Thursday, September 23, 2010

अब के नीतीश पर 'नजर' डालिए


जॉर्ज, नीतीश जिंदाबाद, ललन,दिग्विजय जिदाबाद। नीतीश कुमार का जब तक राजतिलक नहीं हुआ था बिहार में कुछ ऐसे नारे लगते थे। 2005 से पहले के बैनर अगर किसी को याद है तो उनको ये नारा भी याद होगा। प्रचार के दौरान बैनरों पर सबसे ऊपर कुछ ऐसा ही लिखा होता था। लेकिन 2005 में जब नीतीश सत्तासीन हुए तो हालात बदल गये। 2010 आते आते हालात बहुत ज्यादा बदल चुके हैं। नीतीश को 2005 में सत्ता के करीब ले जाने वाले जिन चार नामों का जिक्र उस वक्त होता था उन चार में से तीन नाम आज नीतीश से दूर हैं। मुख्यमंत्री बनते ही नीतीश ने सबसे पहले अपने राजनीतिक गुरु जॉर्ज को ठिकाने लगा दिया। शरद यादव ने पार्टी में जॉर्ज की जगह ले ली। राजनीतिक जीवन के आखिरी समय में जॉर्ज की जो स्थिति है उससे कोई अंजाना नहीं है। 20 साल तक नीतीश की राजनीति का प्रबंधन देखने वाले ललन सिंह नीतीश से दूर जा चुके हैं। 2005 में जब पार्टी सत्ता में आई थी ललन सिंह प्रदेश अध्यक्ष थे, जॉर्ज राष्ट्रीय अध्यक्ष। प्रभुनाथ सिंह को नीतीश ने दरकिनार करना शुरू किया नतीजा आज वो लालू के साथ गलबहियां कर रहे हैं। इन नामों के अलावा नीतीश को सत्ता के शिखर पर ले जाने में अहम भूमिका निभाने वाले दिग्विजय सिंह का नाम भी प्रमुख है। बांका से सांसद रहे दिग्विजय दक्षिणी बिहार में पार्टी की कमान संभालते थे। बुद्धजीवियों का बड़ा वर्ग दिग्विजय के जरिये ही पार्टी के करीब था। लेकिन सत्ता में आने के बाद नीतीश ने दिग्विजय सिंह को भी साइड कर दिया। एनडीए की सरकार में समता पार्टी कोटे से तीन मंत्री हुआ करते थे जॉर्ज, नीतीश और दिग्विजय। पार्टी बनने के वक्त से ही दिग्विजय पार्टी के हर फैसले के गवाह रहे थे। लेकिन नीतीश ने साल 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्हें बांका से पार्टी का उम्मीदवार तक नहीं बनाया। लेकिन दिग्विजय न सिर्फ पार्टी से बगावत कर इस सीट से जीते बल्कि पार्टी के उम्मीदवार को लड़ाई के लायक भी नहीं छोड़ा। हालांकि दिग्विजय अब इस दुनिया में नहीं हैं। कहने का मतलब ये कि नीतीश को सत्ता के शीर्ष तक ले जाने वाले चेहरे सिर्फ बैनर पोस्टर से ही नहीं नीतीश के आसपास से भी दूर जा चुके हैं। सीएम बनने के बाद एकएक करके नीतीश ने पुराने साथियों को साइड करना शुरू किया तो नए नए लोगों को अपनी सिपहसलार बनाया। ये वो वक्त था जब लोकतांत्रिक पार्टी की जगह जेडीयू व्यक्ति विशेष के प्रभाव वाली पार्टी बनती जा रही थी। 2005 के चुनाव में बिहार ने नीतीश को वोट नहीं दिया.. वोट लोगों ने बदलाव को दिया और उस बदलाव का नेतृत्व नीतीश को दिया गया था। नेतृत्व देने वाले लोगों को ही नीतीश ने किनारा कर दिया। नीतीश की छवि इस वक्त पार्टी में तानाशाह की तरह उभरने लगी थी। इसकी पृष्ठभूमि नीतीश धीरे धीरे 2004 लोकसभा चुनाव के वक्त से ही लिख रहे थे... जब जॉर्ज को नालंदा सीट छोड़ने के लिए कहा और खुद नालंदा से लड़ने गये। नीतीश और जॉर्ज के बीच मनमुटाव की शुरुआत हो चुकी थी लेकिन बिहार में लड़ाई बदलाव की थी सो अंहकार को फिलहाल साइड रखा गया। हालांकि नीतीश की स्क्रिप्ट के मुताबिक राजनीति का खेल जारी था। एक जमाने में समता पार्टी का साथ छोड़कर गए शिवानंद तिवारी, वृषण पटेल ने लालू का साथ छोड़ फिर से नीतीश का दामन थाम लिया था। नीतीश ने गले लगाया और अहम जिम्मेदारियों से नवाजा। जिंदगी भर कांग्रेस की सियासत करने वाले जगन्नाथ मिश्रा 2004 में ही नीतीश के शरणागत हो गये थे। 2005 में
रामाश्रय प्रसाद सिंह भी नीतीश कुमार के साथ हो गए। जगन्नाथ मिश्रा के सुपुत्र को बिहार में मंत्री बनाया गया तो रामाश्रय सिंह खुद नीतीश सरकार में मंत्री बने। (यहां याद दिलाते चलें कि जब बिहार में कांग्रेस के कमजोर होने का दौर शुरू हुआ था जगन्नाथ मिश्रा ने अलग पार्टी बना ली थी तब बिहार में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता हुआ करते थे रामाश्रय सिंह।) लालू का साथ छोड़ कर नीतीश का साथ देने आए मोनाजिर हसन जैसे नेता भी नीतीश के करीबी हो गये और कैबिनेट मंत्री बनाकर अहम मंत्रालय दिया गया। ये तो बात रही सत्तासीन होने के बाद के शुरुआती दिनों की.. लेकिन धीरे धीरे जैसे समय बीतता गया नीतीश ने अपने आसपास से पुराने वफादार नेताओं को साइड करना तेज कर दिया। नीतीश को कोई मलाल नहीं था कि उनके साथ कौन से लोग जुड़ रहे हैं और कौन से लोग उनसे दूर जा रहे हैं। लालू को जानने वाले लोग रंजन यादव को नहीं भूल सकते। लालू के बाद नंबर दो का दर्जा मिला था। बाद में लालू को धोखेबाज कहते हुए अलग हो गये थे। एक वक्त कहा जाता था कि लालू की पार्टी में लालू से ज्यादा रंजन यादव के समर्थक विधायक हैं। वो रंजन यादव नीतीश की टीम में शामिल हो गये। बाद में जेडीयू के टिकट पर पटना से सांसद बने। 2009 लोकसभा चुनाव के बाद तो परिस्थितियां बिल्कुल ही बदल गई। 25 में से 20 सीट जीतने के बाद नीतीश आसमान में थे और यही वक्त था जब नीतीश को और आसमान में ले जाने वाले लोग उनसे जुड़कर अपना नंबर सेट करने लगे। नीतीश तो प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में गिने जाने लगे थे। खैर चुनाव के तुरंत बाद विधानसभा उपचुनाव का जब वक्त आया तो रमई राम और श्याम रजक जैसे लालू के दाएं-बाएं बैठने वाले नेता नीतीश के साथ आ गए। (रमई राम के बारे में बता दें आपको लगातार चार बार से विधायकी जीत रहे थे.. पार्टी में दलितों का सबसे बड़ा चेहरा। लगातार लालू-राबड़ी राज में मंत्री, बेटी को लालू ने विधान पार्षद बनवाया। लोकसभा का टिकट नहीं दिया तो पार्टी छोड़ दी।) श्याम रजक जो लालू राबड़ी की शान में कसीदे गढ़ते थे। जो लालू के किचन कैबिनेट के मेंबर हुआ करते थे। उन्होंने भी लालू से किनारा किया तो नीतीश ने अपने गले लगा लिया। हालांकि नीतीश की पार्टी से रमई राम और श्याम रजक दोनों विधानसभा उपचुनाव हार गये। आगे बढ़िये तो विजय कृष्ण, जो विजय कृष्ण कई बार बाढ़ से सांसद रहे और 2004 के लोकसभा चुनाव में नीतीश को जिन्होंने हरा दिया था, 2009 चुनाव हारने और हत्या के एक केस में फंसने के बाद नीतीश के शरणागत हो गये। दर्जन भर से ज्यादा मुकदमों के आरोपी तस्लीमुद्दीन का नाम सुना होगा आपने, देवेगौड़ा की सरकार में मंत्री थे लेकिन गृह राज्यमंत्री के पद से हटा दिया गया था। नीतीश राज में कानूनी शिकंजा कसने का डर सताया तो नीतीश की शरण में ही चले गये। नीतीश ने इस बाहुबली नेता को तहे दिल से गले लगाया। उपेंद्र कुशवाहा, अरुण कुमार सिंह जैसे पुराने नेता समता पार्टी के संस्थापकों में से रहे लेकिन सरकार बनने के बाद ही नीतीश से इनके संबंध खराब हो गये... लेकिन राजनीतिक मजबूरी देखिए ललन सिंह की कमी को पाटने के लिए अरुण कुमार को वापस लाया गया है। बताते हैं कि ललन सिंह उपेंद्र कुशवाहा को पार्टी में वापस लाने के पक्ष में नहीं थे लेकिन लोकसभा चुनाव से पहले नागमणि(कोइरी) के पार्टी छोडकर जाने के बाद कोइरी नेता की जो कमी रह गई थी उसे पाटने के लिए उपेंद्र कुशवाहा को लाया गया है। उपेंद्र की वापसी ललन सिंह की मर्जी के बगैर हुई लिहाजा ललन कल्टी मार गये। अब उपेंद्र कुशवाहा की मर्जी के बगैर उस कोइरी जाति के विधायक को जेडीयू में शामिल कर लिया गया है जिसने 2005 के विधानसभा चुनाव में उपेंद्र कुशवाहा को हरा दिया था। उपेंद्र कुशवाहा फिर से नाराज बताये जा रहे हैं। ललन सिंह के जाने के बाद विजय चौधरी को बिहार में पार्टी का अध्यक्ष बना दिया गया। विजय चौधरी की पार्टी में वैसे तो पहले से कोई पहचान नहीं थी लेकिन अब कार्यकर्ता उनका नाम जान गये हैं। उधर जिस बांका से लालू की पार्टी के टिकट पर सांसद रहे गिरधारी यादव भी नीतीश की शरण में पहुंच चुके हैं। एक बात गौर करने वाली ये है कि चुनाव पूर्व दलबदल एक प्रक्रिया है। लेकिन इस प्रक्रिया में उस चीज का ख्याल नहीं रखा जा रहा जो नीतीश सरकार की पहचान है। लालू और नीतीश में अब क्या फर्क रह गया है सिर्फ दोनों के चेहरों के अलावा। कल जो लालू के जंगल राज के मजबूत सिपाही थे आज की तारीख में वो नीतीश के राज के मजबूत सिपाही बन गये हैं।

नीतीश के पास जो चौकरी आजकल चक्कर काट रही है उसको पहचानिए..... विजय चौधरी(अध्यक्ष, बिहार जेडीयू) कोई दाग नहीं है नई पहचान बना रहे हैं। शिवानंद तिवारी(राष्ट्रीय प्रवक्ता) दाग ही दाग, कब लालू की पार्टी में कब नीतीश के साथ उनको भी नहीं पता। श्याम रजक(सालों तक लालू की किचन कैबिनेट के सदस्य)खासियत देखिए- आज बिहार सरकार का पक्ष घूम घूम कर मीडिया में रख रहे हैं। साल भर पहले लालू के जंगल राज वाली पार्टी को छड़कर इधर आए हैं बयान सुनिएगा तो लगेगा कि लालू के जंगल राज के खिलाफ 94से लड़ रहे हैं। पहले लालू के लिए मीडिया को फोनो देते थे अब नीतीश के लिए फोनो देते हैं। रमई राम(90-2005 तक लगातार भूमि राजस्व मंत्री) नीतीश की पार्टी से विधानसभा उपचुनाव हारे तो क्या हुआ अनुसूचित जाति आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया। बिहार में दलित-महादलित का फर्क कर जीत का गणित बनाने वाले नीतीश को पांच साल तक कोई दलित नेता नहीं मिला जिसे ये पद दे सके। खैर...अल्पसंख्यक चेहरों की कमी पड़ गई है जो पहले से थे वो नाराज चल रहे हैं... मोनाजिर हसन के बारे में भूल गये हैं तो बता देता हूं... 2005 में चुनाव से पहले लालू को छोड़कर आए थे जेडीयू से जीते भवन निर्माण मंत्री बनाया गया लालू-राबड़ी कैबिनेट में भी यही ओहदा था। खैर मुख्यमंत्री निवास खाली करने का विवाद 2005 में जब चर्चा में आया तो मोनाजिर ने लालू से पंगा लिया.. लालू ने इनको टीटीएम मंत्री बना दिया..माने.. ताबड़तोड़ तेल मालिश मंत्री कहकर पुकारा.. हालांकि नीतीश के सामने इनका नंबर बन गया.. लेकिन 2009 में जब से ये सांसद बने हैं उनका मामला ठीक नहीं चल रहा सो नीतीश अल्पसंख्यक नेताओं के ऑपरेशन में जुटे हैं। दो दिन पहले एलजेपी की पूरी अल्पसंख्यक यूनिट को पार्टी में ले आए.. अब उन्हीं की पार्टी के विधायक इजहार अहमद को भी ला रहे हैं। तस्लीमुद्दीन को पहले से ही चेहरा बनाकर घूमा रहे हैं। वैसे शहाबुद्दीन को भी अपनी पार्टी में लेने के इच्छुक थे नीतीश। सीवान दौरे के दिन पिछले महीने हीना शहाब से मिलने की पूरी तैयारी हो चुकी थी लेकिन लालू को खबर लगी और पलीता लग गया। लालू पहुंचे सीवान जेल और शहाबुद्दीन को समझा बुझाकर शांत कराया। कहने का मतलब ये कि लालू और नीतीश में फर्क अब सिर्फ दोनों के अपने चेहरे का रह गया है। क्योंकि सुशासन की परिभाषा लिखने वाले पुराने नेता नीतीश से किनारे हो चुके हैं और जंगल राज के सिपाही अब नीतीश के सिपहसलार बन गए हैं। जानकार बता रहे हैं कि नीतीश के राज में जिस तरीके से बाहुबलियों का बुरा हश्र हुआ है बचे खुचे दूसरे दलों के बहाबुली चुनाव के मौके पर सेफ हैंड खेल नीतीश दरबार में नंबर बनाने में जुटे हैं। भला हो बिहार का...अब जंगल राज वाले नेता नीतीश की पार्टी से जीतकर आएंगे तो नीतीश को कौन से राज का मुखिया बनाएंगे... जंगल राज का या सुशासन के राज का??? ऐसे नेताओं के बारे में बिहार को गंभीरता से सोचना होगा। क्योंकि एक आदमी ही गलत होगा ये कहना ठीक नहीं हो सकता क्योंकि उस आदमी के आसपास वाले लोग कहीं से भी ठीक नहीं माने जा सकते। लालू और उनके पुराने संबंधियों के बारे में कुछ ऐसा ही समझना पड़ेगा। क्या कहते हैं...????

नीतीश के विकास पर बटन दबाएगा बिहार!


बिहार में नीतीश कुमार का सहारा है विकास। नारा भी विकास ही है। चूंकि बिहार की राजनीति बिना जात पात के संपूर्ण नहीं है लिहाजा नीतीश को ये जोड़ तोड़ करना पड़ रहा है। वैसे पार्टी नेता विकास के भरोसे आत्मविश्वास से भरे हुए हैं। होना भी चाहिए क्योंकि इससे पहले के पंद्रह साल की तुलना में नीतीश का पांच साल कई गुणा भारी पड़ता है। नीतीश के नेता, कार्यकर्ताओं का सीना इसलिए भी फूला हुआ है कि फीड बैक विकास को लेकर सही आ रहा है। विरोधी भी विकास की दुहाई दे रहे हैं। हालांकि चुनाव है नतीजों का जोड़ घटाव तो वोट देने से पहले तक बदलता रहता है फिर भी आकलन जो कोई भी कर रहा है हवा नीतीश के पक्ष में बता रहा है। बिहार के कुछ लोगों की बातों पर गौर करें तो, पिछली सरकार की तुलना में नीतीश की सरकार में किए गए कुछ काम बेहतर कहने लायक है। राजधानी पटना ही नहीं बिहार के ज्यादातर इलाकों में सड़कें चलने लायक हो गई हैं। कानून व्यवस्था के हालात भी बेहतर हुए हैं। शाम होते ही बाजारों की रौनक गायब हो जाती थी कम से कम इन पांच सालों में लोगों का मनोबल बढ़ा है। जिस तरीके से लालू-राबड़ी के राज में कानून तोड़ने वालों का मनोबल बढ़ा था कम से कम नीतीश के राज में कानून पर भरोसा करने वालों का मनोबल मजबूत हुआ है। पहले लोग दूसरों से तुलना करते थे अब लोग अपने में मस्त होने लगे है। विकासशील व्यवस्था की पहचान इसको मान सकते हैं। लिहाजा इस विकासशील व्यवस्था को विकसित बनाने के लिए जरूरी है कि बिहार को कम से कम पांच साल के लिए नीतीश पर भरोसा करना चाहिए। बिहार की एक पूरी पीढी ने कभी विकास नाम का शब्द बिहार की धरती पर नहीं सुना था। आज पहली बार उस पीढ़ी का नौजवान अपने घर में अपनों से विकास की बात सुन रहा है। बचपन उसका जंगल राज के साये में गुजरा था.. थोड़ा सयाना हुआ तो उसने विकास की परिभाषा को समझने की कोशिश की.. अब वो विकास की बात घर से लेकर बाहर तक सुन रहा है। मतलब नई पीढ़ी के जरिये बिहार के गांव और कस्बों में विकास लौट रहा है। आज राजनीति को समझने वाला हर शख्स देश की राजनीति को समझ रहा है उसमें अगर कोई दो पैसा भी बेहतर करता है तो दांव उसपर लगाने में कोई बुराई नही है। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी बहुत कुछ बदलाव हुआ है.. वैसे बिहार में बहुत चीजें ऐसी है जिसे करने की जरूरत है। नीतीश के समर्थक भी यही बात कह रहे हैं, पंद्रह साल या फिर उससे पहले के शासन में जो नहीं हुआ उसे अगर कोई करना चाहता है तो उसे मोहलत दी जानी चाहिए। कुल मिलाकर ये कह सकते हैं कि आज की तारीख में पहले की तुलना में शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून व्यवस्था, सड़क के मामले में बिहार ने तरक्की की है। दिल्ली, नोएडा, मुंबई के बाद मीडिया के मामले में बिहार आज पावर सेंटर बनकर उभर रहा है। हालांकि इंडस्ट्री, बिजली, रोजगार के अवसर जैसे मामलों में बिहार को काम करने की जरूरत है। पहले के नेता इन मामलों के बारे में सोचते तक नहीं थे, आज अगर कोई सोच रहा है तो कम से कम उसे उसका ड्राफ्ट तैयार करने का वक्त मिलना चाहिए। भरोसा सबसे बड़ी चीज है अब तक बिहार को किसी पर भरोसा नहीं था लेकिन आज बिहार किसी की तरफ मुंह उठाकर देख तो रहा है। लिहाजा जाति, धर्म से उपर उठकर इस बार बिहार में विकास के इसी हथियार को चुनावी हथियार बनाने की तैयारी कर रहे हैं नीतीश कुमार। और हां बिहार का हर शख्स अपना एक राजनीतिक नजरिया रखता है इसलिए उसे पाठ पढ़ाना आसान नहीं होता। अब सवाल उठता है कि बिहार का वो नजरिया पंद्रह साल तक कहां था। तो इसका जवाब आप इस रूप में समझ सकते हैं कि बिहार को तब यही पसंद था। जिस लालू को जमाने में बिहार के सभी धर्म, जाति, संप्रदाय के लोगों ने 1990 में मदद की थी उन्हीं लोगों ने 2005 में लालू को उखाड़ दिया। लालू को उखाड़ने के लिए बिहार में किसी को बाहर से नहीं बुलाना पड़ा। लालू के साथी रहे लोगों ने ही उन्हें धरातल का रास्ता दिखाया था। अब चूंकि नीतीश के राज में लालू-राबड़ी राज की तरह कोई बड़ी शिकायत नहीं मिली है कि इसे धरातल का रास्ता अभी ही दिखा दिया जाए। अभी तो बिहार के पुनर्निर्माण की शुरुआत है। लिहाजा बिहार के हर धर्म, जाति, संप्रदाय. बड़े, छोटे लोगों को बिहार के विकास में अपनी भागीदारी को सुनिश्चित करने का वक्त आया है। उम्मीद है इस बार अपने बिहार को और बेहतर बनाने के लिए बिहार बेहतर फैसला करेगा। आदमी उम्मीद किससे करता है, उसी से जो उसकी उम्मीदों पर खड़ा उतरता है। पहले के लोग उम्मीद नहीं करते थे, अब किसी ने उम्मीद करना सिखाया तो लोग उम्मीद करने लगे हैं। शायद यही वजह है कि लोग नीतीश कुमार से और ज्यादा उम्मीद कर रहे हैं...जिन उम्मीदों पर नीतीश की सरकार खड़ी नहीं उतरी उसी को भुनाने में लगे हैं सरकार के विरोधी। उपर ही मैंने जिक्र किया कि बहुत कुछ करने की जरूरत है सो एक बार उसी उम्मीद के भरोसे बिहार का बेहतर भविष्य चुनिए, ताकि बिहार से बाहर रहने वाले लोग अपने बिहार की दुहाई दे सके। लेकिन सवाल अब भी है कि क्या नीतीश के विकास पर बटन दबाएगा बिहार।

Tuesday, September 21, 2010

बिहार चुनाव 2010 : कुछ सत्य

27 सितंबर को पहले दौर के चुनाव के लिए बिहार में अधिसूचना जारी होगी। फिलहाल चुनाव से पहले दल बदल का काम जोरों पर है। बिहार के चुनाव में दिलचस्पी रखने वाले लोग ये जानना जरूर चाहेंगे कि कौन सा नेता अभी किस पार्टी में चला गया है। लिस्ट लंबी है। नजर डालिए।
1.अखिलेश सिंह(पूर्व केंद्रीय मंत्री) आरजेडी छोड़कर कांग्रेस में जा चुके हैं।
2.सुभाष यादव,आरजेडी से इस्तीफा,जेडीयू,ददन पहलवान की पार्टी में तय नहीं।
3.तस्लीमुद्दीन(पूर्व केंद्रीय मंत्री), आरजेडी छोड़ जेडीयू में शामिल।
4.सरफराज आलम, तस्लीमुद्दीन के बेटे, आरजेडी छोड़ जेडीयू में शामिल
5.इजहार अहमद(लोजपा विधायक, घनश्यामपुर) जेडीयू में शामिल
6.विजेंद्र चौधरी(निर्दलीय विधायक), मुजफ्फरपुर अब लोजपा में शामिल
7.राजेश सिंह(आरजेडी विधायक, धनहा) अब जेडीयू में शामिल
8.जमशेद अशऱफ(जेडीयू विधायक)बलिया, अब कांग्रेस में शामिल
9.सुखदेव पासवान, पूर्व सांसद(अररिया) बीजेपी से लोजपा अब कांग्रेस में शामिल
10.नागमणि(पूर्व मंत्री), जेडीयू से आरजेडी अब कांग्रेस में शामिल
11.सुचित्रा सिन्हा(कुर्था से जेडीयू विधायक), नागमणि की पत्नी अब कांग्रेस में शामिल
12.प्रभुनाथ सिंह(पूर्व सांसद, महाराजगंज) जेडीयू से आरजेडी में शामिल
13.अनिल कुमार (भोरे विधायक, आरजेडी) कांग्रेस में शामिल
14.गिरिधारी यादव(पूर्व सांसद, बांका) आरजेडी से कांग्रेस अब जेडीयू में शामिल
15.अरुण सिंह(पूर्व सांसद,जहानाबाद)जेडीयू,लोजपा,कांग्रेस होते जेडीयू में शामिल
16.राम लखन महतो(दलसिंहसराय से आरजेडी विधायक), अब जेडीयू में शामिल
17.अच्युतानंद सिंह(लोजपा विधायक, जन्दाहा) अब बीजेपी में शामिल
18.उपेंद्र कुशवाहा(पूर्व विधायक), जेडीयू, एनसीपी, होते हुए फिर जेडीयू में शामिल
19. श्याम रजक(आरजेडी रमई राम(आरजेडी से कांग्रेस)जेडीयू में शामिल हो चुके हैं।
20.आनंद मोहन पत्नी लवली के साथ अभी कांग्रेस में हैं।
21.पप्पू यादव भी पत्नी के साथ अभी कांग्रेस में हैं।
22.कांटी विधायक अजीत कुमार अभी तो जेडीयू में हैं।
23.राजन तिवारी, लोजपा में हैं जेल में बंद।
24.जगन्नाथ मिश्रा, पुत्र नीतीश के साथ फिर से जेडीयू के साथ हैं।
25.सांसद ललन सिंह, तकनीकी तौर पर जेडीयू में हैं, दिल कांग्रेस में।
26.कैप्टन जयनाराण निषाद, मुजफ्फरपुर सांसद, जेडीयू से नाराज
27.पूर्णमासी राम, सांसद गोपालगंज, जेडीयू से नाराज

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नवंबर 2005 चुनाव के कुछ जानने वाले तथ्य-
जेडीयू और बीजेपी ने तालमेल कर 139 और 102 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे
जेडीयू को 88 सीटें मिली थी, बीजेपी को 55
आरजेडी ने कांग्रेस से तालमेल किया था। आरजेडी 175, कांग्रेस 51 सीटों पर लड़ी थी।
आरजेडी को 54, कांग्रेस को तब 9 सीटें मिली।
आरजेडी ने 10 सीटें सीपीएम के लिए छोड़ी थी। , एक पर जीत मिली
लोजपा ने सीपीआई, फॉरवर्ड ब्लॉक, आरएसपी से तालमेल किया था।
203 सीटों पर लड़कर लोजपा ने 10 सीटें जीती
35 सीटों पर लड़के सीपीआई को 3 सीटें मिली।
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पहले दौर का चुनाव 21 अक्टूबर
, दिन गुरुवार को 47 सीटों पर होगा।
27 सितंबर से 4 अक्टूबर तक नामांकन, 5 को नामंकन पत्रों की जांच
7 अक्टूबर को नाम वापस लेने की अंतिम तारीख होगी।
मधुबनी, सुपौल, अररिया, किशनगंज, पूर्णिया, कटिहार, मधेपुरा, सहरसा की 47 सीटें।
जेडीयू के पास अभी 16,बीजेपी 13, आरजेडी 5,कांग्रेस के पास 4 अन्य 8 सीटें हैं।
(किशनगंज में एक सीट बढ़ा है)
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दूसरे दौर का चुनाव 24 अक्टूबर दिन रविवार को 45 सीटों पर होगा।
29 सितंबर से 6 अक्टूबर तक नामांकन ,7 को जांच, 9 को नाम वापसी की आखिरी तारीख।
शिवहर,सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर,दरभंगा,समस्तीपुर,मोतिहारी(12 में से 5 सीट) की 45 सीटें।
जेडीयू के पास अभी 13,बीजेपी 7, आरजेडी के पास 18, एलजेपी 3, कांग्रेस 1, अन्य 2
(दरभंगा में एक नई सीट )
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तीसरे दौर का चुनाव 28 अक्टूबर गुरुवार को 48 सीटों पर होगा।
4 अक्टूबर से 11 अक्टूबर तक नामांकन,12 को जांच,14 नाम वापसी की आखिरी तारीख।
बेतिया, मोतिहारी, गोपालगंज, सीवान, छपरा, वैशाली की 48 सीटें।
जेडीयू के पास अभी 15, बीजेपी 14, आरजेडी 11, लोजपा 3, कांग्रेस 1,बीएसपी 1, अन्य 2
(मोतिहारी में एक नई सीट)
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Sunday, September 19, 2010

कांग्रेस के आंगन में किलकारी...


20 साल बाद बिहार कांग्रेस के आंगन में किलकारी गूंज रही है। बीते 20 साल में कांग्रेस की यहां जो स्थिति थी वो किसी से
छिपी नहीं है। सालों तक यहां कांग्रेसियों ने राज किया लेकिन एक बार हाथ से सत्ता निकली तो फिर पिछलग्गु बनकर रह गये।
90 में लालू के सत्ता में आने के वक्त भी पार्टी हार भले गई थी लेकिन स्थिति बेहतर थी.. लेकिन धीरे धीरे नाम लेने वाला
कोई नहीं बचा। सबसे बुरा वक्त तो कांग्रेसियों के लिए रहा 2004-2005 का। पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा, कभी कांग्रेस विधायक दल के नेता (विपक्ष के नेता) रहे रामाश्रय प्रसाद सिंह, प्रदेश अध्यक्ष रामजतन सिन्हा जैसे जन्मजात कांग्रेसियों ने पार्टी से नाता तोड़ लिया। अपने राजनीतिक फायदे के लिए कोई नीतीश के साथ गया तो कोई पासवान के साथ। लेकिन एक बार
फिर से दिन फिरने को है। पटना के सदाकत आश्रम में इन दिनों दिन में ही दिवाली मन रही है। रोज मिलन समारोह आयोजित हो रहे हैं।
आज बिहार में कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं है। साल 2005 के विधानसभा चुनाव में लालू से तालमेल कर कांग्रेस के 51 उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे। 9 सीटों पर जीत मिली। कुल 6.09 फीसदी वोट मिले, यानी 51 उम्मीदवारों को मिले 14 लाख 35 हजार 449 वोट। लेकिन लोकसभा 2009 के चुनाव में हालात बदल गये। हालांकि पार्टी को एक सीट का नुकसान हुआ लेकिन अकेले चुनाव लड़कर भी दो सीटों पर जीत मिली, और राज्य में कांग्रेस को जिंदा करने में मजबूती मिली। 2009 के लोकसभा चुनाव में आरजेडी से नाता तोड़ कांग्रेस ने जो फसल बोने का काम किया था अब उसे इस विधानसभा चुनाव में उसके काटने का वक्त आ गया है। हालांकि कांग्रेस के पास बिहार में अब भी कोई सबसे बड़ा सर्वमान्य चेहरा नहीं है जिसके दम पर वोट मांगने की पार्टी हिम्मत कर सके। लेकिन बदले हालात में पार्टी किसी भी गठबंधन (लालू या नीतीश)को चुनौती देने की हैसियत में है इससे इनकार नहीं कर सकते। तभी तो लगातार नीतीश और लालू दोनों कांग्रेस पर वार करते दिख रहे हैं। अब खासियत देखिए कांग्रेस का जो शुरुआती आधार वोट रहा है उसका झुकाव फिर से पार्टी की ओर लौट रहा है। विधानसभा उपचुनाव 2009 में इसकी झलक देखने को मिली थी। देश की वर्तमान विषम राजनीतिक परिस्थितियों को भुनाने में विपक्षी नाकाम है लिहाजा बिहार में कांग्रेस को ललकारने का घाटा नीतीश और लालू को ही है। बाद इसके आज की तारीख में बिहार के ज्यादातर बाहुलबली कांग्रेस का दामन भी थामे हुए हैं। कोसी के इलाके में आनंद मोहन हों या फिर पप्पू यादव। लालू के साले साधु यादव भी कांग्रेस में ही हैं। रही सही कसर को संपूर्ण करने के लिए पूर्व केंद्रीय मंत्री अखिलेश सिंह पहुंचने वाले हैं। कांग्रेस की स्ट्रेटजी पर गौर करें तो उसकी कोशिश बिहार के हर इलाके से एक बड़ा नाम और बड़े चेहरे को अपने साथ जोड़ने की है। अब अररिया के पूर्व बीजेपी सांसद सुखदेव पासवान भी कांग्रेसी हो गये हैं। बिहार में 21 अक्टूबर को पहल पहले दौर की वोटिंग है। और आज की तारीख में पार्टी सबसे मजबूत स्थिति में इसी इलाके में हैं। आनंद मोहन, पप्पू यादव भले जेल में हैं लेकिन इन बाहुबली पूर्व सांसदों की पूर्व सांसद पत्नियां कमान संभालने के लिए काफी है। दलित वोटरों के लिए इस इलाके में कभी सबसे बड़ा चेहरा रहे सुखदेव पासवान भी अब साथ हो गये हैं। प्रदेश अध्यक्ष और पार्टी के युवा अल्पसंख्यक चेहरा महबूब अली कैसर भी इसी इलाके से आते हैं। पहले दौर के चुनाव में अगर कांग्रेस अपने इन धुरंधरों के जरिये सही टिकट बंटवारे के साथ वोट मैनजमेंट का पुख्ता इंतजाम कर लेती है। तो इसका बड़ा संदेश बिहार के बाकी इलाकों में जाएगा, जो विरोधियों के प्राण सूखाने के लिए काफी हो सकता है। कांग्रेस की कमोबेश कोशिश यही होनी चाहिए। अखिलेश सिंह के पार्टी में शामिल होने के बाद बड़े भूमिहार नेता की जो कमी हो गई थी वो कमी भी पूरी हो जाएगी। 20 साल तक नीतीश की सियासत को चमकाने के लिए रणनीति बनाने वाले सांसद ललन सिंह के बारे में लगातार कहा जा रहा है कि इन दिनों वो कांग्रेस के लिए समीकरण बना रहे हैं... ऐसी बात है तो ये शुभ संकेत है पार्टी के लिए। पाला बदलने वाले नेताओं की आज की तारीख में कांग्रेस पहली पसंद हैं। लोकसभा टिकट न देने से नाराज दलबदल के माहिर खिलाड़ी नागमणि हों या फिर शराब के मुद्दे पर नीतीश सरकार में मंत्री पद छोड़ने वाले जमशेद अशऱफ, या अब गोपालगंज के भोरे से विधायक अनिल कुमार । इतना ही नहीं पूर्व सांसद और पूर्व विधायक तो थोक के भाव में हर हफ्ते शामिल हो रहे हैं। कांग्रेस चूंकि दिल्ली से डील होने वाली पार्टी है लिहाजा हर नेता को शामिल कराने से पहले दिल्ली से हरी झंडी की जरूरत पड़ती है। इसी बीच में अगर पुराने बॉस को मालूम हो गया तो मनाने, बचाने का ऑपरेशन शुरू हो जाता है। इसके चक्कर में कांग्रेस के मिलन समारोह वाली लिस्ट और लंबी नहीं हो पाई है। खबर तो ये भी है कि लालू के दूसरे साले सुभाष यादव भी कांग्रेस की ओर टकटकी लगाये बैठे हैं.. लेकिन जब तक साधु यहां डेरा जमाये हैं तब तकउनका आना डाउटफुल लग रहा है लेकिन राजनीति में कुछ साफ साफ आप कह भी नहीं सकते। पूर्व सांसद जयप्रकाश यादव को भी भाव नहीं मिल रहा सो वो भी लालू से कन्नी काटे हुए है आश्चर्य न हो किसी दिन उनके कल्टी मारने के बारे में भी सुन सकते हैं। कहने का मतलब ये कि कांग्रेस का आधार मजबूत तो हुआ है इसमें कोई आश्चर्य तो है नहीं। वैसे भी सहरसा में राहुल गांधी की जो रैली हुई उसको देखकर उस इलाके में जेडीयू और आरजेडी दोनों के कान खड़े हो चुके हैं. पहले चरण में कोसी और पूर्णिया के जिन 47 सीटों पर चुनाव होने हैं उनमे से एनडीए के पास 29 सीटें हैं। (16 जेडीयू और 13 बीजेपी), लालू के पास 5 है तो कांग्रेस के पास 4 सीटें। मतलब थोक के भाव में खोने का आइटम यहां जेडीयू और बीजेपी के पास ही है। बिहार में कांग्रेस के नाम पर कोई बड़ा चेहरा भले न हो लेकिन अगर जातीय हिसाब से बांट दें तो... अल्पसंख्यकों के सबसे बड़े चेहरे तो खुद प्रदेश अध्यक्ष महबूब अली कैसर हैं।
राष्ट्रीय प्रवक्ता शकील अहमद, किशनगंज वाले सांसद असरारूल हक हैं। 2005 के चुनाव में जो 9 विधायक जीते थे उनमें से चार मुसलमान थे। बाद में कैसर और जमशेद अशरफ के बाद गिनती बढ़ गई। दलित चेहरे के रूप में विधायक दल के नेता अशोक राम के अलावा ताजा ताजा पार्टी में आए सुखदेव पासवान को भी गिन लीजिए। (मीरा कुमार लोकसभा अध्यक्ष हो चुकी हैं) भूमिहार फेस वैसे तो रामजतन सिन्हा, अनिल शर्मा, महाचंद्र प्रसाद सिंह, शाही और पांडे खानदान जैसे लोग भी हैं.. लेकिन अखिलेश सिंह और ललन सिंह जैसे बड़े नाम के जुड़ने के बाद ताकत और ज्यादा बढ़ने की उम्मीद की जा सकती है। राजपूतों में लवली आनंद अपने आप में चेहरा है। लालू के यादव वोट में सेंधमारी के लिए कोसी, पूर्णिया में पप्पू यादव, और खुद लालू के घर वाले इलाके में साले साधु यादव। कुर्मी के वोट मिलने की गारंटी तो कांग्रेस के कोई भी बड़े नेता नहीं दे सकते लेकिन सदानंद सिंह अपने क्षेत्र में कार्यकर्ताओं को भरोसा दे रहे हैं। रही बात 6 फीसदी वोट वाले कोइरी की तो नागमणी खुद को राज्य के सबसे बड़े कोइरी नेता मानते हैं.. 6 फीसदी पर न सही जहानाबाद, औरंगाबाद, पटना में थोड़ा बहुत प्रभाव तो है ही। वैसे भी नाम तो बड़ा ही है। कमी दिखती है तो ब्राह्मण नेता की। मिथलांचल इलाके में कांग्रेस को एक बड़ा नेता चाहिए... प्रेमचंद्र मिश्रा जैसे लोग भले ही पार्टी के लिए पुराने हों ऑफिस के लिए ठीक हैं वोट मांगने के लिए नहीं कह सकते। कहने का मतलब ये कि बिहार कांग्रेस के प्रभारी मुकुल वासनिक बड़ी ही महीनी से पार्टी के लिए ऑपरेशन चला रहे हैं। बिहार में नए बाहुबलियों की पहली च्वाइस भी कांग्रेस ही है। पिछले दो हफ्ते में पटना हवाई अड्डे से लेकर पार्टी कार्यालय तक मीडिया से बात करते मुकुल वासनिक की कोई भी तस्वीर देख लीजिए, उनके आसपास खड़े लोगों को जो जानते हैं आसानी से पहचान लेंगे। मुकुल वासनिक अपने स्ट्रेटजी में सफल होते दिख रहे हैं... अभी तक अनुशासन भंग होने की कोई खबर कांग्रेस के खेमे से नहीं आई है। पुराने दिन याद कीजिए अनिल शर्मा अध्यक्ष थे और हर मीटिंग में कुछ न कुछ खरमंडल होता था। लालू और पासवान से नाता तोड़कर कांग्रेस ने सिर्फ इन दोनों की मुश्किलें नहीं बढ़ाई हैं.. धड़कन नीतीश की भी तेज है। लालू से नाता तोड़ने का फायदा ही है कि एक तीसरा मजबूत विकल्प बिहार में तैयार हो गया है। इस चुनाव में 20 से 25 सीटें भी मिल जाती है (जो कि मिल सकती है) तो सत्ता की चाबी कांग्रेस के हाथ में होगी। लेकिन सवाल ये कि क्या त्रिशंकु विधानसभा की सूरत में कांग्रेसी फिर लालू-पासवान से दोस्ती करेंगे। या बिहार में नीतीश के साथ कांग्रेस का नया गठबंधन बनेगा। नतीजों का इंतजार कीजिए। पहले चरण के चुनाव के बाद ही कांग्रेस की हैसियत की तस्वीर साफ हो जाएगी।

Wednesday, September 15, 2010

विकास या जाति कौन पड़ेगा भारी ? PART -4


बिहार में कुर्मी और कोइरी को एक दूसरे का पूरक माना जाता है। नीतीश कुमार कुर्मी बिरादरी से हैं। 1994 में जब जनता दल का विभाजन हुआ था और समता पार्टी बनी तो बिहार में लोग इसे कुर्मी-कोइरी की पार्टी कहते थे। हालांकि बिहार में कोइरी वोटरों की संख्या कुर्मी से ज्यादा है। दोनों मिलाकर करीब 11 फीसदी के आसपास है। कुर्मी 5 और कोइरी 6 फीसदी। नीतीश कुमार के राजनीतिक उदय से पहले कोइरी जाति के नेता बिहार की राजनीति में ज्यादा प्रभावशाली थे। 90 के दशक में
बिहार में कुर्मी के सबसे बड़े नेता हुआ करते थे सतीश कुमार इनके बाद वृषण पटेल(तब सीवान के सांसद) थे। 94 में बिहार में कुर्मी चेतना महारैली में नीतीश कुमार का उदय हुआ और सतीश कुमार की दुकानदारी पर नीतीश ने कब्जा कर लिया। तब से लेकर अब तक बिहार में कुर्मी जाति के सर्वमान्य नेता नीतीश कुमार ही हैं। नीतीश जब मजबूत हुए तो लालू ने अपना नारा बदल दिया...भूराबाल साफ करो कहने वाले लालू ने तब नारा दिया... भूरा बाल माफ करो, कुर्मी-कोइरी साफ करो। लेकिन सच्चाई समझिए जैसे जैसे नीतीश मजबूत होते गये कुर्मी समुदाय से ज्यादा प्रभावशाली कोइरी समुदाय के नेता बैकफुट पर आने लगे। लेकिन सियासत के चाणक्य नीतीश को अपने 'बड़े भाई' की ताकत का अंदाजा था, लिहाजा कभी सीधे सीधे वार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। चेक एंड बैलेंस वाले फॉर्मूले पर चलते हुए कभी भगवान सिंह को आगे किया तो कभी उपेंद्र कुशवाहा को, मौका पड़ने पर नागमणि को भी साथ ले आए। भगवान सिंह कुशवाहा को युवा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया। विधानसभा में विधायक दल के उपनेता की भी जिम्मेदारी दी। भगवान सिंह से थोड़ा मोहभंग हुआ तो झारखंड बनने के बाद समता पार्टी के विधायकों की संख्या जब बीजेपी से ज्यादा हो गई तो जन्दाहा से पहली बार विधायक बने उपेंद्र कुशवाहा को विपक्ष का नेता बना दिया। बिहार में नीतीश के बाद तब पार्टी में नंबर दो के पोजीशन पर पहुंच गये थे उपेंद्र कुशवाहा, 2005 के विधानसभा चुनाव में उपेंद्र कुशवाहा दलसिंहसराय से हार गये। हारने के बाद पार्टी में पोजीशन घट गया। उपमुख्यमंत्री की चाहत पाले हुए थे। लेकिन नीतीश से संबंध बिगड़े और पार्टी से बाहर हो गये। जेडीयू से बाहर होने के बाद उपेंद्र कुशवाहा एनसीपी में गये, फिर अपनी पार्टी बना ली। लेकिन राजनीतिक हस्ती घटती चली गई। 2005 में ही विधानसभा चुनाव के वक्त पार्टी-पार्टी घूमते हुए नागमणि भी नीतीश के साथ आ गए। नागमणि की पत्नी सुचित्रा सिन्हा को कुर्था से टिकट मिला और वो जीत गई। नागमणि तब कोइरी के बड़े नेता के रूप में स्थापित हुए जगदेव प्रसाद के सुपुत्र हैं और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री सतीश प्रसाद सिन्हा के दामाद। लोकसभा चुनाव के वक्त नीतीश ने टिकट देने से मना कर दिया तो लालू की पार्टी में चले गए। नागमणि के पार्टी से जाने के बाद नीतीश की पार्टी में कोइरी का दमदार नेता नहीं रह गया था सो एक बार फिर उपेंद्र कुशवाहा से संपर्क साधा गय़ा.. और बिहार की राजनीति में हासिये पर चल रहे उपेंद्र कुशवाहा ने इस ऑफर को सहर्ष स्वीकार कर लिया। हालांकि उपेंद्र कुशवाहा की वापसी पार्टी के लिए भारी पड़ी और नीतीश के सबसे अजीज ललन सिंह नाराज हो गये। बाद में बिहार का अध्यक्ष पद भी छोड़ दिया। कहने का मतलब ये कि कोइरी वोट पाने के लिए नीतीश कुमार ने हर वो तिकड़म किये जो एक मंझे हुए नेता के लिए जरूरी होता है। नीतीश जिस इलाके से आते हैं वहां कुर्मी सबसे ज्यादा है तो कोइरी भी कम नहीं है। वैसे कोइरी की कई प्रजातियां भी हैं जो बिहार के हर इलाके में किसी न किसी जाति के रूप में अच्छी संख्या में हैं। नागमणि के जाने से जो जगह खाली थी उसको उपेंद्र कुशवाहा से भरने की कोशिश की गई। वैसे नीतीश ने भोजपुर इलाके के लिए भगवान सिंह कुशवाहा(जगदीशपुर विधायक, ग्रामीण विकास मंत्री) और तिरहुत के लिए दिनेश प्रसाद कुशवाहा(मीनापुर विधायक, लघु सिंचाई मंत्री) को भी मंत्री बनाकर अपना आधार मजबूत किया। नौतन वाले वैद्यनाथ महतो को सांसद बनावाय. उपेंद्र कुशवाहा को पार्टी में लाने के बाद उन्हें राज्यसभा भेजा गया। लेकिन उपेंद्र कुशवाहा को बैलेंस करने के लिए दलसिंहसराय से आरजेडी के विधायक रामलखन महतो (कोइरी) को जेडीयू में शामिल कराया। अब खबर ये है कि उपेंद्र कुशवाहा इससे नाराज हैं। खैर कहने का मतलब ये कि कोइरी वोट खिसके न इसके लिए नीतीश लगातार तिकड़म पर तिमड़म लगाने में जुटे हुए हैं। कारण भी है कोइरी के एक वर्ग का नेतृत्व आरजेडी के कोइरी नेताओं के हाथ में है। समस्तीपुर में कोइरी वोटरों की संख्या ज्यादा है। मंजय लाल पहले वहां से सांसद हुआ करते थे , बाद में आलोक मेहता सांसद बने। दोनों कोइरी। मंजय लाल की मामला निपट चुका है लेकिन आलोक मेहता कोइरी के नौजवानों की अगुवाई करते हैं। हालांकि बीते लोकसभा चुनाव में उनकी ही स्वजातीय अश्वमेघ देवी (जेडीयू)ने उन्हें हरा दिया। उपेंद्र वर्मा, शकुनी चौधरी भागलपुर, मुंगेर इलाके में लालू का मोर्चा संभाले हुए हैं। शकुनी चौधरी बहुत पहले कांग्रेस में थे। 94 में समता पार्टी बनी तो नीतीश के साथ हो लिए, बाद में मन नहीं माना और लालू के साथ हो गए। शकुनी चौधरी को खुश करने के लिए उनके बेटे सम्राट चौधरी को ही लालू ने मंत्री बना दिया था जिसको लेकर खूब बवाल हुआ और लालू की किरकिरी हुई क्योंकि सम्राट चौधरी की उम्र ही 25 साल की नहीं थी। हालांकि जब उम्र हुई तो फिर से मंत्री बनाकर कोइरी आधार को जोड़े ऱखने की लालू ने खूब कोशिश की। तुलसीदास मेहता वैशाली, समस्तीपुर के इलाके में लालू का मोर्चा संभालते थे, अब उनके बेटे आलोक मेहता संभाल रहे हैं। कहने का मतलब ये कि कोइरी वोट नीतीश के साथ आज भी पूरी तरह नहीं है। लिहाजा नीतीश को अपने इस आधार वोट को बनाए रखने के लिए जोड़ तोड़ का गणित करना पड़ रहा है। मतलब साफ है कि विकास भी बात इस समुदाय के सामने भी अहम नहीं है...अब नागमणि पत्नी के साथ कांग्रेसी हो गये हैं। बिहार में अभी कोइरी जाति के करीब बीस विधायक हैं, वहीं कुर्मी जाति से 15। अब सवाल ये कि कोइरी के करीब 6 फीसदी वोटर क्या करेंगे.... लालू, नीतीश और कांग्रेस तीनों को बांटेंगे या फिर लव-कुश का फॉर्मूला हिट कराकर अपने भाई नीतीश को मजबूती देंगे। वैसे इतिहास पलटकर देखिये तो पिछली बार भी कोइरी का वोट पूरी तरह नीतीश को नहीं मिल पाया था। उस वक्त उपेंद्र कुशवाहा और नागमणि दोनों इनके साथ थे। इस बार रामलखन महतो क्या नागमणि की भरपाई करेंगे, क्या दसलिंहसराय में उपेंद्र कुशवाहा रामलखन महतो के लिए वोट मांगेंगे...वक्त बताएगा कि कोइरी का ऊंट किस करवट बैठता है। लेकिन एक बात जो अभी साफ है वो ये कि यदि 'विकास पुरुष' को अपने विकास पर भरोसा होता तो इस आधार वोट को जोड़े रखने के लिए इतना जोड़ घटाव नहीं सोचना होता।

Tuesday, September 14, 2010

विकास या जाति, कौन पड़ेगा भारी ? PART 3


बिहार चुनाव से पहले इस बार राजपूतों का समीकरण एकदम से बदलता नजर आ रहा है। वैसे तो आज की तारीख में कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। लेकिन आनंद मोहन, प्रभुनाथ सिंह और दिग्विजय सिंह अब नीतीश कुमार के साथ नहीं हैं। इन तीनों नेताओं का अपने अपने इलाके में बड़ा दबदबा है। राजपूत समाज में इनकी पूछ है। दिग्विजय सिंह तो अब इस दुनिया में नहीं रहे। लेकिन जाने से पहले उन्होंने नीतीश के खिलाफ राजपूतों का एक बड़ा प्लेटफॉर्म तैयार कर दिया। भागलपुर, बांका, जमुई, मुंगेर के इलाके में दिग्विजय सिंह की बड़ी पकड़ थी। बिहार में जब से नीतीश मुख्यमंत्री बने जॉर्ज खेमे के नेता दिग्विजय सिंह को साइड करके ही चले। सरकार बनने के बाद प्रभुनाथ सिंह की भी कोई पूछ नहीं रह गई थी। इलाका का अफसर इस बाहुबली नेता की बात नहीं सुनता था, लिहाजा समर्थकों में मार्केट खराब होता गया। आनंद मोहन को तो खैर इनके कार्यकाल में कोर्ट ने फांसी की सजा दी है। पिछली बार इन तीनों की ताकत नीतीश के साथ थी। नतीजा देखिये प्रभुनाथ सिंह के प्रभाव वाले छपरा की 10 सीटों में से 5 पर जेडीयू ने कब्जा किया। 2 सीट बीजेपी के खाते में।(छपरा लालू का गढ़ तो था ही), सीवान में भी 8 में से 3 जेडीयू और 2 बीजेपी को मिली थी। 2000 के चुनाव में इन दोनों जिले से सिर्फ एक सीट पर समता पार्टी को कामयाबी मिली थी।
आनंद मोहन की बात करें तो 2005 फरवरी के चुनाव में पत्नी लवली जेडीयू के टिकट पर बाढ़ से चुनाव जीती थी। नवंबर का चुनाव लवली नहीं लड़ी थीं। वैसे आनंद मोहन के प्रभाव वाले कोसी के इलाके में जेडीयू को जबरदस्त सफलता मिली। लालू जिस मधेपुरा से सांसद थे उस जिले की पांच में से 5 सीटें जेडीयू को। सहरसा में कुल 4 सीटों में से 2 जेडीयू को, सुपौल की 5 में से 5 सीटें जेडीयू को मिली थी। इन इलाके में आरजेडी का खाता तक नहीं खुला था। लेकिन परिस्थितियां कैसे बदली वो भी देख लीजिए। सहरसा की जिस सिमरी बख्तियारपुर सीट से दिनेश चंद्र यादव विधायक थे। लोकसभा चुनाव जीतकर दिल्ली पहुंचे लेकिन विधानसभा उपचुनाव में पार्टी को सीट नहीं दिलवा सके। आनंद मोहन की पत्नी लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस में चली गई थी। आनंद मोहन के समर्थन से महबूब अली कैसर उपचुनाव में कांग्रेस के टिकट पर इस सीट से जीत गए।
वैसे एक सच्चाई ये भी है आनंद मोहन के जेल में होने की वजह से उनका पुराना वाला जलवा कायम नहीं रह गया है। इसी का नतीजा हुआ कि पत्नी को शिवहर से लोकसभा चुनाव में हार मिली। नीतीश कुमार एक शादी समारोह में जब सहरसा गये थे तो आनंद मोहन की मां से मिले थे। चर्चा हो चली थी कि आनंद मोहन नीतीश का साथ देंगे। खुद पूर्व सांसद अरुण कुमार सिंह भी संपर्क में थे। लेकिन आनंद मोहन ने कांग्रेस का हाथ नहीं छोड़ने का फैसला किया है। तभी तो राहुल गांधी की सहरसा वाली रैली में लवली ने मंच पर आकर धुंधली तस्वीर साफ कर दी। आनंद मोहन को आरजेडी में भी लाने की कोशिश हो रही थी
विधानसभा चुनाव में तालमेल के तहत सहरसा की सोनबरसा सीट पासवान किशोर कुमार मुन्ना के लिए एलजेपी के खाते से चाहते थे लेकिन लालू ने मना कर दिया। अटकलें थी कि लवली शायद इस सीट पर आरजेडी से लड़े। कहने का मतलब अगर आनंद मोहन-लवली आनंद का खूंटा उखड़ गया(ऐसा कुछ लोगों का मानना है) तो ये लोग उनके पीछे क्यों लगे थे। अब चूंकीं तस्वीर साफ हो चुकी है तो हो सकता है किशोर कुमार मुन्ना ही आरजेडी के टिकट पर यहां से लड़ जाए। मुन्ना भी राजपूत बिरादरी के हैं। आनंद मोहन की जब बीपीपा बनी थी तो मुन्ना स्टूडेंट पीपुल्स के अध्यक्ष थे। बाद में आनंद मोहन से संपर्क खराब हुआ तो अलग राजनीति करने लगे। दिग्विजय सिंह ने भी नीतीश कुमार को लोकसभा चुनाव में अपनी ताकत का इजहार करा दिया। नीतीश ने नजरअंदाज किया तो लोकसभा चुनाव में निर्दलीय लड़े और जीत गये। अब वो नहीं हैं तो उनकी पत्नी पुतुल सिंह को लोकसभा टिकट देने की पेशकश की जा रही है, जेडीयू की ओर से ऐसा सुना जा रहा है। मतलब कहने का ये है कि राजपूतों के 5 फीसदी वोट को लेकर विकास पुरुष चिंतित तो हैं ही। वैसे भी उनके पास इस वक्त राजपूतों का कोई बड़ा नाम उनके साथ नहीं है। पूर्व विदेश राज्य मंत्री हरिकिशोर सिंह को खोज खाजकर नीतीश बाहर निकाल तो लाएं हैं.. लेकिन अब हरिकिशोर सिंह बहुत पुराने नेता हो गये। राजपूत वोटरों पर डोरा डालने के लिए ही पार्टी की बैठकों में इन दिनों पहली पंक्ति में उनको जगह दी जा रही है। राजगीर सम्मेलन जो 17-18 अगस्त के आसपास हुआ था उसमें देख लीजिए। मैनेज करने के लिए इनको योजना आयोग का बिहार में उपाध्यक्ष बनाया गया है। एक पीढ़ी को हरिकिशोर सिंह का नाम याद नहीं होगा, दूसरी पीढ़ी चेहरा देखने के बाद नाम पूछेगी.. इनको पहचानते हैं क्या नाम हैं इनका... टाइप से.... । और सांसद सुशील कुमार, मीना सिंह टाइप सांसद राजपूत के नाम पर नहीं वोट बैंक के नाम पर सांसद हैं। आरजेडी छोड़ जेडीयू में आए विजय कृष्ण जेल में ही हैं। लालू के पास चार सांसद हैं। चार में से तीन राजपूत हैं। रघुवंश सिंह पुराने सांसद हैं। वैशाली, मुजफ्फरपुर, मोतिहारी के राजपूतों में इनका प्रभाव है। आरा, बक्सर के राजपूतों में जगतानंद सिंह का प्रभाव है। उधर छपरा सीवान में उमाशंकर सिंह पहले से थे अब तो प्रभुनाथ सिंह भी साथ हो लिए हैं लालू के। बीजेपी के पास राजपूत के नाम पर मोतिहारी के सांसद राधामोहन सिंह(पूर्व अध्यक्ष), उदय सिंह उर्फ पप्पू सिंह, राजीव प्रताप रूडी हैं ये लोग भी प्रभावी नेता हैं । कांग्रेस में तो मान लीजिए आनंद मोहन जेल में हैं, तो लवली है। निखिल कुमार की पत्नी श्यामा सिंह हैं। लोजपा में हरसिद्धि वाले महेश्वर सिंह हैं लेकिन उनका सीट सुरक्षित हो गया है केसरिया से लड़ने की तैयारी में हैं। लेकिन तालमेल वाला कंट्रोवर्सी कहीं समीकरण का माचो न कर दे। कुल मिलाकर साफ मामला ये है कि राजपूत वोटों के लिए चिंतित हर पार्टी है। बिहार में 5 फीसदी वोट लेकिन दबंग वोट। वैसे इतिहास देख लीजिए राजपूतों के वोट का बड़ा हिस्सा 2005 के चुनाव से पहले तक लालू को मिलता रहा। 2005 में लालू विरोधी लहर में एग्रेसिव होकर नीतीश को साथ दिया था लोगों ने।
वैसे राजनीतिक जानकार कहते हैं कि राजपूत वोटर पार्टी को नहीं जाति के उम्मीदवार को प्राथमिकता देते हैं.. चाहे पार्टी कोई हो। सच्चाई भी है इसमें। लेकिन प्रचार और हवा बनाने के लिए बड़ा नाम तो चाहिए ही नहीं तो विरोधियों को कहने के लिए हो जाता है कि ये पार्टी में फलनवां जाति के कोई नेता न हई, बाहरो से कोई प्रचारे करे न अलई...

Monday, September 13, 2010

विकास या जाति? कौन पड़ेगा भारी! PART- 1

बिहार में चुनावी बिगुल बजे एक हफ्ता से ज्यादा का वक्त बीच चुका है। टिकट का गुणाभाग शुरू है। सवाल ये कि क्या इस बार का चुनाव बिहार में बिना जातीय आधार पर लोग वोट करेंगे। क्या जमाने बाद बिहार जातीय बंधनों से मुक्त होकर सिर्फ विकास बनाक जंगलराज के नाम पर वोट करेगा। कुछ लोग भले ही माहौल बनाने की कोशिश में जुटे हो. लेकिन मेरा मानना है कि बिहार में बिना जातीय आधार के चुनाव नहीं कराए जा सकते। अगर बिहार में राज कर रहे नीतीश कुमार को विकास पर इतना ही भरोसा होता तो ललन सिंह को अध्यक्ष पद से हटाने के बाद विजय चौधरी को बक्से से निकालकर नहीं लाते। ललन सिंह के विद्रोह के बाद नीतीश कुमार के पास भूमिहार का कोई कद वाला नेता नहीं रह गया था। ललन सिंह की कमेटी में चूंकी विजय चौधरी अहम ओहदे पर थे लिहाजा उनके किस्मत से उनको ये गद्दी नसीब हो गई। संतुष्टि नहीं मिली थी जिस जगदीश शर्मा ने नीतीश के खिलाफ विद्रोह करके अपनी पत्नी को उपचुनाव में निर्दलीय विधायक बनवाया। उन्हें पार्टी से निलंबित करने के बाद तुरंत वापस नहीं बुलाते। लेकिन भरपाई संपूर्ण नहीं हो पाई लिहाजा जहानाबाद वाले अरुण कुमार सिंह को भी वापस बुला लिया। ललन सिंह वाला ड्रामा इस कदर फैल गया कि लगा कि सरकार से पूरा समाज ही नाराज है। इसिलिए नीतीश कुमार ने फूंक फूंक कर कदम रखना शुरू किया। और किसी भूमिहार नेता को नाराज होने का कोई मौका नहीं दिया। मुन्ना शुक्ला, अनंत सिंह, सुनील पांडे सब अपना माहौल बनाने में जुट गए लेकिन नीतीश ने कुछ नहीं कहा। अब सवाल ये कि क्या बिहार का भूमिहार इस बार पिछली बार की तरह ही नीतीश की फिर से ताजपोशी के लिए ताकत लगाएगा। या फिर भूमिहारों का वोट प्रसाद की तरह कांग्रेस और एनडीए में बंटेगा? कुछ राजनीतिक पंडित इस आकलन में होंगे कि भूमिहार का वोट आरजेडी गठबंधन को नहीं मिलेगा तो मुझे लगता है कि ये उनका भ्रम है। अब तक ये होता आया है कि समाज के नाम पर समाज एकजुट नहीं होता रहा। लेकिन नीतीश राज के बाद जो हालात बदले हैं.. उसमें समाज को एक बार फिर से अपनी ताकत का एहसास होने लगा है। लालू राज में समाज ने दिशा बदल दी थी। लोगों का झुकाव गलत कामों की ओर ज्यादा हो गया था। बदली परिस्थितियों में समाज ने एक बार फिर गेयर चेंज किया है। राजनीति में फुल एंट्री की झांकी छोटे छोटे चुनावों में दिखा है। लिहाजा आरजेडी का नहीं पता लेकिन एलजेपी के खाते की 75 सीटों में से जिस पर भी समाज का उम्मीदवार होगा वहां समाज कुछ भी कर सकता है इससे इनकार नहीं किया जा सकता। सूरजभान सिंह यहां पासवान के सारथी बने हैं। रही कांग्रेस की बात तो बिहार में आज की तारीख में कांग्रेस में ऐसा कोई नेता नहीं है जिसका भूमिहार वोट पर प्रभाव है। रामजतन सिन्हा, अनिल शर्मा अब बीते जमाने की कहानी है। कोई नया बड़ा चेहरा एंट्री मारता है तो फिर समय के साथ उस क्षेत्र की कहानी बदल सकती है। वैसे भूमिहारों को अब भी सबसे ज्यादा नीतीश पर ही भरोसा है। नीतीश भी अपने इस तथाकथित दबंग वोट बैंक को आसानी से छिटकने नहीं देना चाहते। पूर्व केंद्रीय मंत्री अखिलेश सिंह को मनाने की कोशिश में लगे लालू भी नहीं चाहते कि जो एक्सट्रा फायदा है उसको दूर किया जाए। उत्तर बिहार में भूमिहार नेताओं के आधार की बात करें, तो मुजफ्फरपुर, वैशाली की बात करें तो। मुजफ्फरपुर में सुरेश शर्मा पेशे से व्यापारी है लेकिन बीजेपी के नेता भी है। वोट पार्टी के बैनर का है अपना कुछ है ऐसा नहीं लगता। जेडीयू में मुन्ना शुक्ला चूंकि बाहुबली हैं इसलिए इनका मानदान होता है। लेकिन इनके चलते घाटा भी है। अजीत कुमार कांटी से विधायक हैं, विधानसभा में अच्छी पकड़ का फायदा दो बार मिल चुका है। हरेंद्र कुमार के अभी नीतीश से संबंध बेहतर नहीं हैं। कांग्रेस में पांडे और शाही परिवार के लोग हैं लेकिन सिर्फ चुनावों के समय ही इन लोगों का नाम सामने आता है। विनोद चौधरी, समीर कुमार टाइप के लोग भी नेता हैं यहां जिनकी हर पार्टी में ऊपर तक पहचान है, कब किसी पार्टी में है ये चुनाव के वक्त मालूम पड़ता है। सीतामढ़ी में विमल शुक्ला कांग्रेस के कद्दावर नेता हैं। ढाका वाले बीजेपी विधायक अवनीश कुमार, मधुबन वाले आरजेडी विधायक बबलू देव का भी प्रभाव है। जेडीयू विधायक के पति सैदपुर वाले राजेश चौधरी नए चेहरे हैं। कुछ और नए नाम हैं जो उभरने की कोशिश में हैं। मोतिहारी में अवनीश कुमार, बबलू देव, राय सुंदर देव शर्मा(एलजेपी),गप्पू राय(आरजेडी) जैसे नाम हैं जिनका अपने अपने क्षेत्र में अच्छा प्रभाव है। बेतिया में बीजेपी के चंद्रमोहन राय,कांग्रेस के रणविजय शाही जैसे लोगों का प्रभाव है। छपरा, सीवान में धूमल सिंह(जेडीयू),सत्यदेव सिंह(बीजेपी),सुरेंद्र शर्मा,जैसे लोग प्रभावशाली और दबंग कहे जाते हैं। मतलब हर इलाके में हर नेता का हिसाब किताब है। कोई मास लीडर नहीं जिसका वोट बैंक पर प्रभाव हो। पटना में कोई अनंत सिंह को नेता मानता है. कोई सूरजभान को कोई दीलिप सिंह को श्याम सुंदर सिंह धीरज को,कही संजय सिंह नेता हैं,तो कहीं गणेश शंकर विद्य़ार्थी,बेगूसराय में राजो सिंह के बेटा बहू नेता हैं कांग्रेस के,तो बीजेपी वाले भोला सिंह को भी मानते हैं लोग नेता। कृष्णा शाही, रामजीवन सिंह और सीपीएम सीपीआई वाले समाज के लोग अब पुराने हो चुके हैं। नालंदा में गया सिंह, कुमार पुष्पंजय की नेतागीरी है। जहानाबाद में अरुण कुमार, जगदीश शर्मा, अखिलेश सिंह ,किंग महेंद्र नेता हैं। नवादा में आदित्य सिंह, अनिल सिंह, अखिलेश सिंह पत्नी सहित नेता हैं।(रामाश्रय सिंह अब मामला खत्म है )तो आरा बक्सर में सुखदा पांडे, सुनील पांडे नेता हैं। कटिहार,खगड़िया में निखिल चौधरी और चौधरी बिरादरी नेता हैं। सीपी ठाकुर,ललन सिंह टाइप के लोग आज नेता भले ही बड़े हैं लेकिन प्रभाव को फिलहाल चुनाव तक गोली मारिए। कुल मिलाकर भूमिहारों का मास नेता कोई नहीं है। भूमिहारों के नाम पर इनकी नेतागीरी है। कुछ पुराने नेता भी है जो अब बिल्कुल ही पुराने पड़ चुके हैं।

Sunday, September 12, 2010

विकास या जाति, कौन पड़ेगा भारी PART- 2


1931 की जनगणना के मुताबिक बिहार में 4.7 प्रतिशत ब्राह्मण, 4.2 प्रतिशत राजपूत एवं 2.9 प्रतिशत भूमिहार है। अगड़ों में 1.2 प्रतिशत ही कायस्थ है। इस तरह राज्य में चारों अगड़ी जातियों की संख्या 13 प्रतिशत के आसपास है। अब सवाल उठता है कि लालू के जंगल राज वाले शासन काल में तो भूमिहार वोटर लालू के साथ नहीं थे उस वक्त भी ये वोट बैंक लालू के खिलाफ था फिर लालू को क्यों नहीं हरा सके। इसके लिए समझना पड़ेगा बिहार का सियासी समीकरण। लालू राज के खात्मे की कहानी भले ही नीतीश रूपी कलम से सवर्ण वोटरों ने लिखी लेकिन इसके लिए पिछड़ों को स्याही बनाया गया। मतलब पिछड़ों का एक बड़ा वोट बैंक( कुर्मी, कोयरी के अलावा) जिसमें यादव का भी एक हिस्सा शामिल है उसने लालू के सिंहासन को हिलाया, और सालों से खार खाए सवर्ण वोटरों ने इसे धक्का दिया। जंमाने बाद दो दर्जन से ज्यादा भूमिहार विधायक बने, इतने ही राजपूत भी। लेकिन इस साल नया खेल है। नीतीश ने पिछड़ा, दलित वाला आधार भले ही मजबूत किया है लेकिन उस आधार को बूथ तक पहुंचाने वाला समाज इस बार अब तक खुल के साथ नहीं आया है। मतलब बात यहां भूमिहार, राजपूतों की कर रहे है। बंटाईदारी बिल का बवंडर, ललन सिंह की रुखसती, लालू के जंगलराज के सिपाहियों को गले लगाना, सवर्ण जाति के बाहुबलियों को जेल में डलवाना, ये वो मुद्दे हैं जिनकी वजह से नीतीश की डगर को आसान नहीं माना जा रहा। बंटाईदारी बिल को तो गलत बताने में जुट गये हैं नीतीश कुमार। ललन सिंह की भरपाई के लिए अरुण कुमार सिंह को वापस लाए, विजय चौधरी को अध्यक्ष बनाया, जगदीश शर्मा को फिर से गले लगाया, बाहुबलियों के खिलाफ शांत हो गये। लेकिन तस्लीमु्ददीन, रमई राम, श्याम रजक, विजय कृष्ण, रामदेव महतो, अवधेश मंडल की पत्नी बीमा भारती जैसे जंगल राज के सिपाहियों को अपने साथ लाकर सुशासन के नाम पर बट्टा लगाने का काम किया है उसका जवाब अभी उनके पास कुछ नहीं है। राजपूत समाज पिछली बार खुलकर उनके साथ खड़ा था। राजपूतों के दिग्गज दिग्विजय सिंह, प्रभुनाथ सिंह, आनंद मोहन सपरिवार नीतीश के लिए ललकार रहे थे। आज की तारीख में साथ कोई नहीं है। बांका वाले दिग्विजय सिंह अब दुनिया में नहीं रहे। प्रभुनाथ सिंह नाराज होकर लालू के साथ हो लिए, जेल में बंद आनंद मोहन ने पत्नी लवली को कांग्रेस में भेज दिया। सवाल ये कि भूमिहार अग्रेसिव होकर साथ दे भी दे तो राजपूत बहुल इलाकों में क्या होगा। वैसे भी लालू के पास लोकसभा में चार सांसद हैं खुद लालू और बाकी तीन राजपूत जाति से। नीतीश के पास जो लोग हैं औरंगाबाद वाले सुशील सिंह, आरा में मीना सिंह तो ये लोग सांसद हैं लेकिन ज्यादा आधार वाले नेता नहीं है। राजपूत वोट लेने में नीतीश को परेशानी होगी। कहीं ललन सिंह कांग्रेस में चले गए चुनाव से पहले तो भूमिहारों का बेगूसराय, लखीसराय, शेखपुरा, नवादा, पटना का समीकरण बदल सकता है। इंतजार कीजिए धीरे धीरे तस्वीर सब साफ हो जाएगी।