अंकज्योतिषियों ने साफ कहा कि ये शुभ नहीं है, भारी विपत्ति आने वाली है, बीस दिन भी नहीं बीता कि कहां से फ्लैट का भूत निकला और ले गया।
अब कांग्रेस के लिए एक टेंशन हो तब तो, जगन मोहन रेड्डी, आंध्र प्रदेश के कडप्पा से कांग्रेस के सांसद हुआ करते थे। पूर्व मुख्यमंत्री और आंध्र प्रदेश के कांग्रेस छत्रप रहे वाईएसआर के बेटे हैं। इनका बड़ा लंबा चौड़ा कारोबार है। टीवी चैनल से लेकर अखबार तक। अभी पंद्रह दिन पहले इनके चैनल पर सोनिया गांधी, राहुल और मनमोहन सिंह के खिलाफ स्टोरी चल गई। खूब किरकिरी हुई। अब जगन संकट से निपटने के लिए कांग्रेस को वहां के रोसैया को सीएम की कुर्सी से हटाना पड़ा, किरण कुमार सीएम बने। किसी राज्य में नेतृत्व बदलना किसी भी राजनीतिक दल के लिए आसान काम नहीं होता। लेकिन मजबूरी में करना पड़ा। इससे क्या हुआ सो जानिए, जगन मोहन पर दबाव बना और उन्होंने इस्तीफा दे दिया। पांच पन्नों की चिट्ठी लिखी सोनिया को बहुत बुरा भला कहा। हालांकि उनके चाचा उनके साथ नहीं गए लेकिन किरण कुमार मंत्रिमंडल में जो मंत्री बने हैं ज्यादा उसमें नाखुश ही हैं। मतलब कि यहां भी कांग्रेस के लिए समय ठीक नहीं चल रहा है। अब उन्हीं की पार्टी का सांसद रहा शख्स पार्टी तोड़ चुका है। सोनिया की अध्यक्षता में पार्टी टूटने की पहली बड़ी घटना है। अभी भले चुनाव नहीं है लेकिन अगला चुनाव आसान नहीं होगा। जगन मोहन के पिता वाईएसआर की हेलिकॉप्टर हादसे में मौत हुई और इसके बाद जब सत्ता संभालने की बारी आई तो जगन की महत्वकांक्षाओं को नजरअंदाज करते हुए रोसैया को गद्दी दी गई उस वक्त जगन ने तो साथ दिया। लेकिन बाद में जगन ने अपनी पिता की मौत के बाद जिन समर्थकों ने खुदकुशी की थी उनके घरों का दौरा शुरु किया, कांग्रेस को ये मंजूर नहीं था जानते हैं क्यों... क्योंकि कांग्रेस के लोग नहीं चाहते कि पार्टी में कोई दूसरे परिवार का नेता क्षत्रप बनकर उभरे। वाईएसाआर अपवाद थे जिन्हें खुली छूट देना मजबूरी थी कांग्रेस की।
बिहार और दो मुख्यमंत्रियों को नाप कर आगे बढ़ते हैं। स्पेक्ट्रम घोटाले का भूत कब तक पीछा करेगा भगवान जाने। पंद्रह दिन तो हो चुका है कहीं महीना न हो जाए संसद के ठप हुए। जेपीसी जांच के दबाव के आगे सरकार का गणित काम नहीं कर रहा है। ऊपर से सुप्रीम कोर्ट से रोज फटकार मिल रही है। सीवीसी को लेकर मामला भी सरकार के खिलाफ जा चुका है। थॉमस की बहाली हो रही थी तो नेता विपक्ष सुषमा स्वराज ने विरोध किया था। लेकिन दो-एक के बहुमत से मनमोहन सिंह ने बना दिया । अब सुप्रीम कोर्ट में सरकार से लेकर सीवीसी तक सफाई दिए फिर रहे हैं।
अभी इतना ही थोड़े है सुरेश कलमाडी का खेल भी तो है। कॉमनवेल्थ वाले मामले में सीबीआई कलमाडी के मातहत काम करने वाले अफसरों को जेल में डाल चुकी है। किसी दिन कलमाडी साहब से भी पूछताछ होगी। कलमाडी भी पुणे से कांग्रेस के ही सांसद हैं, और बड़े पुराने नेता भी हैं। उधर हिमाचल वाले नेताजी, केंद्र में इस्पात मंत्री वीरभद्र सिंह के खिलाफ भी तो भ्रष्टाचार वाले मामले में शायद चार्जशीट दायर हो ही चुका है। और हां ये भी जान लीजिए कि रोज जो है कोई न कोई बड़े अफसरों के त्रिया चरित्र का खुलासा भी इसी में हो रहा है। सो बड़ा मुश्किल भरा टाइम चल रहा है कांग्रेस का। एतना टफ टाइम पार्टी के लिए कभी नहीं रहा होगा, नए जेनरेशन में। इंदिरा जी वाले टाइम का अंदाजा नहीं है इसलिए कह रहा हूं ।

Thursday, December 2, 2010

अब तेरा क्या होगा 'कालिया'...


बिहार चुनाव के नतीजों को लेकर नीतीश कुमार के विरोधी तो कभी भी ऐसी उम्मीद लगाकर नहीं बैठे रहे होंगे।चुनावी साल में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और नीतीश के हमकदम माने जाने वाले ललन सिंह ने अपना हिसाब किताब अलग कर लिया। नीतीश तानाशाह है,पार्टी में लोकतंत्र खत्म हो गया और न जाने दुनिया भर के क्या क्या बोलते बोलते पटना से डोलते डोलते दिल्ली में आसन जमा लिए। बिहार चुनाव से पहले कांग्रेस को सेट किया और अपना राजनीतिक प्लेटफॉर्म तैयार कर लिया। कांग्रेस को भी लगा कि भैया बड़ा नाम है,पुराना सहयोगी है नीतीश का हमारा भी फायदा कराएगा। सो सटा लिए बेचारे।अब सांसद बने जेडीयू के टिकट पर और चुनाव में प्रचार के लिए गाड़ी में कांग्रेस का झंडा लगाकर खूब घूमे, लेकिन लोगों ने लाइन पर ला दिया। अब तो कांग्रेस के लिए भी बेचारे किसी काम के नहीं रहे उपर से झंडा लगाके घूमने और कांग्रेस के मंच से भाषण देने को लेकर सदस्यता खतरे में है। नीतीश कुमार के लोग चाहते हैं कि इनको पार्टी से निकालकर शहीद बनाने के बजाए बेहतर होगा इनकी संसद सदस्यता के खिलाफ पहले शिकायत की जाए। लिहाजा चुनाव आयोग और लोकसभाध्यक्ष से शिकायत की तैयारी है। पूरा सबूत के साथ। अगर वहां से कुछ फायदे वाला जवाब पार्टी को नहीं मिला तो किसी भी दिन इनको चलता कर दिया जाएगा। काहे कि जिस बंटाईदारी बिल को लेकर बिहार में हाय तौबा मचाए थे उसको लेकर तो बंटाइदारी बिल वाले समाज के लोग सरकार के खिलाफ गए नहीं, तो भला अब समाज का विश्वास खो दिए, नेता का भरोसा खो दिया, जिसके साथ गए उसको कोई फायदा नहीं कराए तो ऐसे खोटे सिक्के का काम क्या ? जानते चलिए कि ललन सिंह अभी मुंगेर से जेडीयू के सांसद हैं।
औरंगाबाद के जेडीयू सांसद हैं सुशील कुमार सिंह।पहले विधायक हुआ करते थे.एक बार सांसद भी रहे। इस बार औरंगाबाद से चाहते थे कि भाई को टिकट मिले जेडीयू का।लेकिन सीट था बीजेपी के खाते का। चुनाव भर औरंगाबाद में नीतीश कुमार को
परेशान करते रहे। अंत में न कुछ समझ में आया को भाई को लड़ा दिए लालू की पार्टी के टिकट पर। पार्टी और गठबंधन के उ्म्मीदवार को हराने के लिए पूरा ताकत झोंक दिए, भाई तो इनके हारे ही, लेकिन जहां इनका घर पड़ता है वहां से भी नीतीश के उम्मीदवार की जीत हो गई। बीजेपी वाले जोर लगाए बैठे हैं, कि भइया इनको कल्टी कराओ। और तो और औरंगाबाद में इनको बैलेंस करने के लिए इन्हीं के समाज के नेता को जिन्होंने इनके भाई को हराया उनको मंत्री बना दिया गया है। इन पर अनुशासन का डंडा चलाने के लिए स्क्रिप्ट टाइप हो रहा है।
आगे बढ़िए महाबली सिंह बेचारे बीएसपी, आरजेडी और कहां कहां घूमते फिरते नीतीश की शरण में आए। चुनाव हुआ लोकसभा का तो इनको काराकाट से टिकट दे दिया। अब इनका खेल देखिए जिस चैनपुर सीट से विधायक थे वहां अपने सुपुत्र धर्मेंद्र को टिकट दिलवाकर विरासत बरकरार रखवाने के फेर में थे। लेकिन पार्टी ने मना कर दिया । और सुनिए इ तो विधायक बनने के बाद पार्टी बदलते रहे लेकिन इनके सुपुत्र इनसे भी फास्ट निकले, विधायकी के चुनाव लड़ने के लिए ही पार्टी बदल दिए। आरजेडी के टिकट पर लड़ गए। धर्मसंकट में फंसे बाबूजी ने पार्टी के नीति, सिद्धांत को ताखा पर रखके बेटा के लिए मोर्चा संभाल लिया, लेकिन बेटा बेचारा बाबूजी की विरासत को संभाल नहीं पाया।
पूर्णमासी राम लालू-राबड़ी के जमाने में खाद्य-आपूर्ति मंत्री होते थे, दूरदर्शी थे तभी मौका देखकर 2005 में ही पलटी मार गए और लोकसभा चुनाव के वक्त किस्मत ने साथ दिया तो गोपालगंज से जेडीयू के टिकट पर जीतकर दिल्ली का मुंह भी देख लिए। हालांकि लोकसभा चुनाव के बाद उनकी विधानसभा सीट पर जो उपचुनाव हुआ उसमें उन्होंने खेल कर दिया। बेटा के लिए टिकट चाहते थे, नहीं मिला तो खिलाफ में प्रचार किए और बगहा में पार्टी हार गई। सजा मिली तो इनको पार्टी से निलंबित भी कर दिया गया। लेकिन इस बार चुनाव से पहले फिर से उनको पार्टी ने सटा लिया। अबकी बार फिर बेटा का टिकट चाहते थे, अड़ गए, पार्टी ने फाइनली टिकट नहीं दिया। आदत से लाचार पूर्णमासी राम ने फिर मुंह खोला, बेटे को हरसिद्धि से लड़वा दिया वो भी कांग्रेस के टिकट पर। अब कहां बगहा और कहां हरसिद्धि। गोपालगंज के किसी सीट से लड़ते तो लोग शायद सोचते भी कि सांसद का बेटा है। इनको लगा कि पूरा बिहार का महादलित इन्हीं के इशारे पर चलता है। बेटा को कुल जमा छे हजार वोट मिले हैं। यहां भी बीजेपी के उम्मीदवार का खेल बिगड़ने चले थे जेडीयू के सांसद महोदय। अब इनका अपना खेल बिगड़ने वाला है।
मोनिजर हसन। लालू के साथ रहे तो लालू को तेल लगाया। पांच साल पहले नीतीश के साथ हुए तो नीतीश को तेल लगाया। नीतीश को लगा की मास लीडर है सो फायदा भी कराया। मंत्री बनाया। लोकसभा चुनाव के वक्त टिकट देकर सांसद बनवा दिया। वो भी उस बेगूसराय सीट से जहां इनको कोई पूछे न, लेकिन इनको तो लग रहा है कि पूरा बिहार के मुसलमानों के यही इकलौते नेता हैं। खैर विधानसभा का जब उपचुनाव हुआ तो उम्मीदवारी को लेकर ललन सिंह से भिड़ गए। नतीजा हुआ कि
उस समय लालू के उम्मीदवार की जीत हो गई। इस बार मोनाजिर भाई को लगा कि अपनी घरवाली को भी विधायक बना लेंगे। लेकिन शायद नीतीश को उपचुनाव वाला खेल याद था सो टिकट नहीं मिला। लेकिन खेलल-खालल नेता मानने वाला थोड़ा था, लालू से हाथ-गोर जोड़के अपनी बीवी को आरजेडी के टिकट पर खड़ा करवा दिए। बेचारा लालू की पार्टी के जो विधायक थे, साल भर में ही उनको मोनाजिर ने सेट कर दिया। लेकिन लोग तो भाई खेल समझ गया लगता है। तभी तो मोनाजिर की बीवी को सेट कर दिया। हार गई बेचारी। अब मोनाजिर किसी को मुंह नहीं दिखा रहे। पटना में रुकने की बात छोड़ दिजीए। नया घर तलाश रहे हैं। लेकिन लालू के लिए भी फूंके कारतूस हैं बेचारे।
उपेंद्र कुशवाहा से बहुत कम लोग परिचित होंगे। नीतीश के बाद पार्टी में किसी जमाने में नंबर दो हुआ करते थे। एक बार जन्दाहा से विधायक थे। झारखंड बंटा और सुशील मोदी के लिए जब नेता विपक्ष का नंबर घट गया तो समता पार्टी ने इन्हें विरोधी दल का नेता बनाया। 2005 के चुनाव में हार गए। इन्हीं के समाज के नागमणि की पूछ बढ़ गई और इनको कोई पूछने वाला नहीं रहा तो लगे नीतीश के खिलाफ अनाप-शनाप बोलने। पार्टी छोड़े, एनसीपी में चले गए। घूमघूम के कोइरी के नेता के रूप में अपनी दुकानदारी चमकाने की नाकाम कोशिश में जुटे। कोई फायदा नहीं दिखा तो लोकसभा चुनाव के बाद फिर से नीतीश से सेटिंग कर पार्टी में लौट आए। तब तक बेचारे नागमणी से नीतीश का संपर्क ठीक नहीं रह गया था। इनको लगा कि कोइरी के सबसे बड़े नेता तो हमही रह गए हैं। नीतीश की भी मजबूरी थी नागमणी भाग जो गए थे सो इनको राज्यसभा भेजा गया। अब देखिए राज्यसभा सांसद बनने के बाद लगे रंग दिखाने। लगा कि हमसे बड़़ा कोइरी का तो कोई नेता नहीं है, लेकिन टिकट बंटवारे में कोई पूछा नहीं इनको। उल्टे नीतीश ने इनसे भी बड़ा एक कोइरी के नेता को शामिल करा लिया। लेकिन इनका गणित काम कर गया, बेचारे कोइरी के बड़े नेता जो नीतीश के बौरो प्लेयर थे, हार गए हैं। अब कुशवाहा जी इसे अपनी जीत मान रहे हैं लेकिन नीतीश के लोग अपनी हार। अब इनका क्या होगा.. नीतीश जाने।
ये बात तो सिर्फ जेडीयू की है। आरजेडी में भी महाराजगंज वाले सांसद उमाशंकर सिंह परेशान हैं। चुनाव में उनको लालू ने पूछा नहीं। प्रभुनाथ सिंह की कर्ता धर्ता बने रहे। अब जिस प्रभुनाथ सिंह को हराकर वो सांसद बने थे उनकी बढ़ती हैसियत ने इनको नाराज कर दिया। चुनाव भर खाली आरजेडी और प्रभुनाथ सिंह के समर्थकों को घूम घूमकर हराने में लगे रहे। कामयाब भी रहे। अब नीतीश के विकास की माला जप रहे हैं। वैसे भी नीतीश के साथ काम कर चुके हैं। उपेंद्र कुशवाहा को जब विपक्ष के नेता बनाया गया था बिहार में। उस वक्त बिहार में समता पार्टी विधायक दल के नेता उमाशंकर सिंह ही थे। बाद में लालू से सट गए। अब इ क्या करेंगे या इनके साथ लालू क्या करेंगे ये तो ये जाने या फिर लालू।
ऐसे नेताओं के खिलाफ संगठन के लोग नाराज हैं। वैसे भी परंपरा तो गलत ही है, अनुशासन में लोग न रहे तो हर कोई ऐसा करेगा। तब तो भगवान मालिक है राजनीतिक दलों का।