Tuesday, August 31, 2010
भोजपुरी तब से लेकर अब तक...
भोजपुरी एक ऐसी भाषा जिसमें मिठास है, रस है और अपनापन भी। दुनिया भर में भोजपुरी बोलने वालों की आबादी अठारह करोड़ से ज्यादा है। बिहार, पूर्वांचल और झारखंड ही नहीं बंगाल, असम, महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली पंजाब और हरियाणा में भी लाखों लोग बोलचाल में अपनी इस मिठास वाली भाषा का प्रयोग करते हैं। दिल्ली, कोलकाता, और मुंबई जैसे महानगरों में भले ही नौकरी पेशा लोग दफ्तर में हिंदी, अंग्रेजी में बात करते हैं.. लेकिन यहां भी जब अपने इलाके के लोगों से मिलते हैं तो अपनी भोजपुरी को ही अहमियत देते हैं। अगर इतिहास की बात करें तो भोजपुरी का अपना इतिहास एक हजार साल से भी पुराना है। कहते हैं कि बिहार के पुराने आरा जिले(बंटकर अब बक्सर अलग हो चुका है) में नया भोजपुर और पुराना भोजपुर नाम से दो गांव है..जिसको बसाया था मध्य काल में। कहते हैं कि मध्य प्रदेश के उज्जैन से आए भोजवंशी परमार राजाओं ने इस जगह को बसाया था। अपने पूर्वज राजा भोज के नाम पर इस जगह का नाम भोजपुर रखा। तब से यहां के आसपास बोली जाने वाली भाषा भोजपुरी कहलाने लगी। भौगोलिक हिसाब किताब को देखे तो इस जगह के आसपास ही इस भाषा का गढ़ है। बिहार के भोजपुर, बक्सर, सासाराम, कैमूर, छपरा, सीवान, गोपालगंज, मोतिहारी, बेतिया के साथ ही यूपी का बलिया, वाराणसी, गोरखपुर, बस्ती, बाराबंकी, देवरिया, प्रतापगढ़, गाजीपुर के साथ इन इलाकों से सटा नेपाल का इलाका और झारखंड के इलाके की ये अपनी भाषा है। अंग्रेजों के जमाने में इसका विस्तार दुनिया भर में हो गया। मॉरीशस, सूरीनाम, फिजी, त्रिनिदाद तो सिर्फ नक्शे में अलग है बाकी सब कुछ इसी इलाके जैसा। आजादी के आंदोलन में संपूर्ण भोजपुर का अपना अहम योगदान है। मंगल पांडे से लेकर, चंद्रशेखर आजाद और वीरकुंवर सिंह इसी मिट्टी पर जन्मे थे। देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद, पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह, चंद्रशेखर भी भोजपुरी माटी में ही जन्मे थे। हालांकि इस इलाके से इतने बड़े लोगों के जुड़े होने के बावजूद भी भोजपुरी का जो सपना था वो सपना भी बना है। भोजपुरी के प्रचार प्रसार और विकास में सबसे ज्यादा किसी का योगदान है तो वो है कला संस्कृति के क्षेत्र से जुड़े कलाकारों का। भिखारी ठाकुर के बगैर भोजपुरी की बात तो की ही नहीं जा सकती। बॉलीवुड में भोजपुरी को पहली पहचान मिली फिल्म गंगा मैया तोहे पियरी चढैबो से। 1962 में आई इस फिल्म ने भोजपुरी समाज को देश भर में एक साथ तो जोड़ा ही, भोजपुरी की एक अलग पहचान पेश की। इस फिल्म के जो गीत थे वो खुद मो. रफी, लता मंगेशकर, उषा मंगेशकर ने गये थे। कलाकार भी अच्छे और अनुभवी थे। इसके बाद फिर बिदेसिया, बलम परदेसिया, धरती मैया जैसी फिल्मों ने भोजपुरी को बॉलीवुड में अलग पहचान दिलाई। 60 का दशक भोजपुरी सिनेमा के लिए उदय का दशक था। धीरे धीरे कई कलाकार भोजपुरी गीत संगीत अभिनय के क्षेत्र में अपनी किस्मत आजमाने पहुंचे... । शत्रुघ्न सिन्हा की इस वक्त बॉलीवुड में एंट्री हो चुकी थी। बाद में शेखर सुमन और मनोज वाजपेयी जैसे कलाकारों ने भी अपने अभिनय का लोहा मनवाकर भोजपुरिया झंडा बुलंद किया। लेकिन 70 का दशक भोजपुरी सिनेमा के लिए उतना शानदार नहीं रहा। अस्सी के दशक भोजपुरी इंडस्ट्री के लिए स्वर्णिम समय था। एक से बढ़कर एक गायक कलाकार और एक से बढ़कर एक गीत। अस्सी के दशक में ही बिहार की लता मंगेशकर शारदा सिन्हा ने भोजपुरी का वो रंग जमाया जो कभी भी फीका नहीं पड़ सकता। आज भी बिहार, यूपी में शादी तो बिना शारदा सिन्हा के गीत बजे संपूर्ण हो ही नहीं सकती। बेटी की शादी में हरियर बांस कटइह हो बाबा.. ऊंचे उंच मड़ौवा छबइह हो..., और चाची चुमाबहू मंगल गावहू दिअहू अशीष रघुनंदन के....बगैर तो शादियां अधूरी सी लगती है। यही वो वक्त था जब राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म नदिया के पार रिलीज हुई थी। जिसने भी नदिया के पार देखी है चंदन और गूंजा के चरित्र को वो जिंदगी भर नहीं भूल सकता। शायद ही कोई दर्शक रहा हो जो सिनेमा के दृ्श्यों को देखकर रोया न हो। उस समय के लोग बताते हैं महिलाएं तो घर लौटकर चर्चा करती थी कि कौन कितना रोया। जिस वक्त नदिया के पार रिलीज हुई बॉम्बे में भारी बारिश हो रही थी, बड़े बैनर का बड़ा भोजपुरी प्रयोग था लेकिन बिहार और यूपी ने पहले ही हफ्ते में वो कमाई दे दी कि मुंबई में सिनेमा रिलीज को निर्माता-निर्देशक भूल गये.. हालांकि दो तीन हफ्ते बाद मुंबई में फिल्म रिलीज हो गई और खूब चली। इस फिल्म का एक एक गीत चाहे कौने दिशा में लेके चला रे....हो या फिर गूंजा रे.. चंदन...आज भी सुनने के बाद लोग गुनगुनाने लगते हैं। इसी फिल्म में शारदा सिन्हा ने शादी के मौके पर जब तक फेरे न हो पूरे सात तब तक दुल्हिन नहीं दुल्हा के....गीत गाये हैं.. आज भी शादियों में दबाकर इस गीत को बजाया जाता है। 1982 में रिलीज हुई नदिया के पार में हीरो सचिन थे जबकि हीरोइन थी वाराणसी में जन्मी साधना सिंह। साधना ने बाद में फिल्मों में काम नहीं किया.. लेकिन उनकी एक ही फिल्म दर्शकों के दिलो-दिमाग पर छा गई। साधना सिंह उसी विश्वनाथ प्रसाद शाहबादी की बहू हैं जिन्होंने पहली भोजपुरी फिल्म गंगा मैया तोहे पियरी चढैबो बनाई थी। अस्सी के दशक की शुरुआत भोजपुरी सिनेमा के लिए धमाकेदार हुई थी। उत्तर भारत के घर घर में भोजपुरी का क्रेज बढ रहा था। तभी भोजपुरी गीत संगीत के क्षेत्र में एंट्री मारी कंचन और बवला की जोड़ी ने। फुलौरी बिना चटनी कैसे बनी....पच्चीस साल बाद भी कंचन के गाये गीत आप सुनेंगे तो वही खनक और वही मिठास, कहीं से कोई द्विअर्थी संवाद नहीं। इसके बाद हाथ में मेहंदी मांग सेनुरवा वाला गाना जब मार्केट में आया तो लोग इस आवाज के दीवाने हो गये। गली-गली चौक चौराहे, शादी समारोहों में कंचन के गीत पर लोग नाचते और झूमते। कंचन उत्तर प्रदेश और बिहार की स्टार हो गई थी। उस जमाने में कंचन और बावला की जोड़ी इतनी हिट हो चुकी थी कि रोज दोनों कभी बिहार, कभी यूपी तो कभी मॉरीशस, सूरीनाम और न जाने कहां कहां स्टेज शो करने निकल जाते थे। इस दौर के गीत हम न जइबे ससुर घर में बाबा, आरा हिले छपरा हिला... और साढ़े तीन बजे मुन्नी जरूर मिलना लोगों के लिए पुराने नहीं पड़े हैं। अस्सी के दशक में ही 1989 में आई राजश्री प्रोडक्शन की एक और फिल्म, मैंने प्यार किया। मैंने प्यार किया पर्दे पर बड़ी ब्लॉक बास्टर साबित हुई। इस फिल्म में कहे तोहसे सजना ये तोहरी सजनिया... शारदा सिन्हा ने गाये थे..वैसे तो फिल्म के सब गाने हिट थे लेकिन शारदा सिन्हा के इस भोजपुरी गीत ने तड़का डालने का काम किया। पेशे से प्रोफेसर शारदा सिन्हा इस वक्त भोजपुरी की आवाज बन चुकी थी। भोजपुरी सिनेमा का ये वो सुनहरा दौर था जब शारदा सिन्हा की आवाज में गाए गए लोक आस्था के महापर्व छठ के पारंपरिक गीतों को इस समय लोगों ने हाथों हाथ लेना शुरू कर दिया। नतीजा हुआ कि जो भोजपुरी घर और मुहल्ले की भाषा थी, अब तीज त्योहारों में देश के बड़े शहरों की फिजां में शारदा सिन्हा की आवाज के रूप में तैरने लगी थी। शारदा सिन्हा ने सुपरहिट हिंदी फिल्म हम आपके है कौन के गानों में भी अपनी आवाज दी है। गायक बालेश्वर भी इस दौरान हिट हो गये थे। लेकिन जैसे जैसे राजनीतिक रूप से देश में भोजपुरी मजबूत हो रहा था। सिनेमा, संस्कृति के क्षेत्र में कमजोर पड़ रहा था। वीपी सिंह, चंद्रशेखर, लालू यादव जैसे नेता देश के शिखर पर थे। लेकिन भोजपुरी का मामला गड़बड़ा रहा था। शारदा सिन्हा की आवाज में खनक तो थी लेकिन उन्होंने गाना कम कर दिया था। बॉलीवुड में कोई भोजपुरी फिल्मों पर दांव नहीं लगा रहा था। लेकिन इस दौरान भी अपने आवाज की जादू से लोगों को लुभाने के लिए भोजपुरिया माटी के कलाकार जुटे हुए थे। भोजपुरियां जुबान पर इस वक्त भरत शर्मा की आवाज थी। विरह गीतों को गाकर भरत शर्मा ने भोजपुरी इंडस्ट्री में अपनी अलग पहचान बनाई। लेकिन 1993-1994 से भोजपुरी गीतों के लिए बेहद ही बुरा दौर शुरू हुआ। ये वो वक्त था भोजपुरी की मिठास पर द्विअर्थी संवाद भारी पड़ने लगा था। मुन्ना तिवारी के नथुनिये पर गोली मारे या फिर बथता बथता वाला गीत...हालात ऐसे हो गये कि भोजपुरी गीतों को लोगों ने घर से बाहर निकाल दिया। अब ये गीत सिर्फ चाय और पान की दुकानों पर बजने लगे थे। जो भोजपुरी गीत चंद दिन पहले तक बिहार और यूपी की शान मानी जाती थी. अब उसका मतलब अश्लील और गंदा हो गया था। धीरे धीरे अश्लीलता का ये विष भोजपुरी गानों में फैलता गया और अब होड़ इस बात की होने लगी थी कि कौन कितना अश्लील गा सकता है। खा लू तिंरगा गोरिया हो फाड़ के जा झाड़ के.....1998 में जब ये गीत बिहार की गलियों में बजता था कहीं न कहीं से मारपीट और गाली गलौज की खबरें जरूर अखबार में पढ़ने को मिलती थी। गुड्डा रंगीला के इस गीत पर कई जिलों में प्रशासन ने बजाने पर प्रतिबंध तक लगा दिया। लेकिन इसके बाद भी अश्लीलता के इस काले अध्याय पर अंकुश नहीं लगाया जा सका। हालात ऐसे हो गये कि लोग इस तरह के गीतों के आदि होते चले गए। गुड्डा रंगीला के साथ राधे श्याम रसिया, छोटू छलिया और न जाने कौन कौन से गायक हुए कुछ चर्चा में आए कुछ गुमनामी के अंधेरे में खो गये। लेकिन इस दौरान बिहार में एक गायक ऐसा भी था जो बिहार, यूपी और भोजपुरिया समाज की नब्ज को पकडने की कोशिश में लगा था। बगल वाली जान मारे ली जब बाजार में बजना शुरू हुआ तो फिर कभी मनोज तिवारी मृदुल ने पीछे पलटकर नहीं देखा। भोजपुरी संगीत के क्षेत्र में जो कमी हुई थी उस कमी को मनोज तिवारी ने भरना शुरू कर दिया। बिहार और यूपी ने मनोज तिवारी को हाथों हाथ लिया। एक के बाद एक एलबम हिट होते चले गए। गीत संगीत के क्षेत्र से मनोज तिवारी ने अभिनय के क्षेत्र में कदम रखा। दो हजार के दशक में मनोज तिवारी हिट हो गये। फिल्मों में अभिनय करने लगे। भोजपुरी फिल्में फिर से बनने लगी। रवि किशन और मनोज तिवारी जैसे कलाकारों की भोजपुरी फिल्में हिट होने लगी। लेकिन पिछले दो तीन सालों से मनोज तिवारी ने गाना बंद कर दिया। अब उनका नया एलबम भी नहीं आता। इस दौरान भोजपुरी को विस्तार देने के अभियान में कई गायक शामिल हुए लेकिन इनमें से कई अश्लीलता की भेंट चढ़ गए। इस बीच बिहार को एक नई बड़ी आवाज जो मिली वो कल्पना, देवी, मालिनी अवस्थी,पवन सिंह की आवाज। कल्पना वैसे तो असम की रहने वाली हैं लेकिन आवाज की खनक को सुनकर आपको नहीं लगेगा कि उनका भोजपुरी से कोई रिश्ता नहीं रहा होगा। गा तो सब लेती हैं लेकिन शुद्द द्विअर्थी गीत इनकी पहचान है। 2003 में जब देवी की एंट्री हुई तो लोग उन्हें दूसरी शारदा सिन्हा तक कहने लगे। विशुद्द पारंपरिक गीत गाने वाली देवी अपने प्रशंसकों को ज्यादा दिन तक संभाल नहीं सकी। हालांकि अब भी कभी कभी गा लेती हैं। मालिन अवस्थी टीवी की गायिका है। एलबम वैसे मैंने तो नहीं देखा और ना सुना है लेकिन अच्छा गा लेती हैं। पवन सिंह के गीत सिंगल अर्थी कभी नहीं होते... लेकिन फिलहाल कोई ऑप्शन नहीं है तो पवन सिंह का बाजार गर्म है। गायकी के साथ अभिनय भी कर रहे हैं। लॉलीपॉप लागेलू...इनका बड़ा हिट रहा। वैसे दिनशे लाल यादव निरहुआ, छैला बिहारी, तृप्ति शाक्या जैसे कलाकार भी है जो अपनी जगह पर बने हुए है। रिंकू घोस, रानी चटर्जी, पाखी, सरीखे गैर भोजपुरिया हीरोइनों की बदौलत भोजपुरी सिनेमा का बाजार हिट है तो इसकी वजह भोजपुरी की मिठास ही है। बंगाली लड़की रिंकू घोस और रानी भोजपुरी निर्माता निर्देशकों की पहली पसंद है। वैसे अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा, अजय देवगन, राजबब्बर, नगमा, भाग्यश्री जैसे बड़े कलाकार भी इन दिनों बॉलीवुड के भोजपुरी संस्करण में शामिल है। लेकिन साल दो साल से भोजपुरी इंडस्ट्री में एक नया ट्रेंड शुरू हुआ है। छोटे छोटे बच्चे जिनके दूध के दांत भी नहीं टूटे वो गीत गा रहे हैं.... बात तो अच्छी है लेकिन उनसे अच्छे गीत गवाए नहीं जा रहे। अब अरविंद अकेला उर्फ कलुआ को ही ले लीजिए, है तो अभी हॉट प्रॉपर्टी लेकिन उसके गीतों को आप घर में नहीं सुन सकते। फिलहाल इन उतार चढ़ावों के बीच बॉलीवुड में भोजपुरी अपनी जगह बनाने में कामयाब है। और इन कलाकारों की कोशिशों से भोजपुरी का प्रचार और प्रसार भी हो दुनिया भर में हो रहा है।
Friday, August 13, 2010
बिहार के बाहुबलियों को जानिए...
अब कहने को तो बिहार में ज्यादातर नेता अपने अपने इलाके में बाहुबली ही कहे जाते हैं। लेकिन उन बाहुबलियों के बारे में चर्चा करना ज्यादा जरूरी है जिनका प्रभाव अपने इलाके से बाहर भी है। ज्यादा दिन पहले नहीं पंद्रह साल पहले चलते हैं।
बिहार में उस वक्त गिने चुने बाहुबली हुआ करते थे। ये वो दौर था जब बिहार की राजनीति में बाहुबलियों का प्रभाव ज्यादा बढ़ा। और उनकी महत्वकांक्षाएं राजनेताओं की सियासत को हिलाने लगी थी। उस वक्त आनंद मोहन विधायक हुआ करते थे। पप्पू यादव भी विधायक थे। दोनों का खास इलाके, खास जाति पर अपना प्रभाव था। हालांकि 1995 से पहले ही आनंद मोहन
ने जनता दल का साथ छोड़ बिहार पीपुल्स पार्टी नाम का दल बनाया था। इस समय आनंद मोहन की पत्नी लवली वैशाली से उपचुनाव जीतकर सांसद बनी थीं। ये वो दौर था जब अशोक सम्राट, रामा सिंह, छोटन शुक्ला, देवेंद्र दुबे, सुनील पांडे, सतीश पांडे, अखिलेश सिंह, अवधेश मंडल, अशोक महतो, बृजबिहारी, शहाबुद्दीन अपराध के रास्ते सियासत में घुसने का रास्ता तलाश रहे थे। आनंद मोहन की पार्टी ने इनमें से कई लोगों को अपनी पार्टी के जरिये प्लेटफॉर्म भी मुहैय्या कराने का काम किया। हालांकि चुनाव से पहले छोटन शुक्ला की हत्या हो गई। अशोक सम्राट भी मारे गए। और भी कुछ नाम थे जो अभी याद नहीं आ रहा। लेकिन जो बचे उन्होंने वर्तमान हालात को देखते हुए सियासत में सीधे घुसना ही बेहतर समझा। देवेंद्र दुबे और सुनील पांडे ने नीतीश का साथ दिया..तो शुक्ला परिवार उस समय आनंद मोहन के करीब चला गया। ब़ृजबिहारी लालू के साथ थे। बाद में मंत्री रहते हुए हत्या हो गई। कुछ लोग निर्दलीय किस्मत आजमाने के लिए मैदान में उतरे। शहाबुद्दीन इसी दौर की उपज है। 95 में शहाबुद्दीन जीरादेई से पहली बार निर्दलीय जीतकर आए थे। बाद में उन्होंने लालू का साथ दिया और फिर कहां तक गए देश देख चुका है। ये हम उस दौर की चर्चा कर रहे हैं जब बिहार की सियासत में अपराधिकरण की शुरुआत हुई थी। 1995 से लेकर साल 2000 तक बिहार की सियासत में कई उलटफेर हुए। कई बाहुबली 'शहीद' हो गए तो कई लोगों ने सत्ता के साथ अपनी सियासी जमीन मजबूत बना ली। इस दौर में प्रभुनाथ सिंह, साधु यादव, तस्लीमुद्दीन, बूटन सिंह, प्रदीप महतो जैसे लोग भी परिस्थितियों के साथ ज्यादा मजबूत होते चले गए। जहां तक जनमत का मामला था तो इन बाहुबलिय़ों में ज्यादातर का अपने इलाके से बाहर प्रभाव उतना ज्यादा नहीं था। आनंद मोहन जरूर उस दौर में राजपूतों के सबसे बड़े नेता बनकर बिहार में उभर चुके थे। चूंकी लालू खुद यादवों का नेतृत्व कर रहे थे लिहाजा पप्पू यादव को वो कुर्सी नहीं मिली, लेकिन कोसी के इलाके में पप्पू यादव ने अपनी पकड़ मजबूत कर ली। शुक्ला खानदान की सियासत को आगे बढ़ाने का काम किया मुन्ना शुक्ला ने। साल दो हजार आते आते बिहार की राजनीति में नेता कम बाहुबली ज्यादा थे जो सीधे सक्रिय हो गये। इस दौर में सूरजभान, अनंत सिंह, राजन तिवारी, सुनील पांडे, कौशल यादव, बबलू देव, धूमल सिंह, अखिलेश सिंह, दीलिप यादव सरीखे नेता सीधे सीधे खुद के लिए जनता से वोट मांगने जा पहुंचने वालों में शामिल हो गये। ज्यादातर लोग इनमें से जीतकर विधानसभा पहुंचे और बिहार विधानसभा की तस्वीर बदल दी थी। आपको अगर याद न हो तो बता दूं.. कि जब इनमें से ज्यादातर लोग निर्दलीय जीतकर आए तो सात दिन की सरकार में इन बाहुबलियों ने नीतीश कुमार का साथ दिया था। बाद में कई लोग जहां तहां अपनी सेटिंग करने में कामयाब हो गए।
अब अगर वर्तमान सूरत में इन बाहुबलियों की जगह के बारे में बता दूं तो... खुद आनंद मोहन जेल में हैं, और उनकी पत्नी कांग्रेस में। आश्चर्य न हो अगर कुछ दिनों बाद आनंद मोहन पत्नी के साथ फिर से जेडीयू में लौट आएं।
पप्पू यादव तो चुनाव नहीं लड़ सकते, लेकिन कागजी तौर पर पत्नी के साथ कांग्रेस में हैं। अभी कोई भी सांसद या विधायक नहीं हैं। सूरजभान लोजपा में हैं। लेकिन वो भी सांसद या विधायक नहीं हैं। राजन तिवारी भी हारे हुए हैं और जेल में हैं। प्रभुनाथ सिंह आरजेडी में गये हैं, हारे हुए हैं, न विधायक और ना ही सांसद हैं लेकिन सारण में अच्छा खासा प्रभाव है। तस्लीमुद्दीन अभी जेडीयू में हैं, हारे हुए हैं न सांसद हैं और ना ही विधायक कोसी (सीमांचल)के इलाके में अच्छा दबदबा है। साधु यादव कांग्रेस में हैं, हारे हुए हैं न सांसद हैं और ना विधायक, इनका कहां प्रभाव है नहीं मालूम। शहाबुद्दीन भी जेल में हैं। सजा पा चुके हैं लिहाजा चुनाव नहीं लड़ पाएंगे, पत्नी को जरूर विधानसभा लड़ा सकते हैं। वैसे लोकसभा लड़कर हार चुकी हैं। इनका सीवान में प्रभाव है।
मुन्ना शुक्ला विधायक हैं और जेडीयू में हैं मुजफ्फरपुर और वैशाली में इनका दबदबा है। अनंत सिंह, सुनील पांडे, धूमल सिंह भी जेडीयू में हैं और विधायक हैं। ये वो बाहुबली हैं जो अपने क्षेत्र के साथ ही आसपास के क्षेत्रों को प्रभावित कर सकते हैं। वैसे और बाहुबलियों की बात करे तो बबलू देव अभी आरजेडी में हैं और विधायक हैं। अखिलेश सिंह, नवादा वाले अभी जेल में हैं शायद, पत्नी को चुनाव लड़वाया था एक बार विधायक भी बनीं थी लेकिन अभी कुछ नहीं हैं। कौशल यादव नवादा के गोविंदपुर से और उनकी पत्नी पूर्णिमा अभी नवादा से निर्दलीय विधायक हैं दोनों। और दिलीप यादव अभी आरजेडी से विधायक हैं। दिलीप यादव ने लेसी सिंह को हराया था, लेसी सिंह बूटन सिंह की पत्नी है। बूटन सिंह जो कि बाहुबली माने जाते थे उनकी 2000 के चुनाव से पहले हत्या हो गई थी। प्रदीप यादव की भी हत्या हो चुकी है, उनकी पत्नी अश्वमेघ देवी पहले विधायक बनीं अभी जेडीयू से सांसद हैं। जहानाबाद में जगदीश शर्मा बड़े नेता हैं और बाहुबली भी, कांग्रेसी थे पहले अभी जेडीयू के टिकट पर जीते थे लेकिम पार्टी से निलंबित हैं। पत्नी इनकी निर्दलीय विधायक हैं घोसी सीट से। जहानाबाद में अच्छा प्रभाव हैं। जहानाबाद में ही प्रभाव वाले नेता सुरेंद्र यादव भी हैं जो लोकसभा हार गये थे। लेकिन इलाके में प्रभाव है। इसके अलावा भी और कई नाम है। जैसा की शुरुआत में ही बताया हर इलाके में कोई न कोई लोकल बाहुबली है जो एक विधानसभा क्षेत्र की सियासत तो करता ही है। सीतामढ़ी में राजेश चौधरी, अनवारुल हक, श्रीनारायण सिंह का प्रभाव। मोतिहारी में बबलू देव, रमा देवी, सीताराम सिंह, राजन तिवारी, गप्पू राय, का प्रभाव तो बेतिया में सत्तन यादव, बीरबल यादव, पूर्णमासी राम का प्रभाव। पूर्णमासी राम अभी गोपालगंज से सांसद हैं, लेकिन बगहा में इनकी राजनीति अच्छी खासी पकड़ वाली है। जेडीयू से निलंबित चल रहे हैं। गोपालगंज में सतीश पांडे, साधु-सुभाष यादव का प्रभाव है। आरा, बक्सर में आइए तो यहां की राजनीति अलग तरीके से होती है। यहां लाल झंडे की सियासत भी है सो समीकरण समय के हिसाब से बनते बिगड़ते हैं। सुनील पांडे और भगवान सिंह सरीखे नेता अभी नीतीश की पार्टी से विधायक हैं। बेगूसराय में तो कई सूरमा है। बेगूसराय, नवादा और पटना के ग्रामीण इलाकों में तो बिहार के बाहुबलियों का हिसाब किताब चलता है। सूरजभान, अनंत सिंह, ललन सिंह(सूरजभान खेमा), नागा सिंह, नाटा सिंह का गिरोह(दोनों राजनीति में सीधे सक्रिय नहीं, शायद एक कोई अब नहीं है याद नहीं आ रहा)। नवादा के एक कोने में बाहुबली अखिलेश सिंह(वारसलीगंज),आदित्य सिंह, अशोक महतो, कौशल यादव जैसे लोग प्रभावी रूप से सक्रिय हैं। बिहारशरीफ में पप्पू खां। पूर्णिया और कोसी के इलाके में तो पप्पू यादव, तस्लीमु्ददीन, आनंद मोहन के अलावा अब शंकर सिंह, अवधेश मंडल, दिलीप यादव, किशोर कुमार मुन्ना भी प्रभावित करने वाले लोगों में शामिल हो गये हैं। ये रहा बिहार की सियासत के अपराधिकरण की कहानी का पूरा डाटा। वैसे अब भी कई दबंग टाइप के लोग हैं जिनका खास खास इलाके में खासा प्रभाव है। कुछ लोगों के नाम छूट गये होंगे, ऐसा मुझे पूरा भरोसा है। लेकिन मोटा मोटी डाटा जो है बिहार की सियासत का वो यही है। कुछ लोग जाति के नाम पर नेता बने हुए हैं तो कुछ लोगों की इलाके से बाहर सिर्फ बाहुबली नेता की पहचान है इसके अलग ढेला भर का कोई प्रभाव वो नहीं छोड़ सकते। रही बात किस पार्टी में कितने बाहुबली है वो अंदाज लग गया होगा। वैसे कुछ और बाहुबली हैं ,जो अपना जुगाड़ या अपनी पत्नी के लिए टिकट का जुगाड़ लगा रहे हैं पहली पसंद उनकी अभी जनता दल यूनाइटेड हैं, दूसरी कांग्रेस। ताजा खबर ये है कि कुछ लोग जो आरजेडी के टिकट पर जीतकर पिछली बार आए थे.. और उनका रिश्ता, रिश्तेदार किसी न किसी रूप में अपराध जगत से जुड़ा है वो लोग जेडीयू में जा रहे हैं। पक्की खबर है। वैसे एक बात बता देना जरूरी होगा कि नीतीश ने अपने राज में बाहुबलियों को फड़फड़ाने का मौका नहीं दिया। ज्यादातर बाहुबली नीतीश के राज में ही जेल गये। अब देखिये इस चुनाव में क्या होता है।
बिहार में उस वक्त गिने चुने बाहुबली हुआ करते थे। ये वो दौर था जब बिहार की राजनीति में बाहुबलियों का प्रभाव ज्यादा बढ़ा। और उनकी महत्वकांक्षाएं राजनेताओं की सियासत को हिलाने लगी थी। उस वक्त आनंद मोहन विधायक हुआ करते थे। पप्पू यादव भी विधायक थे। दोनों का खास इलाके, खास जाति पर अपना प्रभाव था। हालांकि 1995 से पहले ही आनंद मोहन
ने जनता दल का साथ छोड़ बिहार पीपुल्स पार्टी नाम का दल बनाया था। इस समय आनंद मोहन की पत्नी लवली वैशाली से उपचुनाव जीतकर सांसद बनी थीं। ये वो दौर था जब अशोक सम्राट, रामा सिंह, छोटन शुक्ला, देवेंद्र दुबे, सुनील पांडे, सतीश पांडे, अखिलेश सिंह, अवधेश मंडल, अशोक महतो, बृजबिहारी, शहाबुद्दीन अपराध के रास्ते सियासत में घुसने का रास्ता तलाश रहे थे। आनंद मोहन की पार्टी ने इनमें से कई लोगों को अपनी पार्टी के जरिये प्लेटफॉर्म भी मुहैय्या कराने का काम किया। हालांकि चुनाव से पहले छोटन शुक्ला की हत्या हो गई। अशोक सम्राट भी मारे गए। और भी कुछ नाम थे जो अभी याद नहीं आ रहा। लेकिन जो बचे उन्होंने वर्तमान हालात को देखते हुए सियासत में सीधे घुसना ही बेहतर समझा। देवेंद्र दुबे और सुनील पांडे ने नीतीश का साथ दिया..तो शुक्ला परिवार उस समय आनंद मोहन के करीब चला गया। ब़ृजबिहारी लालू के साथ थे। बाद में मंत्री रहते हुए हत्या हो गई। कुछ लोग निर्दलीय किस्मत आजमाने के लिए मैदान में उतरे। शहाबुद्दीन इसी दौर की उपज है। 95 में शहाबुद्दीन जीरादेई से पहली बार निर्दलीय जीतकर आए थे। बाद में उन्होंने लालू का साथ दिया और फिर कहां तक गए देश देख चुका है। ये हम उस दौर की चर्चा कर रहे हैं जब बिहार की सियासत में अपराधिकरण की शुरुआत हुई थी। 1995 से लेकर साल 2000 तक बिहार की सियासत में कई उलटफेर हुए। कई बाहुबली 'शहीद' हो गए तो कई लोगों ने सत्ता के साथ अपनी सियासी जमीन मजबूत बना ली। इस दौर में प्रभुनाथ सिंह, साधु यादव, तस्लीमुद्दीन, बूटन सिंह, प्रदीप महतो जैसे लोग भी परिस्थितियों के साथ ज्यादा मजबूत होते चले गए। जहां तक जनमत का मामला था तो इन बाहुबलिय़ों में ज्यादातर का अपने इलाके से बाहर प्रभाव उतना ज्यादा नहीं था। आनंद मोहन जरूर उस दौर में राजपूतों के सबसे बड़े नेता बनकर बिहार में उभर चुके थे। चूंकी लालू खुद यादवों का नेतृत्व कर रहे थे लिहाजा पप्पू यादव को वो कुर्सी नहीं मिली, लेकिन कोसी के इलाके में पप्पू यादव ने अपनी पकड़ मजबूत कर ली। शुक्ला खानदान की सियासत को आगे बढ़ाने का काम किया मुन्ना शुक्ला ने। साल दो हजार आते आते बिहार की राजनीति में नेता कम बाहुबली ज्यादा थे जो सीधे सक्रिय हो गये। इस दौर में सूरजभान, अनंत सिंह, राजन तिवारी, सुनील पांडे, कौशल यादव, बबलू देव, धूमल सिंह, अखिलेश सिंह, दीलिप यादव सरीखे नेता सीधे सीधे खुद के लिए जनता से वोट मांगने जा पहुंचने वालों में शामिल हो गये। ज्यादातर लोग इनमें से जीतकर विधानसभा पहुंचे और बिहार विधानसभा की तस्वीर बदल दी थी। आपको अगर याद न हो तो बता दूं.. कि जब इनमें से ज्यादातर लोग निर्दलीय जीतकर आए तो सात दिन की सरकार में इन बाहुबलियों ने नीतीश कुमार का साथ दिया था। बाद में कई लोग जहां तहां अपनी सेटिंग करने में कामयाब हो गए।
अब अगर वर्तमान सूरत में इन बाहुबलियों की जगह के बारे में बता दूं तो... खुद आनंद मोहन जेल में हैं, और उनकी पत्नी कांग्रेस में। आश्चर्य न हो अगर कुछ दिनों बाद आनंद मोहन पत्नी के साथ फिर से जेडीयू में लौट आएं।
पप्पू यादव तो चुनाव नहीं लड़ सकते, लेकिन कागजी तौर पर पत्नी के साथ कांग्रेस में हैं। अभी कोई भी सांसद या विधायक नहीं हैं। सूरजभान लोजपा में हैं। लेकिन वो भी सांसद या विधायक नहीं हैं। राजन तिवारी भी हारे हुए हैं और जेल में हैं। प्रभुनाथ सिंह आरजेडी में गये हैं, हारे हुए हैं, न विधायक और ना ही सांसद हैं लेकिन सारण में अच्छा खासा प्रभाव है। तस्लीमुद्दीन अभी जेडीयू में हैं, हारे हुए हैं न सांसद हैं और ना ही विधायक कोसी (सीमांचल)के इलाके में अच्छा दबदबा है। साधु यादव कांग्रेस में हैं, हारे हुए हैं न सांसद हैं और ना विधायक, इनका कहां प्रभाव है नहीं मालूम। शहाबुद्दीन भी जेल में हैं। सजा पा चुके हैं लिहाजा चुनाव नहीं लड़ पाएंगे, पत्नी को जरूर विधानसभा लड़ा सकते हैं। वैसे लोकसभा लड़कर हार चुकी हैं। इनका सीवान में प्रभाव है।
मुन्ना शुक्ला विधायक हैं और जेडीयू में हैं मुजफ्फरपुर और वैशाली में इनका दबदबा है। अनंत सिंह, सुनील पांडे, धूमल सिंह भी जेडीयू में हैं और विधायक हैं। ये वो बाहुबली हैं जो अपने क्षेत्र के साथ ही आसपास के क्षेत्रों को प्रभावित कर सकते हैं। वैसे और बाहुबलियों की बात करे तो बबलू देव अभी आरजेडी में हैं और विधायक हैं। अखिलेश सिंह, नवादा वाले अभी जेल में हैं शायद, पत्नी को चुनाव लड़वाया था एक बार विधायक भी बनीं थी लेकिन अभी कुछ नहीं हैं। कौशल यादव नवादा के गोविंदपुर से और उनकी पत्नी पूर्णिमा अभी नवादा से निर्दलीय विधायक हैं दोनों। और दिलीप यादव अभी आरजेडी से विधायक हैं। दिलीप यादव ने लेसी सिंह को हराया था, लेसी सिंह बूटन सिंह की पत्नी है। बूटन सिंह जो कि बाहुबली माने जाते थे उनकी 2000 के चुनाव से पहले हत्या हो गई थी। प्रदीप यादव की भी हत्या हो चुकी है, उनकी पत्नी अश्वमेघ देवी पहले विधायक बनीं अभी जेडीयू से सांसद हैं। जहानाबाद में जगदीश शर्मा बड़े नेता हैं और बाहुबली भी, कांग्रेसी थे पहले अभी जेडीयू के टिकट पर जीते थे लेकिम पार्टी से निलंबित हैं। पत्नी इनकी निर्दलीय विधायक हैं घोसी सीट से। जहानाबाद में अच्छा प्रभाव हैं। जहानाबाद में ही प्रभाव वाले नेता सुरेंद्र यादव भी हैं जो लोकसभा हार गये थे। लेकिन इलाके में प्रभाव है। इसके अलावा भी और कई नाम है। जैसा की शुरुआत में ही बताया हर इलाके में कोई न कोई लोकल बाहुबली है जो एक विधानसभा क्षेत्र की सियासत तो करता ही है। सीतामढ़ी में राजेश चौधरी, अनवारुल हक, श्रीनारायण सिंह का प्रभाव। मोतिहारी में बबलू देव, रमा देवी, सीताराम सिंह, राजन तिवारी, गप्पू राय, का प्रभाव तो बेतिया में सत्तन यादव, बीरबल यादव, पूर्णमासी राम का प्रभाव। पूर्णमासी राम अभी गोपालगंज से सांसद हैं, लेकिन बगहा में इनकी राजनीति अच्छी खासी पकड़ वाली है। जेडीयू से निलंबित चल रहे हैं। गोपालगंज में सतीश पांडे, साधु-सुभाष यादव का प्रभाव है। आरा, बक्सर में आइए तो यहां की राजनीति अलग तरीके से होती है। यहां लाल झंडे की सियासत भी है सो समीकरण समय के हिसाब से बनते बिगड़ते हैं। सुनील पांडे और भगवान सिंह सरीखे नेता अभी नीतीश की पार्टी से विधायक हैं। बेगूसराय में तो कई सूरमा है। बेगूसराय, नवादा और पटना के ग्रामीण इलाकों में तो बिहार के बाहुबलियों का हिसाब किताब चलता है। सूरजभान, अनंत सिंह, ललन सिंह(सूरजभान खेमा), नागा सिंह, नाटा सिंह का गिरोह(दोनों राजनीति में सीधे सक्रिय नहीं, शायद एक कोई अब नहीं है याद नहीं आ रहा)। नवादा के एक कोने में बाहुबली अखिलेश सिंह(वारसलीगंज),आदित्य सिंह, अशोक महतो, कौशल यादव जैसे लोग प्रभावी रूप से सक्रिय हैं। बिहारशरीफ में पप्पू खां। पूर्णिया और कोसी के इलाके में तो पप्पू यादव, तस्लीमु्ददीन, आनंद मोहन के अलावा अब शंकर सिंह, अवधेश मंडल, दिलीप यादव, किशोर कुमार मुन्ना भी प्रभावित करने वाले लोगों में शामिल हो गये हैं। ये रहा बिहार की सियासत के अपराधिकरण की कहानी का पूरा डाटा। वैसे अब भी कई दबंग टाइप के लोग हैं जिनका खास खास इलाके में खासा प्रभाव है। कुछ लोगों के नाम छूट गये होंगे, ऐसा मुझे पूरा भरोसा है। लेकिन मोटा मोटी डाटा जो है बिहार की सियासत का वो यही है। कुछ लोग जाति के नाम पर नेता बने हुए हैं तो कुछ लोगों की इलाके से बाहर सिर्फ बाहुबली नेता की पहचान है इसके अलग ढेला भर का कोई प्रभाव वो नहीं छोड़ सकते। रही बात किस पार्टी में कितने बाहुबली है वो अंदाज लग गया होगा। वैसे कुछ और बाहुबली हैं ,जो अपना जुगाड़ या अपनी पत्नी के लिए टिकट का जुगाड़ लगा रहे हैं पहली पसंद उनकी अभी जनता दल यूनाइटेड हैं, दूसरी कांग्रेस। ताजा खबर ये है कि कुछ लोग जो आरजेडी के टिकट पर जीतकर पिछली बार आए थे.. और उनका रिश्ता, रिश्तेदार किसी न किसी रूप में अपराध जगत से जुड़ा है वो लोग जेडीयू में जा रहे हैं। पक्की खबर है। वैसे एक बात बता देना जरूरी होगा कि नीतीश ने अपने राज में बाहुबलियों को फड़फड़ाने का मौका नहीं दिया। ज्यादातर बाहुबली नीतीश के राज में ही जेल गये। अब देखिये इस चुनाव में क्या होता है।
Monday, August 9, 2010
बिहार में सियासी पारी के 10 साल
1994 में कॉलेज में आ गया था। 1995 में बिहार में विधानसभा के चुनाव होने थे। जनवरी का महीना था। मुजफ्फरपुर में उस वक्त मैं सतपुरा में रहता था। पास में ही आनंद मोहन का कार्यक्रम चल रहा था। शाम के वक्त टहलते फिरते वहां पहुंच गया। किसी से कोई जान पहचान नहीं थी, गायघाट से आनंद मोहन नामांकन भरके लौटे थे। कुछ लोगों ने उन्हें शिवहर से चुनाव लड़ने को कहा। उन लोगों में मैं भी शामिल था। आनंद मोहन राजी हो गये और शिवहर से नामांकन भरने की हामी भर दी। उसी समय मेरा राजनीति से रिश्ता जुड़ गया। धीरे-धीरे मैं राजनीति के करीब होता चला गया। प्लेटफॉर्म की तलाश हो रही थी। आनंद मोहन चुनाव हार गये सो संपर्क गहरा नहीं हो पाया। अब सतपुरा से मैं दामूचक में रहने आ गया था। जिस घर में रहता था उसी के बगल के घर में आलोक भारती रहते थे। आलोक भैया उस समय समता पार्टी की छात्र इकाई के विश्वविद्यालय संयोजक थे। कैंपस में उनकी चलती थी। नेता से लेकर अपराधी और ठेकेदार सब उनके संपर्क में थे। विश्वविद्यालय कैंपस में उनका राज था। नवंबर दिसंबर 1995 का महीना था। विश्विद्यालय में छात्र समता का प्रांतीय सम्मेलन था, प्रदेश अध्यक्ष राघवेन्द्र सिंह तैयारियों का जायजा ले रहे थे, पहली बार मैं किसी पार्टी की बैठक में शामिल हो रहा था। परिचय का दौर चला तो मैंने अपना नाम मनोज कुमार मुक्ला बताया। (बाद में मैं राजनीति में इसी नाम से मशहूर हो गया।) टाइटल सुनने के बाद लोगों को आश्चर्य हुआ। खैर उसके बाद राज्यस्तरीय सम्मेलन खत्म हुआ। आलोक भारती अध्यक्ष हो गए। मैं उनकी कमेटी में कोषाध्यक्ष बना। (मेरे पास कोई कोष नहीं था)। राजनीति में सक्रिय होने का एक तमगा मिल गया था। धीरे धीरे राजनीति से रिश्ता गहरा होता गया। पढ़ाई-लिखाई से संपर्क कम होता चला गया। लेकिन छूटा नहीं था।
1996 में लोकसभा का चुनाव हुआ। जॉर्ज को चुनाव लड़ना था, लेकिन जॉर्ज को नीतीश मुजफ्फरपुर से नालंदा ले गए। मुजफ्फरपुर नेतृत्वविहीन हो गया था। जॉर्ज को मनाने के लिए पार्टी के नेता, कार्यकर्ता पटना गए। मैं पहली बार बस की छत पर बैठकर पटना गया था। शकुनी चौधरी के घर पर जॉर्ज को आना था। उस दिन नालंदा से नामांकन भरके वो लौटे थे। रात में शकुनी चौधरी के घर पर हमलोगों ने खूब हंगामा किया। एक सज्जन ने मुझे पेट्रोल का गैलन पकड़ा दिया।( तय ये हुआ था कि जॉर्ज मुजफ्फरपुर से लड़ने को राजी नहीं होंगे तो हमलोग विद्रोह करके पार्टी दफ्तर फूंक देंगे)हालांकि राजनीति में इतना कच्चा था कि पेट्रोल का गैलन थाम लिया.. थोड़ी देर बाद एहसास हुआ कि ये मैं क्या कर रहा हूं.. तो एक जगह मौके देखकर रोड पर ही गैलन छोड़ दिया। खैर....जॉर्ज तैयार नहीं हुए... कहा मुजफ्फरपुर अपना नेता चुन लें। बाद में हरेंद्र जी को टिकट मिला। हरेंद्र जी को हमलोग सर कहके बुलाते थे। हमलोग(नौजवानों की टोली) मुजफ्फरपुर की राजनीति में हरेंद्र जी
के लोग कहलाते थे। हरेंद्र जी मुजफ्फरपुर से और आनंद मोहन(जेल से) शिवहर से लोकसभा चुनाव लड़े। हरेंद्र जी हार गए। आनंद मोहन की जीत हुई। तब तक मुजफ्फरपुर की राजनीति में नेता, कार्यकर्ता, मीडिया की बीच पहचान बनने लगी थी...
आनंद मोहन से जेल में मुलाकात हुई और फिर संपर्क बहाल हुआ। तब तक मैं विश्वविद्यालय की राजनीति का फायदा उठाते हुए शिवहर जिला छात्र समता का स्वयंभू अध्यक्ष बन गया था। प्रदेश कमेटी ने मंजूरी भी दे दी। लेकिन आनंद मोहन ने भूमिहार कैसे अध्यक्ष हो सकता है शिवहर जिले का मेरा मनोनयन रद्द करवा दिया। इस वक्त मुझे राजनीति में जाति की अहमियत का एहसास हुआ। खैर कुछ दिन तक मामला चलता था। मैंने खुद को मुजफ्फरपुर की राजनीति पर केंद्रित कर दिया।
तब तक 1998 का चुनाव आ गया। हरेंद्र जी को इस बार डायरेक्ट उम्मीदवारी मिली। हमलोगों ने पूरी ताकत लगा दी। लेकिन परिणाम पक्ष में नहीं रहा। तब तक आनंद मोहन समता पार्टी से बाहर हो गये थे। आलोक भारती छात्र राजनीति से अलग हो गए। ठाकुर आलोक अब अध्यक्ष बनाये गए। ठाकुर आलोक की कमेटी में मैं प्रवक्ता बना। मीडिया के लोगों से रिश्ते बेहतर हुए।
ठाकुर आलोक ने संगठन की पूरी जिम्मेदारी मुझे सौंप दी थी। उनके हिस्से का सारा काम मैं देखने लगा था। अब मैं संगठन का उपाध्यक्ष हो गया। तब तक एक बार फिर से चुनाव की घोषणा हो गई। 1999 के लोकसभा चुनाव में हरेंद्र जी को टिकट नहीं मिला। इस वक्त समता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड का विलय हो गया था। हम लोग बिना पद के हो गये थे। कैप्टन निषाद को टिकट मिला और वो जीत गए। इस समय हमलोगों ने एक निर्दलीय उम्मीदवार का साथ दिया था। चुनाव बाद फिर जनता दल यूनाईटेड और समता पार्टी का बंटवारा हो गया। हमलोग समता पार्टी के साथ में ही थे। 2000 में बिहार विधानसभा का चुनाव होने वाला था। संगठन ने मुझे पहले कार्यकारी अध्यक्ष बनाया और एक महीने बाद विश्वविद्यालय अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंप दी। पांच साल में कोषाध्यक्ष से अध्यक्ष तक की कुर्सी तक पहुंचने में बड़ा कठिन संघर्ष करना पड़ा। तब तक पढ़ाई लिखाई भी हो रही थी। कांटी से हरेंद्र जी को विधानसभा का टिकट मिला लेकिन फिर से हमलोग हार गए। संगठन को मजबूत करने का कार्यक्रम चलता रहा। नए-नए साथी जुड़ते रहे। बहुत लोगों को सक्रिय राजनीति से जोड़ा। विश्वविद्यालय के साथ ही जिले की राजनीति में भी दिलचस्पी बढ़ती गई। चूंकी जिले के सबसे बड़े नेता का करीबी था सो जिम्मेदारी ज्यादा मिलने लगी थी। धीरे धीरे राजनीति का दायरा फैलने लगा। इस बीच कई साथी राजनीति और अपराध के गठजोड़ का शिकार हो गए। संघर्ष का दौर चलता रहा। इसी दौरान पटना में एक बड़ा कार्यक्रम था। तब भूमिपाल (विधान पार्षद है अभी) अध्यक्ष हुआ करते थे हमारे संगठन के। मेरा एक सहयोगी था.. उसने कुछ घालमेल कर दिया। उसकी महत्वकांक्षाएं हिलोरी मार रही थी। पटना वाला कार्यक्रम संपन्न हो गया। लेकिन छात्र राजनीति से मेरी दिलचस्पी कम होने लगी। एक दिन मैंने बिना किसी को बताए अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।( हमारे संगठन में तब अध्यक्ष के लिए मारपीट और ताकत का प्रदर्शन होता था) अखबारों में खबर नहीं छपी। क्योंकि इस्तीफा मैंने गोपनीय तरीके से दिया था। एक महीने बाद फिर संगठन में वही शख्स मेरा उत्तराधिकारी बना, जिसने घालमेल किया था। मैंने छात्र राजनीति से खुद को अलग कर लिया। इस दौरान मैं यूथ विंग की राजनीति में सक्रिय हो गया। हरिओम कुशवाहा उस वक्त मुजफ्फरपुर के अध्यक्ष थे। उनकी कमेटी में मैं प्रधान महासतचिव बना। जो की अध्यक्ष के बाद सबसे ताकतवर पद होता है। जिले की राजनीति में दखल बढ़ती गई। बड़े बड़े कार्यक्रम होने लगे। उस वक्त भगवान सिंह कुशवाहा बिहार युवा समता के अध्यक्ष थे।(अभी ग्रामीण विकास मंत्री हैं) भगवान सिंह से भी ट्यूनिंग ठीक हो गई। सीढ़ी दर सीढी चढ़ते चढ़ते यहां तक पहुंचा.. इस बीच कई लोगों की आंखों की किरकिरी भी बन गया था। अखबारों में विवादित खबरें छपने लगी। मुझे घरवालों ने दिल्ली भेज दिया पढ़ने के लिए, साल 2002 था। एक महीना रहने के बाद फिर मैं चला गया। छे महीने बाद फिर आया। मई 2003 में। 4 महीने रहने के बाद फिर लौट गया। इस बीच मैंने दिल्ली में बिहारी छात्रों का एक संगठन बनाया। बिहारी छात्र युवा संघर्ष मोर्चा। दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव में एबीवीपी के उम्मीदवार अनुभव सप्रा(उपाध्य़क्ष) को समर्थन दिया। हालांकि सप्रा की हार हुई, लेकिन मेरी और संगठन की पहचान कैंपस में स्थापित हो गई। उस साल रोहित शर्मा अध्यक्ष बना था और नरेंद्र टोकस उपाध्यक्ष। रागिनी सचिव बनीं थी। सिर्फ उपाध्यक्ष के लिए मेरे संगठन ने वोट मांगे थे। बाकी पदों के लिए टोकस और रागिनी को समर्थन दिया था।
इसी बीच असम में बिहारी छात्रों पर हमला हुआ था। मैं मुजफ्फरपुर गया और पप्पू यादव के संगठन के साथ मिलकर बिहार बंद का एलान किया। एक बार फिर से नए मंच के साथ बिहार की राजनीति में वापसी हो गई थी। तब तक कुछ दिनों बाद लोकसभा का चुनाव होने वाला था 2004 का। मैं अपने संगठन के साथ जनता दल यूनाईटेड में शामिल हो गया। इस बार गणेश भारती (अभी एमएलसी )को पार्टी ने मुजफ्फरपुर जिला पार्टी का अध्यक्ष बनाया। गणेश भारती की कमेटी में मुझे महासचिव बनाया गया। मतलब पार्टी की जिला स्तर की सबसे बड़ी इकाई में महासचिव का पद दिया गया। हालांकि गणेश भारती पहले हमलोगों के खेमे में ही थे... नीतीश कुमार के करीबी हैं गणेश भारती कुछ स्थनीय राजनीति को लेकर हमलोग उनके साथ नहीं थे। विवाद हुआ मैंने इस्तीफा दिया। बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके। हमारे खेमे की यही मंशा थी। तब तक चुनाव में टिकट बंटवारे का मसला सामने आया। नीतीश नालंदा से लड़ना चाहते थे। बाढ़ से उन्हें हारने का डर था। बाद में हुआ भी ऐसा ही। नीतीश नालंदा से लड़े, जॉर्ज मुजफ्फरपुर से।(नीतीश बाढ़ से हार गए)। जॉर्ज मुजफ्फरपुर से लड़ने आए तो
हरेंद्र जी को वैशाली से टिकट दे दिया।(2004 के चुनाव से पहले फिर समता पार्टी और जेडीयू का विलय हो गया था) नीतीश, शरद यादव, पासवान राजी नहीं थे। हरेंद्र जी के प्रचार में कोई नेता नहीं गया। चुनाव हरेंद्र जी हार गए। मैं अभी मुजफ्फरपुर में ही था। संगठन के फेरबदल में चंद्रभूषण राय बिहार छात्र जेडीयू के अध्यक्ष बने और मुझे उन्होंने अपनी कमेटी में तिरहुत प्रमंडल से इकलौता महासचिव बनाया। पद बड़ा था, जिम्मेदारी ज्यादा दी गई। लेकिन मैं कमेटी की पहली बैठक में जा पाता उससे पहले ही मैं इस लाइन में आ गया। लेकिन यहां आने के बाद भी राजनीति का सिलसिला थमा नहीं। अब जेडीयू की राजनीति दिल्ली से होने लगी। मुजफ्फरपुर की छात्र राजनीति में मैंने जो जगह खाली की थी उसकी जगह मैंने अपने करीबियों को स्थापित करवाया। और दिल्ली से संगठन को कंट्रोल करने लगा। मुजफ्फरपुर के अखबारों में ये बात छपने लगी कि उत्तर बिहार की छात्र राजनीति इन दिनों जेएनयू कैंपस से डील हो रही है। साल-डेढ़ साल ये डीलिंग जारी रही। दिल्ली से मैं मुंबई चला गया.. लेकिन राजनीति का सिलसिला जारी रहा। बिहार में सरकार बन चुकी थी... लोग कुर्सी हथियाने में लगे थे। सत्ताधारी दल के संगठन में पद के लिए लोग खून के प्यासे हो जाते हैं। लेकिन मुंबई से ही मैंने अपने संबंधों और प्रभाव का इस्तेमाल कर अपने करीबियों को एक बार फिर संगठन में अच्छे ओहदे पर स्थापित किया। लेकिन दिन, महीने गुजरते गए..मैंने दिलचस्पी कम कर दी... नतीजा हुआ मेरे कई साथी अकेले हो गए तो कई मंत्री, विधायक और सांसद तक। पढ़कर आश्चर्य मत कीजिएगा। लेकिन कुछ गायब भी हो गए... इनमें से आज कौन कहां है... पता भी नहीं चलता। कई लोगों का तो फोन नंबर तक नहीं है। बात कहां से होगी और मुलाकात की बात छोड़ दीजिए। जिनका नाम है वो बड़े आदमी हो गए...सोचता हूं मैं भी एक बार फिर से शुरू कर दूं क्या????? लेकिन डर है कि शुरू से न शुरू करना पड़ा।
1996 में लोकसभा का चुनाव हुआ। जॉर्ज को चुनाव लड़ना था, लेकिन जॉर्ज को नीतीश मुजफ्फरपुर से नालंदा ले गए। मुजफ्फरपुर नेतृत्वविहीन हो गया था। जॉर्ज को मनाने के लिए पार्टी के नेता, कार्यकर्ता पटना गए। मैं पहली बार बस की छत पर बैठकर पटना गया था। शकुनी चौधरी के घर पर जॉर्ज को आना था। उस दिन नालंदा से नामांकन भरके वो लौटे थे। रात में शकुनी चौधरी के घर पर हमलोगों ने खूब हंगामा किया। एक सज्जन ने मुझे पेट्रोल का गैलन पकड़ा दिया।( तय ये हुआ था कि जॉर्ज मुजफ्फरपुर से लड़ने को राजी नहीं होंगे तो हमलोग विद्रोह करके पार्टी दफ्तर फूंक देंगे)हालांकि राजनीति में इतना कच्चा था कि पेट्रोल का गैलन थाम लिया.. थोड़ी देर बाद एहसास हुआ कि ये मैं क्या कर रहा हूं.. तो एक जगह मौके देखकर रोड पर ही गैलन छोड़ दिया। खैर....जॉर्ज तैयार नहीं हुए... कहा मुजफ्फरपुर अपना नेता चुन लें। बाद में हरेंद्र जी को टिकट मिला। हरेंद्र जी को हमलोग सर कहके बुलाते थे। हमलोग(नौजवानों की टोली) मुजफ्फरपुर की राजनीति में हरेंद्र जी
के लोग कहलाते थे। हरेंद्र जी मुजफ्फरपुर से और आनंद मोहन(जेल से) शिवहर से लोकसभा चुनाव लड़े। हरेंद्र जी हार गए। आनंद मोहन की जीत हुई। तब तक मुजफ्फरपुर की राजनीति में नेता, कार्यकर्ता, मीडिया की बीच पहचान बनने लगी थी...
आनंद मोहन से जेल में मुलाकात हुई और फिर संपर्क बहाल हुआ। तब तक मैं विश्वविद्यालय की राजनीति का फायदा उठाते हुए शिवहर जिला छात्र समता का स्वयंभू अध्यक्ष बन गया था। प्रदेश कमेटी ने मंजूरी भी दे दी। लेकिन आनंद मोहन ने भूमिहार कैसे अध्यक्ष हो सकता है शिवहर जिले का मेरा मनोनयन रद्द करवा दिया। इस वक्त मुझे राजनीति में जाति की अहमियत का एहसास हुआ। खैर कुछ दिन तक मामला चलता था। मैंने खुद को मुजफ्फरपुर की राजनीति पर केंद्रित कर दिया।
तब तक 1998 का चुनाव आ गया। हरेंद्र जी को इस बार डायरेक्ट उम्मीदवारी मिली। हमलोगों ने पूरी ताकत लगा दी। लेकिन परिणाम पक्ष में नहीं रहा। तब तक आनंद मोहन समता पार्टी से बाहर हो गये थे। आलोक भारती छात्र राजनीति से अलग हो गए। ठाकुर आलोक अब अध्यक्ष बनाये गए। ठाकुर आलोक की कमेटी में मैं प्रवक्ता बना। मीडिया के लोगों से रिश्ते बेहतर हुए।
ठाकुर आलोक ने संगठन की पूरी जिम्मेदारी मुझे सौंप दी थी। उनके हिस्से का सारा काम मैं देखने लगा था। अब मैं संगठन का उपाध्यक्ष हो गया। तब तक एक बार फिर से चुनाव की घोषणा हो गई। 1999 के लोकसभा चुनाव में हरेंद्र जी को टिकट नहीं मिला। इस वक्त समता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड का विलय हो गया था। हम लोग बिना पद के हो गये थे। कैप्टन निषाद को टिकट मिला और वो जीत गए। इस समय हमलोगों ने एक निर्दलीय उम्मीदवार का साथ दिया था। चुनाव बाद फिर जनता दल यूनाईटेड और समता पार्टी का बंटवारा हो गया। हमलोग समता पार्टी के साथ में ही थे। 2000 में बिहार विधानसभा का चुनाव होने वाला था। संगठन ने मुझे पहले कार्यकारी अध्यक्ष बनाया और एक महीने बाद विश्वविद्यालय अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंप दी। पांच साल में कोषाध्यक्ष से अध्यक्ष तक की कुर्सी तक पहुंचने में बड़ा कठिन संघर्ष करना पड़ा। तब तक पढ़ाई लिखाई भी हो रही थी। कांटी से हरेंद्र जी को विधानसभा का टिकट मिला लेकिन फिर से हमलोग हार गए। संगठन को मजबूत करने का कार्यक्रम चलता रहा। नए-नए साथी जुड़ते रहे। बहुत लोगों को सक्रिय राजनीति से जोड़ा। विश्वविद्यालय के साथ ही जिले की राजनीति में भी दिलचस्पी बढ़ती गई। चूंकी जिले के सबसे बड़े नेता का करीबी था सो जिम्मेदारी ज्यादा मिलने लगी थी। धीरे धीरे राजनीति का दायरा फैलने लगा। इस बीच कई साथी राजनीति और अपराध के गठजोड़ का शिकार हो गए। संघर्ष का दौर चलता रहा। इसी दौरान पटना में एक बड़ा कार्यक्रम था। तब भूमिपाल (विधान पार्षद है अभी) अध्यक्ष हुआ करते थे हमारे संगठन के। मेरा एक सहयोगी था.. उसने कुछ घालमेल कर दिया। उसकी महत्वकांक्षाएं हिलोरी मार रही थी। पटना वाला कार्यक्रम संपन्न हो गया। लेकिन छात्र राजनीति से मेरी दिलचस्पी कम होने लगी। एक दिन मैंने बिना किसी को बताए अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।( हमारे संगठन में तब अध्यक्ष के लिए मारपीट और ताकत का प्रदर्शन होता था) अखबारों में खबर नहीं छपी। क्योंकि इस्तीफा मैंने गोपनीय तरीके से दिया था। एक महीने बाद फिर संगठन में वही शख्स मेरा उत्तराधिकारी बना, जिसने घालमेल किया था। मैंने छात्र राजनीति से खुद को अलग कर लिया। इस दौरान मैं यूथ विंग की राजनीति में सक्रिय हो गया। हरिओम कुशवाहा उस वक्त मुजफ्फरपुर के अध्यक्ष थे। उनकी कमेटी में मैं प्रधान महासतचिव बना। जो की अध्यक्ष के बाद सबसे ताकतवर पद होता है। जिले की राजनीति में दखल बढ़ती गई। बड़े बड़े कार्यक्रम होने लगे। उस वक्त भगवान सिंह कुशवाहा बिहार युवा समता के अध्यक्ष थे।(अभी ग्रामीण विकास मंत्री हैं) भगवान सिंह से भी ट्यूनिंग ठीक हो गई। सीढ़ी दर सीढी चढ़ते चढ़ते यहां तक पहुंचा.. इस बीच कई लोगों की आंखों की किरकिरी भी बन गया था। अखबारों में विवादित खबरें छपने लगी। मुझे घरवालों ने दिल्ली भेज दिया पढ़ने के लिए, साल 2002 था। एक महीना रहने के बाद फिर मैं चला गया। छे महीने बाद फिर आया। मई 2003 में। 4 महीने रहने के बाद फिर लौट गया। इस बीच मैंने दिल्ली में बिहारी छात्रों का एक संगठन बनाया। बिहारी छात्र युवा संघर्ष मोर्चा। दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव में एबीवीपी के उम्मीदवार अनुभव सप्रा(उपाध्य़क्ष) को समर्थन दिया। हालांकि सप्रा की हार हुई, लेकिन मेरी और संगठन की पहचान कैंपस में स्थापित हो गई। उस साल रोहित शर्मा अध्यक्ष बना था और नरेंद्र टोकस उपाध्यक्ष। रागिनी सचिव बनीं थी। सिर्फ उपाध्यक्ष के लिए मेरे संगठन ने वोट मांगे थे। बाकी पदों के लिए टोकस और रागिनी को समर्थन दिया था।
इसी बीच असम में बिहारी छात्रों पर हमला हुआ था। मैं मुजफ्फरपुर गया और पप्पू यादव के संगठन के साथ मिलकर बिहार बंद का एलान किया। एक बार फिर से नए मंच के साथ बिहार की राजनीति में वापसी हो गई थी। तब तक कुछ दिनों बाद लोकसभा का चुनाव होने वाला था 2004 का। मैं अपने संगठन के साथ जनता दल यूनाईटेड में शामिल हो गया। इस बार गणेश भारती (अभी एमएलसी )को पार्टी ने मुजफ्फरपुर जिला पार्टी का अध्यक्ष बनाया। गणेश भारती की कमेटी में मुझे महासचिव बनाया गया। मतलब पार्टी की जिला स्तर की सबसे बड़ी इकाई में महासचिव का पद दिया गया। हालांकि गणेश भारती पहले हमलोगों के खेमे में ही थे... नीतीश कुमार के करीबी हैं गणेश भारती कुछ स्थनीय राजनीति को लेकर हमलोग उनके साथ नहीं थे। विवाद हुआ मैंने इस्तीफा दिया। बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके। हमारे खेमे की यही मंशा थी। तब तक चुनाव में टिकट बंटवारे का मसला सामने आया। नीतीश नालंदा से लड़ना चाहते थे। बाढ़ से उन्हें हारने का डर था। बाद में हुआ भी ऐसा ही। नीतीश नालंदा से लड़े, जॉर्ज मुजफ्फरपुर से।(नीतीश बाढ़ से हार गए)। जॉर्ज मुजफ्फरपुर से लड़ने आए तो
हरेंद्र जी को वैशाली से टिकट दे दिया।(2004 के चुनाव से पहले फिर समता पार्टी और जेडीयू का विलय हो गया था) नीतीश, शरद यादव, पासवान राजी नहीं थे। हरेंद्र जी के प्रचार में कोई नेता नहीं गया। चुनाव हरेंद्र जी हार गए। मैं अभी मुजफ्फरपुर में ही था। संगठन के फेरबदल में चंद्रभूषण राय बिहार छात्र जेडीयू के अध्यक्ष बने और मुझे उन्होंने अपनी कमेटी में तिरहुत प्रमंडल से इकलौता महासचिव बनाया। पद बड़ा था, जिम्मेदारी ज्यादा दी गई। लेकिन मैं कमेटी की पहली बैठक में जा पाता उससे पहले ही मैं इस लाइन में आ गया। लेकिन यहां आने के बाद भी राजनीति का सिलसिला थमा नहीं। अब जेडीयू की राजनीति दिल्ली से होने लगी। मुजफ्फरपुर की छात्र राजनीति में मैंने जो जगह खाली की थी उसकी जगह मैंने अपने करीबियों को स्थापित करवाया। और दिल्ली से संगठन को कंट्रोल करने लगा। मुजफ्फरपुर के अखबारों में ये बात छपने लगी कि उत्तर बिहार की छात्र राजनीति इन दिनों जेएनयू कैंपस से डील हो रही है। साल-डेढ़ साल ये डीलिंग जारी रही। दिल्ली से मैं मुंबई चला गया.. लेकिन राजनीति का सिलसिला जारी रहा। बिहार में सरकार बन चुकी थी... लोग कुर्सी हथियाने में लगे थे। सत्ताधारी दल के संगठन में पद के लिए लोग खून के प्यासे हो जाते हैं। लेकिन मुंबई से ही मैंने अपने संबंधों और प्रभाव का इस्तेमाल कर अपने करीबियों को एक बार फिर संगठन में अच्छे ओहदे पर स्थापित किया। लेकिन दिन, महीने गुजरते गए..मैंने दिलचस्पी कम कर दी... नतीजा हुआ मेरे कई साथी अकेले हो गए तो कई मंत्री, विधायक और सांसद तक। पढ़कर आश्चर्य मत कीजिएगा। लेकिन कुछ गायब भी हो गए... इनमें से आज कौन कहां है... पता भी नहीं चलता। कई लोगों का तो फोन नंबर तक नहीं है। बात कहां से होगी और मुलाकात की बात छोड़ दीजिए। जिनका नाम है वो बड़े आदमी हो गए...सोचता हूं मैं भी एक बार फिर से शुरू कर दूं क्या????? लेकिन डर है कि शुरू से न शुरू करना पड़ा।
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