Saturday, April 18, 2015

नीतीश-लालू की मजबूरी का नाम 'जनता परिवार'

कहा जाता है कि समाजवादी ज्यादा दिन तक न तो एक दूसरे से दूर रह सकते हैं और ना ही ज्यादा दिन तक साथ । नब्बे की शुरुआत में देश में एक ही जनता दल हुआ करता था । उस वक्त बीजेपी से ज्यादा उत्तर भारत में जनता दल का जनाधार  था । तमाम नेता वीपी सिंह, चंद्रशेखर, देवीलाल, शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, जॉर्ज फर्नांडिस, एसआर बोम्मई, रामकृष्ण हेगड़े, बीजू पटनायक, रामविलास पासवान एक साथ एक पार्टी में थे । लेकिन ज्यादा दिन तक इनकी एकता साथ नहीं रह सकी । 1988 में जनता दल का गठन हुआ था और साल भर बाद ही बीजेपी के सहयोग से केंद्र में वीपी सिंह के नेतृत्व में सरकार बन गई थी । लेकिन उसी बीजेपी के खिलाफ अपनी जमीन बचाने के लिए अब पुराने जनता दल के तमाम नेता एकजुट हो गए हैं ।
एक हो रहा है जनता परिवार 

1988 में जनता दल का गठन हुआ और 1990 में चंद्रशेखर के नेतृत्व में पार्टी पहली बार टूटी । नाम पड़ा समाजवादी जनता पार्टी ।  दो साल बाद मुलायम सिंह यादव समाजवादी जनता पार्टी से अलग हुए और समाजवादी पार्टी का जन्म हुआ । 1994 में जॉर्ज फर्नांडीस और नीतीश कुमार ने जनता दल से अलग होकर समता पार्टी का गठन किया । तब ओम प्रकाश चौटाला भी इन्हीं लोगों के साथ थे । कुछ दिनों बाद ओम प्रकाश चौटाला ने  समता पार्टी छोड़कर आईएनएलडी का गठन कर लिया ।
1997 में लालू यादव भी जनता दल से अलग हुए और राष्ट्रीय जनता दल का गठन किया । 1997 में बीजू पटनायक के नेतृत्व में जनता दल में एक और टूट हुआ नई पार्टी का नाम पड़ा बीजू जनता दल । 1999 में जब पार्टी टूटी तो शरद यादव के नेतृत्व में जनता दल यूनाइटेड बना और एचडी देवेगौड़ा की जो अलग पार्टी बनी उसका नाम हुआ जनता दल सेक्यूलर । इसी साल जनता दल और चक्र निशान का अंत हो गया । 1999 के लोकसभा चुनाव से पहले जनता दल यू और जॉर्ज के नेतृत्व वाली समता पार्टी का विलय हुआ था । लेकिन साल 2000 के बिहार विधानसभा चुनाव से पहले ही दोनों पार्टियां फिर से अलग हो गई ।
चक्र था चुनाव निशान 

साल 2000 में जनता दल यू में एक और विभाजन हुआ. राम विलास पासवान चार सांसदों के साथ अलग हुए और लोक जनशक्ति पार्टी बनी ।  2004 के लोकसभा चुनाव से पहले जनता दल यू और समता पार्टी का विलय हुआ । तब से नीतीश और शऱद यादव एक पार्टी में एक साथ थे । आखिरी बार जनता दल यू में विभाजन हुआ उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व में । 2013 में जेडीयू छोड़कर कुशवाहा ने राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का गठन किया । जो अभी एनडीए के साथ है । जनता परिवार की एक और पार्टी पासवान की लोक जन शक्ति पार्टी अभी एनडीए में है ।
अब जो जनता परिवार एकजुट हो रहा है । उसकी कुल ताकत लोकसभा में 15 है । इसमें मुलायम के पांच सांसद हैं और पांचों मुलायम परिवार के सदस्य हैं । लालू की पार्टी के 4, जेडीयू के 2, आईएनएलडी के 2 और देवेगौड़ा की पार्टी के दो सांसद लोकसभा में हैं ।  बिहार, यूपी में सरकार है इसलिए राज्यसभा में इनकी बड़ी ताकत है ।
बिहार में इस साल चुनाव होने हैं । इसलिए ये सब कोशिश की गई है । लालू की वजह से ही 1994 में नीतीश ने जॉर्ज के साथ समता पार्टी का गठन किया था । लेकिन पिछले साल लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद लालू और नीतीश ने हाथ मिला लिया । बिहार में नीतीश का राजनीतिक वजूद ही लालू के खिलाफ खडा हुआ था । लेकिन मजबूरी ने साथ आने को मजबूर कर दिया । बिहार में लालू और नीतीश को लोकसभा में जो वोट मिले हैं उसके जुड़ने के बाद बीजेपी गठबंधन कमजोर पड़ रहा है । यही वजह है कि नीतीश और लालू साथ खड़े हैं । मुलायम, चौटाला, देवेगौड़ा के साथ आने का असर भले ही बिहार में न दिखे लेकिन इसका आने वाले दिनों में राष्ट्रीय असर दिख सकता है ।
बिहार में लोकसभा चुनाव में एनडीए (बीजेपी 29.8, एलजेपी 6.5 , आरएलएसपी 3.1 फीसदी ) को  39 फीसदी वोट मिले थे । आरजेडी को 20.4 फीसदी वोट मिले थे । लालू का कांग्रेस से गठबंधन था और कांग्रेस को 8.3 फीसदी वोट मिले थे । करीब एक फीसदी वोट एनसीपी को भी मिला था । यानी लालू गठबंधन को तब करीब 30 फीसदी वोट मिले थे ।
जबकि नीतीश को करीब 16 फीसदी वोट मिले । अब लालू और नीतीश गठबंधन के वोट को जोड़कर देखें तो आंकड़ा  46 फीसदी हो जाता है । यानी बीजेपी गठबंधन 39 और लालू-नीतीश गठबंधन 46 फीसदी । इस गठबंधन के एक हो जाने के बाद मुस्लिम वोटों के भी बंटने का खतरा खत्म हो जाता है । यही वजह है कि नीतीश ने पार्टी को एक करने में पूरी ताकत लगा दी ।
2010 के विधानसभा चुनाव में जब बीजेपी और जेडीयू का गठबंधन था तब 243 में से जेडीयू को 115 और बीजेपी को 91 सीटें मिली थीं । लालू तब 22 पर ही रह गये थे और पासवान को 3 सीटें ही मिल पाई थी । कांग्रेस को 4 निर्दलीय सहित अन्य को 8 सीटें मिली थी ।
उस वक्त के वोटों के गणित को समझें तो 15 फीसदी सवर्ण वोट के साथ 11 फीसदी कुर्मी कोइरी, करीब 10-12 फीसदी दलित वोट और 10 फीसदी से ज्यादा वैश्य-पिछड़ा वोट बीजेपी-जेडीयू गठबंधन को मिला था । पिछड़े मुस्लिमों के वोट भी उस साल इस गठबंधन के खाते में आया था । लेकिन इस बार समीकरण बदल गये हैं । सवर्ण वोट सिर्फ बीजेपी के पास है । तो कुर्मी और कोइरी अलग अलग हो चुके हैं । वैश्य वोट बीजेपी के पास रहेगा तो पिछड़े वोट बैंक में दोनों गठबंधन का दखल रहेगा ।
असली मारामारी दलित वोट के लिए है। जीतन राम मांझी अपना खेमा लेकर अलग खड़े हैं तो राम विलास पासवान इस बार बीजेपी के साथ हैं । 15 फीसदी दलित वोट पर बीजेपी की भी नजर है और लालू-नीतीश की भी । कुल मिलाकर एक तस्वीर जो साफ है वो ये कि बिहार में नीतीश का कद का कोई नेता नहीं है । नीतीश निर्विवाद रूप से तमाम पार्टियों में सबसे बड़े और सबसे साफ छवि के नेता हैं । यही वजह है कि लालू से नीतीश की दोस्ती के बाद भी नीतीश की छवि में ज्यादा फर्क पड़ता नहीं दिख रहा है ।
चुनाव से ठीक पहले नीतीश ने मांझी को भले ही जिस किसी भी कारण से हटाया हो लेकिन नीतीश के आने से विकास की पटरी पर लोग बिहार के बढने की उम्मीद करने लगे हैं । चुनाव में इसका फायदा नीतीश को जरूर होगा । बीजेपी के साथ नुकसान वाली बात ये है कि उनके पास बहुत से नेता हैं । कई गुट हैं । सब की अपनी अपनी महत्वकांक्षा है । लोकसभा चुनाव के बाद हुए विधानसभा उप चुनाव में बहुत कुछ साफ दिख गया था । इसलिए जनता परिवार का पुनर्जन्म बिहार में बीजेपी के लिए भारी पड़ने वाला है । लेकिन जिस तरह से नाम, निशान और झंडे को लेकर आम सहमति नहीं बन पा रही है उससे कई सवाल खड़े हो रहे हैं। नई बेनामी पार्टी के अध्यक्ष चुने गए मुलायम सिंह यादव की पार्टी में विलय को लेकर एक राय नहीं दिख रहा है। इसिलिए ये सवाल है कि ये जनता परिवार कब तक साथ रह पाएगा कह पाना मुश्किल है ।

#जनतादल#लालू#नीतीश#मुलायम#जनतापरिवार#बिहार#janta#lalu#nitish#bihar